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Thursday, September 10, 2015

दोनों बाजू कट गये पर हौसला तो देखिए/हवाओं के शहर में हम चराग़ जलवाने गये


दोनों बाजू कट गये पर हौसला तो देखिए/हवाओं के शहर में हम चराग़ जलवाने गये

दोनों बाजू कट गये पर हौसला तो देखिए/हवाओं के शहर में हम चराग़ जलवाने गये

यार भी, उस्ताद भी गिर्दा

गिर्दा का आज जन्मदिन है

(पांच साल पहले हमसे बिछड़े गिर्दा का आज जन्मदिन है। वे उत्तराखंड से थे, रचना और संघर्ष के बहुत बड़े सिपहसालार थे। अपने गिर्दा को इस आलेख के ज़रिये याद कर रहा हूं;)

वहमेरे लड़कपन का दौर था और सर पर रंगमंच का बुख़ार सवार था। इधर ना उधर, बस नाटक और केवल नाटक। कुल इतनी सी समझ थी कि नाटक तो नाटक होता है, लोगों के मनोरंजन के लिए होता है। सो, हल्की-फुल्की कामेडी की तलाश हमेशा बनी रहती थी। चाहत थी कि मैं भी कलाकारों की क़तार में गिना-पहचाना जाऊं। कोई मेरी लगन या कलाकारी की तारीफ़ करता तो गदगद हो जाता। पिताजी पत्रकार थे और वामपंथी भी। क़तई टोकाटाकी नहीं करते थे, उल्टे मेरी दीवानगी की इज़्ज़त करते थे। एक दिन उन्होंने बताया कि पहाड़ से अनूठा कलाकार लखनऊ आया हुआ है। मुझे उससे मिलना चाहिए, उसे सुनना चाहिए। तब रवींद्रालय का जल्वा हुआ करता था जहां आये-दिन नाटक होते रहते थे। लेकिन यह जान कर मुझे अजीब लगा कि वह कलाकार अमीनाबाद में अपना कार्यक्रम पेश करेगा और वह भी चौराहे पर। बात पची नहीं तो भी उत्सुकतावश पहुंच गया, पिता का कहा भी मानना था।

अमीनाबाद शहर का पुराना बाज़ार है। तब वहां आज जैसा भीड़भड़क्का और शोरशराबा नहीं हुआ करता था। थोड़ा इंतज़ार के बाद जब चौराहे के कोने पर मजमा जमने लगा तो वह कलाकार सामने आया— पैंट, कुर्ता और सदरी में, कंधे से लटकता झोला और हाथ में हुड़का। हुड़के की थाप पर हौले-हौले झूमते हुए, अपने हाथों को हवा में लहराते हुए और गले पर अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए वह बुलंद आवाज़ में गाने लगा– कहिए कि सुननेवालों की सुधबुध छीनने लगा, अपनी लयकारी और हावभाव के तालमेल से लफ़्ज़ों के नये मायने गढ़ने लगा, उसे और-और गाढ़ा करने लगा। राह चलते लोगों के पैर भी थमते गये। सब उसके संग थिरकने लगे गोया कि उसके गीत कोई जादू की छड़ी हों।

गिर्दासे यह मेरा पहला परिचय था और उनके बहाने जन गीतों और उसकी ताक़त से भी। अफ़सोस कि गिर्दा से मिलने का मौक़ा कम मिला लेकिन जितना भी मिला, गिर्दा का मुरीद हो जाने को बहुत था। गिर्दा को याद करता हूं तो जिगर मुरादाबादी का यह शेर ताज़ा हो जाता है कि दुनिया में लोग बहुत मिलते हैं/ दिल मगर कम किसी से मिलते हैं।

वह 22 अगस्त 2010 का मनहूस दिन था जब गिर्दा ने दुनिया को अलविदा कह दिया। यह ख़बर मिली तो लगा जैसे बजते हुए किसी गीत की कड़ी अचानक टूट गयी हो। यादों में फ़िल्म की रील की तरह चलने लगे गिर्दा— सादगी, मासूमियत और मोहब्बत से लबरेज़ गिर्दा; बीड़ी फूंकते, बच्चों की तरह खिलखिलाते और हरेक से दोस्तों की तरह मिलते गिर्दा; आम आदमी के हक में बांसुरी की तरह बजते, गंगा की तरह बहते गिर्दा; ज़ालिम के ख़िलाफ़ नगाड़ों की तरह चीख़ते, शेर की तरह ग़ुर्राते और हमला बोलते गिर्दा। डूब कर, झूम कर गाते हुए गिर्दा- वे गीत जो हर गाढ़े वक़्त में, जंग के मैदान और ख़ुशियाली के आंगन में हमारे साथ रहेंगे- नाउम्मीदी के कुहासों को चीरते हुए, हमें जगाते हुए, हिम्मत और हौसलों की तरंग भरते हुए, उम्मीद के दिये की लौ तेज करते हुए, अपने गीतों की कंकड़ियों से ठहराव के तालाब में हलचल मचाते हुए…।

गिर्दा का यह मशहूर गीत उनके आशावाद की ऊंचाइयों की एक अदद मिसाल था कि- ओ जैंता, इक दिन न त आलौ/ऊ दिन य दुनी में/ जै दिन कठुली रात ब्याली/प फटेंल, क कंडेल/ हमनी होला ऊ दिन/हमले ऊ दिन होला/ओ जैंता, इक दिन न त आलौ….। भावार्थ यह कि इस दुनिया में ऐसा दिन ज़रुर आयेगा जब अंधेरी रात विदा होगी और नया सवेरा दस्तक देगा। तब हम भले ही न होंगे लेकिन इक दिन तो ऐसा आयेगा।

जैसा कि सुना, ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों में बेसुध पड़े गिर्दा ना जाने क्या बुदबुदा रहे थे। क्या पता कि दुख और चिंता में डूबे अपने चहेतों को यही भरोसा दिलाना चाह रहे हों। या कि उखड़ती सांसों के दरम्यान अपने उस गीत को गुनगुनाने की कोशिश कर रहे हों जिसने उन्हें रातों-रात बुलंदियों के आसमान का सितारा बना दिया- आज हिमाल तुमन कैं धत्यूंछो, जागो-जागो हो मेरो लाल/नी कर करी दी हालो हमरी निलामी, नी कर करी दी हालो हमरो हलाल। (आज हिमालय तुम्हें पुकार रहा है, जागो-जागो ओ मेरे लाल/नहीं होने दो हमारी नीलामी, नहीं होने दो हमारा हलाल) जो भी हो, अगले दिन श्मशान की ओर कूच करते हुए गिर्दा को उनके ऐसे ही तमाम यादगार गीतों से आख़िरी सलामी मिली।

गिर्दा जो कहते-गुनते थे, उसे जीते भी थे। कहीं कोई दिखावट नहीं, कथनी-करनी में कोई अंतर नहीं, खुली क़िताब। गिर्दा की यही सबसे बड़ी ख़ासियत और पहचान थी। शव यात्रा में सैकड़ों लोगों की मौजूदगी ने भी उनकी लोकप्रियता की बेमिसाल गवाही दी। इसमें हर पेशे और तबक़े के लोग शामिल थे- उन राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि भी जिनके विचार और तरीक़ों के साथ गिर्दा का छत्तीस का आंकड़ा था। अंतिम यात्रा में आम तौर पर महिलाएं हिस्सा नहीं लेतीं लेकिन यहां इस प्रचलित रिवाज़ को तोड़ते हुए बड़ी संख्या में महिलाओं ने श्मशान तक का रास्ता न केवल पूरा किया बल्कि उनके शव को कांधा भी दिया। इस क़दर सबकी आंख के तारे थे गिर्दा। कौन कहता है कि गिर्दा चले गये। गिर्दा तो हमारे पास हैं, हमेशा पास रहेंगे। उनका तो केवल शरीर राख में बदला।

गिर्दा को याद करते हुए इक शेर अर्ज़ करना चाहूंगा कि 'दोनों बाजू कट गये पर हौसला तो देखिए/हवाओं के शहर में हम चराग़ जलवाने गये।' कुछ ऐसे ही मतवाले थे हमारे गिर्दा। उल्टे हालात को लेकर बेचैनी और उसे पलटने की पगलायी ज़िद ने ही गिरीश तिवारी को गिर्दा बनाया था। यह 1977 की बात है। नैनीताल में वनों की नीलामी होनी थी और उसे रोकने के तमाम रास्ते बंद हो चुके थे। लेकिन गिर्दा कहां हार माननेवाले थे। अगले दिन नीलामी होनी थी और वह मुठ्ठी भर नौजवानों के साथ उसे रोकने का उपाय सोच रहे थे। उसी उधेड़बुन में गिर्दा के दिमाग़ में गौरी दत्त पांडे 'गौर्दा' का 1926 में लिखा कुमाऊंनी गीत 'वृक्षन को विलाप' गूंजने लगा और बस, इस गीत को ताजा सवालों से जोड़ कर उसे नया बनाये जाने का विचार उनके दिमाग में कौंधा। और आख़िरकार, 27 नवंबर की उस रात गिर्दा के इस मशहूर गीत की पैदाइश हुई और जिसने अगले दिन कमाल कर दिखाया। यह गीत प्रतिरोध का इतना मज़बूत, धारदार और अचूक हथियार साबित हुआ कि उसके सामने जंगलों की नीलामी के फ़ैसले ने घुटने टेक दिये। यह गिर्दा के गीत की जीत थी। इसके बाद तो यह गीत उत्तराखंड के तमाम जन आंदोलनों का ज़रूरी हिस्सा बन गया।

इस गीत से ही गिर्दा जन कवि के बतौर उभरे और छा गये।

10 सितंबर 1945 को अल्मोड़ा के ज्यौली गांव में जन्मे गिर्दा सतरंगी शख़्सियत के मालिक़ थे- जन कवि, गायक, संगीतकार, नाटककार, अभिनेता, नाट्य निर्देशक और आंदोलनकारी थे। उनकी रचनाएं समूहगान में बदल जाया करती थीं, जन आंदोलनों का जैसे बैनर और आक्सीजन हो जाया करती थीं। उन्होंने फ़ैज़, साहिर और ग़ालिब जैसे शायरों की जन पक्षधर और क्रांतिकारी रचनाओं का सरलीकरण करने, उसे कुमाऊंनी में ढालने और लोक धुनों से सजाने का अनोखा प्रयोग किया और उसे यादगार बना दिया— मसलन, हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे…., क्यों मेरा दिल दिल शाद नहीं है…., कौन आज़ाद हुआ….।

प्रतिरोध की संस्कृतिके मैदान में गिर्दा उत्तराखंड के बहुत बड़े सिपहसालार थे। वे आम लोगों, उनकी चाहतों, सुख-दुख, सपनों और संघर्षों के बेमिसाल नुमांइदे थे। वे जन संस्कृति के ऐसे नायक थे जिसके लिए संघर्ष होली जैसी मस्ती में डूबने का नाम था। साहित्य, कला, संस्कृति और जन आंदोलनों में उनका क़द हिमालय से कम ऊंचा नहीं था। लेकिन वे एवरेस्ट नहीं थे—सहज, सरल और सर्वसुलभ थे; रहन-सहन और अंदाज में बेहद मामूली थे; बड़प्पन नाम के टोटकों से बहुत दूर, खुले-खुले से थे… हमेशा ताज़ादम।

यह जनवरी 2008 की बात है। बीमारी से जूझ रहे गिर्दा इलाज के सिलसिले में लखनऊ आये हुए थे। यह ख़बर आर्ट्स कालेज के मित्रों को भी लगी। प्रस्ताव आया कि क्यों ना गिर्दा को कालेज बुलाया जाये। मैंने सकुचाते हुए यह बात रखी लेकिन गिर्दा ने उतनी ही गर्मजोशी के साथ कालेज आने का न्यौता फ़ौरन क़बूल कर लिया। कालेज के हाल में छात्र और शिक्षक जमा हुए। गीत और कविताओं के साथ गिर्दा कोई पौन घंटा बोले। बीच में बिजली गुल हुई तो बिना माइक के बोले। लोग उन्हें मंत्रमुग्ध सुनते रहे। ख़ूब तालियां बजी और ठहाके भी लगे। यह गिर्दा का जादू था जो किसी भी जमात को बांध लेने की ताक़त रखता था। उन दिनों उन्हें सांस लेने में ख़ासी तक़लीफ़ होती थी लेकिन यह कमज़ोरी मंच पर कहीं से उजागर नहीं हुई। कार्यक्रम के फ़ौरन बाद उन्होंने मुझसे पूछा- ठीक रहा? दम अभी बाक़ी है न? मेरा जवाब था- पूरा का पूरा। हालांकि मैं ख़ुद से सवाल कर रहा था- क्या इतना दम है तुममें। वे आवाज़ की बात कर रहे थे और मैं उनके अंदाज़े बयां पर फ़िदा था, कि उनका तो पूरा बदन बोलता है साहब।

नहीं पता था कि यह गिर्दा से मेरी आख़िरी मुलाक़ात होगी। वरना तो गिर्दा से अभी बहुत कुछ सीखना बाक़ी था। उस रोज़ मैंने गिर्दा को पहली बार कैमरे में क़ैद किया। पता नहीं कि इसका ख़्याल क्यों आया। लेकिन ख़ैर, वे चंद तस्वीरें गिर्दा से मेरी आख़िरी मुलाक़ात की धड़कन हैं।

हैरत होती है कि गिर्दा कितनी पैनी निगाह रखते थे। इस व्योपारी को प्यास बहुत है… गिर्दा ने तब लिखा जब उदारीकरण और निजीकरण उर्फ़ लूट के खगोलीकरण के अंधड़ का नगाड़ा सात परदों के पीछे बहुत ख़ामोशी के साथ तैयार हो रहा था। अंदाज़ा नहीं था कि जिस देश में प्यासे को पानी पिलाना सबसे बड़ा पुण्य माना जाता है, वहां कभी बोतलबंद पानी भी बिकेगा। लेकिन गिर्दा ने मुनाफ़े के लुटेरों की बेलगाम प्यास को और उसके आगामी ख़तरों को पहचाना, उन्हें धिक्कारा और ललकारा, और पानी के बहाने तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर आम नागरिकों की दावेदारी का दम ठोंका। तूफ़ान आने से बहुत पहले उसकी गड़गड़ाहट भांप लेने की क्षमता बिरलों में होती है। कैसा हो स्कूल हमारा… गिर्दा की संवेदनशीलता का विस्तार है, और जो दरअसल, अपनी बाल सुलभ बुनावट में बच्चों की चाहतों का दस्तावेज़ है, स्कूल के बहाने बच्चों के अधिकारों की पुरज़ोर पैरवी है।

गिर्दा के रचनात्मक जीवन की शुरुआत कवि सम्मेलनों से हुई थी। तब वे गिरीश तिवारी ज़्यादा थे। उनकी इस तस्वीर से मैं अपरिचित रहा जब लिबास, अंदाज़ और मिजाज़ में वह बाक़ायदा शायराना औरा नफ़ीस हुआ करते थे- अलीगढ़ी पायजामे, काली शेरवानी, टोपी और क़रीने से तराशी हुई दाढ़ी में दिखते थे। दर्द और टीस की कविताई करते थे। लेकिन आम लोगों की जिंदगी और उसकी दुश्वारियों से जुड़ते हुए उन्होंने फ़ैज की तरह जाना कि 'और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा/राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा' और साहिर की तरह समझा कि 'बहुत मुश्क़िल है दुनिया का संवरना/तेरी ज़ुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है।' उन्होंने यह भी महसूस किया कि अपनी बात कहने का सबसे ताक़तवर माध्यम तो लोक गीत हैं। और बस मंचीय कविता से उनका भरम और रिश्ता टूट गया। कविता के बाज़ारु मंच पर जमते पैरों का मोह छोड़ गिर्दा आख़िरकार निजता और रुमानियत की तंग गलियों से बाहर निकले और जन सरोकारों के हाइवे पर आ गये, मील का पत्थर हो गये।

नैनीताल अंग्रेज़ों का बसाया ख़ूबसूरत और दिलकश शहर है, पर्यटकों के लिए स्वर्ग। इसलिए कि वहां नैनीताल है- नयन के आकार की झील। यह बात अलग है कि झील का किनारा ग़ुलामी के दौर का ज़िंदा निशान भी है। यहां दो सड़क है, एक नीची और दूसरी ऊंची। नीची सड़क कभी भारतीयों के नाम थी जबकि ऊंची सड़क, ज़ाहिर है कि अंग्रेज़ बहादुरों के नाम आरक्षित थी। आज़ादी के बाद यह दस्तूर बदलना था, सो बदल गया। नीची सड़क पर अब पर्यटकों को पीठ पर लादे घोड़े दौड़ते हैं। सही है कि देश की आज़ादी का फल आबादी के बड़े हिस्से की झोली में नहीं गिरा लेकिन यह भी सही है कि कम से कम ग़ुलामी की वैसी दीवारें आज नहीं हैं। लेकिन जब पहली बार नैनीताल गया था तो वहां ग़ुलाम प्रथा जैसा मंज़र ज़रुर देखा था। देखा था कि अपनी पीठ पर खच्चर की तरह बोझा लादे नेपाली मज़दूर किस तरह संकरे-ख़तरनाक रास्तों से गुज़रते हैं- सर्द हवाओं के बीच मेहनत के पसीने से लथपथ, गंदे और चीथड़े हो चुके कपड़ों में लिपटे हुए। यह भी सुना कि वे अपने सामान के साथ पत्थरों को भी लाद लिया करते हैं और जब पैर जवाब देने लगते हैं तो पत्थर उतार देते हैं; कि यह ख़ुद को बहलाने की तरक़ीब है कि चलो, बोझा थोड़ा कम हो गया। तब उनकी मेहनत का सौदा करते हिंदुस्तानी चेहरे मुझे पूरे अंग्रेज़ नज़र आये। यह आज़ाद भारत में उस ग़ुलामी को देखना था जहां ग़ुलाम मुठ्ठी भर हैं और उनके रहने-सुस्ताने की जगहें तय हैं, वे झुंड में हैं तो कचरे की तरह, किसी कोने में सिमटे हुए। उनकी सुध लेनेवाला कहीं कोई नहीं।

लेकिन नैनीताल में जब पहली बार गिर्दा से मल्ली ताल में नाले पर बनी किराये की उनकी कोठरी में मिला तो पता चला कि मैं कितना ग़लत था। कोठरी में सब कुछ तितर-बितर सा था और जो तीखे धुएं की गमक से भरी हुई थी। वहां मोटी-लंबी चिलम में देसी तंबाकू फूंकते नेपाली मज़दूरों का जमावड़ा था। जिन्हें मैंने अब तक हाड़मांस का चलता-फिरता पुतला समझा था, वे यहां चहक रहे थे और अपने ज़िंदा होने का सबूत पेश कर रहे थे। प्रवासी नेपाली मज़दूरों के लिए आज़ादी के इस नन्हें से जज़ीरे को गिर्दा ने बनाया था जहां कोई ख़ास नहीं था, कोई ऊंचनीच नहीं थी। कह सकते हैं कि यह गिर्दा के अघोरपन का दौर था। चाहें तो इसे पानी में शक्कर की तरह हिक़ारत की शिकार उस जमात के साथ उनके घुलमिल जाने और ख़ुद को भूल जाने की हद दर्ज़े की दीवानगी का नाम दें जो ज़रुरत पड़ने पर समाज के लिए केवल भाड़े का टट्टू है वरना फ़ालतू है, जो सबसे नीचे है, बेआवाज़ है और जिसकी हैसियत दो कौड़ी की है। गिर्दा ने हाशिये से बाहर ढकेले गये दुखियारों से दोस्ती गांठी और अपने इर्द-गिर्द शंकर की वह बारात तैयार की जिनके बीच उन्हें पहचान पाना आसान नहीं था। माओ ने अपने कैडरों से भी कुछ ऐसा ही तो चाहा था कि जनता के बीच घुलमिल जाओ।

बहरहाल,इसे गिर्दा की ज़ुर्रत भी कहा जाना चाहिए। देश के दूसरे तमाम हिस्सों की तरह उत्तराखंड में भी ब्राह्मणवाद का सिक्का चलता है, और जो बाहरी प्रभावों के बावजूद गहरी बुनियादवाली और सदियों से जमी ऊंचनीच की पुरानी दीवारें थामे हुए है। पददलितों के साथ गिर्दा का याराना इस दीवार की इबारतों को ख़ारिज करने और ढहा देने की चाहत का खुला और बेधड़क इज़हार भी था। अंदाज़ लगाया जा सकता है कि यह उल्टी गंगा बहाना गिर्दा के लिए कितना दबावों से गुज़रना रहा होगा, आख़िर वह ब्राह्मण परिवार से जो थे। लेकिन नहीं, गिर्दा तो इंसानी रिश्तों की मीठी-सुरीली गरमाहट के हरकारा, आज़ादी और इंसाफ़ के चौकीदार थे, बदलाव के परचम के अलमबरदार थे— नाइंसाफ़ी पर टिकी और उलटबांसियों से सनी ग़ैर इंसानी रवायतों को कबीर की तरह खरी-खोटी सुनाते हुए, उसकी लक्ष्मण रेखाओं से बग़ावत करते हुए, फक्कड़ई को गले लगाते और खुद अपना घर फूंकते हुए।

लेकिन हां, बाद में गिर्दा ने अपना घर भी बसाया। तब मैं उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के बुलावे पर अपनी कलाकार मंडली के साथ पहाड़ के लंबे दौरे पर था और अल्मोड़ा में था। वहीं यह ख़ुशख़बरी मिली कि गिर्दा अब दुकेले हो चुके हैं। इसका जश्न मनाने लोग सेवाय होटल के लान में जुटे और जिसमें हम भी शामिल थे। वहां कुर्सियों का गोल घेरा बना, गीत-संगीत का दौर चला और हमने अपना नुक्कड़ नाटक 'जनता पागल हो गयी है' पेश किया। आख़ीर में गिर्दा ने भी गीत गाये और मैंने पहली बार उत्तराखंड की देसी मिठाई सिंगोड़ी का स्वाद चखा। एकदम सादे इस आयोजन के दौरान किशोर उम्र का पिरम पूरे उत्साह के साथ स्वागत-सत्कार में जुटा रहा। और क्यों न जुटा रहता? गिर्दा आखिर उसके बब्बा थे, और उसके बब्बा को घरवाली मिल गयी थी और उसे भी तो अपनी ईजा‍। जब वह नन्हा सा था, उसकी मां चल बसी थी। उसकी देखरेख करने वाला कोई नहीं था। पिता उसे गिर्दा के हवाले कर जंगल में लकड़ी काटने के काम पर निकल जाया करता था। धीरे-धीरे उस बच्चे से गिर्दा को प्यार हो गया। इतना कि गिर्दा ने उसे अपने कलेजे का टुकड़ा बना लिया और उसके बब्बा हो गये। विवाह के बाद गिर्दा एक बार फिर बाप बने जब हीरा भाभी ने तुहिन को जन्म दिया। पिरम भी दाजू हो गया। तो यह कहना सही नहीं होगा कि गिर्दा अपने पीछे पत्नी समेत एक बेटा छोड़ गये। यह तो पिरम पर उड़ेले गये गिर्दा के बेपनाह लाड़-दुलार की तौहीन करना होगा।

यह कहना भी सही नहीं होगा कि विवाह से गिर्दा की ज़िंदगी पटरी पर आयी। गिर्दा पटरी से उतरे ही कब थे? कवि सम्मेलनों के मंच से ऊबने-उतरने के बाद उन्होंने जो नयी पटरी पकड़ी, उस पर पूरी उम्र वे जन स्वरों की धड़धड़ाती रेल चलाते रहे। विवाह उनके लिए कोई खूंटा या दुनियावी झंझटों का जाल नहीं था। यह कहना ज़रुर सही है कि उन्होंने वैवाहिक जीवन की सरगम को भी बखूबी साधा- कभी हीरा भाभी को अपने मिजाज़ में ढालते हुए और कभी खुद भी उनके मिजाज़ में ढलते हुए।

गिर्दा ने ज़ुबान को सीना नहीं सीखा। मरघटी सन्नाटों को तोड़ने और ज़्यादतियों के शोर को चीरने में यक़ीन किया।

आपात काल के दहशत भरे दौर में जब ज़ुबान खोलना मुसीबतों को न्यौता देना हुआ करता था, गिर्दा अपने सांस्कृतिक साज़ो-सामान के साथ मोर्चे पर तैनात थे और तब भी, जब इतिहास के उस काले पन्ने के पलट जाने के बाद जनता दली शासन में अराजकता का नया अध्याय खुला। नशा नहीं, रोजगार दो आंदोलन हो या गंगा बचाओ आंदोलन, गिर्दा की मुस्तैदी देखने लायक़ होती थी। जैसा कि लोग बयान करते हैं, अलग उत्तराखंड के आंदोलन में उनकी रचनात्मक छटपटाहट अपने शिखर पर थी। उस दौरान वे रोज़ हिंदी और कुमाऊंनी में एक छंद लिखते थे और जो हस्तलिखित 'नैनीताल समाचार' का खास आकर्षण हुआ करता था। लेकिन गिर्दा के लिए इतना ही काफी नहीं था। इधर अखबार आता और उधर उसका सस्वर सार्वजनिक पाठ भी होता था। इन रचनाओं ने आंदोलन की आग में घी डालने, उसे हवा देने और उसे मुकाम पर पहुंचाने की बड़ी भूमिका अदा की और जिसे 'उत्तराखंड काव्य' नाम से शोहरत मिली।

संगीतजैसे गिर्दा के पूरे बदन में रमता था, लोक धड़कन से लबालब सतरंगी दिल, मेहनतकश दुखियारों की बेहतरी के सपनों से सजी निगाहें। वह हरफ़न मौला थे। कुछ बरस पहले दिल्ली में पिरम के घर वीडियो फ़ुटेज में देखा था कि शेखर पाठक से हुई बातचीत में गिर्दा होली के समय कुमायूं में क्या कुछ होता है और कैसे, उसका रेशा-रेशा बयान कर रहे हैं और मैं दंग था कि होली के माहौल की तस्वीर खींचती इतनी महीन जानकारी और वो भी उसी रस में भीगते हुए, और कमाल की याददाश्त भी तो? गिर्दा उत्तराखंड के इतिहास, समाज और उसकी संस्कृति के विद्वान थे।

लेकिन हां, गिर्दा ने केवल बारहवें दर्ज़े तक की पढ़ाई की। असली पढ़ाई उन्होंने जीवन और समाज के विश्वविद्यालय में और तरक़्क़ीपसंदों की सोहबत में पूरी की। उनकी सबसे बड़ी जमा पूंजी यही थी। उर्दू का ज्ञान उन्होंने स्वाध्याय से हासिल किया और उस पर ऐसी पकड़ बनायी कि उर्दूदां फक्क रह गये। गिर्दा ने आजीविका के लिए रिक्शा भी चलाया। बाद में भारत सरकार के गीत और नाटक प्रभाग में नौकरी भी की लेकिन पहाड़ की पुकार उन्हें नौकरी छोड़ वापस उत्तराखंड ले कर चली गयी।

उर्दू शायरी के ख़ुदा मीर साहब ने कहा था- 'बड़ा ख़ुदासाज़ था आजर वो बुततराश/हम अपने तईं इक इंसां तो बनायें।' (इस्लाम आने से पहले अरब में मूर्ति पूजा होती थी और आज़र ख़ुदा को गढ़नेवाला बेमिसाल मूर्तिकार माना जाता था) गिर्दा ने अपने व्यवहार, आचरण और रचनाधर्मिता से इस नसीहत पर ताउम्र अमल किया। बेहतर इंसान ही किसी को बेहतर इंसान बना सकता है और इसलिए गिर्दा सबसे पहले ख़ुद को बेहतरीन इंसान की कसौटियों पर कसते रहे, बिना थके लगातार। और यही वज़ह थी कि जो भी उनसे मिलता, उनका मुरीद हो जाता। किसी के लिए भी उनसे मिलना, ताज़ादम हो जाना हुआ करता था। दुनिया को नयी नज़र से देखने के लिए वे लोगों को उकसाने का काम करते थे। लेकिन गिर्दा भाषण नहीं पिलाते थे, प्रवचन नहीं करते थे। अपने जुझारु तेवरों और प्रयोगों से बिन कहे यह पैग़ाम पहुंचाते थे कि अपने लिए तो सब जी लेते हैं, मज़ा तो तब है कि दूसरों के लिए भी जिया जाये; कि बने-बनाये रास्ते पर तो सब चल लेते हैं, कमाल तो यह है कि अपनी पगडंडी ख़ुद बनायी जाये।

गिर्दा से मिलते-बतियाते हुए मैंने इसके मर्म और महत्व को समझा। यह मेरे लिए गर्व की बात है कि गिर्दा मुझे जानते-मानते थे, मेरे बड़े भाई थे और उससे पहले मेरे अच्छे दोस्त थे। इस पर इतराने को जी करता है लेकिन देखता हूं कि यहां तो मेरे जैसे लोगों की भीड़ खड़ी है!

आदियोग

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आदियोग, लेखक जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार हैं।
गिर्दा

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