भगवा हो गया इंद्रधनुष भी
यूं कि लहू भी अब भगवा!
जिनका खून अभी न हुआ हो भगवा,उन्हें इस मुल्क में रहने की भी इजाजत नहीं!
न उनके लिए इस मुल्क में बने रहने की कोई गुंजाइश है,जिनकी रीढ़ हो मुकम्मल और लब भी जिनके सिले हुए न हों!
पलाश विश्वास
हूं वही उल्लू या उल्लू का पट्ठा,जो भी कह लीजिये!
हमें उत्तुंग तुषार धवल हिमाद्रि शिखरों से सारा देश,सारी पृथ्वी देखने की आदत है और हमारे लिए सारे मैदान सपाट हैं,जहां न कोई दीवारें हैं,न अस्मिताएं हैं,न सरहदें हैं।
हम शरणार्थी हैं भी तो कुमायूंनी शरणार्थी हैं।
हम बंगाली हैं तो भी न आवासी हैं,न आभासी हैं और न प्रवासी हैं।जैसा कि महाश्वेता देवी ने बहुत पहले ही हमें दाग दिया है,हम वही कुमायूंनी बंगाली है।
दिव्यदृष्टि है हमारी ही आंखों में जैसे संजय की आंखें थीं और हम 127 करोड़ धृतराष्ट्र आत्माओं को महाभारतीय कुरुक्षेत्र का आंखों देखा हाल बता रहे हैं।
पिता हमारे अर्जुन भले ही न हों,न हम द्वापर में हुए,लेकिन मां के गर्भ से हमने भी चक्रव्यूह में घुसना जाना है और अबकी दफा उसे तहस नहस करना भी सीख लिया है।
निशःस्त्र हूं अभिमन्यु की तरह और रथी महारथी से घिरा भी हूं और अकेला भी हूं कि कहीं किसी तक मेरी पुकार पहुंच ही नहीं रही है-फिरभी हारा भी नहीं हूं युद्ध अभी।
दरअसल कोई चक्रव्यूह निर्णायक युद्ध होता ही नहीं है।
युद्ध हो या गृहयुद्ध या महायुद्ध- चक्रव्यूह का सिलसिला अनंत है और उसे भेदने, तहस नहस करते रहने की चुनौतियां भी पल छिन पल छिन जीना होता है।
यही मुक्त बाजार का सच भी है।
मुक्त बाजार का असल सच फिर वही है किः
भगवा हो गया इंद्रधनुष भी
यूं कि लहू भी अब भगवा!
जिनका खून अभी न हुआ हो भगवा,उन्हें इस मुल्क में रहने की भी इजाजत नहीं!
न उनके लिए इस मुल्क में बने रहने की कोई गुंजाइश है,जिनकी रीढ़ हो मकम्मल और लब भी जिनके सिले हुए न हों!
हत्यारे घात लगाये बैठे हैं हर कहीं और जरुरी नहीं कि उन्हें मालूम भी हो कि हत्यारे वे हाथ नहीं होते जिसने बंदूक पकड़ी हो बम फोड़ा हो,असल हत्यारा वह दिमाग है,जिसने उसे हत्यारा बना दिया है।
न हत्यारे को मालूम होता है और न किसी और को,कानून और व्यवस्था को क्या,चश्मदीद गवाहों तक को भी मालूम नहीं होता कि असल हत्यारा कौन हुआ।
उस हत्यारे का चेहरा सबसे पवित्र होता है।
वह कभी कटघरे में होता नहीं है।
कत्लेआम करवा लें वह कितना ही बड़ा,हर मां का गर्भ चीरकर ब्च्चे को जिंदा आग में झोंक दें या हर शहर हर गली में खास पहचान के लोगों का होलिका दहन करा दें या गैसलीक करवा दें या फिजां को रेडियो एक्टिव बना दें या जिंदा मुल्क का टुकड़ा टुकडा़,बोटी बोटी काटकर बिकवा दें,उसका अपराध हमारा मजहब है।
हकीकत यही है लेकिन उसकी सियासत भी मुक्त बाजार है।
हकीकत यही है लेकिन उसका मजहब भी मुक्त बाजार है।
जनता सियासत से भी बेदखल है उसीतरह जैसे जनता मजहब से बेदखल है और अमन चैन लापता है कि कारोबार नफरत है।
यह मुक्त बाजार कटकटेला अंधियारा है और सबसे बड़ा हत्यारा तेजबत्ती वाला बुलेट मिसाइली रेडियोएक्टिव जीएम बायोमेट्रिक रोबोटिक क्लोनिंग की तरक्की वाला डिजिटल सौदागर।
शेयर बाजार के सांढ़ और घोड़े तमाम उसीकी खिदमत में अश्वमेध अभियान में लगे हैं और मृत्यु उत्सव का खुल्ला खेल फर्रूखाबादी है।पूरा मुल्क अब सेनसेक्स है और सियासत से लेकर मजहब तक क्या क्या नहीं है,हम बयां भी नहीं कर सकते,ऐसा फ्री सेक्स है।
वह हवा में लटकता खंजर है या फिर हर हत्यारे के हाथों में महकता खून है और नींद ही नींद में चलता वह हवाओं में और बहकता महकता भी बहुत खूब है और हवाबाजी का कमाल कि रंगसाज उसने तैनात कर दिये चप्पे चप्पे में जो हर चीज भगवा रंग रहा है।
अपने ही लोगों को जो गालियां बकते हो औचक,वे दरअसल सबसे उत्पीड़ित लोग होते हैं।गालियों बकने के सिवाय कुछ करने की औकात उनकी होती नहीं है और न वे हालात समझते हैं और न उनका कलेजा इतना मजबूत होता है कि हकीकत का समाना भी करें और न उनकी कोई दृष्टि होती है,जो सच को सच जैसा जाने।
उन बेचारों पर रब रहम करें जैसा गोली खाते ही गांधी ने कहा भी था कि हे राम!कलबुर्गी हो या दाभोलकर या फिर और कोई,हत्यारा वह हरगिज नहीं है,जो दीख रहा है।हत्यारा वह भगवा रंग है।
मतलब यह कि हत्यारे को मालूम नहीं कि दरअसल उसे हत्यारा बनाकर दुनिया के तख्तोताज को दखल करने का खेल हो रहा है।
हत्यारे का कसूर सिर्फ इतना है कि रंग साज जो लगे हुए हैं चप्पे चप्पे पर ,हर ठिकाने पर,उसे हर कहीं भगवा दीख रहा है।
अब कोई भी कुछ कहीं देख लें,चाकचौबंद इंतजाम यही है कि वह हर हाल में भगवा देखें।
अब कोई भी कुछ कहीं पढ़ लें,चाकचौबंद इंतजाम यही है कि वह हर हाल में भगवा पढ़ें।
शिक्षा भगवा।
दीक्षा भगवा।
भगवा ज्ञान।
विज्ञान भगवा।
भगवा भाषा।
भगवा माध्यम।
भगवा इतिहास।
भगवा भूगोल।
हत्यारों का कोई दोष नहीं है गुसाई।
हालात ऐसे बन रहे हैं कि हर बेगुनाह का खून खौल रहा भगवा।
भगवा खून का करिश्मा यह कि सारा मुल्क आग के हवाले।
जो खून की नदियां हैं अबाध,उसे अबाध पूंजा प्रवाह कह रहे हैं।
जो डूब है,उसे भी मुल्क कह रहे हैं लोग और दंगा फसाद को भी इबादत और मजहब बता रहे हैं लोग।भगवाकरण का आलम है और मजहब कोई भी हो,सियासत कोई भी,सबकुछ भगवा है इनदिनोें।
हत्यारों का कोई दोष नहीं है गुसाई।
जो कत्लेआम है वह टोटल प्राइवेटाइजेशन है।
जो खूनखराबा है वह टोटल एफडीआई,प्रोमोटर बिल्डर,माफिया राज है।बेदखली का जो अनंत सिलसिला है,वह विकासकथा हरिकथा अनंत। ट्रिकलिंग ट्रिकलिंग ग्रोथ।समावेशी विकास बहिस्कार का।
हत्यारों का कोई दोष नहीं गुसाई।
जनता को सच कह रहे थे जो लोग अबतक जो विवेक बने हुए थे अबतक,जो विचारों से लैस रहे थे अब तक,जो जागरण के काम में लगे थे अब तक और जिनके हाथों में थी चेतना की मशाल, वे सारे लोग सूट बूट में मुकम्मल रंगसाज हैं और वे लोग वही लोग हैं जो
इंद्रधनुष को भी भगवा रंग रहे हैं।हत्यरों का दोष नहीं गुसाई।
उन बेचारों पर रब रहम करें कि उन्हें कभी नहीं मालूम होता जैसे जनता को हरगिज मालूम नहीं होता कभी कि कैसे वह जल जंगल जमीन नागरिकता और मानवाधिकार से बेदखल है और अपने ही मुल्क से बेदखल हो जाती है जनता और कायनात की बरकतों और रहमतों से भी बेदखल हो जाती है जनता।कयामत इसीका नाम है।
दरअसल जनता को मालूम ही नहीं होता कि कब इबादत के वक्त दुआ बददुआ होकर कयामत बरपाती है।या रब मेहरबान,मेहरबानी कर उनपर,जिन्हें नहीं मालूम कि रहमतें क्या और बरकतें क्या,और कायनात से बरसती कयामतें भी क्या।या रब,रहम कर।
हर सुबह भगवा लहराने से सहर होने लगी है इन दिनों।
जो भी हम देखते हैं,वह भगवा।
जो भी हम पढ़ रहे होते हैं,वह भी भगवा।
जो भी हम सोच रहे होते हैं,वह भी भगवा।
हमारे विचार,हमारे सपने भी बेदखल।
इंसानियत का मुल्क कहीं सिरे से गायब है यारों।
कायनात भी कायनात नहीं है यारों।
रंग भी रंग नहीं है यारो।
न मजहब मजहब है यारों।
कयामत का मंजर दरअसल यही है।
कयामत का मंजर दरअसल यही है कि हर शख्स लड़ रहा है दूसरे शख्स से और किसी को किसी की परवाह नहीं है।
कयामत का मंजर दरअसल यही है कि हर शख्स सोचता है कि वह मार रहा है किसी और को,लेकिन किसी को मालूम नहीं कि वह ठीक उसीतरह खुदकशी कर रहा है जैसे खेत खलिहानों के मरघट में,कल कारखानों के कब्रिस्तान में,या दफ्तर में या घर में या बाजार में लोग खुदकशी कर लेते हैं और उन्हें मालूम भी कभी होता नहीं है कि उनका अंजाम आखिर खुदकशी है।
यह मुक्त बाजार का सच है दोस्तों कि मुल्क में हर कहीं आगजनी है।हर कोई बेदखली का शिकार है।
और तो और,आत्मा,परमात्मा,ईश्वर,धर्म और आस्था से भी बेदखल हैं लोग और अपने वजूद से भी बेदखल हैं लोग।
और तो और,अपने चेहरे से भी बेदखल हैं लोग और लबों की क्या बात करें कि अगवाडा़ पिछवाडा़ सपाट मैदान है,बेकार जीरो साइज की खुशफहमी है क्योंकि दरअसल किसी धड़ पर कोई चेहरा नहीं है और हम सारे लोग कबंध है।
सच यह है कि यह मुक्त बाजार कबंध कार्निवाल है।हर धड़ पर कोई मुखौटा सजा है।इंसान का चेहरा किसी के पास नहीं है चाहे कितना ही रंग पोत लें और रंग बिरंगे हर चेहरे का रंग वही फिर भगवा है।
यह मुक्त बाजार का सच है दोस्तों कि हर रंग अब भगवा है क्योंकि मुक्त बाजार भगवा है।
भगवा हो गया इंद्रधनुष भी
यूं कि लहू भी अब भगवा!
जिनका खून अभी न हुआ हो भगवा,उन्हें इस मुल्क में रहने की भी इजाजत नहीं!
न उनको इस मुल्क में बने रहने की कोई गुंजाइश है,जिनकी रीढ़ हो मकम्मल और लब भी जिनके सिले हुए न हों!
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