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Wednesday, September 16, 2015

मेहनतकशों और मजलुमों के हक में खड़ी हो जाये मोर्चाबंद हो इंसानियत तो कोई सूरत नहीं कि कत्लेआम,आगजनी का यह सिलसिला चले। जब तक कश्मीर भारत में है,मजहबी मुल्क की कोई सूरत नहीं है। कश्मीर के हक में बाकी भारत हो लामबंद तो वैसे ही हिंदूराष्ट्र भारत नहीं बनेगा हरगिज जैसे पुरजोर मुकम्मल जंग के बावजूद नेपाल फिर हिंदू राष्ट्र नहीं बना। गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो अजदिया हमरा के भावेले पलाश विश्वास

मेहनतकशों और मजलुमों के हक में खड़ी हो जाये मोर्चाबंद हो इंसानियत  तो कोई सूरत नहीं कि कत्लेआम,आगजनी का यह सिलसिला चले।

जब तक कश्मीर भारत में है,मजहबी मुल्क की कोई सूरत नहीं है।

कश्मीर के हक में बाकी भारत हो लामबंद तो वैसे ही हिंदूराष्ट्र भारत नहीं बनेगा हरगिज जैसे पुरजोर मुकम्मल जंग के बावजूद नेपाल फिर हिंदू राष्ट्र नहीं बना।

गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो

अजदिया हमरा के भावेले


पलाश विश्वास

गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो

अजदिया हमरा के भावेले

https://www.youtube.com/watch?v=AaL7C94GN-g


Published on 14 Sep 2015

A unity song for the release of Com. Hem and all other political prisoners.


Gorakh's revolutionary song performed by all democratic and progressive political, cultural organizations and several individuals including RCF, Jai Bheem Kala Manch, Dastak, Jagriti Natya Manch, DSU, JSM, Janrang, Kanhaiya, Vrittant, Krittika and many others.


28 August 2015

JNU

Gulamia Ab Hum Naahin Bajayibo: A unity song

A unity song for the release of Com. Hem and all other political prisoners. Gorakh's revolutionary song performed by all democratic and progressive...

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हमें मुकम्मल नागरिकता के सिवाय कुछ नहीं चाहिए।

हमें मुकम्मल इंसानियत का मुल्क चाहिए।

हमें कोई सैन्य राष्ट्र हिंदुत्व या इस्लाम या गौतम बुद्ध या ईशा मसीह के नाम का नहीं चाहिए।




मेरे आखिरी दिनों में कमसकम दो लोगों को राहत नहीं मिलने वाली है।सविताबाबू तो शादी के दिन से तबाह है।


विदाई के वक्त वह मायका छोड़ने से पहले इतनी रोयी कि उसे पता ही नहीं चला कि अपने पिता के बजाये वह मुझसे लिपटकर रो रही थी।


तबसे मैंने उनकी एक बात ठीक से मानी है कि शादी से पहले उनने कहा था कि दाढ़ी कटवा के आना वरना बारात लौट जायेगी।हालांकि दाढ़ी मेरी पहचान थी।मैंने भी जवाबी शर्त लगा दी कि कोई सामान दहेज का दिखेगा तो शादी हरगिज नहीं होगी।तबसे हमारे घर में दहेज आया नहीं है।मेरे पिता शादी व्याह में सादगी के पक्ष में थे।


उन दिनों संजोग से कुमायूं और गढ़वाले में मेरे दोस्त बहुतेरे थे।फिर बसंतीपुर वाले थे।पिता ने एकमुश्त एक ही दिन मेरे भाई पद्दोलोचन की बारात भेज दी बरेली तो बसंतीपुर वाले वहीं चले गये।

उसी दिन घर में बहन रेणु की बारात आयी थी बिजनौर से।

पिताजी के दोस्त स्वतंत्रता सेनानी रामजी त्रिपाठी ने अपने गांव फूलसिंगा से अपनी जीप भेज दी थी कि दुल्हन उसी जीप से बसंतीपुर आयेगी।


उस जीप में मेरे खास तीन दोस्त दीप्तिसुंदर, हरेकृष्ण और सुधीर मेरे साथ थे।तब मुरादाबाद के कांठ में प्रवक्ता लगे थे कपिलेश भोज मोहन,वह वही से मुंह उठाकर चला आया था।सुभाष धनबाद से आकर मेरे साथ था और हमारे सबसे बड़े जीजाजी,यानी मीरा दीदी के दूल्हा क्षीरोदजी मेरे अभिभावक थे।


पिता पद्दो की बारात में थे।घर में बारात अलग थी।


जेठामशाय यानी ताउजी घर में बारात के स्वागत में थे और कन्यादान भी उन्हीं को करना था।चाचा कहीं लापता थे।


सविताबाबू को तब भी समझ में नहीं आया कि आगे क्या क्या होने वाला है।जैसे उसे अभी बूझ नहीं रहा है कि आगे और क्या शामत आने वाली है।


नैनीताल वालों ने कह दिया था कि हम मैदान में नहीं उतरेंगे।शादी के बाद तुम्हें पहाड़ आना होगा।हम लोग तदानुसार पहाड़ गये और राजीव दाज्यू के सेवाय़ में ठहरते हुए गिरदा के साझा लिहाफ में घुस गये,जिसमें शायद निर्मल और पुष्पा भी थे।


पिरिम तब बच्चा ही था और हीराभाभी तबभी मायके में थीं।


उसके बाद कोयलाखानों के बीच दहकते महकते,यूपी के दंगों में झुलसते हुए कोलकाता में पच्चीस साल शरणार्थी जीवन बिता दिया और इससे आगे कोई ठौर ठिकाना नहीं है।


सविता बाबू बेहद इंपल्सिव है।यूं तो बहुत खुश होती हैं लेकिन जब तनाव में होती है,खूब रोती है एकदम बच्चे की तरह।जब गुस्से में होती है तो कयामत ही समझो।इसीतरह तैंतीस साल बीत गये।


दूसरा शख्स अमलेंदु है।जिसे मैंने परेशां परेशां कर रखा है।

देर रात तक उसे मेरे फोन पर जागना होता है और दुनियाभर का फीडबैक अलग अलग भाषाओं में सहेजना होता है।


हम समयांतर और तीसरी दुनिया के अंक निकलने के लिए रुक नहीं सकते और अविनाश को मोहल्ले की परवाह नहीं है तो यशवंत पत्रकारों के सुख दुःख से निबटकर फुरसत में नहीं होते।


अमलेंदु सीधा सादा है।

अविनाश और यशवंत सयाने हैं।

रियाज हाथ नहीं लगता और अभिषेक दौड़ता रहता है।


इधर कामायनी महाबल,रुक्मिणी सेन और सीमा मुस्तफा की वजह से,काउंटर करेंट,ईपीडब्लू,हार्ड न्यूज,मेनस्ट्रीम और आनंद तेलतुंबड़े की वजह से हमारे वैकल्पिक मीडिया का विस्तार हुआ है।


तो सारा बोझ अमलेंदु पर लदना ही है जब तक न वह मैदान छोड़कर अविनाश की तरह भाग खड़ा नहीं होता।


अब आगे लड़ाई घनघोर है।

रोमा महीनों जेल में तपकर आ गयी है और पहले से ज्यादा तेजधार है।फिलहाल बीमार है।


बची हुई हैं कि फोन उसके पुलिस ने जब्त कर लिये हैं और शायद नया मोबाइल अब तक नहीं लिया है।


वह कायदे से वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर तन जाये और दूसरे साथियों की तरह तो यकीनन हम लड़ेंगे और खूब लड़ेंगे।


हमारे सामने हिसाब किताब हजारों साल का है।

हिसाब मोहंजोदोड़ो और हड़प्पा का है।

हिसाब इतिहास भूगोल साहित्य कला संस्कृति ज्ञान विज्ञान से लेकर अर्थव्यवस्था का है और सीने में फिर वहीं सियासत मजहब और हुकूमत का मुक्तबाजारी तेजधार तेज बत्तीवाला जहरीला त्रिशुल बिंधा है।


हिसाब सिर्फ बेदखल जल जंगल जमीन नागरिकता कायनात का नहीं है,हिसाब सिर्फ मेरे जख्मी लहूलुहान हिमालय का भी नहीं है सिर्फ, न सिर्फ खौलता तेलकुाआं बना समुंदर का हिसाब है और न कयामतों का हिसाब किताब है सिर्फ।


इस दुनिया को नये सिरे से बनाने और बसाने की चुनौती है।


आगे तूफां और भी है।

जिंदगी जंग है और जंग से फुरसत कोई होती नहीं है।

मरने की भी फुरसत होती नहीं है।


भले हैं वे लोग,हत्यारे कतई नहीं जो इस दुनिया के दर्द से किसी गांधी,किसी इंदिरा,किसी दाबोलकर और किसी कलबुर्गी को निजात दिला देते हैं।


हमारा काम फिलहाल उतना खास हुआ नही है कि इतना भी बेताब हो जाये मजहबी सियासती हुकूमत की मुक्तबाजारी त्रिशुल कि औचक निजात भी मिल जाये।


तो हमारी दास्तां से फिलहाल रिहाई नहीं है।


मुद्दा फिर वहीं है जो मैंने कल बांग्ला में लिखा है और कल हिंदी में लिखा नही गया है।


नेपाल ने हिंदू राष्ट्र फिर बनने से इंकार कर दिया है तो दुनियाभर में शरणार्थी सुनामी है और नागिक जो खुद को समझ रहे हैं,वे भी नागरिक नहीं हैं।


न लोकतंत्र कहीं है और न कानून कहीं है।

न समता है और न न्याय है।

इंसानियत का मुल्क कहीं नहीं है।


इसीलिए हम कहे पुकार केः

मेहनतकशों और मजलुमों के हक में खड़ी हो जाये मोर्चाबंद हो इंसानियत तो कोई सूरत नहीं कि कत्लेआम,आगजनी का यह सिलसिला चले।


जब तक कश्मीर भारत में है,मजहबी मुल्क की कोई सूरत नहीं है।


कश्मीर के हक में बाकी भारत हो लामबंद तो वैसे ही हिंदूराष्ट्र भारत नहीं बनेगा हरगिज जैसे पुरजोर मुकम्मल जंग के बावजूद नेपाल फिर हिंदू राष्ट्र नहीं बना।


इसीलिए हमने बांग्ला में लिखाः

চাইনা,এই এঁটো করুণা,ঘৃণ্য পুনর্বাসন,

চাই শুধু নাগরিকত্ব!

শুধু বিশুদ্ধ নাগরিকত্ব,না কম,না বেশি!

চাই,মনুষত্বের অভ্যুত্থান!

চাই সেই বিপ্লব,যেদিন এই পৃথীবীতে শযতানের রাজত্ব নিপাত যাবে,মানুষ বাস্তুহারা বেনাগরিক উদ্বাস্তু হবে না ছিন্নমূল!


জলজ্যান্ত মানুষের স্মৃতি পূর্বজন্ম হয়ে যায়,এমনই উদ্বাস্তু জীবনস্মৃতি হারা মাতৃভাষা মাতৃদুগ্ধ বন্চিত আইলান বেঁচে থাকলেও কি আর- নিস্পাপ শিশুরা যেমন দরিয়ায় ভেসে যাওয়ার জন্যেই,মরিচঝাঁপি হয়ে অগ্নিদগ্ধ হওয়ার জন্য জন্মায়,সেই আইলানের মরে যাওয়াও কি!

উদ্বাস্তু জীবনে সতীর দেহ ছড়িয়ে ছিটিয়ে সারা পৃথীবী আজ উদ্বাস্তু উপনিবেশ!

ধর্মের নামে যারা দেশকে খন্ডিত করে,মানুষকে উদ্বাস্তু করে,মনুষত্ব ও সভ্যতাকে কেয়ামতে তব্দীল করে সেই নরপিশাচদের আমি সব চেয়ে ঘৃণা করি!

আমি ধর্ম রাষ্ট্রের বিরুদ্ধে!

উদ্বাস্তু : অচিন্ত্যকুমার সেনগুপ্ত

इंसानियत को इंसानियत रहने दो।

कायनात को आग के हवाले मत करो।

बंद करो दंगा फसाद का सिलसिला।

खत्म करो बेदखली का सिलसिला।


दुनिया में अमन चैन हो और ग्लोब से खेलने वाले कहीं न हो और न ग्लोबल इशारे से तबाही बरपाने की अरथव्यवस्था हो और न अमेरिकी वसंत का दावानल कहीं भड़के और न इंसानियत के खिलाफ इंसान कही कोई जंग लड़े और रब के सच्चे बंदे मजहब को सियासत में बदले कहीं,न कोई मजहबी मुल्क हो और न कहीं जिहाद हो कोई और न फतवा हो किसी के खिलाफ कोई तो समझा कायनात वसंतबहार है और जिंदगी अमन चैन।


वरना जंग है बेइंतहा।

हमीं लड़ेंगे वह जंग कायानत को सही सलामत रखने के लिए।

हमीं लड़ेंगे वह जंग रहमतों,बरकतों,नियामतों के लिए।


किसे चाहिए तुम्हारी करुणा?

किसे चाहिए तुम्हारी सहानुभूति?

किसे चाहिए तुम्हारा समर्थन?


अबाध पूंजी के अलावा तुम्हारे सारे दरवाजे इंसानियत के लिए बंद है चाकचौबंद और जमीन से लेकर आसमान तक पहरा है।


इंच इंच तैनात है सैन्य राष्ट्र और बाजार के घोड़े और बाजार के गधे, बाजार के सांढ़ सभी दौड़ रहे हैं,जिनके खुरों में नंगी तलवारें हैं और इंसानियत पल छिन पल छिन लहूलुहान है।


इंसानियत का मुल्क या डूब है या फिर खौलता हुआ तेलकुंआ,हिंसा दावानल।


अबाध पूंजी के अलावा तुम्हारी सारी खिड़कियां,तुम्हारे सारे रोशनदान इंसानियत के लिए बंद है चाकचौबंद और जमीन से लेकर आसमान तक पहरा है।


दसों दिशाओं में कटकटेला अंधियारा है।

ओवर शेयरिंग है दसों दिशाओं से ।

तेजबत्ती वाला कारोबार घातलगाये फोटोबांबिंग कर रहा हैः


It is over sharing the PHOTOBOMB!

The greatest oversharing ever happened in this Geopolitics is MONKEY BAATEN!


Alchemists of unprecedented violence,unprecedented refugee refugee influx across borders worldwide, unprecedented terror of ARMED States,ARMED Private  Forces,Free Flow of Capital has set the GLOBE on Fire!


It is over sharing the PHOTOBOMB!


The Spring of Freedom that activated every type of terrorism which inflicted Man, Woman ,God, Goddess, Religion, History, Science, Mathematics, Knowledge, Geography,this bloody politics and that bloody Economics reduced to rate cuts to allow tax holiday and and infinite readjustment of Human demography,ejection of Humanity from Homeland!


आदमी न हवा में पैदा होता है और न आदमी कोई दरिया में बहता हुआ जीव है तो फिर क्यों यह आइलान का किस्सा अनंत है ,समजा सकें तो कोई  समझायें।


मेरे दादा लोग जैसोर के नड़ाइल के वाशिंदे थे,वहीं जहां रवींद्र नाथ टैगोर के अछूत वंशजों की रिहायश है।


मेरे दादा लोग चार भाई थे।

हमने अपने मंझले दादा का किस्सा खूब सुना है।वे पूरे इलाके के मातबर थे।उनके आगे पीछे हुजूम लगा रहता था।


वे सबसे ज्यादा लड़ाके थे।


अमावस्या की रात थी गहराई।

आसमान में न आफताब था कोई

न कहीं सेतारे झिलमिला रहे थे।

कही आस पड़ोस में कालीपूजा थी।


उन दादा जी को न्योता था।आधी रात से पहले वे घाट के लिए निकले कि मधुमती की सवारी गांठनी थी मां काली के दरबार तक पहुंचने के लिए।


आगे भी लोगों का हुजूम था।

पीछे बी लोगों का हुजूम था।


सबके हाथों में मशाल थी।

सबके हाथ में लाठी थी।


और सर्पदंश हो गया।घर से निकलते न निकलते।


लौटे घर।झाड़फूंक खुदे जाने रहे।गाछ गाछालि से इलाज भी हुई गवा।फिर मधुमती में नावें थीं और रात और गहरानी थी।


अंधियारा था कटकटेला और स्वराज तब शुरु भी न हुआ था।

तेबागा की धूम थी।

वे सारे लोग तेभागा के लड़के थे।

वे सारे लोग चंडाल आंदोलन के सिपाही थे।

वे सारे लोग मतुआ थे।

काली भक्त भी थे।


जहर जब सीने में चढ़कर बोला,तब दादा जी ने हांका,नाव घुमाओ रे।

दादाजी ने तब कहा,नाव घुमाओ रे।अब वक्त नहीं रे।


औषधि का नाम भी बता दिया कहा कि घर पहुंचकर किसी तरह हलक में उतार देना वह संजीवनी,जहरमोहरा।


घर भी पहुंच गये।औषधि भी पहुंचा हलक में।

न संजीवनी काम आयी और न जहरमोहरा काम आया।


जमींदारी के लिए जश्न का मौका था कि बागियों के सिरमौर का काम तमाम था और अंधेरा फिर वहीं अमावस्या का।कटकटेला।


अंधेरा फिर वहीं अमावस्या का।कटकटेला।

स्मृतियों से दगाबाज कोई नहीं।


न पिता हैं,न ताउ हैं और न चाचा हैं।

न दादी हैं।न मां है।न ताई है। न चाची है।

सिरे से अनाथ हूं।स्मृतियां भी अनाथ हैं।


बचपन से न जाने कितनी हजार दफा वह नाम सुना है,अब तक वह नाम मेरे मंझले दादा का याद नहीं है।


अब तक इतना बकवास लिखा,यह लेकिन नहीं लिखा कि तीन महीने के अंदर जिस भाई के शोक में मेरे दादा उमेश का देहांत हो गया,उनका नाम क्या है।


अंधेरा फिर वहीं अमावस्या का।कटकटेला।

फिर वही सर्पदंश है।फिर वही सीने में हलाहल।


नीलकंठ भी हूं नहीं।न दादाओं की तरह कालीभक्त।

भक्त न थे पिता,ताउ और चाचा भी हमारे।


मजहब के लिए देश बंटा और वे मजहब के शिकार थे,वे सियासत के शिकार थे उसीतरह जैसे आज मेरे पंजाब,मेेरे गुजरात,मेरे कश्मीर और मेरे बाकी मुल्क और बाकी मेरी दुनिया के लोग हैं।


वे झूठो समझते रहे कि वे बंटवारे के शिकार हैं और उन्हें तजिंदगी पता ही नहीं चला कि बंटवारे का सिलसिला अभी थमा नहीं है।


अंधेरा फिर वहीं अमावस्या का।कटकटेला।

फिर वही सर्पदंश है।फिर वही सीने में हलाहल।


नीलकंठ भी हूं नहीं।न दादाओं की तरह कालीभक्त।

भक्त न थे पिता,ताउ और चाचा भी हमारे।


बड़े दादा कैलास थे,याद है।

सबसे छोटा दादा जिनने बंटवारे का सर्पदंश झेल लिया,वे इंद्रनाथ थे और वे नदिया जिले के हरीशचंद्रपुर में जहां हमारे पूरे खानदान का अब केंद्र है और जहां मैं कभी नहीं जाता,पिता अक्सर जाते थे,वहीं आजादी के कई दशक पूरे होने के बाद उनका जहर उतरा और उनने आखिरी सांस ली।


हमारे दादाओं के पिता का नाम उदय है और उनके पिता का नाम आदित्य।इसमें भी स्मृतिभ्रंश के कारण उलट पुलट हो सकता है।


मेरी स्मृतियां बेहद कमजोर हैं मेरे पिता के मुकाबले।

वे तजिंदगी मधुमती को भूले नहीं।


वे तजिंदगी जैशोर और बरिशाल की झीलों में,जंगल में फैले अपने खेत भूले नहीं और पक्का यकीन था उन्हें कि वे अपना खोया खेत फिर कभी न कभी जीत लेंगे।


इसी यकीन क साथ वे जिये।

इसी यकीन के साथ वे मरे।


उन्हे पिछले जनम के सारे किस्से याद थे और तन्हाई में सिर्फ मुझसे वे किस्से वे कहते रहे।पिछले तमाम जनमों के किस्से वे अनसुलझे मेरे कंधे पर लादकर चल दिये और मुझे पिछले जनम में कोई यकीन नहीं है।


अब मुझे मालूम पड़ा है कि बेदखली के बाद जो जिंदगी होती है,उससे पहले का किस्सा दरअसल पिछला जनम ही होता है और जो हम लड़ नहीं सके,जो हम जंग लड़ने से पहले हार गये,वह कर्मफल है और उसीका नतीजा यह नर्क है।


जो हम लड़ नहीं सके,जो हम जंग लड़ने से पहले हार गये,वह कर्मफल है और उसीका नतीजा यह नर्क है।


जो हम लड़ नहीं सके,जो हम जंग लड़ने से पहले हार गये,वह कर्मफल है और उसीका नतीजा यह अमावस्या है।


जो हम लड़ नहीं सके,जो हम जंग लड़ने से पहले हार गये,वह कर्मफल है और उसीका नतीजा यह काली का दरबार है।

उसी का नतीजा हम कांवर ढो रहे हैं।


उसीका नतीजा वध का सिलसिला जारी है और वैदिलकी हिंसा हिंसा न भवति।

सुधार अश्वमेध है।


उसीका नतीजा हम शरणार्थी हैं।

हम न इंसान है और न हम नागरिक हैं।


उसीका नतीजा हम शरणार्थी हैं।


आर्यदेवमडल की दुनिया में हम आज भी उसीतरह असुर हैं।

राक्षस हैं।

दैत्य दानव वानर है।

गंधर्व और किन्नर हैं।

दस्यु हैं।


आदिवासी हैं हम हैं।

मानते नहीं हैं हम और नहमें मालूम है।


असल सर्पदंश यही स्मृति भ्रम है।

खुद को न पहचाने हैं हम।

वरना किसे चाहिए यह करुणा,यह सहानुभूति,यह आरक्षण?


आदिवासी हैं हम हैं।

मानते नहीं हैं हम और नहमें मालूम है।

असल सर्पदंश यही स्मृतिभ्रम है।


खुद को न पहचाने हैं हम।

वरना किसे चाहिए यह करुणा,यह सहानुभूति,यह आरक्षण?


दृष्टि अंध हैं हम और मुकममल नागरिक भी नहीं है हम,हम अछूत।इसीलिए हर देश में,हर दुनिया में,इंसानियत का मुल्क शरणार्थी है।

हर शारणार्थी, हर आदिवासी लेकिन फिर वही आइलान है।

भसान के लिए ओ3म् स्वाहा।

बलिप्रदत्त।


बाजार है और बाजार में मंडप है।

हम असुर महिषासुर को खरीददारी से फुरसत नहीं है।

हम असुर महिषासुर को मालूम ही नहीं हो कि गोरों के एकाधिपात्यकी दुनिया में मनुस्मृति शासन में तमाम मंडप हमारे वध के लिए सजे हैं।वध के लिए यह तेजबत्ती रोशनी है।


बाकी फिर वही हमारी अमावस्या है।

बाकी फिर हमारा कटकचेला अंधियारा है।

बाकी फिर सर्पदंश है।


बाकी फिर बेदखली से पहले का हजारों हजार पिछला जनम है,जिसके किस्सों से भी बेदखल हैं हम।

बाकी फिर वहीं दंगा फसाद का सिलसिला है।


बाकी फिर वही मजहबी,सियासती,हुकूमत का मुक्तबाजारी त्रिशुल है,जिसे हम मां दुर्गा का त्रिशुल समझे हैं और हमने कभी सोचा नहीं कि स्त्री को हत्यारिन किसने यह बना दिया।


बाकी फिर वही मजहबी,सियासती,हुकूमत का मुक्तबाजारी त्रिशुल है,जिसे हम मां दुर्गा का त्रिशुल है और हमने कभी सोचा नहीं कि स्त्री को हत्यारिन किसने यह बना दिया।


बाकी हमने सोचा नहीं है हरगिज की स्त्री को हत्यारिन बनाकर देवीरुपेण महिमामंडित किसने कर दिया जबकि जाति धर्म के सरहदों के आरपार स्त्री फिर वही दासी है,एक अदद मांस का दरिया है।जिसका कोई देवी या दासी वजूद भी होताइच नहीं है।


हम वही लोग हैं जो रोज सुबह इसी हिसाब में लग जाते हैं कि इस मुल्क में आखिर कितनी सीता सती सावित्रियां हैं ताकि मजहब का राजकाज जारी रहे।गुलशन का कारोबार चले अंदियारा तले।


हम वही लोग हैं जो रोज सुबह इसी हिसाब में लग जाते हैं कि सोलह सौ गोपनियां कहां मिलेंगी गोपनीय कि हम भी रचा लें अपना रास।


हम वही लोग हैं जो रोज सुबह इसी हिसाब में लग जाते हैं कि अभी हमने कितनी राधाओं को ठिकाने लगा दिया है।


हम फिर वही लोग हैं जो रोज सुबह इसी हिसाब में लग जाते हैं कि अभी हमने कितनी द्रोपदियों को भोग पर लगाना है ताकि महाभारत फिर रचा जा सकें फिर बेदखली का।फिर सजे कुरुक्षेत्र।


हम फिर वही लोग हैं जो रोज सुबह इसी हिसाब में लग जाते हैं कि कौन औरत किस किस के साथ कितनी दफा सोयी है,सोनेवाली है।

फिर ऐसा स्मृति भ्रंश कि भगवती जागरण अनंत,मां का दरबार।


हमें पिता की तरह जल जंगल जमीन से उतनी मुहब्बत न थी।


हम उनकी तरह कभी चीखकर कह नहीं सकें कि हम भी किसान हैं।


हम उनकी तरह कभी चीखकर कह नहीं सकें कि बाबासाहेब की संतान हम सारे लोग अछूत बहुजन हैं।


हम उनकी तरह कभी चीखकर कह नहीं सकें,कामरेड,क्रांति होकर रहेगी।


हम कभी बाबुलंद गा ही नहीं सके वह गीत गोरखवा का जो हमारे सबसे अजीज दोस्त बाड़न कि

गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो

अजदिया हमरा के भावेले

हमें मुकम्मल नागरिकता के सिवाय कुछ नहीं चाहिए।

हमें मुकम्मल इंसानियत का मुल्क चाहिए।

हमें कोई सैन्य राष्ट्र हिंदुत्वया इस्लाम यागौतम बुद्ध या ईशा मसीह के नाम का नहीं चाहिए।



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