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Monday, April 1, 2013

मुनाफाखोर एजेंडे की मीडिया

मुनाफाखोर एजेंडे की मीडिया


उदारीकरण के इस दौर मे भारतीय मीडिया एक किस्म की अराजकता की स्थिति से गुजर रहा है. बड़ी विदेशी पूंजी के सहारे कुछ मीडियाग्रुप का बाजार में आधिपत्य हैं. यह मीडिया कंपनियाँ सामाजिक सरोकारों की अनदेखी कर पत्रकारिता को मुनाफा खोरी का पर्याय बनाने मे लगे हुई हैं...

उपेन्द्र त्रिपाठी

भारत में मीडिया के विस्तार और विश्वसनीयता का इतिहास काफी पुराना है. उस दौर में सामाजिक परिवर्तनों, राजनीतिक क्रांतियों, सरकारी दंडविधानों तथा विरोधों का सामना जितना पत्रकारिता के लोगों को करना पड़ा,उतना तो किसी अन्य विधा के लोगों को नहीं करना पडा. भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास ऐसे ज्ञात-अज्ञात संपादकों और पत्रकारों के संघर्षों और बलिदानों का भी साक्षी है, जिन्होंने अपना अस्तित्व संकट में डालकर लोकजागरण की अलख जगाई थी. आज उसका स्वरूप बदला सा नजर आने लगा है.

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दलाली करते दिखे पत्रकार

संपादक मैनेजर के रूप मे बदलते जा रहें है. आज बड़े-बडे व्यवसायी मीडिया मुगल तथा बडे-बडे पत्रकार व्यवसायी बन गए है. बहुत लोगों को यह वकतव्य बेमानी लग सकता है, परंतु बाजारवाद ने पत्रकारिता के मूल उद्वेश्यों को धूमिल कर दिया है. इस व्यवसायिकरण के युग मे पत्रकारीय मूल्य और धंधें के अंर्तविर्रोधों का जिक्र करना आवश्यक हो जाता है. कारण कि जो लोग न्यूज मीडिया को वाचडॉग या समाज का सतर्क प्रहरी मानते हैं, वे अपेक्षा करते हैं कि मीडिया सामाजिक सरोकारों से जुडा काम करे. 

पेड न्यूज, नीरा राडिया टेप कांड परिघटनाओं के सामने आने पर यह साबित होता है कि हमारें यहाँ पत्रकारिता धंधेबाजी का पर्याय बनती जा रही है. आज अगर मीडिया के पतन की गाथा को समझना है तो उसके लिए ऑनरशिप पैटर्न यानी मालिकाने की असलियत को समझना जरूरी है. अब ये बात जग जाहिर है कि किसी भी मीडिया हाउस से कैसी खबरें बाहर निकलेंगी इस पर उसके मालिक का आधिपत्य है. शातिर लोग जानते है कि सीधे गलत धंधों मे ज्यादा मुश्किलें आती है, इसलिए अगर कोई धंधा चमकाना है तो मीडिया के मालिकाने मे अपना हिस्सा रखना जरूरी है. 

इसी की आड़ मे कई गैरकानूनी व्यवसाय फलते-फूलते हैं. क्रास मीडिया ऑनरशिप ने मीडिया मुगलों को सशक्त बनाया है, जिसका वह दुरूपयोग करते है तथा उनके घालमेल का पता जनता को नहीं चल पाता. एक मीडिया का अन्य कारोबार मे मालिकाना हक पत्रकारिता की नैतिकता के जडें खोद रहा है. जैसे-डीवी कार्प जो देश के दूसरे बडे अखबार का प्रकाशन करती है और साथ ही साथ बिजली व खनन कारोबार मे भी है. जिसका नाम कोयला खदानों के आवंटन घोटाले मे भी आया था, परंतु राजनीतिक संरक्षण की बदौलत मामला दब गया.

उदारीकरण के इस दौर मे भारतीय मीडिया एक किस्म की अराजकता की स्थिति से गुजर रहा है. बड़ी विदेशी पूंजी के सहारे कुछ मीडियाग्रुप का बाजार मे आधिपत्य हैं. यह मीडिया कंपनियाँ सामाजिक सरोकारों की अनदेखी कर पत्रकारिता को मुनाफा खोरी का पर्याय बनाने मे लगे हुई हैं. अखबारों की विश्वसनीयता खोती जा रही है. न्यूज चैनल खबरों की जगह सनसनी परोस रहे हैं. मीडिया के नियमन से जुडी संस्थाओं जैसे-ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन जिसे मीडिया हाउस से जुडे पत्रकार व मालिक चला रहें हैं और नियमन को ताक मे रखकर निजी हित साध रहें हैं. कुछ दिनों पहले एक प्रतिष्ठित चैनल के संपादकों को रंगदारी मांगते हुए कैमरे मे कैद किया गया जो खबर दबाने की एवज मे पैसे की मांग एक प्रतिष्ठित व्यवसायी से कर रहे थे. यह पत्रकारिता जगत का सब से घिनौना कृत्य था, पर किसी भी संस्था ने अपनी कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी.

इस प्रतीकात्मक चौथे स्तंभ की दरारें इसकी विश्वसनीयता व प्रभाव को धूमिल कर रही हैं. मीडिया की विश्वसनीयता और चमक को बरकरार रखने के लिए मीडिया के व्यवसायिकरण पर रोक लगनी चाहिए. मीडिया में कार्पोरेट जगत के आगमन पर रोक लगाना चाहिए. भारतीय मीडिया मे एक स्वायत्तशासी नियामक संस्था बनाने की आवश्यकता है. प्रेस कांउसिल ऑफ इंडिया कों प्रभावशाली अधिकार के साथ दंड का अधिकार देकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का भी नियमन प्रदान कर देना चाहिए. इस तरह यह प्रतीकात्मक स्तंभ लोकतंत्र का आधार स्तंभ बन सकेगा.

upendra-tripathiउपेन्द्र त्रिपाठी युवा पत्रकार हैं.

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-08-56/2012-06-21-08-09-05/302-media/3859-munafakhor-agenda-kee-media

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