Thursday, 26 December 2013 10:54 |
सुरेश पंडित जनसत्ता 26 दिसंबर, 2013 : जैसे-जैसे सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ रही है। कांग्रेस और भाजपा अपने अधिकतम भौतिक और मानवीय संसाधन झोंक कर इस चुनाव को किसी भी तरह जीत लेने के लिए कटिबद्ध दिखाई दे रही हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए उनके पास विकास के अलावा और कोई खास मुद्दा नहीं है और चूंकि इसे पहले भी कई बार आजमाया जा चुका है इसलिए इसमें वह चमक नहीं बची है जो लोगों में बेहतर भविष्य की आस जगा सके। जनता पिछले दो दशक में विभिन्न सरकारों द्वारा चलाई गई विकास परियोजनाओं के हश्र देख चुकी है। इनकी बदौलत कोई एक दर्जन बड़े शहर मेट्रो-महानगरों में, छोटे शहर अपेक्षाकृत बड़े शहरों में और कस्बे छोटे नगरों में बदल गए हैं। सड़कें अनेक लेन वाली हो गई हैं और उन पर जगह-जगह विशाल फ्लाइओवर बन गए हैं। इन पर चौपहिया वाहनों की संख्या बढ़ती और रफ्तार तेजतर होती जा रही है। जगह-जगह बहुमंजिला इमारतों वाले आवास, शॉपिंग मॉल और मनोरंजन के लिए मल्टीप्लेक्स बनते जा रहे हैं। मेट्रो का एरिया फैलता जा रहा है। इनके अलावा और भी बहुत कुछ है जिसे विकास के गिनाया जा सकता है।
इसके बरक्स हजारों गांव उजड़े हैं, कृषियोग्य जमीन सिकुड़ती गई है। स्थानीय उद्योग-धंधे ठप हुए हैं जिससे बेकारी बढ़ी है। जो कल तक खेती या व्यवसाय करते थे, आज शहरों में सफेदपोश लोगों की सेवा कर पेट भर रहे हैं। सड़कें चौड़ी हुई हैं, मगर उन पर पैदल, साइकिल से या रिक्शे में चलने वाले लोगों के लिए जगह सिकुड़ती गई है। गगनचुंबी इमारतों के बरक्स झुग्गी-झोपड़ियों का विस्तार हुआ है। विकास की उल्लेखनीय उपलब्धियां बीस प्रतिशत से अधिक लोगों को लाभान्वित नहीं कर पाई हैं। इसीलिए अमर्त्य सेन मानते हैं, 'गरीबी कम करने के लिए आर्थिक विकास पर्याप्त नहीं है। मैं उनसे सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि आर्थिक विकास के साथ गरीबी में कमी आई है।' पिछले बीस सालों में 'फोर्ब्स' की सूची के अनुसार विश्व के सर्वाधिक वैज्ञानिकों में भारत के भी कई लोग शामिल हुए हैं और देश में भी अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ी है, लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि उतनी ही तेजी से गरीबों की संख्या कम नहीं हुई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक यह बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर चुके हैं कि अनुसूचित जातियों-जनजातियों और अल्पसंख्यकों को इस विकास से बहुत कम लाभ हुआ है। परिणामस्वरूप गैर-बराबरी बेइंतहा बढ़ी है। ऐसा नहीं कि यह हकीकत राजनीतिक दलों को दिखाई नहीं दे रही। पर वे इस विषमतावर्धक विकास को सही राह पर लाने के लिए तैयार नहीं दिखाई देते। हों भी कैसे? उन्हें कोई रास्ता भी तो दिखाई नहीं देता। वह दिख सकता है अगर वे गांधी, आंबेडकर, लोहिया, मार्क्स जैसे लोकहितैषी दार्शनिकों की सुझाई राहों में से किसी एक को पकड़ें। लेकिन पंूजीवादी विकास के समर्थकों ने घोषित कर दिया कि विचारधाराओं का अंत हो गया है, और हमने उसे ज्यों का त्यों मान लिया है। अब हम विचार के नाम पर उन मुद्दों को सामने ला रहे हैं जिनका वास्तव में हमारे जीवन से कोई मतलब ही नहीं है, जैसे सांप्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता आदि। इन मुद्दों को राजनीतिक दल ही उछाल रहे हैं और इन्हें देश, धर्म, जाति या संप्रदाय की अस्मिता से जबर्दस्ती जोड़ कर लोगों की भावनाओं को उद्वेलित कर रहे हैं ताकि जनमत को अपने पक्ष में कर चुनाव जीतते रहें। अफसोस है, इस तरह के भ्रामक मुद्दों को जीवन मरण का प्रश्न बनाने में मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग भी उनका साथ दे रहा है। यह देख कर हैरानी होती है कि वामपंथी और समाजवादी सोच वाले दल भी आर्थिक, सामाजिक समानता के अपने अहम मुद्दे को भुला कर सांप्रदायिकता का विरोध करने के लिए एकजुट होने की दिखावटी कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान विकास, जो वास्तव में पंूजीवाद का ही एक चमकीला मुखौटा है, चुनाव के इसी तरह के नाटक को पसंद करता है। इसमें लोकतंत्र बना रहता है, अधिकतर लोग विकास के लाभ से वंचित भी रहते हैं और कुछ लोग फायदा भी उठाते रहते हैं। ऐसी स्थिति में आंबेडकर के 25 नवंबर 1949 को दिए गए उस चेतावनी भरे वक्तव्य को फिर से याद कर लेना देश की राजनीति के सूत्रधारों के लिए मार्गदर्शक हो सकता है। आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी 1950 को हम लोग जिस जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं उसमें हम सबको एक नागरिक एक वोट का अधिकार मिल जाएगा, लेकिन यह राजनीतिक समानता तब तक कोई विशिष्ट फलदायक साबित नहीं होगी जब तक हम सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक असमानता को पूरी तरह से मिटा नहीं देते। अगर हम ऐसा निकट भविष्य में नहीं कर पाते हैं तो विषमता-पीड़ित जनता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है। पिछले पैंसठ वर्षों में गैर-बराबरी कम होने की जगह बढ़ी है। लाखों किसानों का आत्महत्या कर लेना और देश के दो सौ से अधिक जिलों का नक्सलवाद के प्रभाव में चले जाना उस विस्फोटक स्थिति के आगमन की पूर्व सूचना है। जिन्हें देश और समाज की चिंता है उसी चेतावनी को बार-बार दुहरा रहे हैं। फिर भी इसे अनसुनी करके हम पिछले चुनावों की तरह विकास जैसे अमूर्त, सांप्रदायिकता जैसे अंध-भावनात्मक और राम मंदिर जैसे अस्मितावादी मुद्दों को ही उछाल कर चुनाव लड़ते और जीतते हैं। अगर हम चाहते हैं कि यह चुनाव हमारे लोकतंत्र के लिए युग परिवर्तनकारी साबित हो तो हमें इसे शाइनिंग इंडिया बनाम बहुजन भारत की लड़ाई में बदलना होगा। हमें यह समझना होगा कि आज हम ऐसी भयावह विषमता के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें परंपरागत रूप से सुविधा संपन्न, विशेषाधिकार युक्त थोड़े-से लोगों ने शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार और सांस्कृतिक-शैक्षणिक क्षेत्र पर अस्सी-पचासी प्रतिशत तक कब्जा जमा रखा है, वहीं बहुसंख्यक दलित-पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक जैसे-तैसे गुजारा करने के लिए मजबूर हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें पार्टियां अधिकतर लोगों की बदहाली दूर करने के बजाय अमूर्त और भावनात्मक मुद्दों को प्राथमिकता दे रही हैं। विशाल वंचित वर्ग के सब्र का बांध न टूटे इसके लिए उन्हें कभी मामूली पेंशन, कभी मनरेगा तो कभी खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाओं के लॉलीपॉप देकर बहकाया जा रहा है। लोगों को आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त बनाने के बजाय उन्हें याचक और पराश्रयी बनाने की कोशिश हो रही है। कांग्रेस पहले गरीबी हटाने की बात करती थी, फिर अपना हाथ गरीबों के साथ रखने का वादा करने लगी, अब पूरी रोटी खिलाने का राग जपने लगी है। उधर भाजपा ने कभी अंतिम जन के उत्थान की अंत्योदय योजना शुरू की थी लेकिन अब उसके पास ले-देकर राम मंदिर निर्माण के अलावा कोई मुद््दा नहीं बचा है। आश्चर्य है कोई राजनीतिक दल विकास परियोजनाओं से पैदा हो रही और दिन-प्रतिदिन बढ़ रही विषमता को देखते हुए भी उसे दूर करने और समतामूलक समाज बनाने का झूठा-सच्चा संकल्प तक नहीं ले रहा है। सच है विकास की जिस राह पर हम इतनी दूर तक चले आए हैं वहां से वापस नहीं लौटा जा सकता, लेकिन गैरबराबरी के पैदा होने और निरंतर बढ़ते जाने के कारणों को तो खोजा जा सकता है ताकि उनका कोई निराकरण निकाला जा सके। यों तो हम विकसित देशों जैसा बनने का सपना देखते हैं; इन देशों की कला, साहित्य, सिनेमा और संस्कृति के विभिन्न घटकों को आदर्श मानते हुए उन्हें अपनाने के लिए आतुर रहते हैं; लेकिन उनके बहुजन समावेशी समाज के मॉडल के बारे में कभी सोचते तक नहीं। हमारा संविधान सब नागरिकों को समान अधिकार देता है। उस समानता को प्राप्त करना और बनाए रखना हर एक सरकार का प्रमुख कर्तव्य होना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि हर प्रकार के भेदभाव को दूर रखते हुए सब नागरिकों को देश की निर्माणकारी योजनाओं में बराबर की भागीदारी दी जाए। विश्व के वे लोकतंत्र, जो विकास और समृद्धि के स्पृहणीय मुकाम तक पहुंच चुके हैं, उनका इतिहास इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि उन्हें यह सफलता अपनी सारी जनता को साथ लेकर चलने से ही मिली है। विविधताएं सब देशों में रही हैं लेकिन सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए उन्होंने अपने-अपने तरीके से 'एफर्मेटिव एक्शन' को अपनाकर सबको राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों से जोड़ा है। हमारे जैसे ही कुछ देश इसे यह कह कर नकारते हैं कि यह पश्चिमी या अमेरिकी अवधारणा है, मगर दरअसल यह विषमता को बनाए रखने का एक बहाना है। उनकी अन्य सब बातों का तो हम सहर्ष अनुकरण करते हैं, फिर इससे ही परहेज क्यों! जब सरकारों का गठन होता है तो कोशिश यह रहती है कि हर वर्ग और क्षेत्र को प्रतिनिधित्व मिले। फिर हम सेना, न्यायालय, सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तरों की नौकरियों में, सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के आपूर्ति-सौदों में, सड़क, भवन निर्माण आदि के ठेकों में, पार्किंग-परिवहन में, सरकारी और निजी स्कूलों-कॉलेजों, विश्वविद्यालयों के संचालन, प्रवेश और शिक्षण में, एनजीओ, इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, देवालयों के संचालन और पौरोहित्य कर्म में और सरकारी खरीदारी आदि में दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और सवर्णों को बराबर-बराबर हिस्सेदारी क्यों नहीं दे सकते? जातिवार जनगणना करके उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें भागीदार बनाया जा सकता है। इससे जनसंख्या का वह बड़ा हिस्सा जो उक्त क्षेत्रों में एक प्रकार से अनुपस्थित-सा है, सार्वजनिक उद्यम का अंग बन जाएगा और सब मिलकर देश की प्रगति में जब संलग्न होंगे तो सर्वसमावेशी और मानवीय चेहरे वाले विकास की अवधारणा साकार हो सकेगी। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीपीएल परिवारों को तीन रुपए किलो अनाज देने का वादा किया तो भाजपा ने इसे घटा कर दो रुपए कर दिया। क्षेत्रीय पार्टियों ने भी इसी तरह के वादे किए, पर किसी ने समस्या की जड़ पर प्रहार करने के लिए सब वर्गों को विकास परियोजनाओं और अर्थोत्पादकसंसाधनों में उचित भागीदारी देने की बात नहीं की। इसका साफ मतलब है कि वर्तमान व्यवस्था असमानता को बनाए रखना चाहती है ताकि पंद्रह-बीस प्रतिशत सुविधासंपन्न लोगों का वर्चस्व बना रहे। ध्यान रहे यही वह वर्ग है जिसके संसाधनों से राजनीतिक दल चुनाव जीतते हैं और सरकार बनाते हैं। ऐसी सरकारें उन्हीं नीतियों का अनुसरण करती हैं जो इन वर्गों के हित में होती हैं और इन्हें फायदा पहुंचाती हैं। यह एक ऐसा कुलीन लोकतंत्र है जिसमें वंचित वर्गों के वोट का उपयोग संपन्न लोगों का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाता है।
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Friday, December 27, 2013
विषमता का विकास और राजनीति
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