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लन्दन जैसा मुझे लगा
नव विकसित कैनैरी वार्फ उपनगर जैसे कुछ क्षेत्रों को छोड़ कर, लन्दन में गगनचुंबी भवनों का अधिक प्रकोप नहीं है। जो हैं भी वे महा-व्यावसायिक भवन हैं। अधिकतर आवासीय भवन दो तलों से लेकर चार तलों वाले हैं। सभी भवनों में भूमिगत तल हैं। उनके निर्माण में हवा और प्रकाश की सुलभता का विशेष ध्यान रखा गया है। प्रमुख पथों के दोनों ओर के भवनों में भूतल पर दूकानें रेस्तराँ और विशाल पण्यगृह हैं, लेकिन इन सड़कों से निकलने वाले सहायक पथों पर दूकानों का सर्वथा अभाव है। सभी आवासीय भवनों के प्रवेश.द्वार प्रायः उपपथों की ओर ही खुलते हैं। भवन शीतरोधी हैं। अमरीका में तो शीतरोधिता के लिए दीवारों के भीतर फोम की परत का अवलेपन दिखाई दिया था, संभव है यहाँ भी कोई ऐसी ही तकनीक अपनाई जाती होगी।
यह महानगर अभी अपनी उन्नीसवीं शताब्दी की पृष्ठभूमि से पूरी तरह नहीं उबर पाया है। उसके अधिकतर भवन उन्नीसवीं शताब्दी में निर्मित हैं। उनमें अभिजातीय, प्रशासकीय और धार्मिक भवनों में पत्थर का और सामान्य आवासीय भवनों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के निर्माण में ईंटों का प्रयोग हुआ है। अधिकतर भवन प्रायः तीन या चार तल वाले हैं। भवनों में स्थापत्य की बाहरी शैली पर जितना ध्यान दिया गया है, उतना उनके भीतर स्थान की उपलब्धि पर नहीं दिया गया है।
अधिकतर आवास परंपरागत शैली में निर्मित हैं फलतः उनमें वे सुविधाएँ नहीं है, जो तोक्यो के आवासों में हैं। यहाँ पंचतलीय आवासीय भवनों में भी लिफ्ट का होना आवश्यक नहीं है। तोक्यो में तो शौचालय भी स्वचालित थे। आगंतुक को द्वार पर देखते ही एयर इंडिया के महाराजा की भंगिमा में आ जाते थे। बस आगंतुक के इशारा करने की देर होती थी। रिक्त होने के अलावा उसे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ यह सब नहीं है। ठंड के कारण शौचालय के फर्श भी आच्छादित है। बूँदाबाँदी का भी निषेध है। फिर हम लोग, जिनके पाप केवल जल से धुलते रहे हों, बड़ी उलझन में रहते हैं। दिल है कि पोछ-पाछ से मानता ही नहीं।
हमारा आवास ग्रीनविच में है। आवास के सामने ग्रीनविच विश्वविद्यालय, बगल में ब्रिटेन की रानी का ऐतिहासिक भवन और जलपोत संग्रहालय, पीछे रायल वेधशाला तथा द्रुमावलियों से परिवेष्टित हरा-भरा विशाल उद्यान । सद्यस्नात सी प्रशस्त हरीतिमा को देख कर लगता है कि कहीं यह नाम अंग्रेजी के 'ग्रीन' और पंजाबी के 'बिच' शब्द के संयोग से तो नहीं बना है? 'हरियाली के बीच बसा नगर'। अंग्रेजी में विच का अर्थ 'उपनगर' भी है तो क्या? कमी है तो केवल इतनी कि, पड़ोस में बतियाने के लिए कोई नहीं है। सब के सब ठङ्-ठङ् गौर भैरव हैं। कहीं मिल गये तो 'हाय' के अलावा कोई दूसरा बोल नहीं फूटता।
आवागमन के साधनों का यहाँ प्राचुर्य है। दो मंजिली और आरामदेह बसें रात-दिन सुलभ हैं। सड़कों पर उनके लिए निर्धारित वीथिका को प्रायः लाल रंग से रंजित किया गया है। उस पर किसी अन्य वाहन को ठहरने की अनुमति नहीं है। ऐसा करने पर एक सौ बीस पाउंड का अर्थ-दंड निर्धारित है। सड़कों पर यातायात को नियंत्रित करने के लिए क्लोज सर्किट कैमरे लगे हुए हैं। साइकिलों का भी बहुत चलन है। उनके लिए सड़कों के किनारे अलग से रेखांकित हैं। प्रायः उन्हें हरे रंग से रंजित किया गया है। नौकायन के लिए नगर के बीचों-बीच, गंदगी में गंगा की छोटी बहिन सी, टेम्स नदी भी प्रवहमान है। मनमौजी लोगों के लिए यह भी आवागमन का एक वैकल्पिक साधन है।
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अगर लन्दन देखना हो तो पैदल चलिए। यह मेरा सुझाव नहीं है, लन्दन के पर्यटन विभाग का है। बस के भीतर बैठ कर कितना देख पायेंगे? देखने को बहुत है। स्थापत्य की नाना शैलियाँ, सहेज कर रखे गये रचनाकारों और वैज्ञानिकों के कार्यस्थल, सुविस्तृत पार्क और भी न मालूम क्या.क्या? न वाहनों से निकलता धुआँ, न धूल। सड़कों के किनारे लगे पेड़ भी ऐसे दिखते हैं जैसे अभी-अभी नहा कर निकले हों। हर सड़क के किनारों पर पैदल चलने के लिए धूप-छाँव वाले चौरस पथ। सबसे बढ़ कर, अपने देश में दुर्लभ, वाहन-चालकों द्वारा पदयात्रियों को 'पहले आप' का संकेत देने परंपरा।
पूर्णतः निरभ्र आकाश की तो यहाँ कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभी धूप खिली थी, लोगों को बाहर निकलता देख कहाँ से आकर बादल बरस पडे़, पारा लुढ़क कर 24 सेंटीग्रेड से 13 सेंटीग्रेड पर आ गया। देवियाँ हैं कि न निकलना छोड़ती हैं और न उन्हें वेशान्तरण का ही अनुभव होता है। कहते हैं कि पिछली शताब्दी में ब्रिटिश अधिकारियों के साथ तिब्बत गये ब्राह्मणों ने वहाँ भी केवल धोती पहन कर अपने लिए भोजन बनाया था। पहले आश्चर्य होता था। अब नहीं होता। इतनी शीत में भी जंघाओं तक निर्वस्त्र, कंचुकी कौपीनावशेष महाश्वेताओें के इन्द्रियनिग्रह के सामने वह कोई बड़ी बात नहीं लगती। अलबत्ता श्यामाओं में यह प्रवृत्ति कम है तो महाश्यामाओं में बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती।
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लोग कहते हैं कि लन्दन यूरोप में सर्वाधिक प्रदूषित महानगर है। पर मुझे यह बहुत साफ-सुथरा लगता हैं। मैं उस देश से आया हूँ जिसकी राजधानी विश्व के दस सर्वाधिक प्रदूषित महानगरों में है। मैं उस नगर से आया हूँ, जहाँ नगर के बीच से प्रवाहित होती नहर के ढके जाने की योजना से उसके किनारे रहने वाले लोग अपने घर के कूड़े के निस्तारण की चिन्ता से ग्रस्त हैं। जहाँ हर मुहल्ले में खाली पड़ी भूमि कूड़ेदान में बदल रही है। सन्निवेशों के अनियोजित विकास के कारण हरियाली सिमटती जा रही है। जहाँ मुहल्लों की पहचान उनके गली नंबर से होने लगी है। मेरा नगर अकेला नहीं है। मेरे देश के सब नगरों की वही दशा है। वे नगर जहाँ गलियों में पक्के मकानों के बन जाने के बाद उनको चैड़ी सड़कों में बदलने की योजना बनती है। भूमि का एक इंच भी खाली न रहने के बाद मानचित्रों में विशाल पार्कों का अंकन किया जाता है। अतिक्रमणकारियों पर कार्यवाही से पहले उनकी जाति, संप्रदाय और पहुँच देखी जाती है। अपनी सीमा में बने घरौंदों पर बुल्डोजर तो चलते हैं पर सीमा का अतिक्रमण करने वाली विशाल अट्टालिकाएँ प्रशासन की नपुंसकता पर हँसती रहती हैं।
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उपभोक्तावाद और प्रदूषण का चोली-दामन का संबंध है। जितना ही उपभोक्तावाद बढ़ेगा, उतना ही प्रदूषण बढ़ेगा। फिर आधुनिक सभ्यता तो एक से एक आरामदायक वाहनों, फ्रिजों, वातानुकूलक संयत्रों और आधुनिकतम दूर संचार के साधनों और प्लास्टिक की सभ्यता है। एक ओजोन परत की चीर-फाड़ कर रहा है तो दूसरे के कारण जल और थल दोनों की दुर्दशा हो रही है। दोनों प्रदूषकों की जितनी खपत इन विकसित देशों में है, उतनी खपत अविकसित देशो में नहीं है । इतना अवश्य है कि प्लास्टिक के असीमित उपयोग के होते हुए भी उसके अपशिष्ट के समुचित पुनर्चक्रण और निक्षेपण के कारण इन देशों में प्लास्टिक से प्रत्यक्षतः उतने लोग और पशु नहीं मरते जितने विकासशील देशों में मरते हैं।
सम्पन्नता में वृद्धि, संसाधनों की सहज उपलब्धता, व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए बैंकों से खुले हाथ मिलता ऋण, नगरों का सम्मोहन और जागरूकता का अभाव, विश्व में पर्यावरण प्रदूषण के मुख्य कारक हैं। लन्दन भी इनसे अछूता नहीं है। सुविधा जनक नगर बसों के रात.दिन उपलब्ध होते हुए भी यहाँ सड़कों पर निजी वाहनों की भीड़ बढ़ती जा रही है। चाहे प्रत्यक्ष में सब कुछ साफ-सुथरा दिखे, अदृश्य प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार वायु प्रदूषण के कारण यहाँ हर साल लगभग पाँच हजार लोगों की अकाल मृत्यु होती है। हमारे देश की तरह भले ही यहाँ सड़कों पर वाहनों की चिल्ल-पौं एक अपवाद हो, लेकिन कारों, जनवाहनों और दानवाकार ट्रकों की संख्या में अनवरत वृद्धि, और 'जिस गली में पार्किंग न हो बालमा, उस गली में मुझे पाँव रखना नहीं' की बढ़ती प्रवृत्ति, तज्जन्य, घर्षण, कंपन और प्रदूषण पारिस्थितिकी पर निरंतर प्रतिकूल प्रभाव डालते रहते हैं।
वर्तमान में नये मानकों के हिसाब से नगर का अनवरत कायाकल्प करने के प्रयासों के बाद भी आव्रजकों, विश्व के व्यवसायियों और पर्यटकों के दबाव के सामने ये प्रयास अपर्याप्त सिद्ध हो रहे हैं। नगर के केन्द्रीय भाग में स्थित आवासीय भवन होटलों में रूपान्तरित होते जा रहे हैं। भूमि का मूल्य असाधारण गति से बढ़ता जा रहा है। बाहरी लन्दन में जिस आवासीय भवन का मूल्य पाँच लाख पाउंड है, केन्द्रीय लन्दन में वह पचास लाख पाउंड में भी उपलब्ध नहीं है। लोग लन्दन नगर से महालन्दन की ओर यहाँ तक कि उससे भी दूर ग्रामीण क्षेत्रों की ओर संक्रमित हो रहे हैं ताकि उन्हें खुला और स्वच्छ प्राकृतिक परिवेश मिल सके।
एक अनुमान के अनुसार लन्दन के मुख्य भाग में रहने वाले नागरिकों की कुल संख्या दस हजार के लगभग है। किन्तु कार्यालयों और वित्तीय संस्थाओं की बहुलता के कारण यहाँ लगभग साढ़े तीन लाख लोग कार्यरत हैं। ये लोग लन्दन के बाहरी भागों से और कुछ दूर के क्षेत्रों से भी नित्य नगर में प्रवेश करते हैं। फलतः कार्यालयों के समय पर न पैदल परिपथों में जगह बचती है और वाहनों में। बसों और उपनगरीय ट्रेनों में भीड़ कम होने की प्रतीक्षा में लोगों का बहुत बड़ा समूह शाम को बियर-बारों के द्वार पर खड़ा दिखता है। यह स्थिति तब है जब बहुत सी लाइनों पर प्रति मिनट एक ट्रेन की आवृत्ति है।
लन्दन न्यूयार्क की तरह ही विश्व का आर्थिक बाजार भी है। एक सूचना के अनुसार अकेले लन्दन शहर में 486 ओवरसीज बैंक और महत्वपूर्ण व्यापारिक और शासकीय प्रतिष्ठान हैं। फिर यह देश अशरण-शरण तो रहा ही है। जो अपने घर से नाराज हुआ, जिसे रोजी-रोटी की परेशानी हुई अथवा जिसे राज्य से संकट का भान हुआ, उसने 'लन्दनं शरणं गच्छामि' का राग अलापना आरंभ कर दिया। फिर दो सौ साल जिन पर राज किया है, उनके लगाव को भी तो झेलना ही है। यही कारण है कि महालन्दन की कुल जनसंख्या का एक चौथाई भाग इन्हीं शरणागतों का है। फिर उनके आने-जाने वाले, परदेशी व्यवसायी, 'नगर दिखाइ तुरत ले आवहुँ' वाले पर्यटन व्यवसायी और उनके अतिथियों का बढ़ता हुआ दल-बल।
पर्यटन, रोजगार और समृद्धि तो देता है पर सिरदर्द का कारण भी बनता ही है। जैसे हमारा नैनीताल। जब तक केवल ग्रीष्म और शरद तक ही पर्यटन सीमित था, सीजन के बाद आवास सुलभ हो जाते थे। जब से पर्यटन का बारहमासा आरंभ हुआ, आवास होटलों में बदलने लगे। अब न तो स्थानीयों के लिए जगह बची है न छात्रों के लिए। कर्मचारी भीमताल, ज्योलीकोट और हल्द्वानी से आवागमन करने को विवश हो गये। कच्चे पहाड़ पर वाहनों की रेलपेल आरंभ हो गयी। पिछली शताब्दी के सातवें दशक तक का खुला-खुला नैनीताल, भीड़ भरा कस्बा मात्र रह गया। यही स्थिति इस महानगर की भी होती जा रही है।
कभी-कभी ब्रिटिश पुस्तकालय से पैदल ही लन्दन ब्रिज तक निकल पड़ता हूँ। यहाँ से चार कि.मी. दूर टेम्स के सहस्राब्दि सेतु तक मुझे नैनीताल की मालरोड दिखाई देने लगती है। होटल ही होटल एक से एक विशाल, रेस्तराँ ही रेस्तराँ, मदिरालय ही मदिरालय, बीच-बीच में पर्यटकों के काम की दूकानें, व्यूटीपार्लर, थिएटर, और परदों और लोहे के फ्रेमों में जकड़े होटलों में बदलते आवासीय भवन। पर्यटकों से भरी खुली छत वाली बसें, व्यस्त सड़कों पर वाहनों की संख्या कम करने के लिए निर्धारित कंजेशन चार्ज के बावजूद अधिकतर सड़कों पर जाम, रैंगते हुए वाहन, असहाय प्रशासन.... यह केन्द्रीय लन्दन है।
दूसरी ओर पर्यटन के बढ़ते जाने के कारण यहाँ सामान्य कोटि के रोजगार निरंतर बढ़ रहे हैं । ऐसे रोजगार, जिनमें गौरांग युवकों की अभिरुचि नहीं है। दूकानों में चले जाइये, मालिक भले ही अंग्रेज हो, सेवक सब काले, पीले और साँवले ही दिखाई देते हैं। यदि संयोग से कोई गौर दिखाई भी दे तो ब्रिटेन का नहीं, यूरोप के किसी और देश का प्रवासी निकलता है। अधिकतर रेस्तराँ और सामान्य दूकानें प्रवासियों की हैं। बेरोजगारी भत्ते की व्यवस्था के कारण युवा पीढ़ी में कठिन विषयों के अध्ययन के प्रति अभिरुचि घट रही है। फलतः अधिक बौद्धिक क्षमता और कार्य.कुशलता वाले अवसर भी प्रवासियों के लिए खुलते जा रहे हैं।
लन्दन बहुप्रजातीय और बहुभाषायी नगर है। प्रत्यक्षतः प्रजातीय भेदभाव नहीं दिखाई देता। लेकिन बार-बार अनुभव होता है कि यह सबका होते हुए भी किसी का नहीं है। यहाँ थोड़ा-बहुत वह सब होता है जिसे हम अपने देश में देखते हैं। ब्रिटिश पुस्तकालय के वाचनालय के बाहर एक सूचना पट्ट पर लिखा है, यहाँ आपका बैग चुराया जा सकता है। उसे अपनी सीट पर या अमानती सामान कक्ष में रखें। ग्रीनविच विश्वविद्यालय के सामने की सड़क के किनारे एक सूचना पटृ पर लिखा है 'पटालों के चुरा लिए जाने के कारण यहाँ फिलहाल कोलतार किया गया है। टैक्सी-स्टैंड पर टैक्सी लेने वालों को सावधान करते हुए अंकित किया गया है कि यह देख लें कि टैक्सी अवैध तो नहीं है। सवार होने से पहले उसका नंबर और पुलिस का नंबर भी नोट कर लें। अन्यथा आप 'कौन दिशा को ले चला रे बटोहिया' गाते रह जायेंगे। कई बार मैट्रो स्टेशनों पर नशेड़ी युवकों द्वारा बसों और ट्रेनों में उत्पात मचाने और यातायात पुलिस द्वारा ऐसे प्रकरणों में जन-सहयोग के अनुरोध के विज्ञापन भी दिखाई देते हैं। ट्रेनों में सीटों के नीचे केले के छिलके और बची-खुची भोजन सामग्री भी दिखाई दे जाती है। राह चलते, जनाकीर्ण स्थानों पर भी निर्द्वन्द्व भाव से धूम्रपान करते हुए लोगों के दर्शन होते रहते हैं। इनमें भी धूम्रपायिनी देवियों की संख्या सर्वाधिक है। मैंने कई बार भूमिगत ट्रेनों में भी महिलाओं को हौले से सिगरेट की कश लगाते हुए देखा है ।
सड़कों के किनारे यदा-कदा टोपी फैलाए भिखारी भी दिख जाते हैं। देवियों के कंठहार और आप की जेब का भार कम करने के लिए उत्सुक समाज-सेवियों से सावधान रहने के संकेत भी हैं। भारत के नगरों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित होने पर भी लन्दन तोक्यो की तरह सुरक्षित नहीं है। फिर भी यहाँ जो लगभग अचूक व्यवस्था दिखायी देती है, उससे लगता है कि अपने देश की तरह यहाँ न तो नेतागिरी का प्रकोप है और न प्रशासनिक कार्यवाही में कोई हस्तक्षेप और भेदभाव। कहीं भी चले जाइये, अदृश्य आँखों से आप ओझल नहीं हो सकते। भला ऐसे में अनुशासनहीनता पनपे तो कैसे। इतनी निगरानी होते हुए भी घर और कृष्णमंदिर में समत्व वाले जन अपना दायित्व निभाने का अवसर खोज ही लेते हैं। सच तो यह है कि बहुजातीय समाजों में अपनी भूमि के प्रति उतनी निष्ठा नहीं होती, जितनी एक जातीय समाजों में होती है।
क्रमश: (मेरी पुस्तक महाद्वीपों के आर-पार का एक अंश)
Sunday, December 15, 2013
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