दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड के चार आरोपियों को मृत्युदण्ड
पर सवाल अब भी बाकी है: क्यों बढ़ रहे हैं ऐसे जघन्य अपराध और प्रतिरोध का रास्ता क्या है?
कात्यायनी
दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड (दिसम्बर 2012) के चार आरोपियों को अन्ततः निचली अदालत ने फाँसी की सज़ा सुना दी। एक अन्य आरोपी, बालिग न होने के कारण, पहले ही बाल सुधार गृह भेजा जा चुका था। छठे अभियुक्त रामसिंह ने जेल में आत्महत्या कर ली थी।
लेकिन गम्भीर सोच-विचार के लिए यह अहम प्रश्न अभी भी हमारे सामने मौजूद है कि आखिरकार हमारे देश में ऐसे बर्बर बलात्कार-हत्याओं (जिनकी शिकार आज बड़े पैमाने पर छोटी-छोटी बच्चियाँ भी हो रही हैं), यौन अत्याचारों और लड़कियों पर तेज़ाब फेंकने जैसी घटनाओं की संख्या लगातार बढ़ती क्यों जा रही है? जो घटनाएँ संज्ञान में आती हैं उनके हिसाब से भारत में प्रति 22 मिनट में एक बलात्कार होता है जबकि सांसदों की एक कमेटी में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, वास्तविक संख्या इससे लगभग तीस गुनी अधिक है।
अगर हम समझते हैं कि सख्त से सख्त क़ानून बनाकर और पुलिस व्यवस्था को चाक-चौबन्द बनाकर इस समस्या को हल किया जा सकता है तो यह महज एक ख़ामख़्याली ही है। स्त्री-उत्पीड़न की लगातार बढ़ती बर्बरता और बढ़ती संख्या के बुनियादी कारणों को समझने के लिए हमें पितृसत्ता, पूँजीवादी राज्यसत्ता, पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली और यौनाचारवादी पतनशील पूँजीवादी संस्कृति के आपसी सहमेल से बने उस बर्बर परिदृश्य को समझना होगा, जिसमें स्त्रियों के आखेट का खेल लगातार जारी रहता है और हिंस्र से हिंस्र होता चला जाता है।
यह सहस्राब्दियों पुरानी बात है जब पितृसत्ता और एकनिष्ठ वैवाहिक सम्बन्धों की स्थापना के साथ ही (यह एकनिष्ठता का नियम हमेशा से वस्तुतः स्त्री पर ही लागू होता रहा है) स्त्रियाँ सार्वजनिक उत्पादन के क्षेत्र से बहिष्कृत होकर चूल्हे-चौकठ की गुलाम बनकर रह गयीं। पूँजीवाद ने औरतों के लिए सार्वजनिक उत्पादन के दरवाजे़ काफ़ी हद तक खोल दिये, पर उसकी घरेलू दासता और पुरुष-पराधीनता को समाप्त नहीं किया। एक आर्थिक रूप से स्वावलम्बी औरत भी परिवार की निजी सेवा और घरेलू ग़ुलामी के अपने कर्तव्य को पूरा किये बिना सार्वजनिक उत्पादन के कामों में हिस्सा नहीं ले सकती (चाहे वह मज़दूर हो या मध्यवर्गीय स्त्री), पुरुषों की स्वीकृति के बिना वह अपने निजी और सामाजिक निर्णय नहीं ले सकती, सार्वजनिक जगहों पर यौन-वस्तु के रूप में देखे-बरते जाने के लिए वह अभिशप्त होती है, और सबसे अहम बात यह है कि श्रम बाज़ार में भी उसकी श्रमशक्ति सबसे सस्ती होती है, श्रम क़ानून उसके लिए सबसे अधिक निष्प्रभावी होते हैं, सबसे कठिन स्थितियों में उसे काम करना होता है, यानी कुल मिलाकर, वह निकृष्टतम कोटि की उजरती ग़ुलाम होती है। पूँजीवादी जनवादी गणतंत्र ने स्त्री-पुरुष के बीच जो क़ानूनी समानता क़ायम की, उसका एक ऐतिहासिक महत्व ज़रूर था। उसने यह साफ़ कर दिया कि स्त्रियों की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि स्त्री-पुरुष सार्वजनिक उत्पादन में (और अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी) समान हैसियत से हिस्सा लें तथा समाज की आर्थिक इकाई होने का एकल परिवार का गुण नष्ट कर दिया जाये। यह तभी हो सकता है जब उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व हो, उत्पादन मुनाफ़े के लिए नहीं बल्कि सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से हो तथा निजी स्वामित्व के ख़ात्मे की दिशा में समाज तेजी से क़दम आगे बढ़ाये। घरेलू कामों के स्त्रीलिंगीकरण को लेकर पूँजीवाद का रवैया अन्तर्निहित तौर पर अन्तरविरोधी होता है। एक ओर, वह स्त्री-पुरुष- बच्चे – सभी को उत्पादन प्रक्रिया में खींच लाता है, दूसरी ओर, श्रमशक्ति के उत्पादन-पुनरुत्पादन के स्थल – परिवार के सभी कामों को पूर्ववत स्त्रियों पर डाले रहता है। इसके चलते, उसे स्त्रियों की आरक्षित श्रमशक्ति सस्ती से सस्ती दरों पर मिल जाती है। साथ ही वह पुरुष मज़दूरों की मोल-तोल की ताक़त को कम करने में सफल हो जाता है। परिवार की मौजूदगी के चलते श्रमशक्ति के उत्पादन-पुनरुत्पादन के लिए सामाजिक ढाँचा खड़ा करने के बोझ से उसे छुटकारा मिल जाता है। घरेलू काम आभासी तौर पर पतियों की निजी सेवा लगता है, अतः पूँजीवाद स्त्रियों के असन्तोष-आक्रोश को पुरुषों के ख़िलाफ़ मोड़ देता है। दोनों ही पूँजी के हित में पूँजी द्वारा मूर्ख बनाये जाते हैं और स्त्रियों का उत्पीड़न करने वाली पुरुष मानसिकता पूँजी के वर्चस्व का एक कारगर उपकरण बन जाती है।
पूँजीवाद की आर्थिक बुनियाद में निहित यही जेण्डर-असमानता और स्त्री-उत्पीड़न स्त्री-विरोधी समस्त विचारों, संस्कृति और दमन-उत्पीड़न के सभी रूपों का मूल कारण है। अपनी चरम पतनशीलता की वर्तमान अवस्था में पूँजीवादी समाज अपने रहे-सहे जनवादी और मानवतावादी मूल्यों से जैसे-जैसे ज़्यादा से ज़्यादा रिक्त होता चला गया है, वैसे-वैसे सभी शोषित-उत्पीड़ित वर्गों और समुदायों की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी है। पूँजीवादी संस्कृति का दैत्य स्त्रियों और बच्चों को अपना सबसे आसान शिकार बना रहा है। पूँजीवादी समाज में बढ़ता अलगाव सामाजिक व्यक्तित्व को विघटित करता जा रहा है। चरम व्यक्तिवाद का एक विकृत रूप सामाजिक जीवन के मूल्यविहीन ऐन्द्रिक सुखभोगवाद और निर्बन्ध-रुग्ण यौनाचार के बर्बर रूपों में सामने आ रहा है।
भारत जैसे देश में, जहाँ पूँजीवाद पुनर्जागरण-प्रबोधन-जनवादी क्रान्ति की प्रक्रिया से होकर नहीं, बल्कि औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के गर्भ से पैदा होकर, साम्राज्यवादी युग में, एक क्रमिक मन्थर प्रक्रिया से विकसित हुआ है, सामाजिक ताने-बाने में जनवादी मूल्यों का नितान्त अभाव है तथा प्राक्पूँजीवादी मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं की प्रभावी मौजूदगी बनी हुई है। इन मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं को भारतीय पूँजीवाद ने संसाधित और उत्पादित करके सहयोजित कर लिया है। नवउदारवाद की भूमण्डलीय लहर पिछले क़रीब ढाई दशकों के दौरान पूँजी के मुक्त प्रवाह के साथ, विश्व पूँजीवाद की रुग्ण संस्कृति की एक ऐसी आँधी लेकर आयी है जिसमें बीमार मनुष्यता की बदबू भरी हुई है। हमारे देश में नयी और पुरानी प्रतिक्रियावादी रुग्णताओं का एक विस्फोटक मिश्रण तैयार हुआ है। आर्थिक धरातल पर अतिलाभ निचोड़ने की होड़ में पूँजीपति कामगारों की हड्डियों का चूरा तक बनाकर बेचने को तैयार हैं, राजनीतिक धरातल पर, राज्यसत्ता ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश दमनकारी व्यवहार कर रही है और संसदीय जनवाद का खेल शीशे की दीवारों वाले हम्माम में पियक्कड़-भ्रष्ट-दुराचारी नंगों की धींगामुश्ती बनकर रह गया है, तथा, सांस्कृतिक-सामाजिक धरातल पर कदाचार-दुराचार-व्यभिचार के वीभत्सतम-बर्बरतम रूप सामने आ रहे हैं। स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ते अपराधों और 16 दिसम्बर के दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड की प्रातिनिधिक घटना को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है।
स्त्री-विरोधी बढ़ती बर्बरता केवल पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय प्रणाली की स्वतःस्फूर्त परिणति मात्र नहीं है। पूँजीवादी लोभ-लाभ की प्रवृत्ति इसे बढ़ावा देने का काम भी कर रही है। जो भी बिक सके, उसे बेचकर मुनाफा कमाना पूँजीवाद की आम प्रवृत्ति है। पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन जनित अलगाव ने समाज में जो ऐन्द्रिक सुखभोगवाद, रुग्ण- स्वच्छन्द यौनाचार और बर्बर स्त्री-उत्पीड़क यौन फन्तासियों की ज़मीन तैयार की है, उसे पूँजीपति वर्ग ने एक भूमण्डलीय सेक्स बाज़ार की प्रचुर सम्भावना के रूप में देखा है। सेक्स खिलौनों, सेक्स पर्यटन, वेश्यावृत्ति के नये-नये विविध रूपों, विकृत सेक्स, बाल वेश्यावृत्ति, पोर्न फिल्मों, विज्ञापनों आदि-आदि का कई हज़ार खरब डालर का एक भूमण्डलीय बाज़ार तैयार हुआ है। टी.वी., डी.वी.डी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट, मोबाइल, डिजिटल सिनेमा आदि के ज़रिए इलेक्ट्रानिक संचार-माध्यमों ने सांस्कृतिक रुग्णता के इस भूमण्डलीय बाज़ार के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभायी है। खाये-अघाये धनपशु तो स्त्री-विरोधी अपराधों और अय्याशियों में पहले से ही बड़ी संख्या में लिप्त रहते रहे हैं, भले ही उनके कुकर्म पाँच सितारा ऐशगाहों की दीवारों के पीछे छिपे होते हों या पैसे और रसूख के बूते दबा दिये जाते हों। अब सामान्य मध्यवर्गीय घरों के किशोरों और युवाओं तक भी नशीली दवाओं, पोर्न फिल्मों, पोर्न वेबसाइटों आदि की ऐसी पहुँच बन गयी है, जिसे रोक पाना सम्भव नहीं रह गया है। यही नहीं, मज़दूर बस्तियों में भी पोर्न फिल्मों की सी.डी. का एक बड़ा बाज़ार तैयार हुआ है। वहाँ मोबाइल रीचार्जिंग की दुकानों पर मुख्य काम अश्लील वीडियो और एम.एम.एस. क्लिप्स बेचने का होता है। दिल्ली की मज़दूर बस्तियों में यह सब आम बात है। प्रसिद्ध अध्येता यान ब्रेमेन के अध्ययन के अनुसार, सूरत में हीरातराशी के जिन नियमित स्वेटशॉप्स में दिन भर काठियावाड़ी नौजवान हाड़तोड़ काम करते हैं, वही रात में ऐसी उमसभरी माँदों में तब्दील हो जाते हैं जहाँ पश्चिम से आयातित विकृत से विकृत परपीड़क पोर्न सी.डी. देखी जाती हैं। इस सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि आज की पूँजीवादी व्यवस्था में अनिश्चितता, मायूसी और तंगहाली के घने अँधेरे में जी रही मेहनतकश आबादी का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा विकृत पोर्न संस्कृति की नशीली ख़ुराक में जीने का सहारा तलाश रहा है। मज़दूर आन्दोलन के गतिरोध, पतन और विघटन की भी इसमें एक अहम भूमिका है। आज के हालात में, अभी भी कुछ मेहनतकश ऐसे हैं जो विद्रोह कर रहे हैं या लड़ाई का सही रास्ता तलाश रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जो मायूसी, अवसाद और विमानवीकारी जीवन स्थितियों के कारण नशे और अश्लील फिल्मों आदि की लत की चपेट में आ रहे हैं। और इन्हीं में से कुछ ऐसे भी हैं जो पूरी तरह विमानवीकृत होकर लम्पट-अपराधी बन रहे हैं। ऐसे ही कुछ लम्पट-अपराधी तत्व 16 दिसम्बर की घटना सहित बच्चियों और औरतों के ख़िलाफ़ हाल के कई बर्बर अपराधों में शामिल रहे हैं।
पूँजीवादी रुग्ण संस्कृति का ज़हर सिर्फ़ शहरी परजीवी अमीरों और गाँवों के कुलकों-फार्मरों के बेटों की ही नहीं, बल्कि आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों की नसों में भी घुल रहा है। भारतीय गाँवों, और शहरों तक में अभी भी समाज में जिस तरह स्त्री-पुरुष पार्थक्य और मध्ययुगीन, गैरजनवादी, स्त्री विरोधी मूल्यों- मान्यताओं का प्रभाव है, उससे न तो शहरी मध्यवर्ग मुक्त है, न ही मज़दूर वर्ग। ऐसी स्थिति में, भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों की विडम्बना है कि नवउदारवाद के दौर की “खुलेपन” की नग्न-फूहड़ संस्कृति यहाँ यौन-अपराधों को खुलकर बढ़ावा दे रही है। लेकिन यह मानना ग़लत होगा कि यह समस्या मुख्यतः पिछड़े समाजों की है। बर्बर यौन अपराध और रुग्ण यौनाचार आज के पूँजीवाद की सार्वभौमिक संस्कृति है। पश्चिम के विकसित देशों में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में आज़ादी और खुलापन आम बात है, लेकिन 2012 में स्वीडन जैसे “सभ्य” समृद्ध देश ने बलात्कार और यौन हिंसा का विश्व रिकार्ड क़ायम किया है। आबादी के हिसाब से, इस वर्ष वहाँ भारत की तुलना में तीस गुना अधिक बलात्कार हुए। जर्मनी में औसतन हर वर्ष बलात्कार और यौन हिंसा की आठ हज़ार घटनाएँ दर्ज होती हैं। ब्रिटेन इस मामले में दुनिया के शीर्षस्थ दस देशों में शामिल है। अमेरिका में हर साल लगभग तीन लाख औरतें यौन हिंसा का शिकार होती हैं।
ऊपर हमने पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली, पूँजीवादी समाज के पितृसत्तात्मक ढाँचे, स्त्री-विरोधी मूल्यों-मान्यताओं और संस्कृति के गुँथे-बुने प्रभाव की तथा नवउदारवाद के सार्वभौमिक सांस्कृतिक प्रभाव की चर्चा की है। अब राज्यसत्ता की भूमिका की चर्चा कर ली जाये। यह सोचना नितान्त भ्रमपूर्ण होगा कि यौन हिंसा की घटनाओं को पुलिस- व्यवस्था और क़ानून-व्यवस्था को चाक-चौबन्द बनाकर रोका जा सकता है। थाने में स्त्रियों के साथ बलात्कार और दुव्यर्वहार आम बात है। निचली अदालत से ऊपरी अदालतों तक के जज अपनी टिप्पणियों में प्रायः स्त्री-विरोधी पूर्वाग्रहों का ज़हर उगलते रहते हैं। अफ़सरशाही की रुग्ण यौन-विलासिताओं और सेक्स पर्यटनों के बारे में भला कौन नहीं जानता। नेताओं द्वारा बलात्कार और यौन-अपराध की जितनी घटनाएँ राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धाओं-षड्यंत्रों के चलते रोशनी में आ जाती है, वे पूरी सच्चाई का सौवाँ हिस्सा भी नहीं होतीं। हालात का एक पहलू यह है कि भारत की अदालतों में आज एक लाख से अधिक बलात्कार के मामले लम्बित हैं। क़ानूनी प्रक्रिया का स्वरूप ऐसा है कि आँकड़ों के मुताबिक, बलात्कार के नब्बे प्रतिशत आरोपी अदालतों से बेदाग़ बरी होते रहे हैं।
पर सबसे मूल बात यह है कि राज्यसत्ता हर जगह संघर्षरत जनता का मनोबल तोड़ने के लिए बलात्कार का हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही है। आज़ादी के बाद से लेकर अब तक कश्मीर और उत्तर-पूर्व में सेना और अर्द्धसैनिक बलों ने स्त्रियों पर बर्बर यौन अत्याचार और बलात्कार के बाद हिंसा जैसे जघन्य अपराध जितनी बड़ी तादाद में किये हैं, वह मानवता को शर्मसार करने वाला है। ‘आर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर ऐक्ट’ वस्तुतः फासिस्ट सैनिक शासन का ही एक रूप है, जो मुठभेड़, नरसंहार, बलात्कार और यौन हिंसा का सैन्य बलों को लाइसेंस प्रदान करता है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के कई गाँवों को आज ‘बलात्कार वाले गाँव’ के रूप में भी जाना जाता है। बच्चियों और स्त्रियों के यौनांगों में शीशे की बोतल या प्लास्टिक के टुकड़े घुसेड़ने वाले जिन मनोरोगी बलात्कारियों की ख़बरें जिन दिनों मीडिया में आयी थीं, उनसे दन्तेवाड़ा के एस.पी. अमित गर्ग को अलग भला कैसे माना जा सकता है जिसने माओवादी होने के आरोप में गिरफ़्तार शिक्षिका सोनी सोरी के यौनांग में पत्थर भर दिये थे। आश्चर्य नहीं कि इस बर्बर मनोरोगी को राज्यसत्ता ने बहादुरी और निर्भीकतापूर्ण कर्तव्यपालन के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया। नरेन्द्र मोदी को हिन्दुत्व का नायक बनाने वाले गुजरात नरसंहार में सामूहिक बलात्कार और हत्या की जो बर्बर घटनाएँ अंजाम दी गयीं, उन्हें क्या कभी भुलाया जा सकेगा। सच्चाई यह है कि इतिहास की हर राज्यसत्ता से अधिक बुर्जुआ राज्यसत्ता स्त्री-विरोधी हिंसा और यौन-उत्पीड़न को दमन के हथकण्डे के रूप में इस्तेमाल करती रही है। राज्यसत्ता का चरित्र शासक वर्ग के हित और संस्कृति से भिन्न नहीं हो सकता। उत्पादन सम्बन्ध और सामाजिक ढाँचे से इतर व्यवहार की उससे अपेक्षा नहीं की जा सकती।
दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड के आरोपियों के लिए फाँसी से कम कोई सजा नहीं हो सकती थी। बल्कि जिस क़ानून के तहत सबसे बर्बर भूमिका निभाने वाला 17 वर्षीय युवक, अवयस्क होने के नाते सज़ा पाने से छूट गया, उस क़ानून की भी समीक्षा की ज़रूरत है। योजनाबद्ध तरीक़े से ऐसे बर्बर अपराध करने वालों को ‘किशोर न्याय क़ानून’ के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। हम कतिपय मानवाधिकारकर्मियों की राय से कतई सहमत नहीं हैं जो हर मनुष्य के जीवन को क़ीमती मानने, उसके अपराधों के लिए सामाजिक परिवेश को ज़िम्मेदार मानने तथा उन्हें सुधरने का अवसर देने के तर्क के आधार पर ऐसे मामलों में भी मृत्युदण्ड का विरोध करते हैं। जो व्यक्ति विमानवीकृत होते हुए मनुष्य होने की बुनियादी शर्तों को खो चुका हो, उसके सुधरने की सम्भावना बहुत कम होती है। ऐसा व्यक्ति मौक़ा मिलते ही फिर कभी कोई घोर मानवताविरोधी कृत्य कर सकता है। अतः प्रश्न यहाँ किसी प्रकार के प्रतिशोधात्मक दण्ड का नहीं है, बल्कि, कोई जोखिम न लेते हुए, समाज के लिए खतरा बन चुके ऐसे व्यक्ति को मृत्युदण्ड ही दिया जाना चाहिए। उसी तरह, जिस तरह पागल कुत्ते को मार दिया जाता है। लेकिन सवाल यहीं समाप्त नहीं हो जाता। मूल बात यह है कि पूँजीवाद, विशेष तौर पर आज का पूँजीवाद ही ऐसे अपराधों और ऐसे अपराधियों को जन्म दे रहा है। वही पूँजीवाद जो युद्ध, भुखमरी, कुपोषण, नरसंहार, बीमारियों, दवाओं और बुनियादी ज़रूरतों के अभाव और पर्यावरण विनाश के रूप में मानवता पर लगातार कहर बरपा कर रहा है। पूँजीवाद ही इतिहास का असली अपराधी है। मुनाफ़ाख़ोरी और पूँजी संचय स्वयं में एक अपराध है जो यंत्रणा के सागरों में ऐश्वर्य के टापुओं का निर्माण करता है। अतः यदि व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो इतिहास की अदालत में मृत्युदण्ड की सज़ा पूँजीवाद को सुनायी गयी है, जिसकी तामील मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता को करनी है। पूँजीवाद आज सांस्कृतिक-आत्मिक धरातल पर मनोरोग, और अपराध की संस्कृति और अपराधी ही पैदा कर सकता है।
लेकिन मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की लड़ाई एक लम्बी लड़ाई है। तब तक स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ती दरिन्दगी को हम बस यूँ ही चिन्ता और गुस्सा ज़ाहिर करते हुए देखते-भुगतते नहीं रह सकते।
आज मेहनतकश जनसमुदाय को अपराधियों-लम्पटों का मुक़ाबला करने के लिए स्वयं संगठित होना होगा। हमें बस्तियों में, मुहल्लों में, गाँवों में, मज़दूरों के, स्त्रियों के, नौजवानों के और जागरूक नागरिकों के चौकसी दस्ते बनाने होंगे। नशा, अपराध, और अश्लील सामग्री बेचने वालों के अड्डे को संगठित होकर तबाह करना होगा। विशेषकर स्त्रियों की संगठित शक्ति को आगे आना होगा।
पूँजीवाद नित नयी बर्बरताओं का कहर हम पर ढाता रहेगा। इसका संगठित प्रतिरोध ही बचाव का एकमात्र तात्कालिक रास्ता है।
16 दिसम्बर 2012
यह दिन याद दिलाता रहेगा
हमें उन अदृश्य बेड़ियों, यंत्रणागृहों और कब्रगाहों की
जो हर औरत की नियति है इस अँधेरे समय में।
यही दिन था
जब दिल्ली के दरिन्दों की हैवानियत की शिकार बनी
हमारी बहादुर बहन।
तेरह दिनों तक मौत से जूझने के बाद वह चिरनिद्रा में सो गयी,
देश की तमाम औरतों, तमाम इंसाफ़पसन्द नागरिकों
और युवाओं की
आत्माओं को जगाकर।
सड़कों पर बह निकला आक्रोश का दहकता लावा,
भयाक्रान्त सत्ताधारी कानून व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए
देने लगे आश्वासन, करने लगे घोषणाएँ,
बहाते रहे घड़ियाली आँसू।
बहनो! साथियो!
इन घड़ियाली आँसुओं और सुधार की पैबन्दसाजियों से
धोखा नहीं खाना है हमें।
बेशक, यदि हम संगठित हो संघर्ष करें
तो हासिल कर सकते हैं कुछ सुरक्षा और कुछ अधिकार
इस पूँजीवादी व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर भी।
लेकिन यदि चाहिए मर्दवादी उत्पीड़न के सभी रूपों का ख़ात्मा, यदि चाहिए सच्चे अर्थों में समानता और न्याय
तो लड़नी होगी एक लम्बी लड़ाई
इस पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ भी
तमाम शोषित-उत्पीड़ित मेहनतकश आवाम के साथ मिलकर।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2013
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