Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Thursday, August 16, 2012

संपादकीय : शौचालय बनाम हथियार

http://www.samayantar.com/

ऐसे तथ्य हैं जो किसी से छिपे नहीं हैं। पर इन के संबंध में बोलना एक तरह से मुख्यधारा में वर्जित है – देश की सुरक्षा के नाम पर। और संभवत: गौरव के नाम पर। विशेष कर शासक वर्ग के नेताओं की ओर से तो इन बातों पर शायद गलती से भी कभी बोला जाता हो।

jairam-rameshजयराम रमेश ऐसे कांग्रेसी नेताओं में से हैं जो अपने सामाजिक सरोकारों के लिए चर्चा में रहते हैं। वह मंत्री हैं और अक्सर ऐसे वक्तव्य देने से चूकते नहीं हैं जो उनकी सामाजिक चिंताओं को व्यक्त करते हैं। इधर ये चिंताएं उनके मंत्रालय के कामों से जुड़ी होती हैं। जैसे कि जब वह पर्यावरण मंत्रालय देख रहे थे तो उन्होंने नदियों और उन पर बनाए जानेवाले बांधों पर कुछ ऐसी बातें कहीं जो सही तो थीं पर सत्ताधारियों के लिए असुविधाजनक थीं। नतीजा हुआ कि उन्हें पर्यावरण से हटा कर ग्रामीण विकास मंत्रालय भेज दिया गया है। इधर उन्होंने फिर से एक ऐसी बात कही है जो हमारी आधारभूत समस्या से जुड़ी है, लेकिन शायद ही किसी अखबार ने इस पर चर्चा की जरूरत समझी हो। हां, समाचार के रूप में यह एक-आध जगह छपी जरूर।

सुरक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और ग्रामीण विकास मंत्रालय के पेयजल व स्वच्छता विभाग के बीच हुए एक समझौते के अनुसार डीआरडीओ ग्रामीण विकास मंत्रालय को ऐसे शौचालय लगाने में मदद करेगा जो पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं हैं। यह ठोस गंदगी को ज्वलनशील गैस और पानी को सिंचाई योग्य बना देगा। पहले चरण में 150 करोड़ रुपए की लागत से एक लाख शौचालय देश के विभिन्न भागों में तीन सौ पंचायतों में लगाए जाएंगे। प्रत्येक शौचालय पर फिलहाल रु. 15 हजार खर्च आता है। इसे बाद में घटा कर 10 हजार पर पहुंचाया जाएगा।

पर जयराम रमेश ने इस संदर्भ में जो बात कही वह देश के पूरे विकास के तौर-तरीके पर गंभीर टिप्पणी है। उन्होंने कहा कि आज देश का रक्षा बजट 1.93 ट्रिलियन (एक लाख 93 हजार करोड़) है जो कि देश के कुल व्यय का 14 प्रतिशत है। दूसरी ओर ग्रामीण विकास, पेय जल और सफाई का कुल खर्च 99 हजार करोड़ है।

उन्होंने कहा कि एक लाख गांवों में ये पर्यावरण को सुधारने वाले शौचालय एक राफेल विमान की कीमत के बराबर पड़ते हैं। इधर भारत ने फ्रांस से 126राफेल लड़ाकू विमान लेने का सौदा किया है। यह सौदा छोटे अनुमान से भी 1, 200 लाख डालर का बैठता है। दूसरे शब्दों में एक राफेल जहाज की कीमत से लगभग एक लाख गांवों में ऐसे शौचालय लगाए जा सकते हैं जो स्वच्छता के अलावा ईंधन और सिंचाई में भी मददगार साबित होंगे।

यूनीसेफ के विश्व स्वास्थ्य संगठन की संयुक्त जांच कार्यक्रम रिपोर्ट- 2010 के अनुसार भारत में लगभग 60 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। 28 जुलाई को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार देश के शहरी क्षेत्रों में पांच करोड़ लोग खुले में शौच करने को मजबूर हैं। देश का 80 प्रतिशत खुला पानी – नदी, तालाब आदि – इसी गंदगी के कारण प्रदूषित रहता है। देश के 15 प्रमुख शहरों में 70 प्रतिशत घरों में स्नानागार-शौचालय या सीवर व्यवस्था नहीं है। यही हाल स्कूलों का है। दिल्ली की 60 प्रतिशत स्लम बस्तियों में सीवर व्यवस्था नहीं है। इस समस्या के चलते देश भर में 23 प्रतिशत लड़कियां माहवारी की समस्या के कारण स्कूल ही छोड़ देती हैं। शहरों में महिलाएं यौन उत्पीडऩ से लेकर अपमानजनक व्यवहार का शिकार होती हैं। देश के 4861 नगरों में तो आंशिक सीवर की व्यवस्था भी नहीं है। यह उस देश की हालत है जो स्वयं को विश्व की नई महाशक्ति कहता है।

पर मसला सिर्फ साफ-सफाई या शौचालयों तक का नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में एक के बाद एक सरकारों ने स्वास्थ्य, शिक्षा, सार्वजनिक यातायात तथा अन्य कल्याणकारी कामों से हाथ खींचना शुरू कर दिया है। यह अचानक नहीं है कि हमें सुनने को मिलता है कि माता-पिता के पास सिर्फ दो सौ रुपए न होने के कारण एक नवजात को इनक्यूबेर की सुविधा नहीं मिल पाई और वह मर गया। या किसी औरत ने अपना बच्चा पचास रुपए में बेच दिया। लगभग सभी प्राथमिक जरूरतों का बड़े पैमाने पर निजीकरण किया गया है और पैसा कमाने पर सभी बंदिशों को खत्म किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में जनता को निजी क्षेत्र के हाथों छोड़ दिया गया है।

दूसरा यह भी किसी से छिपा नहीं है कि देश में खरब पतियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसे धनपतियों का उदय हुआ है जिनके मात्र चार सदस्यों के लिए 26 मंजिला और हजारों करोड़ का मकान है। मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है और विलासिता की वस्तुओं के उपभोग को बढ़ावा मिला है।

साफ है कि यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टिहीनता का नतीजा है। बेहतर तो यह होता कि हम अपनी आर्थिक नीतियों में उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने की जगह देश के संसाधनों के न्यायसंगत वितरण की ओर ध्यान देते। अपनी सैन्य महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित रख, कोशिश करते कि देश में फैली बदहाली और भीषण असमानता घटे। अपने पड़ोसियों से संबंध सुधारने की कोशिश करते। अपने आंतरिक कानून और व्यवस्था के मामलों में भी डंडे का सहारा न लेकर उनके राजनीतिक समाधान की कोशिश करते। हो यह रहा है कि जैसे-जैसे हमारा आर्थिक विकास असंतुलित होता गया है आंतरिक तनाव और टकराहट बढ़ती गई है। कुल मिलाकर संतुलित आर्थिक विकास हमें अपने संसाधनों को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने की सुविधा ही प्रदान नहीं करता बल्कि आंतरिक सुरक्षा पर होनेवाले अनावश्यक खर्च को भी घटाता। पर दुर्भाग्य से उदारीकरण और उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ ने हमारे जैसे असमान विकास वाले देश को जिस दलदल में पहुंचा दिया है उसने आम नागरिक के लिए सम्मान जनक जीवन दूभर कर दिया है।

मानेसर के संकेत

maruti-manesar-troubleमारुति उद्योग के मानेसर कारखाने में जुलाई के मध्य में हुए हादसे के लिए वे नीतियां जिम्मेदार हैं जिनके चलते सरकार ने विदेशी पूंजी को देश के श्रम के शोषण के लिए खुला छोड़ दिया है। एक वर्ष पहले भी इस कारखाने में हड़ताल हुई थी और वह हड़ताल भी सेवा संबंधी शर्तों को लेकर थी। जापानी कंपनी सुजुकी की इस भारतीय कंपनी ने तब समझौता तो किया पर उन 30 मजदूर नेताओं को निकाल दिया था। सच यह है कि अधिसंख्य विदेशी कंपनियों में मजदूर यूनियनें हैं ही नहीं। मानेसर में 18 जुलाई को जो हुआ उसका एक कारण मजदूर यूनियन का न होना माना जा रहा है जो मजदूरों और प्रबंधन के बीच माध्यम का काम करते हैं।

दूसरा और बड़ा कारण यह है कि कम से कम मोटरगाड़ी उद्योग में दिहाड़ी मजदूरों की बड़ी संख्या है। इन्हें जो मजदूरी मिलती है उसे उचित नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए मानेसर के कारखाने में स्थायी मजदूर को जहां 17, 000 रुपए मिलते हैं तो दिहाड़ी मजदूर को 6, 500 से 7, 000 रु. मात्र दिये जाते हैं। यहां के लगभग तीन हजार मजदूरों में से सिर्फ 900 स्थायी हैं। इसी तरह हुंडई में चार हजार और रेनाल्ट में पांच हजार दिहाड़ी मजदूर हैं। हुंडई जहां अपने स्थायी श्रमिकों को 28 से 30 हजार रुपए वेतन देती है वहीं अस्थायी श्रमिकों को सिर्फ 4500 रु प्रतिमाह दिए जाते हैं। इसने एक ओर मजदूरों के बीच दरार पैदा की है तो दूसरी और जबर्दस्त असंतोष और हताशा बढ़ाई है। इन्हें स्वास्थ्य, बीमा, पेंशन, प्रोविडेंट फंड जैसी कोई सुविधा नहीं है। जहां आकाश छूती महंगाई ने जीवन यापन दूभर कर दिया है तो दूसरी ओर मजदूरों को जो वेतन मिल रहा है वह 15 वर्ष पहले मिलने वाले वेतन से वास्तविक अर्थों में घटा है, जबकि कंपनियों के लाभ में इस दौरान लगातार वृद्धि हुई है।

दुखद यह है कि सारे श्रम कानून होते हुए भी मजदूरों के हितों की रक्षा नहीं की जा रही है। मानेसर की घटना मजदूर मोर्चे पर बढ़ती बेचैनी का प्रतीक है। राज्य सरकार जिस तरह से पूंजीपतियों को प्रसन्न करने के लिए मजदूरों की पकड़-धकड़ कर रही है वह इस गहरे असंतोष का इलाज नहीं है। सरकार समय पर नहीं चेती तो इसके दुष्परिणाम घातक और दूरगामी होंगे।


No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors