Saturday, 03 November 2012 12:34 |
सुनील इसी से यह बात भी निकलती है कि जमीन की समस्या के स्थायी और संतोषजनक समाधान के लिए जरूरी है कि गांवों का पुन: औद्योगीकरण किया जाए और गांवों में खेती से इतर दूसरे रोजगार बढ़ाए जाएं। गांव के औद्योगीकरण का मतलब छोटे, कुटीर और गांव-केंद्रित उद्योगों को बढ़ावा देना होगा, क्योंकि गांव में बड़े कारखाने लगाने पर कुछ ही लग पाएंगे और वह गांव तो शहर बन जाएगा, बाकी गांवों की दुर्दशा अपनी जगह रह जाएगी। इसलिए जमीन के सवाल को आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में गांवों की बरबादी और बेरोजगारी से काट कर नहीं देखा जा सकता। इसी वजह से गांधी के लिए यह सबसे बड़ा मुद््दा था। अचरज की बात है कि स्वयं को गांधीवादी कहने के बावजूद यह मुद््दा राजगोपाल के एजेंडे में नहीं दिखाई देता। इस मुद््दे को महत्त्व देने का मतलब मौजूदा अर्थनीति-विकास नीति और साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के विरोध को आंदोलन के केंद्र में रखना होगा। इसी कारण कांग्रेस या भाजपा की सरकारों से भूमि-समस्या का समाधान करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। आमतौर पर गांधीवादियों और कम्युनिस्टों ने जमीन के सवाल को गांव के अंदर ही पुनर्वितरण के सवाल के रूप में देखा है। पर इन दो पहलुओं के कारण यह ज्यादा व्यापक सवाल बन जाता है। भूमि समस्या की जड़ें पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, जाति-व्यवस्था, पुरुष-सत्ता आदि कई चीजों में गुंथी हैं। दरअसल, आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन और भूमि हदबंदी के बाद और भूमि के पारिवारिक बंटवारों के कारण बहुत बड़ी जोत के मालिक काफी कम रह गए हैं। यह सही है कि इन कानूनों परपूरी तरह अमल न होने के कारण अब भी कई जगह बेनामी रूप में बड़ी जमीन के मालिक बचे हैं। उनसे जमीन लेकर और हदबंदी से निकली जमीन को बांटने की मांग बिलकुल जायज है। पर इतने मात्र से जमीन की समस्या हल नहीं होने वाली है। जमीन की समस्या को देखने का हमारा तरीका कई बार विदेशी विमर्श से प्रभावित होता है। लातिन अमेरिका, अफ्रीका आदि में अब भी जमीन का विशाल आधिपत्य कुछ ही हाथों में हैं। वहां बीस-तीस हजार एकड़ के जमींदार मिल जाएंगे। बड़े किसान का मतलब वहां पांच सौ या हजार एकड़ के किसान से होता है। उनके मुकाबले जिसे भारत में बड़ा किसान कहा जाता है, वह तो बहुत छोटा है। वह गांव में दबंग और अत्याचारी हो सकता है, पर पूरी तस्वीर में उसकी स्थिति भी काफी नीचे, तंगहाली और लाचारी की रहती है। इसलिए उसे प्रमुख खलनायक मानना एक दृष्टिदोष और गलत रणनीति है। भारत की परिस्थितियां काफी अलग हैं। यह भी सोचना चाहिए कि गांव की खेती की जमीन को गांव के सारे परिवारों में बराबर बांटने की जो मांग होती है, उसे अमल में लाया गया तो कितनी छोटी और अलाभकारी जोत रह जाएगी। गांव के एक हिस्से को गैर-खेती रोजगार में लगाए बगैर गांव का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता। भूमि के संदर्भ में एक पूरी तरह जायज मांग अनुपस्थित जमीन-मालिकी समाप्त करने का कानून बनाने की हो सकती है। जो भी गांव से बाहर चला गया, चाहे वह भाई हो या बेटा, शहर में रहने वाला सेठ या नौकरीपेशा हो, उसे गांव में जमीन का मालिक बनने का अधिकार नहीं होना चाहिए। इससे गांव में काफी जमीन उपलब्ध हो सकेगी, सचमुच में खेती करने वाले उसके मालिक बन सकेंगे और उन्हें जमीन का किराया या बंटाई का हिस्सा नहीं देना पड़ेगा। शहर या गांव में निवास का फैसला मतदाता-सूची से हो सकता है। ऐसा कानून गांव को तोड़ेगा नहीं, बल्कि गांव की एकता बनाने में मददगार हो सकता है। अचरज की बात यह भी है कि भूमि-सुधारों की चर्चा में या किसान आंदोलनों के मांगपत्रों में अनुपस्थित जमीन-मालिकी पर पाबंदी की बात गायब रहती है। आजादी मिलने के बाद भूदान आंदोलन गांव के अंदर जमीन की समस्या को हल करने की एक कोशिश थी। विनोबा के साथ जेपी और सैकड़ों युवा इस आंदोलन में कूद पड़े। मगर जमीन की समस्या हल नहीं हुई। भूदान आंदोलन विफल रहा, क्योंकि यह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को बदले बगैर, सत्ता समीकरणों में खलल डाले बगैर, केवल हृदय-परिवर्तन से भूमि समस्या को हल करने की कोशिश थी। जयप्रकाश नारायण ने बाद में 1977 में 'सामयिक वार्ता' पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कबूल किया कि वर्ग-संघर्ष तो होगा। गांधी की योजना में भी सत्याग्रह यानी अहिंसक संघर्ष का स्थान प्रमुख रहता था। विनोबा के एजेंडे में व्यापक बदलाव की बात फिर भी थी, पर राजगोपाल के साथ वह भी गायब है। व्यापक संदर्भों से काट कर, संघर्ष के किसी कार्यक्रम के बगैर, वे केवल पदयात्राएं करते हैं और सत्ताधीशों से उम्मीद करते हैं कि वे भूमि समस्या हल कर देंगे। गांधी से विनोबा और विनोबा से राजगोपाल तक सर्वोदय की यह यात्रा भटकती लगती है। कुल मिलाकर, जमीन के सवाल को, व्यापक संदर्भों को जमींदोज न करते हुए, नए धरातल पर खड़े होकर देखने की जरूरत है। |
Sunday, November 4, 2012
जमीन की हकीकत
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