पूँजी, सत्ता औेर मीडिया का त्रिकोण
कात्यायनी
कल के 'जनसत्ता' अखबार में पुण्य प्रसून वाजपेयी की टिप्पणी छपी है: ''जो लोकशाही के निगहबान थे, वे बन गये चारण।'' पूरी टिप्पणी बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों का चालाकी भरा मुज़ाहरा भर है। वाजपेयी जी भूतपूर्व मार्क्सवादी हैं, क्रान्तिकारी वामपंथी रह चुके हैं। इतना तो वह समझते ही होंगे कि तमाम बड़े और छोटे पूँजीपतियों के मालिकाना वाले राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबार और मीडिया चैनल बुर्जुआ लोकशाही के दायरे के भीतर ही जनवाद-जनवाद का ड्रामा खेलते रहे हैं। वास्तव में लोक के पक्ष में वे कभी नहीं रहे हैं। इनका काम व्यवस्था के लिए केवल 'सहमति का निर्माण' करना ही नहीं रहा है बल्कि व्यवस्था के दायरे के भीतर 'असहमति का निर्माण' करना भी रहा है, क्योंकि सहमति और असहमति की इस नौटंकी से जनता को दिग्भ्रमित और विभ्रमित किये बिना बुर्जआ जनवाद का यह खेल जारी रह ही नहीं सकता। पहले भी किसी पत्रकार की रिपोर्ट या टिप्पणी बुर्जुआ जनवाद की वैधता पर सवाल उठाती थी या मालिक घरानों के हितों के खिलाफ जाती थी तो 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का विभ्रम तुरन्त टूट जाता था।
पूँजी, सत्ता और मीडिया का जो त्रिकोण पहले जिस परदे के पीछे काम करता था, वह नवउदारवाद के दशकों के दौरान झीना होता चला गया और फिर एकदम से ज़मीन पर आ गिरा। सरकार पूँजीपतियों की 'मैनेजिंग कमेटी' पहले भी थी, पर अब सीधे-सीधे उस रूप में काम करते हुए दीखने लगी। मुख्य धारा का मीडिया एकदम बेहयायी के साथ पूँजी और सत्ता के चारण-भाट की भूमिका में नज़र आने लगा। दरअसल नवउदारवादी नीतियों और पूँजीवादी व्यवस्था का अन्तर्निहित ढाँचागत संकट सत्ता के ढाँचे और समाज के ताने-बाने के भीतर रहे-सहे बुर्जुआ जनवाद को भी तेजी से क्षरित-विघटित कर रहा है। इसी मूल गति के परिणामस्वरूप फासिस्ट मोदी के नेतृत्व में एक घोर अनुदारवादी, धुर दक्षिणपंथी सरकार सत्तारूढ़ हुई है जो देशी-विदेशी पूँजी के सहारे दिन-दहाड़े अपनी काली कारगुजारियाँ कर रही है। पर्दे के पीछे कुछ भी नहीं है। पूँजीवादी मीडिया खुलकर विकास और 'गुड गवर्नेंस' का कीर्तन गा रही है। पूँजी का क्रीतदास बना बौद्धिक वर्ग का बहुलांश लूटे गये अधिशेष में से फेंके गये टुकड़ों को पागलों की तरह लूट रहा है, खुले तौर पर पूँजी के प्रबंधकों के कतार में जा बैठा है और अल्पसंख्यक कुलीन तंत्र के पदसोपान में हैसियत मुताबिक व्यवस्थित हो गया है। हमारे समाज में इसी 'मुखर तबके' के बीच से उठने वाले अलग-अलग स्वर जनता के अलग-अलग स्वर माने जाते हैं और यह मिथ्याभास पैदा किया जाता है कि मुख्यधारा की मीडिया के जनवादी स्पेस में असहमति के स्वरों की गुंजाइश बनी हुई है। अब, जब इस मिथ्याभास का मायाजाल भी टूट रहा है, तो लाखों रुपये महीने के पैकेज पर इस चैनल से उस चैनल में छलाँग लगाते रहने वाले कुछ महारथी अखबारी पन्नों पर और अखबारों के कुछ धुरंधर मीडिया चैनलों पर अक्सर ही पत्रकारिता में नैतिकता को लेकर चिन्ताएँ प्रकट करते और तरह-तरह के उपाय सुझाते दीख जाते हैं। यह काम वे लोग भी करते हैं जिनके शेयरों के भाव मीडिया के सट्टाबाजार में गिर चुके होते हैं या जो बाजार से बाहर कर दिये गये होते हैं। ऐसे लोगों के सन्दर्भ में तो केवल ला रोशफ़ुको को ही याद किया जा सकता है, जिन्होंने कहा था : '' जब दुराचार हमें छोड़ देते हैं, तो हम अपने को यह विश्वास दिलाने का प्रयास करते हैं कि हमने ही दुराचार को छोड़ दिया है।'' और यह भी, ''वृद्ध अच्छी सलाहें देना इसलिए पसन्द करते हैं कि अब वे बुरी मिसालें पेश करने योग्य नहीं रह जाते।''
आज से डेढ़ सौ वर्षों पहले लंदन में पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता को लेकर एक बहस चली थी। उसमें अपनी अवस्थिति रखते हुए कार्ल मार्क्स ने तीन बिन्दुओं को रेखांकित किया था। पहला, बुर्जुआ समाज में व्यवसाय के तौर पर निकाली जाने वाली पत्र-पत्रिकाएँ जब स्वतंत्रता की माँग करती हैं तो उनका वास्तविक मतलब केवल व्यवसाय की स्वतंत्रता ही हो सकता है। दूसरा, जिन्दा रहने और लिखते रहने के लिए कमाने के बजाय एक लेखक या पत्रकार जब कमाने के लिए जिन्दा रहने और लिखने लगता है तो इस आन्तरिक अस्वतंत्रता के दण्डस्वरूप (मालिकों या सत्ता द्वारा आरोपित) सेंसर की बाह्य अस्वतंत्रता झेलने के लिए वह अभिशप्त होता है, या कहें कि, स्वयं उसका अस्तित्व ही उसके लिए दण्ड बन जाता है। तीसरा, पत्र-पत्रिकाओं की वास्तविक और मुख्य स्वतंत्रता उनके व्यवसाय न होने में निहित है। यानी जाहिर है कि मीडिया की पूँजी और सत्ता की प्रत्यक्ष-परोक्ष जकड़बन्दी, उत्पीड़न और घोषित-अघोषित सेंसरशिप पर बातें उनके मुँह से ही शोभा पाती हैं, जो व्यवसाय के लिए नहीं, बल्कि अपनी (निजी या सामूहिक) राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता के तहत पत्र-पत्रिकाऍं निकालते हैं, जो मीडिया-मुगलों के भाड़े के टट्टू नहीं, जिनपर चैनल वाले रेस के घोड़ों की तरह दाँव नहीं लगाते, जो पुराने जमींदारों की रखैलों की तरह ज्यादा मुहरें देने वाले का वफादार बन जाने का खेल नहीं खेला करते। मीडिया द्वारा पूँजी और सत्ता के दरबार में चारण-गान गाने की जगजाहिर सच्चाई पर पुण्य प्रसून वाजपेयी जब शोकगीत गाते हुए 'कागद कारे' करते हैं, जो खुद ही इलेक्ट्रानिक मीडिया में इस सारे खेल के एक मोहरा हैं, रेस का घोड़ा हैं, तो उनका यह उद्यम बुर्जुआ जनवाद की उघड़ती लाज ढापने की असफल कोशिश से अधिक कुछ भी नहीं प्रतीत होता। इसपर किसी को हँसी आ सकती है और किसी को उबकाई।
असद ज़ैदी सम्पादित 'जलसा' के प्रवेशांक (2010) में देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता छपी थी। उसे पढ़ने के बाद, आजतक जब भी कभी पुण्य प्रसून वाजपेयी का चौखटा छोटे परदे पर अपने पिटे-पिटाये जुमलों और नितान्त अशुद्ध उच्चारण के साथ सामने आता है या गोल-गोल जलेबी जैसी शैली में अखबारी पन्ने पर जब भी कभी वे कोई दो कौड़ी की बात दूर की कौड़ी लाने वाली शैली में बखान करते हुए अपनी अहम्मन्य, मौलिक कूपमण्डूकता की अनूठी बानगी पेश करते हैं तो मुझे वही कविता याद आ जाती है और बेइख्तियार हँसी छूट पड़ती है। जो इस कविता का आनंद ले पाने से अबतक वंचित हैं, उनके लिए पूरी कविता यहाँ प्रस्तुत है:
चैनल पर रेडिकल
देवी प्रसाद मिश्र
झारखण्ड के जंगलों जैसी दाढ़ी वाले एंकर को आप
इस तरह भी पहचान सकते हैं कि वह महादेवी वर्मा जैसा
चश्मा लगाये रहता था -- आप कह सकते हैं कि वह छायावादी लगता था
वैसा ही रोमांटिक आल बाल जाल वैसा ही केश कुंचित भाल
इलाचंद्र जोशी के छोटा भाई जैसा
मृणाल सेन के सबसे छोटे भाई जैसा
और युवा आंबेडकर के बड़े भाई जैसा
चिट फंड वाले टीवी चैनल में नौकरी करते हुए उसने भारतीय राज्य को
बदलने का सपना देखा -- यह उसकी ऐतिहासिक भूमिका थी मतलब कि आप
पाँच छह लाख रुपये महीना लेते रहें
नव नात्सीवादी प्रणाम करते रहें और नक्सली राज्य बनाने का सपना देखते
रहें... तो यह उसकी दृढ़ता की व्याख्या थी
तो जैसा कि उसके बारे में कहा गया कि उसके
एक हाथ में कैपिटल थी और दूसरे हाथ में दास कैपिटल
लेकिन बात को यहीं खत्म नहीं मान लिया गया, कहा गया कि
दास कैपिटल का मायने है कैपिटल का दास मतलब कि
रैडिकल इसलिए है कि बाजार में
एंकर विद अ डिफरेंस का हल्ला बना रहे
आप जानना चाहते होंगे कि मेरी उसके बारे में क्या राय है
तो मैं कहूँगा कि वह अर्णव और प्रणव से तो बेहतर था वह नैतिकता का पारसी
थियेटर था और चैनलों के माध्यम से क्रांति का वह सबसे बड़ा आखिरी प्रयत्न
था और... और क्या कहा जाय
उसने किसी की परवाह नहीं की -
श को निरंतर स कहने की भी नहीं
उसने शांति को सांति कहा ज़ोर को
पूरा जोर लगाकर जोर
शरच्चंद्र के एक डॅाक्टर पात्र की तरह
क्षयग्रस्त मनुष्यता को ठीक करने
वह फिर आयेगा किसी चैनल पर
बदलाव का गोपनीय कार्यभार लेकर
डेढ़ करोड़ के पैकेज पर
तबतक आप देव डी का विस्तृत अधरूपतन देखिये
और रंग दे बसंती का बॉलीवुडीय विद्रोह -
रेड कॉरीडोर में बिछी लैंडमाइनों की
भांय भांय के बैकड्रॉप में
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