अब 'सिक्किमीकरण' नहीं बल्कि 'मोदीकरण'
आनंद स्वरूप वर्मा
भारत के पड़ोसी देशों में प्रायः भारत को लेकर एक आशंका बनी रहती है। 1975 मंे सिक्किम के भारत में विलय के साथ इस उपमहाद्वीप के राजनीतिक शब्दकोष में एक नया शब्द जुड़ा-'सिक्किमीकरण'। नेपाल इस घटना से सबसे ज्यादा बेचैन हुआ और उसने अपनी विदेश नीति को इस तरह संयोजित करना शुरू किया ताकि अपने उत्तरी पड़ोसी चीन को भी वह कुछ तरजीह दे सके। यद्यपि दक्षिणी पड़ोसी भारत के साथ उसके सांस्कृतिक और सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों की तुलना में ज्यादा गहरे और पुराने थे लेकिन सिक्किमीकरण की घटना ने उसे उत्तर की ओर देखने के लिए मजबूर किया।21वीं सदी के इस कालखंड में-खासतौर पर नेपाल के संदर्भ में-एक नया शब्द जन्म ले रहा है और वह है 'मोदीकरण'।
अब भारत को कुछ भी ऐसा करने की जरूरत नहीं है जिससे यह आरोप लगाया जा सके कि उसने विस्तारवाद का परिचय देते हुए पड़ोस के अमुक इलाके को या अमुक देश को अपने अधीन कर लिया। अब उसे सिक्किम की तरह रातांेरात अपनी सेना और अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को भेजकर किसी चोग्याल को कैद करने की जरूरत नहीं है। अब उसे कोई एक लेन्दुप दोरजी नहीं चाहिए जो उसकी ओर से अपने देश की राजनीति को संचालित करे। अब वह लेन्दुप दोरजियों की एक जमात अलग-अलग पार्टियों के नेताओं और जनता के विभिन्न तबकों में ही पैदा करने की हैसियत पा चुका है। अब ताकत की जरूरत नहीं बल्कि कभी नसीहत देकर तो कभी हिदायत देते हुए, कभी मुस्करा कर तो कभी नजर तिरछी करते हुए वह अपना काम संपन्न कर सकता है जिसके लिए उसे अब तक हथियारों और सैनिकों की जरूरत होती थी। यह है आज के युग का सिक्किमीकरण। यह है नए अवतार का 'सिक्किमीकरण' जिसे आप सुविधा के लिए 'मोदीकरण' कह सकते हैं।
प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस वर्ष अगस्त में नेपाल की पहली यात्रा की और खुद नेपाल के कुछ राजनेताओं के अनुसार उन्होंने 'नेपाल की जनता का दिल जीत लिया'। नेपाली संसद में शानदार भाषण, पशुपतिनाथ के मंदिर में पूजा अर्चना और नेपाल को बड़े-बड़े तोहफों की सौगात के जरिए उन्होंने नवंबर में नेपाल की धरती को अपने कदमों से पुनः कृतार्थ करने का वायदा भी कर दिया। यह तो इत्तफाक है कि नवंबर में ही सार्क देशों का शिखर सम्मेलन तय था। अगर यह तय नहीं होता तो भी यह यात्रा होनी ही थी। इस यात्रा में बहुत सारे अधूरे काम पूरे होने थे जो बकौल मोदी जी 'पिछले 20-30 वर्षों से रुके पड़े थे।'अपनी इस यात्रा में एक विनम्र दर्प के साथ मोदी ने घोषणा की कि पिछली यात्रा में उन्होंने जो वायदे किए थे उसे 'महज 100 दिनों में' पूरे कर दिए। सचमुच वे वायदे पूरे हो गए। अपर कर्णाली जल विद्युत परियोजना पर समझौता संपन्न हो गया, अरुण-3 जल विद्युत परियोजना पर समझौते का एक चरण संपन्न हो गया, दोनों देशों के बीच बस सेवा शुरू कर उन्होंने 'कनेक्टिविटी' के अपने वायदे का एक अंश पूरा कर दिया, एक अस्पताल और ट्रामा सेंटर का निर्माण हो गया वगैरह-वगैरह।
जो नहीं हो सका उसके लिए मोदी जी को क्यों दोष दिया जाय! नेपालियों की मति मारी गयी थी कि उन्होंने जनकपुर, लुंबिनी और मुक्तिनाथ की यात्रा में विघ्न पहुंचा दी। इस'पाप' का फल उन्हें भुगतना पड़ सकता है। तराई के लोग कितनी हसरत पाले हुए थे कि मोदी जी जब सड़क मार्ग से जनकपुर में प्रवेश करेंगे और जानकी धाम मंदिर में राम-सीता विवाह के अवसर पर वहां उपस्थित होंगे तो दोनों देशों की मैत्री में चार-चांद लग जाएंगे। कॉरपोरेट घरानों के पैसों पर पल रहे भारत के कई टीवी चैनलों ने बड़े उत्साह के साथ अपनी कैमरा टीमों को तैयार रखा था ताकि वे देश-विदेश की जनता को आंखों-देखा विवरण प्रस्तुत कर सकें। जी-न्यूज ने तो 'मोदी चले राम के ससुराल' शीर्षक से एक पूरा कार्यक्रम भी 13 नवंबर को प्रसारित किया था। जनकपुर के मंदिर परिसर में एक सार्वजनिक सभा की तैयारी भी पूरी हो गयी थी लेकिन सरकार के एक मंत्री के अनुसार माओवादियों और उनके बहकावे में आए कुछ मधेसियों ने सारी योजना पर पानी फेर दिया। नेकपा (एमाले) के कुछ नेताओं ने भी इस बात पर एतराज प्रकट किया कि किसी दूसरे देश का प्रधानमंत्री कैसे यहां आकर सार्वजनिक सभा कर सकता है। उनका कहना था कि क्या सार्क सम्मेलन में आने वाले अन्य नेता मसलन पाकिस्तान, श्रीलंका या भूटान के नेताओं को इस बात की छूट मिल सकती है कि वे नेपाल में जनसभाएं करें? एक कुशल राजनीतिज्ञ और गुजरात जैसे प्रांत में डेढ़ दशक तक मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के नाते नरेन्द्र मोदी को यह तो पता ही होगा कि इस तरह के आयोजनों की इजाजत प्रोटोकोल नहीं देता। बावजूद इसके अगर उन्होंने यह कार्यक्रम बनाया था तो जानना दिलचस्प होगा कि इसके पीछे कौन सी मानसिकता काम कर रही होगी। क्या वह नेपाल को कोई अलग राष्ट्र नहीं मानते? क्या वह नेपाल को भारत का ही एक विस्तार मानते हैं? क्या दोनों देशों के हिन्दू बहुल होने की वजह से संप्रभुता की लकीर मिट गयी थी? अगर ऐसा है तो निश्चय ही यह एक बेहद खतरनाक बात है। तराई के कुछ प्रायोजित संगठन अगर यह कह रहे हैं कि मोदी के इस इलाके में आने से यहां की समस्याएं उनकी समझ में आतीं और समाधान होता तो इस कथन के पीछे उनका आशय क्या है? वे कौन लोग हैं जिन्होंने मोदी की यात्रा रद्द होने के खिलाफ प्रदर्शन का आयोजन किया? क्या वे राष्ट्रीय स्वयं संघ की शाखा 'हिंदू स्वयंसेवक संघ', 'सीमा जागरण मंच' और 'हिन्दू जागरण मंच' के लोग हैं जो मध्ेासी जनअधिकार फोरम अथवा इसी तरह के संगठनों में अपनी घुसपैठ बना चुके हैं? विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने पूर्वी नेपाल के विराटनगर शहर में अप्रैल2014 में हिन्दू कार्यकर्ताओं की एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि 'अगर नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन गए तो नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाएगा।'अशोक सिंघल के अलावा इस संगठन के और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अन्य नेताओं ने भी समय-समय पर इसी तरह की बातें की थीं। इन दोनों संगठनों को अगर यह कहकर छूट दे दी जाय कि ये गैर राजनीतिक संगठन हैं तो भी अगर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने इसी तरह के उद्गार प्रकट किए हों तो उसे क्या कहा जाएगा। अभी कुछ ही वर्ष पूर्व मार्च 2010 में नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोईराला के निधन के बाद उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए जब भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष और भारत के वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह काठमांडो गए थे तो उन्होंने कहा था कि 'हमें इस बात पर हमेशा गर्व होता रहा है कि नेपाल दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र है। अगर नेपाल फिर से हिन्दू राष्ट्र बन सके तो मुझे सबसे ज्यादा खुशी होगी।' भाजपा के ही एक अन्य नेता विजय जौली और भगत सिंह कोश्यिारी ने भी नेपाल की धरती पर जाकर उसके हिन्दू राष्ट्र न रहने पर दुःख प्रकट किया था। लेकिन अब राजनाथ सिंह सहित अन्य नेता सत्ता की मजबूरियों को देखते हुए यह कहने लगे हैं कि केवल उनके चाहने से नहीं बल्कि नेपाली जनता के चाहने से ही नेपाल फिर हिन्दू राष्ट्र हो सकता है।
तो बात अब नेपाली जनता के चाहने पर आकर थम गयी है। जरूरत है नेपाली जनता के अंदर वह 'चाहत' पैदा कराने की। जरूरत है एक सहमति के निर्माण की। नोम चोम्स्की का कहना था कि मीडिया सहमति का निर्माण (मैन्यूफैक्चरिंग कॉनसेंट) करता है। नरेन्द्र मोदी और उनकी जमात ने भारतीय मीडिया को काफी हद तक साध लिया है और वह इस काम को बखूबी अंजाम देने में लगा है। हर बात में भारत की नकल करने वाला नेपाली मीडिया फिर क्यों पीछे रहे-वह भी अपने भरसक इसे बखूबी निभाने की कोशिश कर रहा है।
नरेन्द्र मोदी को पता है कि क्रमशः स्थितियां उनके अनुकूल होती जा रही हैं क्योंकि राजा समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी के नेता कमल थापा के अलावा नेपाली कांग्रेस और नेकपा (एमाले) के कई नेता भी अब खुलकर हिन्दू राष्ट्र की वकालत करने लगे हैं। मोदी की यात्रा से महज 20 दिन पहले 7 नवंबर को नेपाल में 'हिन्दू राष्ट्र की पुनर्स्थापना के लिए महाअभियान' के नाम से जो सम्मेलन हुआ उसके कर्त्ताधर्त्ता किसी हिन्दूवादी संगठन के नेता नहीं बल्कि नेपाली कांग्रेस के नेता खुम बहादुर खड़का थे। इस अभियान की रिपोर्टिंग करते हुए 'हिन्दू एग्जिस्टेंस डॉट ओआरजी' नामक वेबसाइट ने लिखा कि'भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बार-बार नेपाल यात्रा इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि नेपाल दुबारा हिन्दू राष्ट्र बनने जा रहा है।' तराई के इलाकों में इन्हीं संगठनों के लोगांे ने बड़े-बड़े बैनर लेकर प्रदर्शन किया और यह संदेश देने की कोशिश की कि मोदी के आने से ही इस देश को बचाया जा सकता है। इंडियन एक्सप्रेस में 7 अप्रैल 2014 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार आरएसएस की नेपाली शाखा 'हिन्दू स्वयं सेवक संघ'तराई के क्षेत्रों में तकरीबन 7 हजार 'एकल विद्यालय' खोलने की योजना पर काम कर रहा है ताकि हिन्दू राष्ट्र के खिलाफ की गयी साजिश को विफल किया जा सके। इसी रिपोर्ट में मोदी के चुनाव अभियान का जिक्र करते हुए कहा गया था कि किस तरह उन्होंने सोमनाथ (गुजरात), विश्वनाथ (वाराणसी) और पशुपतिनाथ (नेपाल) के बीच एकजुटता कायम कर सांस्कृतिक तौर पर हिन्दुओं को संगठित किया है। ऐसा करते हुए मोदी लगातार 'विकास' की बात करते रहे हैं और इनसे संबद्ध अन्य संगठन हिन्दू राष्ट्र की पुनर्स्थापना के अभियान को मजबूत करने में लगे हैं। इस रिपोर्ट में अशोक सिंघल के हवाले से कहा गया है कि नेपाल को आज एक मोदी की जरूरत है।
जनकपुर की यात्रा के दौरान पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नरेन्द्र मोदी छात्रों के बीच3000 साइकिलों का वितरण करने वाले थे। उनके इस कार्यक्रम की तीखी आलोचना करते हुए एनेकपा (माओवादी) के नेता गिरिराज मणि पोखरेल और नेकपा (एमाले) के उपाध्यक्ष युवराज ज्ञवाली ने टिप्पणी की कि क्या यह मोदी का कोई चुनाव क्षेत्र है जहां वह साइकिलें बांटने आ रहे हैं? उन्होंने सवाल किया कि क्या किसी अन्य देश के प्रधानमंत्री को इस बात की इजाजत दी जा सकती है? इन मुद्दों पर इतना हो-हल्ला हुआ कि उन्हें यह सारा कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। वैसे, मोदी समर्थकों का कहना है कि यह कार्यक्रम रद्द नहीं बल्कि 'स्थगित' किया गया है।
कहने के लिए तो नरेन्द्र मोदी सार्क देशों के शिखर सम्मेलन में भाग लेने आए लेकिन उनका सारा ध्यान नेपाल की राजनीति को अपने अनुरूप ढालने में ही लगा रहा। उन्होंने विभिन्न दलों के नेताओं से अलग-अलग मुलाकात कर और सार्वजनिक तौर पर भी यही बात कही कि वे निर्धारित अवधि के अंदर अर्थात 22 जनवरी 2015 तक संविधान का निर्माण कर लंे वरना...। एक भारतीय टीवी चैनल ने इसे बड़े भाई की सलाह कहा तो एक ने 'सख्त हिदायत' नाम दिया। भारत और नेपाल के अखबारों में जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई उसके अनुसार मोदी ने सचमुच इन नेताओं को हिदायत दी है और कहा है कि वह (मोदी) उम्मीद करते हैं कि प्रत्येक नेता 22 जनवरी को फोन करके उन्हें खबर देगा कि संविधान का निर्माण हो गया। इस दुःसाहस को क्या कहा जाए! क्या नरेन्द्र मोदी नेपाल को अपना कोई सूबा समझ रहे हैं? क्या भविष्य का नेपाल उनकी कल्पना में एक ऐसा नेपाल है जो उनके डिक्टेट पर काम करेगा? अगर ऐसा है तो मोदी ने एक खतरनाक खेल की शुरुआत कर दी है। इसकी परिणति इस उपमहाद्वीप की राजनीति को कहां तक ले जाएगी यह आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन एक बात तो तय है कि 'मोदीकरण' के रूप में 'सिक्किमीकरण' एक नए अवतार में जन्म ले रहा है।
यह लेख किंचित संशोधन के साथ आज (3 दिसंबर 2014 ) के नेपाली दैनिक 'कान्तिपुर' में प्रकाशित हुआ है.
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