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Tuesday, September 8, 2015

अटाली की आवाज़ें -इरफान इंजीनियर


दिनांक 08.09.2015

अटाली की आवाज़ें

-इरफान इंजीनियर

हरियाणा के फरीदाबाद जिले के बल्लभगढ़ के नज़दीक अटाली गांव में 25 मई, 2015 को सांप्रदायिक हिंसा हुई, जिसके कारण अटाली के सभी मुस्लिम रहवासियों को गांव छोड़कर भागना पड़ा। मुसलमानों द्वारा गांव में पक्की मस्जि़द के निर्माण पर कुछ जाटों को आपत्ति थी। मुसलमान लगभग 50 साल से ज़मीन के एक टुकड़े पर नमाज़ अदा करते आए थे। किसी को इससे कोई तकलीफ नहीं थी।

दंगे में कुछ मुसलमान घायल हुए और कुछ घरों को आग के हवाले कर दिया गया। गांव के मुसलमानों ने कुछ दिन तक पुलिस स्टेशन में शरण ली। बाद में, कुछ जाट बुजुर्गों ने उन्हें गांव वापस लौटने के लिए राज़ी कर लिया। मस्जि़द के निर्माण पर एक अदालत ने रोक लगा दी और इस आदेश का गांव के मुसलमान पालन कर रहे हैं। गांव वापस आने के बाद मुसलमानों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उन्हें कोई काम नहीं देता था और ना ही सामान बेचता था। बच्चों के लिए दूध भी उन्हें गांव के बाहर से खरीदकर लाना पड़ता था। मुस्लिम बच्चे, गांव के स्कूल में पढ़ नहीं सकते थे। गत् 1 जुलाई को इस गांव में फिर सांप्रदायिक हिंसा भड़की। सीएसएसएस के एक दल, जिसमें यह लेखक, संध्या म्हात्रे व नेहा दाभाड़े शामिल थे, ने 17-18 अगस्त को अटाली पहुंचकर वहां के सभी समुदायों के सदस्यों से बातचीत की। हम इस चर्चा के चुनिंदा अंश यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।

पुलिस की भूमिका

यह महत्वपूर्ण है कि अटाली के दंगा पीडि़तों को जाट बुजुर्गों ने सुरक्षा का आश्वासन देकर गांव लौटने के लिए राजी किया। ऐसा बहुत कम मामलों में होता है। जाट-बहुल मुजफ्फरनगर व शामली गांवों के मुस्लिम दंगा पीडि़त, आज भी अपने गांव नहीं लौट सके हैं। यद्यपि यह भी सच है कि गांव वापस आने के बाद, मुसलमानों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। अटाली की सांप्रदायिक हिंसा का एक दूसरा असाधारण पक्ष था पुलिस की रचनात्मक भूमिका। पुलिस ने मस्जिद के निर्माण के लिए सुरक्षा उपलब्ध करवाई। जिला पुलिस अधीक्षक ने हमें बताया कि 25 मई को वे गांव के मुसलमानों की रक्षा इसलिए नहीं कर सके क्योंकि दंगाईयों की संख्या, पुलिसकर्मियों से कहीं ज्यादा थी। परंतु बाद में उन्होंने मुसलमानों को सुरक्षित गांव से बाहर निकाला और पुलिस थाने के अहाते में रहने की इजाज़त दी। पुलिस के हस्तक्षेप से ही मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार खत्म हुआ। पुलिस ने गांव के दुकानदारों को चेतावनी दी कि यदि उन्होंने मुसलमानों को सामान बेचना शुरू नहीं किया तो उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाएगी। निःसंदेह, दुकानदारों को भी इस बहिष्कार से नुकसान हो रहा था और मुसलमान भी यह चाहते थे कि बहिष्कार जल्द से जल्द खत्म हो।

यद्यपि पुलिस ने मुसलमानों को पूरी सुरक्षा दी तथापि उसने जाट दंगाइयों के विरूद्ध समुचित कानूनी कार्यवाही नहीं की। पुलिस का कहना था कि यदि दंगाइयों को गिरफ्तार किया जाएगा तो इससे गांव में बहुत मुश्किल से स्थापित हुआ सांप्रदायिक सद्भाव समाप्त हो जाएगा। पुलिस की इसी हीला हवाली का लाभ उठाकर, शरारती तत्वों ने 1 जुलाई को फिर गांव में सांप्रदायिक हिंसा की। इसके बाद, हिंसा में सीधे लिप्त पाए गए 14 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया परंतु दंगे का षड़यंत्र रचने वाले और जाटों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने वाले अब भी खुलेआम घूम रहे हैं। हमने गिरफ्तार किए गए लोगों के परिवारों से मुलाकात की। वे सभी मस्जिद के निर्माण का समर्थन कर रहे थे। हो सकता है कि वे ऐसा इसलिए कर रहे हों ताकि वे यह साबित कर सकें कि उनके परिवारजन की गिरफ्तारी गलत है। धर्मवीर, जिनके लड़के को गिरफ्तार किया गया है, का कहना था कि मस्जि़द बननी चाहिए और बनेगी।

मस्जि़द

कई दशकों पहले, मुस्लिम समुदाय को मृतकों को दफनाने के लिए गांव के बाहर ज़मीन का एक टुकड़ा दिया गया था। धीरे-धीरे गांव फैलता गया और कब्रिस्तान के आसपास भी मकान बन गए। इसके बाद, मुसलमानों को कब्रिस्तान के लिए गांव के और बाहर ज़मीन आवंटित कर दी गई और मुसलमान, पुराने कब्रिस्तान का इस्तेमाल नमाज़ पढ़ने के लिए करने लगे। उन्होंने वहां कुछ अस्थायी निर्माण भी किए। सन् 2009 में ज़मीन के इस टुकड़े के चारों ओर चहारदीवारी बना दी गई और आरसीसी के कुछ खंभे खड़े किए गए। तत्कालीन सरपंच प्रहलाद सिंह ने इस काम में मदद की। गांववालों को भी इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। ज़मीन का यह टुकड़ा, भूअभिलेखों में वक्फ भूमि के रूप में दर्ज था।

गांव के एक मुस्लिम परिवार, जिसमें ईशाक अली और उनके भतीजे शाकिर अली और शब्बीर अली शामिल हैं, की आर्थिक स्थिति में पिछले कुछ वर्षों में बहुत सुधार आया। वे बिजली के लाईसेंसी ठेकेदार बन गए और उनका पंजीकरण भी हो गया। जिस भी गांव वाले को बिजली के तार आदि की फिटिंग करवानी होती थी या बिजली का मीटर लगवाना होता था, वह ईशाक के जरिए ही ये काम करवाता था। ईशाक और उनके भतीजों की बल्लभगढ़ के मुख्य बाजार में रेडीमेड कपड़ों की एक दुकान भी है। जैसा कि अमूमन होता है, जैसे-जैसे मुसलमान परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरने लगती है उनमें कुछ परिवर्तन आने लगते हैं। जैसे, ऐसे परिवारों के पुरूष सदस्य दाढ़ी बढ़ाने लगते हैं और मुस्लिम टोपी पहनने लगते हैं। वे अन्य धर्मावलंबियों से कुछ अलग दिखना चाहते हैं। यही ईशाक के परिवार के मामले में हुआ। इस परिवर्तन से गांव के संपन्न जाट खुश नहीं थे। ईशाक का परिवार कुछ गैर-हरियाणवी उलेमाओं के संपर्क में भी आया। ये उलेमा फकीरों (गांव के पिछड़े मुस्लिम रहवासियों) की संस्कृति पर प्रभाव डालने लगे और इन उलेमा ने उनके आचार-विचार को "सुधारने" का बीड़ा उठा लिया।  अब फकीर, दब्बू मजदूर नहीं रह गए थे जो संपन्न जाटों की परंपराओं का पालन करते और जाट पंचों के हुक्म को मानते। उन पर गांव के बाहर के लोगों का प्रभाव बढ़ने लगा। ये बाहरी लोग देवबंदी उलेमा थे। मुसलमानों के सामने अब दो सांस्कृतिक परंपराओं में से एक को चुनने का विकल्प था और उन्होंने जिसे ठीक समझा, चुना।

मस्जिद इस परिवर्तन का प्रतीक थी और इसलिए उसका विरोध हुआ। मस्जिद जितनी भव्य और बड़ी होती वह मुस्लिम समुदाय की अपनी अलग पहचान स्थापित करने की कोशिश का उतना ही बड़ा प्रतीक होती। जाटों ने मस्जिद की मीनारें बनाए जाने पर आपत्ति की और अजान के लिए लाऊडस्पीकर के इस्तेमाल पर भी। उनका कहना था कि मस्जिद बनने से बाहरी (मुस्लिम उलेमा) तत्व गांव में आने लगेंगे। मुसलमानों ने यह लिखकर दिया कि अजान के लिए लाऊडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा।

जब तक मुसलमान फकीर, मजदूर थे उनका गांव में स्वागत था। जब विभाजन के बाद गांव में कुछ मुसलमान बसने के लिए आए तो उन्हें अपना मकान बनाने के लिए जमीनें आवंटित की गईं। गांव के दबंग जाटों का दावा है कि जिस जमीन के टुकड़े पर मस्जिद बनाए जाने की कोशिश हुई थी, वह पंचायत की है। मुसलमान वहां नमाज पढ़ते रह सकते हैं परंतु वहां कोई पक्का निर्माण नहीं होना चाहिए। पंचायत ने उन्हें गांव के बाहर एक प्लाट आवंटित कर दिया है और यदि वे चाहें तो वहां पक्की मस्जिद बना सकते हैं।

शांति और सद्भाव के स्वर

गांव के सेवानिवृत्त संस्कृत व्याख्याता हुकुम सिंह के घर हमारे दल ने आठ-दस व्यक्तियों के समूह से लंबी बातचीत की। हम उन्हें भाईचारा समूह का नाम दे देते हैं। हुकुम सिंह को यह पता था कि बादशाह औरंगजेब के बड़े भाई दाराशिकोह ने 52 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था ताकि मुसलमान इन ग्रंथों को पढ़ सकें। जो अन्य लोग वहां थे, उनमें शामिल थे एक कालेज में अंग्रेजी प्राध्यापक जगदीश, रंजीत डाकिया, धर्मवीर, रामवीर और कुछ अन्य युवक। जगदीश की सोच काफी तार्किक थी और वह आंख बंद करके रीति-रिवाजों और परंपराओं का पालन करने के खिलाफ था। उसका कहना था कि पुरातन रीति-रिवाज हम लोगों को बांटते हैं।

भाईचारा समूह ने बताया कि सन् 1947 में गांव के मुस्लिम फकीर (पिछड़ी जाति के मुसलमान) दंगों के कारण असुरक्षित महसूस कर रहे थे तब गांववालों ने उन्हें समझा-बुझाकर पाकिस्तान जाने की बजाए वहीं रहने के लिए राजी किया। फकीर, जाट किसानों के खेतों में मजदूरी करते थे। जाट और फकीर एक दूसरे पर निर्भर थे परंतु इससे भी महत्वपूर्ण यह था कि फकीरों और जाटों में कोई खास फर्क नजर नहीं आता था। वे एक से कपड़े पहनते थे, एक सी भाषा बोलते थे और एक-सी सांस्कृतिक परंपराओं और रीति-रिवाजों का पालन करते थे। दोनों में सिर्फ एक ही अंतर था और वह था आराधना पद्धति का। भाईचारा समूह का कहना था कि गांव के मुसलमानों में बाहरी प्रभाव के कारण आ रहे परिवर्तनों से गांव के जाटों में असुरक्षा का भाव जाग रहा था। और यही असुरक्षा का भाव, मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रहों का स्त्रोत बन गया। उन लोगों ने हमसे ढेर सारे प्रश्न पूछे। वे हमसे यह जानना चाहते थे कि क्या इस्लाम की निगाह में वे काफिर हैं। और यह भी कि मदरसों में क्या सिखाया जाता है? क्या वहां आतंकवादी बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है? कुछ ने पूछा कि क्या मुसलमानों को अपने चचेरे-ममेरे भाई-बहनों से विवाह करने की इजाजत है? हमने उन्हें संक्षेप में बताया कि देश में कई तरह के मदरसे हैं और उनमें से कुछ में आधुनिक शिक्षा भी दी जाती है और गैर-मुस्लिम बच्चों को भी भर्ती किया जाता है। हमने उन्हें यह भी बताया कि दूसरे समुदायों से ज्यादा, मुसलमान एक-दूसरे पर काफिर होने का आरोप लगाते हैं। भारत की सांझा संस्कृति पर भी हमारी चर्चा हुई। इन स्पष्टीकरणों के बाद समूह के सदस्यों ने हमसे खुलकर बातचीत करनी शुरू की और अपने समुदाय की सोच पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए।

गांव में हुई दो घटनाओं का इस्तेमाल, मस्जिद और मुसलमानों के खिलाफ भावनाएं भड़काने के लिए किया जा रहा है। इन मुद्दों की चर्चा भाईचारा समूह ने भी की। रंजीत डाकिया ने बताया कि गांव के एक मुस्लिम लड़के और एक हिन्दू लड़की घर छोड़कर भाग गए और उन्होंने शादी कर ली। जाट यह मानते हैं कि एक गांव में रहने वाले लड़के-लड़कियां आपस में भाई-बहन हैं और उनके बीच विवाह पाप है।  अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों को और बड़ा पाप माना जाता है। मुस्लिम लड़के और हिन्दू लड़की शादी के बाद साथ रहने लगे और उन्हें एक पुत्र हुआ। मुसलमानों ने जाटों के घाव पर नमक छिड़कने के लिए उनसे कहा कि वे जाट लड़की की पहली संतान के जन्म के मौके पर किए जाने वाले रस्मो-रिवाज करें। हम इस घटनाक्रम की पुष्टि नहीं कर सके।

दूसरी घटना एक जाट पंचायत में हुई जिसमें मुसलमानों ने चुनौती देते हुए यह कहा कि चाहे उनके सिर कट जाएं परंतु वे मस्जिद बनाकर रहेंगे। जब हमने मुसलमानों से इस बावत पूछा तो उन्होने ऐसी कोई भी बात कहने से इंकार किया। उल्टे उन्होंने कहा कि जाटों का कहना था कि चाहे उनके सिर कट जाएं, वे गांव में मस्जिद नहीं बनने देंगे। मुसलमानों को जो विभिन्न समझौते करने पड़े और जाटों की शर्तें माननी पड़ीं, उससे दूसरी बात के सही होने की ज्यादा संभावना लगती है। हमारे लिए मुश्किल यह थी गांव में इतनी अलग-अलग तरह की बातें हमसे कही गईं कि हमारे लिए यह पता लगाना असंभव था कि क्या सच है और क्या झूठ।

हुकुम सिंह ने हमें बताया कि जब वे दिल्ली गए थे तब उन्हें वाट्सएप पर डाला गया एक चित्र दिखाया गया जिसके बारे में यह कहा गया कि वह अटाली के एक मंदिर का चित्र है, जिसे मुसलमानों ने क्षतिग्रस्त किया है। उन्होंने चित्र दिखाने वालों से यह साफ कहा कि अटाली में किसी मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया है और उस चित्र में जो मुसलमान दिखाए गए हैं वे अटाली के रहनेवाले नहीं हैं। वाट्सएप और सोशल मीडिया के अन्य मंचों पर इस तरह के अनेक संदेश और पोस्ट चल रहे हैं और ये भी तनाव को बढ़ाने में भूमिका अदा कर रहे हैं। उनकी राय थी कि भाजपा की दिल्ली में सरकार बनने के बाद से मुस्लिम-विरोधी विमर्श में तेजी आई है। आरएसएस की शाखाओं में किशोरों और युवाओं के दिमागों में ज़हर भरा जा रहा है।

भाईचारा समूह ने हमें बताया कि उन्होंने कुछ दिन पहले शांति स्थापना के लिए गांव में एक बैठक का आयोजन किया था। उनमें से कुछ, उन लोगों में शामिल थे जो 25 मई के दंगे के बाद, मुसलमानों को थाने का अहाता छोड़कर गांव में फिर बसने के लिए मनाने गए थे। उन्होंने बताया कि पिछली बैठक में जमकर बहस मुबाहिसा हुआ। कुछ लोग, जो उनसे सहमत नहीं थे, भी बैठक में उपस्थित थे। बैठक में लगभग 60 प्रतिशत लोगों का मत था कि मुसलमानों को मस्जि़द बनाने की इज़ाजत दी जानी चाहिए क्योंकि जिस ज़मीन पर वह मस्जि़द बना रहे हैं वह उनकी है। इसके विपरीत, लगभग 40 प्रतिशत लोगों का कहना था कि मुसलमानों को ''पंचायत'' की ज़मीन पर मस्जि़द नहीं बनाने दी जाने देनी चाहिए। भाईचारा समूह के एक सदस्य ने चर्चा के दौरान बड़ी बढि़या बात कही। उसने कहा कि ''जब गांव में शराब की दुकान हो सकती है तो मस्जि़द क्यों नहीं हो सकती?'' भाईचारा समूह को इस बात का पछतावा था कि जब मुसलमानों का बहिष्कार हो रहा था तब उन्होंने उसका विरोध नहीं किया और ना ही गांव में मुसलमानों के खिलाफ कही जा रही बातों का खंडन किया।

समस्या की जड़-पंचायत राजनीति

गांव में दो पंचायते हैं, एक पारंपरिक और दूसरी संवैधानिक। पारंपरिक पंचायत के सभी सदस्य गांव के प्रतिष्ठित और वरिष्ठ रहवासी होते हैं और वह गांव में सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं का पालन सुनिश्चित करने का काम करती है। संवैधानिक पंचायत, सरकारी तंत्र का हिस्सा है और उसका स्थानीय स्कूलों आदि पर नियंत्रण रहता है। संवैधानिक पंचायत चुनी जाती है। गांव के दबंग जाट बुजुर्ग, संवैधानिक पंचायत को ज्यादा पसंद नहीं करते क्योंकि उसमें सामान्यतः युवा लोग चुने जाते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान ज्यादा से ज्यादा लोगों से संपर्क करना होता है। संवैधानिक पंचायत के चुनाव में सभी बराबर होते हैं। पारंपरिक पंचायत के चुनाव के लिए कोई प्रचार नहीं होता और गांव के सम्पन्न परिवारों के बुजुर्ग जाट स्वमेव उसके सदस्य बन जाते हैं। संवैधानिक पंचायत के पास ढेर सारा सरकारी धन होता है जबकि पारंपरिक पंचायत के पास कोई धन नहीं होता।

अटाली एक छोटा गांव है जिसकी कुल आबादी 6,640 है। इनमें से 3,599 पुरूष हैं और 3,041 महिलाएं। गांव में कुल परिवारों की संख्या 1,193 है। पंचायत के पिछले चुनाव में वर्तमान सरपंच राजेश चौधरी और पिछले सरपंच प्रहलाद सिंह के बीच कड़ा मुकाबला था। गांव में 150 मुस्लिम परिवार रहते हैं और चुनाव में उनके वोटों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शुरूआत में प्रहलाद सिंह ने मस्जि़द के निर्माण का समर्थन किया था। बाद में उसने अपने एक समर्थक के जरिए मस्जि़द के निर्माण के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर करवा दिया। राजेश ने मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए मस्जि़द के निर्माण हेतु 21,000 रूपए का दान दिया। राजेश चौधरी का परिवार आज भी मस्जि़द के निर्माण के पक्ष में है और मुसलमानों के साथ भाईचारा बनाए रखना चाहता है।

गांव के प्रतिष्ठित और सम्पन्न जाट किसानों का कहना है कि संवैधानिक पंचायत, सारी समस्या की जड़ है। सरपंच के चुनाव के लिए कड़ा मुकाबला होता है और सभी उम्मीदवार मुसलमानों के वोट हासिल करने के लिए उन्हें तरह-तरह के वायदे करते हैं। नतीजे में, मुसलमानों को उससे कहीं ज्यादा मिल जाता है जिसके वे हकदार हैं। पारंपरिक रूप से वे केवल सुरक्षा के हकदार थे। गांव के प्रभुत्वशाली जाट इस बात से भी खफा हैं कि मुस्लिम समुदाय के अपेक्षाकृत समृद्ध परिवार ''बाहरी'' संस्कृति अपना रहे हैं। परंतु वे अपने समुदाय के युवकों पर ''बाहरी'' संस्कृति के प्रभाव से भी उतने ही चिंतित हैं। जाट युवकों की मान्यताएं और मूल्य अब केवल जाट परंपराओं पर आधारित नहीं रह गए हैं। वे मोबाइलों, वाट्सएप, इंटरनेट, टेलिविजन और अन्य स्त्रोतों से नई चीज़े सीख रहे हैं। बुजुर्गों का अब उतना सम्मान नहीं किया जाता जितना पहले किया जाता था। जाट लड़कियों का रहन-सहन भी बदल रहा है। शादियों के मामले में गोत्र संबंधी प्रतिबंध लगाना मुश्किल होता जा रहा है। प्रभुत्वशाली जाटों का मानना है कि यदि गांव का मुस्लिम समुदाय, पारंपरिक जाट परंपराओं का पालन करता रहेगा तो वे अपने समुदाय के युवकों से भी इस परंपरा का पालन करवा सकेंगे। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

...अगले अंक में जारी

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