प्रसंग : भाषा के दिन
प्रभु जोशी
जनसत्ता 8 जून, 2014 : पिछले दिनों से कतिपय ‘हिंदियाए’ लोगों के मध्य सोशल मीडिया पर एक असमाप्त-सी निरर्थक बहस चल रही है कि इक्कीसवीं सदी के भारतीय युवाओं के हृदय सम्राट, नव-निर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति महोदय को जो प्रथम पत्र लिखा, वह हिंदी नहीं, बल्कि अंगरेजी में था। इस बात से हिंदी के भी ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ के रुपहले सपनों में डूबे कबीले को सहसा गहरी ठेस लगी। बहरहाल, उनसे ताकीद है कि वे अभी से समुचित साहस जुटा कर रखें, क्योंकि उनके कमजोर दिल को ठेस लगने का यह छोटा-सा श्रीगणेश है, आने वाला समय ठेसों की असमाप्त शृंखला से भरा होना है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हमारी ‘सामूहिक स्मृति’ अत्यंत दुर्बल और दरिद्र है।
हमने न सिर्फ अपने सुदूर अतीत को भुला दिया है, बल्कि निकट अतीत को भी बिसरा चुके हैं। याद करिए, हमने अंगरेजों के बर्बर साम्राज्यवाद के विरुद्ध घोषित लड़ाई हिंदी में लड़ी, लेकिन आजादी मिलते ही- अपने आजाद होने की खुशी का पहला क्षण, हमने अपने मालिकों की भाषा, अंगरेजी में ही व्यक्त किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने हमारी ‘नियति’ से उसी दिन ‘साक्षात्कार’ करा दिया कि अब भारत की प्रथम भाषा, अंगरेजी ही रहने वाली है। उन्होंने अपना पहला संबोधन, जो लोकसभा में दिया था, वह अंगरेजी में था। इतिहास बताता है कि वे तब के युवाओं के हृदय-सम्राट थे और उनकी वाणी से, आजादी के लिए लड़ने वाले युवाओं की शिराओं में बहते रक्त में, ज्वार-भाटा उठ खड़ा होता था और वे अंगरेजी हुकूमत के खात्मे के संकल्प से भर जाते थे। कहने की जरूरत नहीं कि हमारे नए प्रधानमंत्री के हाल ही के चुनावी भाषणों से तीसरी आजादी के लिए लड़ने वाले ‘मार्केट-फ्रेंडली इंडिविजुअल्स’ में बदल चुके युवाओं को भी ऐसी उन्मत्त कर देने वाली ऊर्जा मिलती रही कि नरेंद्र मोदी के विरुद्ध कहीं भी सामान्य-सी टिप्पणी दिखाई दे जाती तो वे अपने धारदार अपशब्दों से वार करते हुए, उसकी बोटी-बोटी कर डालते थे।
उन्हें पढ़ते हुए यह सार्वदेशीय सत्य सामने आया कि हिंदी काम तमाम कर दिए जाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। वह तो ‘फटाक-दनी’ से अच्छे से अच्छे को निपटा देती है। कुल मिला कर, कहना यही है कि हिंदी का काम अब इतना भर रह गया है। उसने कमजोर और अनुवाद की हिंदी जानने-बोलने वाले विपक्ष को निपटा दिया। बहरहाल, यह सहज ही प्रश्न उठता है कि प्रतिपक्ष को निपटाने का वांछित अनुबंध पूरा करने के बाद अब हिंदी की क्या जरूरत है? उसकी भूमिका संपन्न हो चुकी है। वैसे भी जिस हथियार से शत्रु को निपटाया जाता है, उसको ऐसे उपयोग के उपरांत तलघर में रख दिया जाता है। अब हिंदी की जरूरत पांच साल बाद फिर होगी- तब तक के लिए इसे तलघर में रख दो।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषा-विवेक से उचित ही किया कि राष्ट्रपति से संवाद के लिए उन्होंने हिंदी को हटा कर, निश्शंक रूप से अंगरेजी का उपयोग किया। यह करते हुए उन्होंने नेहरू के ही पदचिह्नों पर चलने की कोशिश की। अब ‘निवरी’ नई परंपरा शुरू करने की क्या आवश्यकता? बनी-बनाई लकीर को बिगाड़ने से क्या लाभ? अब ‘आप ही बतावैं’ कि इसमें आपत्ति उठाने की बात भला क्या है? फिर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर पहुंचाने में, जिस तरह से कॉरपोरेट कंपनियों की प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिका रही, तो हमें यह भी अच्छी तरह याद रहना चाहिए कि विश्व को भूमंडलीकृत-व्यवस्था की छतरी के नीचे एकत्र करने के लिए अंगरेजी ने ही तो करिश्माई काम किया है। अमेरिका के फिलाडेल्फिया स्थित विश्व के सर्वोत्कृष्ट प्रबंधन स्कूल ने जब अमेरिकी छात्रों के लिए भारत में व्यवसाय के लिए हिंदी जानने की अनिवार्यता को समझते हुए, हिंदी सीखने के पाठ्यक्रम को तैयार किया तो सबसे पहले भारतीय औद्योगिक अभिजन (इंडस्ट्रियल एलीट) ने यह कह कर विरोध किया कि अब, जबकि पूरा भारत हिंदी को छोड़ कर पूरी तरह अंगरेजी की तरफ कूच कर चुका है, तब हिंदी को व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में पुनर्जीवित करने की भला क्या तुक है?
दरअसल, भारत में कारपेटोक्रेसी लगातार इस बात में लगी हुई है कि भारतीय ‘स्वयमेव’ अपनी भाषा को छोड़ने के लिए न केवल तैयार हो जाएं, बल्कि अपनी समूची सांस्कृतिक-अस्मिताओं का ही पश्चिम से विनियम कर लें। कुल मिला कर कहा जा रहा है कि हिंदी नहाने-धोने, खाने-पीने और रोजमर्रा के बतियाने के काम की भाषा है। यानी कि हिंदी दिमाग की भाषा नहीं है। हिंदी अक्षम और अविकसित बोली मात्र है, उसमें चिंतन तो छोड़िए, कार्यालयी कामकाज भी संभव नहीं है। बहरहाल, कहने की जरूरत नहीं कि चिंतन-क्षम हिंदी को लंपटों की भाषा बनाने और सिद्ध करने का सफलता के साथ काम निपटाया है, इन चुनावों ने। इन्होंने यह प्रमाणित कर दिखाया कि हिंदी तू-तू मैं-मैं वाली एक निहायत ‘गलेंडी’ भाषा है और बड़े या ओहदेदार आदमी से संवाद में इसका उपयोग निरी मूढ़ता है।
हिंदी की हैसियत यही है कि उसे सिर्फ चुनावी घसड़-फसड़ में चलाइए। इसका भद्रलोक में उपयोग निषिद्ध है। अब इन हिंदियाए लोगों को कौन और कैसे समझाए कि हो सकता है कि अच्छे दिन आने वाले हों, लेकिन हिंदी के बिल्कुल नहीं। लोककथाओं को सुनाने के बाद, उसके अंत के इस कथन की तरह कि ‘जैसे उनके दिन फिरे’ ऐसे हिंदी के दिन भी फिरेंगे। इस मोहक मुगालते में मत रहिए, वरना थोड़ा-सा धक्का भी इतना जोर से लगेगा कि वह उनके द्वारा निर्मित भ्रम के स्थापत्य को भंग कर देगा। क्योंकि भारत की सत्ता गौरांग-प्रभुओं की भाषा के सहारे ही वंशवाद को जीवित रख पाई।
हालांकि, कई लोग अटल बिहारी वाजपेयी-युग की स्मृति दिला कर कहते भी हैं कि देखिए अटलजी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को गुंजा दिया था। ठीक है, उन्होंने वहां हिंदी बोली और लोगों ने इसके आनंदवाद में खूब तालियां पीटीं, लेकिन हिंदी पांच साल तक अपना सिर ही पीटती रही। अलबत्ता, ‘हिंदी, हिंदुत्व और हिंदुस्तान’ का नारा बुलंद करने वाले लोग कहीं किसी अगम्यागमन की ओर निकल गए और फिर वही ज्ञानगुरु आ गए, जिन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिख कर कहा कि देश के केवल एक प्रतिशत लोग अंगरेजी जानते हैं, इसलिए हमारे समक्ष निन्यानबे प्रतिशत को अंगरेजी सिखाना जरूरी है। इसलिए पहली कक्षा से अंगरेजी सिखाई जाए।
अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश और विश्वबैंक के ऋण के सहारे ‘सर्वशिक्षा अभियान’ आया, जो ‘एजुकेशन फॉर आल’ नहीं, बस ‘इंग्लिश फॉर आल’ का अघोषित-अलिखित एजेंडा था। पर, किसी ने देशभक्त ज्ञानगुरु सैम पित्रोदा से प्रश्न नहीं किया कि पैंसठ वर्षों से आप उस एक प्रतिशत को हिंदी सिखा लेते तो ही यह देशभाषा के अर्थशास्त्र के जरिए, चीन से आगे होता।
आज हम आए दिन यह खबर पढ़ते हैं कि भारत के बिजनेस स्कूल में, ठीक वैसे ही चीन की भाषा मंडारिन के पाठ्यक्रम बनाए और चलाए जा रहे हैं, जैसे वार्टन प्रबंधन स्कूल ने हिंदी सीखने की जरूरत पर जोर दिया था। यह इसलिए, क्योंकि मंडारिन उस महादेश की भाषा है, जिसकी चित्रात्मक लिपि में उन्होंने बीसवीं शताब्दी का सारा ज्ञान-विज्ञान विकसित किया और इस समय वह विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था है।
अगर पचपन करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी भाषा को सत्ता ने व्यवसाय से जोड़ दिया होता तो आज हिंदी अंगरेजी से होड़ लेती हुई डॉलर कमाती। लेकिन हमारी सत्ता ने कभी इस पर सोचा ही नहीं, हम अब भी बांग्लादेश, पाकिस्तान, मॉरीशस, श्रीलंका आदि मुल्कों से ही हिंदी में व्यापार-व्यवसाय शुरू कर दें तो भी हिंदी के दिन फिर सकते हैं। लेकिन कॉरपोरेट कंपनियों के सहयोग से ही जब जीवन-शैली, भाषा-भोजन, शिक्षा और हमारी पूरी अर्थव्यवस्था तय होनी है, तो भाषा के दिन कहां से फिरेंगे? बल्कि हम थोड़ी ही कालावधि के बाद ‘नियति से साक्षात्कार’ करेंगे कि हिंदी देश के कोने-कोने और सत्ता के द्वारों पर पागलों की तरह भटकती हुई पूछती फिरती दिख रही है कि मेरे ‘अच्छे दिन’ कब आएंगे?
अभी हिंदी इसलिए भी दिखाई दे रही है कि भारत अभी पूरी तरह भूमंडलीकृत नहीं हुआ है। इसके बाद तो ये सारे प्रश्न स्वाहा हो जाएंगे। क्योंकि हम अपनी अस्मिताओं को बदल कर उनकी तीसरे दर्जे की घटिया प्रतिकृति में बदल चुके होंगे।
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