अस्मिता की राजनीति असली संघर्षों से ध्यान बंटाती है
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
आनंद तेलतुंबड़े से भूपेन सिंह का साक्षात्कार
आनंद तेलतुंबड़े आइआइटी खडग़पुर में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं। उन्होंने भारत में जाति, वर्ग, राजनीतिक अर्थशास्त्र और लोकतांत्रिक राजनीति पर करीब दो दर्जन किताबें लिखी हैं। उन्हें देश और दुनिया में मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है और काफी सम्मान के साथ पढ़ा-सुना जाता है। वह प्रसिद्ध अंग्रेजी साप्ताहिक इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के महत्त्वपूर्ण लेखक हैं। परसिस्टेंस ऑफ कास्ट, ऑन इंपेरियलिज्म एंड कास्ट और ग्लोबलाइजेसन एंड दलित उनकी कुछ चर्चित किताबें हैं। तेलतुंबड़े के व्यक्तित्व में सिद्धांत और लोकतांत्रिक आंदोलनों से जुड़ाव का एक अद्भुत सामंजस्य है। वह राजनीतिक अर्थशास्त्र की अनदेखी करने वाली अस्मिता की राजनीति की आलोचना करते हैं। अंग्रेजी और मराठी पाठकों के लिए वह जाने-पहचाने नाम हैं। प्रस्तुत है भारत में जाति और मार्क्सवाद से जुड़े सवालों पर हुई बातचीत:
जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक कारणों को आप कैसे देखते हैं?
भारतीय जाति व्यवस्था की गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कई विद्वानों ने की है लेकिन उनके बीच इस सिलसिले में कोई एक राय नहीं है। एक तरह का श्रेणीक्रम या स्तरीकरण हर प्राचीन समाज में रहा है, इसके आधार पर कुछ लोग भारतीय जाति व्यवस्था की विशिष्टता को नकारने की कोशिश करते हैं, लेकिन इसे उनकी अज्ञानता या जान-बूझकर बनाई गई मान्यता के तौर पर नकारा जाना चाहिए। जाति व्यवस्था की विशिष्टता इसके निरंतर अस्तित्व में बने रहने से जुड़ी है। इतिहास के एक दौर में बाकी समाज इस तरह के श्रेणीक्रम से खुद को मुक्त करने में कामयाब हो पाए लेकिन जाति व्यवस्था का अब भी कोई समाधान नहीं निकल पाया है। लोगों को न तो इस बात का पता है कि यह बेहूदा व्यवस्था कैसे अस्तित्व में आई और न ही वे यह जानते हैं कि कैसे इसका खात्मा किया जा सकता है।
इसलिए मैं यह नहीं कहूंगा कि मेरे पास इस सवाल का कोई सीधा जवाब है। लेकिन मैं यह जरूर समझता हूं कि इस सवाल का जवाब भारत की विशिष्ट स्थितियों में ही तलाशा जाना चाहिए। इस तरह के सरलीकरण बिल्कुल भी ठीक नहीं कि कुछ आर्य यहां आए और उन्होंने इस विशाल महाद्वीप पर अपने विचार थोप दिए।
मैं भारत की प्राकृतिक परिस्थितियों की विशिष्टता को समझने की कोशिश करता हूं। यहां की समतल जमीन, बारिश की प्रचुरता, धूप और उपजाऊ मिट्टी इत्यादि ने घुमंतू जातियों के लिए बिना किसी ढांचागत बदलाव से गुजरे खेती करने की स्थितियां मुहैया कराईं। दूसरी जगहों पर दास प्रथा जैसी स्थितियों का उदय हुआ क्योंकि वहां की प्राकृतिक स्थितियों में अच्छी खेती के किए बेहतर हालात नहीं थे। विशाल भूखंड और बड़ी संख्या में दासों के अस्तित्व को वहां जरूरी बना दिया, निश्चित समय में काम पूरा करने के लिए ऐसा करना जरूरी था।
अतिरिक्त उत्पादन के विवाद से बचने के लिए उन्होंने कुछ विभाजन भी स्वीकार किए। यह प्रारंभिक विभाजन, वक्त बीतने के साथ राजशाही के उभार और जटिल जाति व्यवस्था के रूप में सामने आए। राजशाही के भौगोलिक विस्तार के लिए होने वाली भयानक लड़ाइयों के माध्यम से बाहरी जनजातियों की अधीनता ही बाद में अस्पृश्यता के रूप में सामने आई होगी।
जाति के समूल नाश के लिए आप गांधी, आंबेडकर और मार्क्सवाद की भूमिका को कैसे देखते हैं?
जाति और समुदायों को लेकर गांधी की चिंता मुख्य तौर पर उनके बीच सामाजिक सामन्जस्य बनाने से जुड़ी थी, उभरते हुए पूंजीपति वर्ग के विकास के लिए इस तरह के भारत का निर्माण करना जरूरी था। गांधी उसी वर्ग के एक प्रतिनिधि भी थे। वैसे गांधी जाति व्यवस्था के खिलाफ थे भी नहीं। उन्होंने एक तरह से जाति धर्म का महिमामंडन ही किया, उनका कहना था कि लोग जाति से जुड़े कामों को हीन या श्रेष्ठ मानने के बजाय अपने जाति के कर्तव्य को निभाते रहें। इस बात पर जोर देने के लिए उन्होंने जातीय तौर पर भंगी के लिया निर्धारित काम खुद ही करना शुरू कर दिया। उनके काम करने का तरीका असली अंतर्विरोधों की अनदेखी करने वाला था, इसके लिए वह बहुत ही लचर तर्क देते हैं। जैसे, श्रमिक और पूंजी के अंतर्विरोध के लिए वह ट्रस्टीशिप, हिंदू-मुस्लिम अंतर्विरोध के लिए सांप्रदायिक सद्भाव और अछूतों के महिमामंडन के लिए हरिजन जैसे शगूफे छोड़ते हैं। उन्होंने इनमें से किसी भी अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश नहीं की।
जैसा कि हम सब जानते हैं, आंबेडकर जाति के समूल नाश (एनिहिलेशन ऑफ कास्ट) के नारे के साथ विशेष तौर पर सामने आए। वह पहले स्वप्नद्रष्टा थे जिन्होंने समझा कि जाति के जिंदा रहते हुए भारत का कोई भविष्य नहीं हो सकता। लेकिन जाति संबंधी उनका विश्लेषण भी उनकी वैचारिक सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाता। वह जाति की जड़ हिंदू धर्मशास्त्रों में देखते हैं। जिसकी वजह से वह धर्मांतरण को एक समाधान के तौर पर देखते हैं। यह पहले से विद्यमान धार्मिक समुदाय में विलय करने की एक ‘सामुदायिक रणनीति’ (कम्युनिटेरिन स्ट्रेटजी) में प्रतिबिंबित हुआ। इस बात को उन्होंने 1936 में अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे ही समझाया। अफसोस कि आगे चलकर उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकारा जिसका भारत में कोई सामाजिक अस्तित्व ही नहीं था। हम देखते हैं कि धर्मांतरण के उनके इस उपाय ने काम नहीं किया और जाति हमें आज भी पहले से ज्यादा जटिलता के साथ मुंह चिढ़ा रही है।
मार्क्स ने मानवीय दुनिया की हर बुराई द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के वैज्ञानिक तरीके से खत्म करने की कोशिश की। उनके मुताबिक यह दृष्टिकोण इतिहास के सभी बदलावों को दर्ज करता है। जाति से संबंधित संदर्भ उनके पत्रकारीय लेखन और ‘एसियाटिक मोड ऑफ प्रोडक्शन’ (एएमपी) के सैद्धांतीकरण में देखने को मिलते हैं। मार्क्स ने जातियों को एक सामंती व्यवस्था के तौर पर देखा और उनका मानना था कि पूंजीवादी विकास के हमले से इसका नाश हो जाएगा। मार्क्स को गलत साबित करने की कोशिश करने वाले कई लोग सोचते हैं कि जाति व्यवस्था के संदर्भ में वह पूरी तरह अप्रासंगिक हैं। मैं समझता हूं कि यह फतवा गलत है। पूंजीवादी विकास ने जाति के कर्मकांड वाले पहलू को जरूर प्रभावित किया और जिन जातियों को हम आज देखते हैं वे शासक वर्गों की साजिश का नतीजा हैं जिन्हें उन्होंने आधुनिक संस्थाओं के माध्यम से नया जीवनदान दिया।
मार्क्स को ‘बेस’ (आधार)और ‘सुपर स्ट्रक्चर’ (ऊपरी संरचना) से संबंधित उनके रूपक की वजह से ज्यादा गलत तरीके से समझा गया, जिसे खास तौर पर भारतीय मार्क्सवादियों ने ऐसा अटल सत्य (डॉग्मा) बना दिया जिसने आंबेडकर के संघर्ष समेत बाकी सभी गैर आर्थिक संघर्षों की अनदेखी की। इसने इस भूभाग के सर्वहारा के बीच बहुत गहरी और स्थाई दरार पैदा कर दी, यह सचमुच में बहुत दुखदायी है। मैं समझता हूं कि जाति के एक विभाजक श्रेणी होने की वजह से यह आमूल सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष का आधार नहीं बन सकती, इसलिए इसका समूल नाश किया जाना जरूरी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए एक दूसरी श्रेणी की तरफ देखने की जरूरत है, जो निश्चित तौर पर वर्ग है। मैं मार्क्सवादी विश्लेषण को आंबेडकर के जाति विहीन समाज के सपने को पूरा करने के लिए एक जरूरी हथियार के तौर पर देखता हूं।
अस्मिता की राजनीति को लेकर आपके क्या विचार हैं, खास तौर पर भारतीय संदर्भ में आप इसे कैसे देखते हैं?
एक सामाजिक प्राणी होने के कारण इंसान जन्म लेते ही कई तरह की अस्मिताओं को धारण करना शुरू कर देता है जो उसके साथ लंबे अंतराल तक बनी रहती हैं। इन अस्मिताओं के कई राजनीतिक महत्त्व होते हैं इसलिए यह स्वाभाविक लग सकता है कि खास अस्मिता से जुड़े लोग उनका इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करते हैं। लेकिन मेरी राय में सभी तरह की अस्मिताओं की राजनीति विभाजनकारी, न्याय और मुक्ति के असली मुद्दे से ध्यान भटकाने वाली है। मेरी नजर में सार्वभौमिक जैसी मानी जाने वाली राष्ट्रीय अस्मिता भी इसका अपवाद नहीं है।
इस पर बहस हो सकती है कि मुक्ति का मुख्य मुद्दा क्या है लेकिन यदि कोई तथ्यात्मकता के साथ मानवीय स्थितियों का विश्लेषण करे तो, मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई ज्यादा विवाद हो सकता है। मानव समाज में बुराई की मुख्य जड़ को व्यक्ति के संग्रह की प्रवृत्ति में देखा जा सकता है और अस्मिताएं इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक माध्यम का काम करती हैं। इसलिए अस्मिताओं पर लड़ाई को केंद्रित करना असली बीमारी से मुंह मोड़कर सिर्फ लक्षणों का इलाज करने की तरह है। सिर्फ तर्क के लिहाज से अगर कोई गहरे तौर पर सचेतन हो तो कुछ अस्मिताएं इतिहास के किसी खास दौर में रणनीतिक तौर पर राजनीति का आधार हो सकती हैं। उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रीयताओं के आंदोलन इसका उदाहरण हैं। लेकिन कुछ अस्मिताएं मूलत: बिल्कुल भी काम की नहीं हैं, मैं समझता हूं जातिगत अस्मिता इनमें से एक है।
कुछ लोग महिषासुर के मिथक और मैकाले का महिमामंडन करते हुए एक खास तरह की अस्मितागत राजनीति कर रहे हैं, क्या आप समझते हैं कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की अनदेखी और इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल कर जाति व्यवस्था के खिलाफ कोई लड़ाई लड़ी जा सकती है?
नहीं। मैं नहीं समझता कि महिषासुर के मिथक या मैकाले का महिमामंडन कर जाति व्यवस्था के खिलाफ कोई प्रभावी लड़ाई लड़ी जा सकती है। जो लोग इस तरह की कोशिश करते हैं वे इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि जाति सिर्फ एक मिथक है जिसका मुकाबला प्रति-मिथक के आधार पर ही किया जा सकता है। ऐसा करने वाले लोग जाति व्यवस्था की विरूपता की अनदेखी करते हैं। इस तरह की स्थापनाएं सनसनी पैदा करने के साथ ही मीडिया और लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं। उन्हें काफी पब्लिसिटी मिलती है।
कुछ वक्त पहले मैंने सुना कि अंग्रेजी देवी और थॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दलितों की मुक्ति का प्रतीक बनाने की कोशिश की जा रही है। इस तरह की विचित्र स्थापनाएं भी काफी सनसनी पैदा करती हैं इसलिए इन्हें मीडिया में काफी जगह मिली। ऐसी बातें पूरी तरह शासक वर्गों के हितों का पोषण करती हैं और उत्पीडि़तों का ध्यान उनके असली दोषियों से हटाती हैं। यह अमूर्त चीजों को निशाना बनाती हैं इसलिए बिना किसी चीज को दांव पर लगाए इस तरह के नारे उछालकर मजा लेने वाले मध्यवर्ग के बड़े हिस्से को अपील करते हैं।
समय-समय पर इस तरह के मिथक गढ़े जाते हैं और उन्हें जाति व्यवस्था के खिलाफ लडऩे वाले सांस्कृतिक हथियार के तौर पर पेश किया जाता है। लेकिन यह सिर्फ सत्ता में जड़ जमाये वर्गों और जातियों की व्यवस्थागत करतूतों और उनके उपकरण, भारतीय राज्य से दलितों का ध्यान हटाने का काम करते हैं।
कुछ लोग दावा करते हैं कि मार्क्सवाद जाति के मुद्दे को नहीं सुलझा सकता है। आप क्या सोचते हैं?
एक ‘विज्ञान’ के तौर पर मार्क्सवाद जाति के मुद्दे को जरूर सुलझा सकता है और इसे ऐसा करना भी चाहिए। यह बाकी तमाम बुराइयों का भी खात्मा कर सकता है लेकिन ध्यान देने की बात है कि इसे बरतने वालों ने जिस तरह से इसे कट्टरपंथ या डॉग्मा में बदल दिया है, उससे बाहर निकलना पड़ेगा।
मार्क्सवाद कहें या चाहे जो भी नाम इसे दें, मेरे हिसाब से यह प्राकृतिक विज्ञानों की तरह ही समाज का एक विज्ञान है, और इसे कोशिश करनी चाहिए कि यह नए सबूतों के बल पर लगातार खुद को सही करता रहे। मार्क्सवाद कोई मार्क्स और एंगेल्स की तरफ से कहे गए विचारों की कब्र में पड़ी लाश नहीं है। दुनिया में हो रहे बदलावों, खास तौर पर विज्ञान और तकनीकी तरक्की के बाद, मार्क्स की बहुत सारी स्थापनाओं में सुधार की जरूरत है। अफसोस की बात यह है कि बहुत सारे मार्क्सवाद समर्थकों ने इसे आज लगभग धर्म जैसा बना दिया है। जाति के मुद्दे पर काम करते हुए मार्क्सवादी दृष्टिकोण जरूर उपयोगी है लेकिन जरूरत इस बात की है कि यह भारतीय समाज का वर्गीय विश्लेषण सही तौर पर करे और उसमें जातियों को लोगों के ‘जीवित संसार’ की तरह शामिल करे।
लेकिन शुरुआती कम्युनिस्टों ने अपनी ब्राह्मणवादी संस्कृति के मुताबिक भारतीय समाज को समझने के लिए रूसी मॉडल की नकल की और वर्गों के सवाल को वर्ग और जाति की मूर्खतापूर्ण बहस में उलझा दिया।
यह मार्क्सवाद नहीं है। उन्होंने लेनिन के वर्ग की परिभाषा को नहीं, उनके ढांचे को भारत के वर्ग विश्लेषण के लिए अपनाया। अगर वे उनकी परिभाषा को समझते तो भारत के वर्ग विश्लेषण में जाति, जो कि यहां का एक लाइफ वर्ल्ड रहा है, जो बेस से सुपरस्ट्रक्चर तक लोगों के जीवन को निर्देशित करता दिखाई देता है, को सम्मिलित करते। न कि उसको किनारे रखकर वर्ग और जाति के वेवकूफी भरे द्वैत का निर्माण करते। इस तरह भारत का वर्ग संघर्ष जाति के विरुद्ध भी संघर्ष बनता। तब यहां पर जाति से मुक्ति के आंदोलन की जरूरत ही न होती। सारे सर्वहारा का (आधुनिक श्रमिक वर्ग और यहां का उत्पीडि़त ऑर्गनिक सर्वहारा) यह एकीकृत आंदोलन बनता। यहां के कम्युनिस्टों की यह अक्षम्य भूल रही है कि वे भारत की क्रांति के लिए जाति और वर्ग संघर्ष को नहीं जोड़ पाए।
आप दलित पूंजीवाद और उसके विचारकों के बारे में क्या सोचते हैं?
यह बिल्कुल बकवास है। यह कुछ लोगों का दिमागी फितूर है, वे इसके माध्यम से मीडिया में सनसनी और जनता के बीच अस्मितागत भ्रम फैलाते हैं। मैं सोचता हूं कि मामला सिर्फ इतना ही नहीं है बल्कि यह विश्व पूंजीवाद के हितों को साधने वाली सोची-समझी रणनीति है। मीडिया इसमें निहित सनसनी और नव उदारवादी पोषक होने की वजह से इसे अहमियत देता है। दलित मध्यवर्गों को इसमें काफी मजा आता है क्योंकि वे इसे अपनी अस्मिता के उत्थान के तौर पर देखते हैं बाकी बची दलित जनता एक भ्रम में उनके पीछे चलती रहती है, वैसे भी इस झूठी चेतना की वजह से वे कई सालों से ऐसा ही करते रहे हैं। भारतीय राज्य अति उत्साह में रेड कार्पेट बिछाकर इसके झंडाबरदारों का स्वागत करता है। जिससे दलितों के असली ज्वलंत सवालों पर असर पड़ता है क्योंकि भारतीय राज्य इन नवधनाढ्यों को वरीयता देता है और इन तथाकथित दलित उद्यमियों को सार्वजनिक खरीद और ठेकों में छूट देता है।
देखिए, कुछ व्यक्ति हमेशा अमीर रहे हैं, यहां तक कि कुछ दलित उद्यमी भी रहे हैं। उद्यमिता की आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक उद्यमी वह है जो स्वरोजगार को अपनाता है। इस हिसाब से सड़क किनारे जूते सिलने वाले मोची भी उद्यमी हैं।
सरकार की तरफ से 1990, 1998 और 2005 में किए गए आर्थिक सर्वेक्षण बताते हैं कि वैश्वीकरण के दौर में दलित उद्यमिता के अनुपात में गिरावट आई है, यह आंकड़े दलित पूंजीपतियों के झूठ और दुष्प्रचार की पोल खोल देते हैं। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है कि दलित अपनी तरक्की के लिए पूंजीवादी व्यवसाय अपनाएं। लेकिन जब नब्बे फीसदी दलित मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने की जद्दोजहद कर रहे हों, ऐसे हालात में दलितों को पूंजीपति बन जाना चाहिए या वैश्वीकरण ने दलितों का उद्धार किया है जैसे बेवकूफाना तर्क देने से बड़ा अपराध गऱीब दलितों के खिलाफ और कुछ नहीं हो सकता।
ये सब बातें मैं पूरे दावे और अधिकार के साथ कह रहा हूं। मैंने देश के सबसे बढिय़ा माने जाने वाले संस्थान से तकनीक और प्रबंधन की औपचारिक पढ़ाई की है। प्रैक्टिश्नर के तौर पर मैं एक होल्डिंग कंपनी के सीईओ का पद संभाल चुका हूं इसलिए मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं कि आधुनिक बिजनेस और उद्यमिता क्या है। देश के जाने-माने संस्थान में अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन का प्रोफेसर होने और गरीब लोगों के पक्ष में काम करने वाले एक भरोसेमंद एक्टिविस्ट और सिद्धांतकार होने के नाते मेरा पक्ष बिल्कुल साफ है। मैं न तो किसी टुच्चे व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर कोई जुमला उछाल रहा हूं और न ही फर्जी बौद्धिकों की तरह अधकचरी सैद्धांतिक लफ्फाजी कर रहा हूं।
दलित राजनीति के कुछ झंडाबरदार उपनिवेशवाद को सही ठहराते हैं, खास तौर पर वे मैकाले की शिक्षा व्यवस्था की तारीफ करते हैं। वे अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक हथियार के तौर पर देखते हैं। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
शायद मैंने इस मुद्दे पर अपनी बात पहले कह दी है। इसमें कोई शक नहीं है कि जाति विरोधी संघर्ष में सांस्कृतिक पहलू बहुत महत्त्वपूर्ण है लेकिन यह राजनीतिक अर्थशास्त्र की कीमत पर नहीं होना चाहिए। सांस्कृतिक तर्क अगर भौतिक सच्चाई से नहीं जुड़ा है तो यह बहुत ही फिसलन भरा रास्ता हो सकता है। यह लोगों के अस्मितागत अहंकार की संतुष्टि कर सकता है लेकिन अंतिम तौर पर यह उनके हितों के खिलाफ ही जाएगा।
आप भारतीय राज्य की जाति आधारित आरक्षण नीति को कैसे देखते हैं? क्या यह जाति के उन्मूलन में मददगार है या सिर्फ शासक वर्ग के लिए ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम करती है?
बाबासाहब आंबेडकर के लिए आरक्षण निश्चित तौर पर एक भंवरजाल रहा होगा। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जाति का पूरी तरह खात्मा कर दिया जाए। लेकिन उन्हें इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दलितों को सक्षम भी बनाना था। दलितों के सशक्तिकरण का काम अनिवार्य रूप से जाति की अस्मिता के आधार पर ही किया जा सकता था। इस तरह देखा जाए तो जाति के समूल नाश और उसकी स्वीकारोक्ति के बीच एक अंतर्विरोध निहित है। वह दीर्घकालिक और अल्पकालिक उद्देश्यों के बीच का अंतरर्विरोध है। जहां एक मकसद था जाति का समूल नाश, वहीं दूसरा मकसद यह सुनिश्चित करना था कि मौजूदा समाज में दलित रह पाएं। इसलिए उन्होंने उनके जीवन और सशक्तिकरण के लिए आरक्षण को जरूरी समझा। मैं समझता हूं कि इस दुविधा का कोई आसान हल नहीं था जब तक कि वाम ताकतें अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करते हुए, जाति विरोधी संघर्ष को अपना जरूरी हिस्सा मानने वाला एक क्रांतिकारी वर्ग युद्ध न छेड़ देतीं। वामपंथी पार्टियां अपनी ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों की वजह से ऐसा करने में बुरी तरह नाकाम हो गईं। तब भी वहां इस बात के लिए जगह थी कि असली मकसद की प्राप्ति के लिए आरक्षण जैसे किसी ‘सपोर्ट सिस्टम’ को रचनात्मक तौर पर अपनाया जाए ताकि जाति के समूल नाश के लिए इसे एक पूरक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके।
इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक व्यवहार को ध्यान में रखते हुए दलितों के लिए आरक्षण जरूरी था। लेकिन ऐसा करते हुए यह जरूर समझना चाहिए कि किसकी अक्षमता को आरक्षण जैसी दवाई की जरूरत है। यह भारतीय समाज की अक्षमता थी, न कि दलितों की।
इसलिए यह समाज की जिम्मेदारी रहती कि वह अपनी इस अक्षमता को जल्दी से जल्दी नष्ट करे ताकि आरक्षण की जरूरत न रहे। अगर ऐसा हुआ होता तो जाति के खात्मे का जिम्मा पूरे समाज को जाता, ऐसा होना भी चाहिए था। समाज ने अपने इस अपराध को स्वीकार कर लिया होता और अपनी इस बुराई से मुक्ति पाने के लिए तुरंत संघर्ष छेड़ दिया होता, तब दलित लड़के-लड़कियों को किसी मनोवैज्ञानिक दबाव और सामाजिक प्रताडऩा को सहना न पड़ता। इस तरह अपवाद के तौर पर अपनाई गई आरक्षण की नीति अपने आप खत्म हो जाती, जैसा कि इसको होना भी चाहिए।
आरक्षण में जाति के आधार से बचा तो नहीं जा सकता था लेकिन परिवार को इसका फायदा लेने वाली इकाई बनाया जा सकता था। इस तरह उस कमजोरी से बचा जा सकता था जिसके तहत संपूर्ण जाति आरक्षण की कीमत चुकाती लेकिन उसका फायदा व्यक्ति विशेष को होता। इस तरह जो परिवार आरक्षण प्राप्त करता धीरे-धीरे उसे भविष्य में आरक्षण पाने से रोका जा सकता था और उपजातियों के उभार (डायनामिक्स) से बचा जा सकता था जो उस नीति से पैदा हो रही थी। मौजूदा आरक्षण के तहत आरक्षण का फायदा उठा सकनेवाले परिवारों की संख्या कम होती जाती है। जाति के अलावा कोई और आधार न होने की वजह से लोगों को जाति के संदर्भ में ही चीजों को देखने के लिए उकसाया जा सकता है। इस बात को आंबेडकर के जाति उल्मूलन के सपने का निषेध करने वाली दलित उपजातियों की आपसी लड़ाई में देखा जा सकता है।
वर्तमान नीति पिछड़ेपन पर जोर देती हुई दलितों के पिछड़ेपन को आधार बनाती है। इस तरह यह भानुमती का ऐसा पिटारा खोल देती है जिसमें बाकी सभी जातियां भी पिछड़ेपन का दावा करते हुए आरक्षण की मांग करने लगती हैं। इस नीति को दलितों का बेवजह पक्ष लेने वाली माना जाता है, यह उन्हें पूरे समाज की शिकायत का केंद्र बनाती है। परिणामस्वरूप एक द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है, दलित पूरी भावुकता के साथ आरक्षण के विशेषाधिकार को बनाए रखने वाली नीति को जारी रखना चाहते हैं और इस तरह जाति व्यवस्था की उम्र को और बढ़ा देते हैं। आरक्षण के पीछे दूसरा तर्क प्रतिनिधियात्मक तर्क है, यह भी स्वाभाविक तौर पर सबको अपील करता है कि जब तक कोई लाभकारी वर्ग में पहुंचने के लिए तैयार न हो तब तक यह व्यवस्था जरूरी है। लेकिन कोई अच्छी तरह से इसकी पड़ताल करे तो पता चलेगा कि इस तर्क ने काम नहीं किया। इसलिए मैं कहूंगा कि सीमाओं के बावजूद आरक्षण की नीति जाति के समूल नाश के लक्ष्य का रास्ता तलाश सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शायद शासक वर्ग चाहता भी यही था। अगर ऐसा होता तो आरक्षण के संबंध में जिन बुराइयों से हम जूझते हैं उनका खात्मा हो गया होता। आपके सवाल पर वापस लौटते हुए मैं कहना चाहता हूं कि आरक्षण की वर्तमान नीति ने दलितों का भला करने के बजाय शासक वर्ग के ही हितों की पूर्ति की है। आज के हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण ने आरक्षण को निरर्थक बना दिया है। सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियां 1997 की अपनी बेहतरीन स्थिति से लगातार कम हो रही हैं। इसका साफ मतलब है कि आरक्षण एक तरह से तभी खत्म हो गया था। लेकिन आम दलितों के बीच निहित स्वार्थी तत्त्व उन्हें यह सब नहीं जानने देते। शायद वे खुद भी इसे नहीं समझते या इसे समझने की इच्छा नहीं रखते। यह वास्तव में अफसोसजनक है।
आपकी राय में जाति का नाश करने के लिए सबसे तार्किक रास्ता क्या हो सकता है?
आज जातियां मुख्य तौर पर एक तरफ तो सांस्कृतिक अवशेष के तौर पर काम करती हैं वहीं दूसरी तरफ ये गरीबों का शोषण करने वाली शासक वर्गों की व्यवस्था है। जातियों के खिलाफ लडऩे के लिए कई रणनीतियां हो सकती हैं।
एक प्रभावी और ढांचागत तरीका तो यह हो सकता है कि लोगों को उत्पादन व्यवस्था से जोड़ा जाए, सहकारी मॉडल इसके लिए मददगार हो सकता है, जिससे लोगों के भौतिक हित एक-दूसरे से जुड़ जाएंगे। स्टेट्स एंड मायनॉरिटीज में आंबेडकर की तरफ से प्रस्तावित सहकारी खेती इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकती है। मिथकों, सड़ी-गली परंपराओं और धार्मिक कर्मकांडों के खिलाफ लगातार लोगों को शिक्षित करने की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए। वामपंथ और दलित मिलकर लोगों के ठोस भौतिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए जाति रहित आंदोलन के निर्माण में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
ये कुछ तरीके हैं जो निश्चित तौर जाति को कमजोर करेंगे। इस सबके बावजूद कुछ लोग इन सबकी अनदेखी करते हुए जातीय शोषण कर सकते हैं। उनके साथ कड़ाई से निपटने की जरूरत है। इसका इलाज है शॉक ट्रीटमेंट। आंदोलन को इतना मजबूत होना चाहिए कि वह ऐसे लोगों की शारीरिक तौर पिटाई कर पाठ पढ़ा सके। यह एक भावुक जवाब नहीं है, यह ठोस वैज्ञानिक आधारों पर टिका है जिसे मैं किसी के सामने भी व्याख्यायित कर सकता हूं। यह वैज्ञानिकता पर टिके कुछ तरीके हैं जिन्हें मैं जाति विरोधी रणनीति के तौर पर सुझा सकता हूं।
(भूपेन सिंह जानेमाने युवा पत्रकार और समयांतर के नियमित स्तंभकार हैं।)
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