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Monday, June 2, 2014

प्रसंग : अखिल भारतीयता का पुनराविष्कार

प्रसंग : अखिल भारतीयता का पुनराविष्कार

प्रभु जोशी
जनसत्ता 1 जून, 2014 : भारत के एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म लेने के कुछ समय पूर्व भारत में उन लोगों के दरम्यान एक बहस छिड़ी थी, जो खुद को बीसवीं सदी की उदारता और समावेशिता के विचार को लोकतांत्रिकता के ढांचे में प्राथमिक मानते थे। वह समूची बहस इस बिंदु पर केंद्रित थी कि भारत को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में देखने का आधार क्या है? कुछ ऊंचे दर्जे के पश्चिमाभिमुखी चिंतकों के सामने एक बड़ा संकट यह था कि इसे एक राष्ट्र-राज्य की तरह देखने के बजाय इसे कई छोटी-छोटी ‘राष्ट्रीयताओं का समुच्चय’ माना जाए और इसका अमेरिका की तर्ज पर नाम भी भारत के बजाय ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ रखा जाए। पिछले दिनों चुनाव के हो-हल्ले में किसी नेता ने शायद कहीं ऐसी घोषणा भी की थी कि अगर उनकी पार्टी विजयी हुई तो वे भारत का नाम बदल कर ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ कर देंगे। 
बहरहाल, तब भारत के तमाम कद्दावर नेताओं का यह स्पष्ट विचार था कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत एक राष्ट्र है। हां, भौगोलिकताएं जरूर भिन्न हैं, जो कि एक महाद्वीप की प्राकृतिकता की देन हैं, लेकिन सांस्कृतिकताओं के भीतर एक दृढ़ अंत:सूत्र है, जो इसे एक राष्ट्र बनाता है। बहुलता इसका सांस्कृतिक सत्य है। नेहरू, जिनके बारे में कहा जाता रहा कि वे अखिल भारतीयता से सर्वाधिक आसक्त रहते थे उनकी इतिहासप्रियता में सम्राट अशोक और उसका भारत, एक किस्म की रूमानियत के स्तर तक शामिल थे। उनकी ऐसी ही इतिहास-आसक्ति के चलते यह भी कहा जाता रहा कि उनके भीतर एक अशोक सम्राट जिंदा था और वे वही हो जाना चाहते थे। हालांकि जब वे भारत के सामान्यजन के हृदय सम्राट कहलाए तो अशोक के भारत के विखंडन में, सम्राट बनने की उनकी बेसब्री की भी बड़ी भूमिका रही। 
नब्बे के दशक में हमारे यहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तेज होते ही फिर से भारत की ‘अखिल-भारतीयता’ को खारिज करने की कोशिशें शुरू हुर्इं। क्योंकि भूमंडलीकरण की जरूरतों में यह भी शामिल है कि कोई राष्ट्र, जो भूमंडलीकृत-अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने को आतुर है, तो उसे उसकी संप्रभुता को विस्मृत करना होगा। कुछ लोग गफलत में ‘वसुधैवकुटुंबकम्’ की याद दिलाते हुए, भूमंडलीकरण के विचार को भारत की प्राचीनतम वैदिक-अवधारणा सिद्ध करने में जुट भी गए। जबकि आज का यह भूमंडलीकरण बहुराष्ट्रीय निगमों और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के गठजोड़ से बना नव-उपनिवेशवाद है। 
‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ दोनों ही शब्द इस भूमंडलीकरण की आंत में अपच पैदा करते हैं और रह-रह कर खट््टी डकारें पैदा करते हैं। कहा जाने लगा कि ये दोनों शब्द भूमंडलीकरण के लिए गतिरोधक हैं, इसलिए अवांछनीय भी। वैसे भी इस भूमंडलीय राजनीति में कहा जाता है, राष्ट्र एक सर्वथा काल्पनिक समुदाय है। उधर इंदिरा गांधी की आसन्न मृत्यु ने भारत की राजनीतिक अखिल-भारतीयता को आक्सीजन जरूर दी, क्योंकि मतदाता ने कांग्रेस को बांग्लादेश के वक्त के विजयोन्माद जैसा ही भारी जनादेश दिया था। लेकिन उसे सहानुभूति का मनोवैज्ञानिक उफान मान लिया गया। लेकिन राजीव गांधी के अवसान के बाद यह सच निश्चित ही सर्वत्र दिखाई दे रहा था कि अखिल भारतीयता धीरे-धीरे छीजती जा रही है। 
इसके पीछे एक कारण यह भी था कि भारत जैसे ही आर्थिक स्तर पर वैश्विक होने लगा, चेतना के स्तर पर वह अधिक क्षेत्रीय होने लगा। दिल्ली के सिंहासन पर बैठे व्यक्ति का संकटमोचक लगना बंद हो गया। वह सौ रुपए भेजता था, लेकिन जनता को सोलह रुपए मिलते थे। नतीजतन, उसने स्थानीयता में भरोसा देखा और क्षेत्रीय नायक मुक्तिदाता दिखाई देने लगा। मंडल आयोग ने जातिवाद को आहुति दी और कांशीराम का हाथी ऐरावत बनने लगा। बहरहाल, बहुत छोटे से कालखंड में यह हुआ कि कोई भी राजनीतिक दल ‘अखिल भारतीय’ नहीं रह गया। धड़ाधड़ क्षेत्रीय दल उठने लगे और चेतना के स्तर पर एक खंड-खंड भारत स्पष्ट दिखाई देने लगा। किसी को छत्तीसगढ़ की जरूरत हुई, किसी को झारखंड की और इस तरह के विखंडन की प्रवृत्ति तो खालिस्तान की मांग के साथ ही शुरू हो गई थी। 
कुल मिला कर हुआ यह कि देश के एक भी राजनीतिक दल की हैसियत अखिल भारतीयता की नहीं रह गई। अखंड भारत का नारा बुलंद करने वाले दल की स्थिति तो केवल उत्तर भारत के धर्मप्राण लोगों के बीच रह गई थी। राजेंद्र माथुर तो यह कहने लगे थे कि भारतीय रेल और संघ लोकसेवा आयोग को छोड़ कर, अब अखिल भारतीयता सर्वत्र खंडित है। बहरहाल, पूर्व और पश्चिम बर्लिन एक हो रहा था और संघीय ढांचे वाले बहुवचनीय ‘यूनाइटेड स्टेट्स’ को एकवचनीय अमेरिका कहा जाने लगा था। जबकि भारत, जिसे संविधान में ‘दैट इज यूनियन’ कहा जाता था, वह बहुवचन की तरफ बढ़ता जा रहा था। 
कहना न होगा कि अब जबकि इतिहास में अखिल भारतीयता का प्रतिमानीकरण कर चुकी भारतीय कांग्रेस महज एक क्षेत्रीय दल की दुर्दशा तक पहुंच गई है, तो पूछा जाना चाहिए कि क्या भारतीय जनता पार्टी इस जनादेश से एक ऐसी नई अखिल भारतीयता को आविष्कृत कर रही है कि हमारी परंपरागत सामासिक-सांस्कृतिकता ध्वंस की दिशा में कूच करने वाली है। मसलन, हम राजनीतिक परिसर में निगाह डालें तो पाते हैं कि वहां अल्पसंख्यक घटक की उपस्थिति बहुत न्यून है। लगभग आटे में नमक की तरह। क्योंकि कहा जा रहा है कि भारतीय मुसलिम समुदाय की भागीदारी भाजपा की मौजूदा सत्ता-संरचना में शून्य है। 1952 के बाद ऐसा पहली बार घटा है, जब सबसे कम मुसलिम उम्मीदवार चुने गए हैं। और इस विजयी दल में तो एक भी मुसलमान सांसद नहीं है। 
प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं कि यह अखिल भारतीयता नेहरू और पटेल द्वारा लोकतांत्रिक आदर्शों को सामने रख कर गढ़ी गई, भारतीय राष्ट्र-राज्य की अखिल भारतीयता है या कि कोई और ही, जिसका स्वप्न राष्ट्रीय स्वयंसेवक के आद्यपुरुष की आंख में आकार लेता रहा था? वह अभी तक एक स्थगित स्वप्न ही बना हुआ था। क्या यह धर्म से धमकी हुई तो नहीं है...? क्या इस अखिल भारतीयता को बूथ की ओर मन में किसी किस्म का क्रोध छिपाए कूच करती भीड़ ने उकेरा है? या कि यह कांग्रेस के लिए संचित घृणा की कोख से उत्पन्न हुई है, जिसकी मोटी-सी गठरी पगड़ी की तरह बांधे रहने वाली सत्ता देश का सौदा करने में लगी थी। 
क्या इस अखिल भारतीयता को ‘हैप्पी इकोनॉमिक्स से हिप्नोटाइज’ हुई उस पीढ़ी के युवा ने ईजाद किया है, जो देश और दुनिया से नितांत दूर, मीडिया द्वारा पैदा किए गए, डिजिटल आशावाद के पीछे आंख मूंद कर हो लिया है, जबकि आर्थिक विकास के वैश्विक परिप्रेक्ष्य की उसे रत्ती भर भी समझ नहीं है। वह तो उपभोग के आनंदवाद में डूबा है और उसमें उदारवाद से आई आधुनिकता ने उसे यौनानंद बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। क्या यह अखिल भारतीयता विकास की ‘समरूपता के स्वप्न’ से नाथ कर निकली है, क्योंकि चुनावी गर्जनाओं में सबका साथ, सबका विकास का संकल्प नमो-नम: का आप्त वाक्य ही बना हुआ था। या फिर उस हिंदुत्ववादी ‘एकरूपता’ के अधूरे स्वप्न को पूरा करने की प्रतिज्ञा के साथ खड़ी हुई है, जो निश्चय ही राम मंदिर की तरह अधूरा है। 
पर एक बात बहुत स्पष्ट है कि ‘अखिल भारतीयता’ को हासिल करने के इस मार्ग में जन-गोलबंदी की सीधी कार्रवाई सरीखी, गांधीवादी राजनीति की प्रतिनिधित्वमूलकता अनुपस्थित है। यह अखिल भारतीयता, उन्मत्त और उदग्र ‘राष्ट्रवाद’ के प्रिज्म से ‘बहुसंख्यक अस्मिता’ के उदय की ही सूचना है। यह भारत को ‘महादेश’ बनाने वाले महाआख्यान को रचेगी या कि उसके लोकतंत्र को रक्त-रंजित करेगी? निश्चय ही ऐसे प्रश्नों से हमें एक दिन रूबरू होना पड़ेगा, क्योंकि इस पुनराविष्कृत अखिल भारतीयता का पर्वत एक ही गिरधर की अंगुली पर टिका है और उसकी जयकार करने वालों को सिर्फ उनका भय जोड़े हुए है, कुचले जाने का भय। 

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