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Thursday, February 23, 2012

‘ग्लोबलाइजेशन’ मीडिया की नहीं, पुस्तकों की देन है

'ग्लोबलाइजेशन' मीडिया की नहीं, पुस्तकों की देन है


FRIDAY, FEBRUARY 24, 2012

'ग्लोबलाइजेशन' मीडिया की नहीं, पुस्तकों की देन है

ल से 20वां नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला शुरू होने जा रहा है। जीवन में पुस्तकों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इसी बात को ध्यान में रखते हुए "पुस्तक-लेखन-शिक्षा-साहित्य-पुरस्कार" आदि विषयों पर चित्रा मुद्गल जी ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। पुस्तक मेले में उनकी नई पुस्तकों के अलावा कुछ पुरानी पुस्तकें जो रीप्रिंट होकर आई हैं, पढ़ी जा सकती हैं। इसमें मेरे साक्षात्कार, दुल्हिन, लाक्षगृह, इस हमाम में, तहख़ानों में बंद अक़्सपाटी (लेख-संग्रह) आदि हैं। त्रिपुरारि कुमार शर्मा की यह बातचीत- जानकी पुल.


आपकी दृष्टि में 'पुस्तक मेला' समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण है?
पुस्तक मेला का अपना महत्व है। आज के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि पुस्तकों की आवश्यकता हमारे समाज में बढ़ गई है। आज बढ़ते हुए एकल परिवारों की वजह से बच्चों के पास दादी या नानी नहीं होतीं, जो उनको संस्कारित कर सकें। ऐसे में पुस्तक ही एकमात्र माध्यम है, जो बच्चों को सही रास्ते पर चलने में सहायक हो सकते हैं। मैं तो मानती हूँ कि हर एक घर में एक पुस्तकालय होना चाहिए। पुस्तक विहीन घर असंस्कारी होगा। पुस्तक बच्चों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना माँ का दूध। मुझे आश्चर्य होता है जब लोग कहते हैं कि 'ग्लोबलाइजेशन'मीडिया की देन है। मैं इस बात से इंकार करती हूँ। मेरा कहना है कि 'ग्लोबलाइजेशन' की भूमिका में पुस्तकों का बहुत बड़ा योगदान है। कारण सीधा और साफ है। जब कभी 'ग्लोबलाइजेशन' के बारे में पहली बार सोचा गया होगा, तो सर्वप्रथम मौखिक को लिखित रूप में प्रस्तुत करने की बात हुई होगी। मुझे याद है, मैंने बचपन में भूगोल और इतिहास की पुस्तक पढ़ने के बाद रूस या अन्य देश के समाज के बारे में जाना। वहाँ की राजनीति, संस्कृति और साहित्य से रूबरू हुई। यह 'ग्लोबलाइजेशन' की पहली सीढ़ी थी। यह सब पुस्तकों के माध्यम से सम्भव हुआ। इसीलिए मेरा मानना है कि ये पुस्तक मेले जब तक हमारे घरों की देहरी के भीतर नहीं आ जाते, तब तक इनका उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
'लिखना आत्मघाती पेशा है।' मार्केस के इस कथन से आप कितनी सहमत हैं? 
अगर इसे हम दुनियावी दृष्टि से सोचेंगे, तो यह महसूस होगा कि कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को लेखन का करियर नहीं देना चाहेगा। अगर बच्चे लिखने-पढ़ने में रुचि रखते भी हों, तो वह यह छूट तो दे सकता है कि भारतीय भाषाओं के शीर्ष लेखकों को वह ज़रूर पढ़े। साथ ही, वैश्विक पटल पर जो क्लासिक रचनाएँ हैं, उनका भी वो ज्ञान प्राप्त करे। क्योंकि माता-पिता जानते हैं कि अगर वो बच्चा आगे चल कर सिविल सर्विसेज़ में जाने की कोशिश करेगा, तो उसका सामान्य ज्ञान भी मुक़्क़मल होना चाहिए। अगर वो पढ़ाई की चीज़ों से ज़्यादा इतर पुस्तकों को पढ़ने में रुचि दिखाता है, तो अभिभावक को नागवार गुज़रता है। इसका यह मतलब नहीं कि उनके मन में लेखन के प्रति श्रद्धा-भाव नहीं होगा, लेकिन वे जानते हैं कि लेखन वृत्ति  के ऊपर कोई अपना जीवन नहीं जी सकता। लेखन आर्थिक तौर पर परावलम्बी है। हमारे देश में लेखकों का सम्मान तो रहा है, लेकिन वह सम्मानजनक नागरिक के रूप में जी सके, ऐसी सुविधा कभी नहीं रही है। दरअसल, उसके साथ आर्थिक तौर पर तमाम चिंताएँ जुड़ी हुई हैं। पहले के समय में तो राजश्रयी हो कर लेखक और कवि जी लेता था। अगर वह किसी राजा-महराजा की सभा में नौ रत्नों में शामिल हो गया, तब तो ठीक है। नहीं तो आज की कठिन और जटिल परिस्थितियों में लेखन वृत्ति को किसी भी तरह से आर्थिक अवलम्बन प्रदान नहीं करती। अब राजा-महाराजा भी नहीं रहे। सरकार भी मामूली-सी वृत्तियाँ देती हैं, लेकिन उसे भी भाई-भतीजेवाद से जुड़े लेखक या फिर सत्ता के क़रीबी लोग लूट ले जाते हैं। सरकार कतई लेखकों के बारे में कोई चिंता नहीं करती।  
तो क्या आप नए लेखकों को लिखने की सलाह नहीं देंगी?
मैं यह कहूँगी कि वे लिखें। अगर लिखना आत्मघाती पेशा है, तो उन्हें इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए। कभी भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि लेखन से वे आरामदायक और सुविधापूर्ण जीवन जी सकते हैं। चुँकि वे सृजनकर्ता हैं,वे औरों से अलग हैं। प्रेमचंद के शब्दों में कहूँ, तो वे राजनीति के आगे जलने वाली मशाल हैं। वे जन-जन की पीड़ा को समाज के सामने लाने का माध्यम हैं। वे व्यवस्था को चुनौती देने का माध्यम हैं। दूसरी बात यह है कि अगर लेखक ने चुनौतियों को अपना संघर्ष न बनाया, तो लेखक ही क्या हुआ? यह मानकर ही चलना चाहिए कि लेखन एक जोखिम भरा कार्य है। यह एक क्रांतिकारी और समाज सापेक्ष कार्य है। व्यवस्था की जो कारगुज़ारियाँ हैं, जो समाजविरोधी रूप है,जनविरोधी रूप है, उसके खिलाफ़ अगर कोई लड़ सकता है, तो वह लेखक ही है। मेरे कई लेखक मित्र ऐसा कहते हैं कि लेखक का समाज में लेखन की कोई परिवर्तनशील भूमिका नहीं है। मैं ऐसा मानती हूँ कि लेखक का कार्य परिवर्तन से जुड़ा हुआ है। जब कोई रचना पढ़ने वाले के मर्म को छू लेती है और बहुत दिनों तक उसका पीछा करती है, तो इसका मतलब है कि लेखन पाठक की बेचैनी बन रहा है। यह बेचैनी ही उसे सोचने पर मज़बूर करती है कि कहीं कुछ गड़बड़ है और उस गड़बड़ का हिस्सा वह स्वयं भी है।       
बदलते समय और समाज के बीच तालमेल बिठाने में लेखक कैसे सहयोगी हो सकता है?
अभी भूमण्डलीकरण और बाज़ारीकरण का दौर चल रहा है। सारा विश्व ही एक गाँव में परिनत हो रहा है। लोगों की बैठक से न मास्को दूर है, न वाशिंगटन दूर है, न लंदन दूर रहा। कोई भी घटना जब घटती है, तो संचार माध्यमों की प्रबलता उसे तत्काल आपके बैठक में पहुंचा देती है। इसके अपने दवाब और संक्रमण भी होते हैं। जब सरहदें टूट गई हैं, तो ऐसे में किसी सम्पन्न देशों की अच्छाइयाँ और वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी आसानी से हम तक पहुंचती हैं। साथ ही, दूसरी तरफ बैठे लोगों के मन में एक ललक पैदा होती है। ऐसा लगता है कि दूसरे देशों की श्रेष्ठता का मानदण्ड उनकी उन्नत जीवन शैली है और हम एक पिछड़े हुए विकासशील देश के वाशिंदे हैं। हमें अपनी जीवन शैली को उन्नत करना है। उन्हें लगता है कि हमारी संस्कृति में जो रची-बसी जीवन शैली है, उसमें रूढ़ियों और अंधविश्वासों का भी प्रवेश है। हम जो खाना खाते हैं, वह भी पारम्परिक है। आधुनिक नहीं है। बदले हुए समय के साथ उसमें बदलाव नहीं आया है। तो हमें बदलना चाहिए एक उन्नत जीवन शैली जीने के लिए। इस तरह की आकांक्षाओं वाले व्यक्तियों के मन पर गहरा असर पड़ रहा है। ये सभी ग्रंथियाँ हमारे भारतीय जीवन शैली को एक परिवर्तित रूप दे रही हैं। एक तरह का संक्रमण निर्मित कर रहे हैं। अपनी संस्कृति, होली, दीवाली, नवरात्रि और बसंत पंचमी से लगाव रखने वाली पुरानी पीढ़ियों से नए पीढ़ी दूर होते जा रहे हैं। उन्हें वेलेंटाइन डे याद रहता है। ऐसे में लेखक इन समस्याओं की नब्ज़ पर हाथ रखना चाहता है। साथ ही, दोनों जीवन शैलियों के बीच टकराव से जो अपसंस्कृति उपजी है, इससे नैतिकता में अवमूल्यन हो रहा है। मुझे आधुनिकता से कोई परहेज नहीं है, लेकिन शाश्वत मूल्यों का बचा रहना बहुत ज़रूरी है। समय के साथ हर चीज़ का बदल जाना स्वाभाविक है। ऐसे में नैतिकता अब किसी संग्रहालय की वस्तु होती चली जा रही है। समाज से प्रतिबद्ध लेखक कहीं न कहीं इससे होने वाले दुष्परिणाम को लेकर चिंतित है। लोग समाज के पिछड़े लोगों के साथ असहानुभूतिपूर्ण भी हो रहे हैं। वे व्यक्तिवादी होते चले जा रहे हैं। उन्हें किसानों की कोई चिंता नहीं है, हलाँकि उन्हें ब्रेड और बर्गर की फ़िक़्र है। इस बर्गर संस्कृति ने उसे इतना अपसंस्कृत बना दिया कि वह किसानों के पसीने को भूलता चला जा रहा है। ये सारे दवाब समाज को एक जटिल स्थिति में पहुंचा रहे हैं। लेखक के सामने यह भी एक बहुत बड़ी चुनौती होती है कि वह समय से आगे भी रहे और जिस ज़मीन पर वह चल रहा है उस ज़मीन के खर-पतवार, कंकड़-पत्थर और काँटे को भी बुहारता चले। अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज की समस्याओं को उसी के सामने रखे। आज का तनाव उन्हीं समस्याओं की उपज है। इसकी ओर भी ध्यान दिलाना है। तो लेखक को दोनों स्थितियों को ध्यान में रखकर चलना होगा। दरअसल,उपभोक्तावादी संस्कृति ने लोगों को एक दूसरे का उपभोग्य होने की सीमा तक ही सीमित कर दिया है। हमारे जीवन शैली का व्यक्तिवादी और असम्वेदनशीली जो रवैया होता चला जा रहा है, इसके लिए लेखक प्रतिबद्ध है। समाज के हाशिए पर जो पिछड़े हुए लोग हैं, उनके प्रति भी सम्वेदना उत्पन्न करना लेखक का कार्य है।  
नैतिकता के पतन में वर्तमान शिक्षा पद्धति कहाँ तक दोषी है?
हम वर्तमान शिक्षा पद्धति को नैतिकता के पतन का जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। इतना ज़रूर है कि यह शिक्षा पद्धति बच्चों को करियर ओरिएंटेड बना रही है। इस वजह से उसे अपने घर-परिवार, अगल-बगल देखने की फुर्सत ही नहीं मिल रही है। वे यह मान कर चल रहे हैं कि यह उनका कर्तव्य भी नहीं रहा। वर्तमान शिक्षा पद्धति उसे एक रोबोट की शक्ल में तैयार कर रही है। इससे वह असम्वेदनशील हो रहा है। मैं कई वृद्धाश्रमों से जुड़ी हुई रही हूँ। यह देखने में आ रहा है कि ऐसे माँ-बाप, जिन्होंने अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दिए। मानवीय मूल्य के दायरे में ही जिनकी सफलता मानते रहे हैं। ऐसे बच्चों को भी इस करियर ओरिएंटेड शिक्षा पद्धति ने किसी सीमा तक असम्वेदशील बना दिया है। यह बहुत ही नुकसानदेह है, जो सम्पन्न राष्ट्र उनके लिए उन्नति का पर्याय हैं, उन राष्ट्रों की समस्याओं को वे अभी नहीं देख पा रहे हैं। उन देशों में माना जा रहा है कि अवकाश प्राप्त लोगों को घर में रहने की आवश्यकता ही नहीं है। उनको जीवन से ही अवकाश मिल जाना चाहिए। उन्होंने ओल्ड एज़ होम्स बना रखे हैं। यह एक तरह से कायावाद है। बूढ़ों को बच्चों के साथ रहना चाहिए। मेरा एक उपन्यास है गिलीगडू, वह इसी की ओर इंगित करता है। सच तो यह है कि वर्तमान शिक्षा पद्धति जानकारी प्रमुख है। लगता है कि प्रेमचंद की कहानी पंचपर्मेश्वर की ज़रूरत ही नहीं रह गई है, जो दिखाती है कि जीवन में कोर्ट-कचहरी की ज़रूरत क्या है? आप अपने विवेक को जगाईए और आपस में बैठकर फ़ैसला लीजिए। वर्तमान जीवन शैली सीखाती है कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारे काम में हस्तक्षेप करने की? हमारी तरफ ऊँगली उठाने की, हम तुम्हारी ऊँगली मरोड़ देंगे। यानि विवेक तो बिल्कुल गायब हो रहा है। असम्वेदनशील शिक्षा पाठ्यक्रम में इस बात पर ज़्यादा जोर होता है कि बच्चों को नैतिकता सिखाने वाली रचनाओं की क्या ज़रूरत है?
क्या आपको नहीं लगता कि नैतिक संकीर्णताओं की शुरुआत घर से ही होती है?
दरअसल स्थितियाँ कुछ और मोड़ ले रही हैं। नहीं, ऐसा नहीं है मगर आज के जो कामकाजी माता-पिता हैं उनके पास अपने बच्चों को सुनहरा करियर देने के लिए आर्थिक अवलम्बन की आवश्यकता पड़ती है। वे यह सोच कर आसक्त हो जाते हैं कि वे बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए ही नौकरी कर रहे हैं। वे बच्चों को देश का एक प्रगतिशील नागरिक बनाना तो चाहते हैं, लेकिन उनके पास समय का अभाव है। उनको अपना जीवन जीने की भी एक जागरुकता है। माँ ब्यूटी पार्लर में एक घंटा व्यतीत कर आती है, यह सोचकर कि उन्हें अपना समय अपने ऊपर भी खर्च करने का अधिकार है। मैं मानती हूँ कि अब घर में दादी और नानी की गुज़र सम्भव नहीं है। बच्चों को सिखाने के लिए जो बाल कहानियाँ हुआ करती थीं, राक्षस की कथाएँ हुआ करती थीं, राजकुमार की कथाएँ हुआ करती थीं, गरीब निर्धन ब्राह्मण की कथाएँ हुआ करती थीं, वह सब खो गया है। ये कथाएँ उनकी सम्वेदना को, उनकी नैतिकता को जगाती थीं। ऐसी कहानियों के माध्यम से बच्चों को शिक्षा मिलती थी। बुराई के प्रति प्रतिरोध की शक्ति मिलती थी। घर में बड़े-बूढ़ों का जो साथ बच्चों को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पा रहा है। माँ-बाप को लगता है कि बड़े स्कूल में पढ़ाने से बच्चा बड़ा बनेगा। यह एक जटिल मनोविज्ञान है, जिसके हम शिकार हो रहे हैं। इसको समझना होगा।
भारतीय राजनीति में स्त्री की स्थिति पर आपका क्या नज़रिया है?
पहले तो यह बता दूँ कि गाँधी जी ने बिना किसी आरक्षण के स्त्रियों को घर से बाहर निकाला और समाज की कूपमण्डूकवृत्तियों पर प्रहार किया। साथ ही, इस बात का संदेश भी समाज को दिया कि यह देश तभी आजाद हो सकता है, जब देश की आधी आबादी यानि कि स्त्री भी इस आज़ादी के आंदोलन में शामिल होंगी। उसके पाँव की गति भी इस आंदोलन की ज़मीन को चाहिए। उस ज़माने में यह माना जाता था कि स्त्री का देहरी से बाहर पाँव रखना, मर्यादा को भंग करने जैसा है, क्योंकि देहरी के बाहर तो सिर्फ़ स्त्री वेश्या ही रह सकती है। तब भी हमने देखा कि बिना किसी आरक्षण के गाँधी जी ने स्त्रियों की चेतना का विस्तार किया, उस वजह से राजनीति में कई स्त्रियाँ आईं। हमारे देश में सुचिता कृपलानी, विजयालक्ष्मी पंडित, इंदिरा गाँधी सहित कई स्त्रियाँ अनेक स्तरों पर उस जागरुकता के बूते सामने आईं। आज हम देखते हैं कि धीरे-धीरे सत्ता पर काबिज जो लोग पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति से अनुकूलित पुरुष हैं, उन्होंने स्त्री को अपना खतरा मानना शुरू कर दिया है। वे मानते हैं कि स्त्री उनकी प्रतिद्वंद्वता में खड़ी हैं। जब कांग्रेस का विभाजन हुआ था, तो यह टिप्पणी सुनने को मिली थी कि औरत घर तोड़ती है अब पार्टी भी। यह बात लिखित रूप में नहीं है, लेकिन जब आपातकाल घोषित हुआ तो पता चला कि यह कूटनीति नहीं, बल्कि तानाशाही है। गाँधी बाबा, अम्बेदकर जी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती आदि ने भारतीय समाज में स्त्रियों की चेतना को जगाया था और उनकी शिक्षा की अनिवार्यता को महत्वपूर्ण करार दिया था। आज़ादी के बाद लोगों को लगा कि हमारी पितृसत्ता छिन जाएगी। हमारा शासन का हक़ छिन जाएगा। बाद में जब आरक्षण की बात औरतों के द्वारा उठाई गई, तो मुझे अजीब लगा। दरअसल, मैं पहले आरक्षण के पक्ष में नहीं थी, लेकिन मुझे बाद में लगा कि ठीक है। औरतों को आगे न आने देने की जो भावना निर्मित हुई है, यह घातक है। हालाँकि सरकार ने एक लॉलीपॉप ज़रूर थमा दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पचास प्रतिशत आरक्षण है। ज़मीनी कार्रवाई हमने शुरू कर दी है। वहाँ सरपंच महिलाएँ हैं। सच तो यह है कि उनकी आड़ में पुरुष सत्ता ही राज कर रही है। एक-आध औरत ऐसी भी है, जिसने बहुत ही जोख़िम उठाकर अपने पति का विरोध किया और अपने निर्णय लागू किए। अपने न्यायपूर्ण निर्णय में हक़ में वह खड़ी हुई। राजनीति में स्त्रियों के आरक्षण की बात, पितृसत्तात्मक वृत्ति को बेनकाब करती है। अब जाके इस विरोध का सर उठा है। मैं मानती हूँ कि अगर पार्टी के स्तर पर आरक्षण हो, तो कुछ सम्भव है। सच्चाई यह है कि अगर यह सब हो भी जाए, फिर भी क्या होगा?पार्टी सोचती है कि अगर किसी सीट से स्त्री को लड़ाया जाए, इससे कहीं बेहतर है एक आपराधिक चरित्र वाले व्यक्ति को खड़ा करना ताकि वह अपने धन-बल के दम पर चुनाव जीत जाए। इन सारी वजहों से राजनीति में स्त्रियों को लेकर ऐसी स्थिति है। यह सरकार की बहुत ही खतरनाक नीति है। मैं तो कहती हूँ कि 33 प्रतिशत ही क्यों, 50 प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए। सभी पार्टोयों में स्त्रियों की सीट सुरक्षित होनी चाहिए। चाहे वह जीते या हारे, लेकिन यही अनुभव इस बात को प्रदर्शित करेगा कि बिना धन-बल के हम सामाजिक उत्थान की नीतियों को लागू कर सकते हैं। एक सुधारवादी दृष्टिकोण लेकर यदि नहीं चला जाएगा, तो समस्याएँ बढ़ सकती हैं।    
क्या आपकी दृष्टि में स्त्री स्वतंत्रता को उपलब्ध हो चुकी है?
जैसे- जैसे स्त्रियाँ शिक्षित और सक्षम हो रही हैं, उनकी स्थिति में बदलाव आ रहा है। हम अक्सर ग्रामीण इलाकों में जाते हैं, तो उनके घर के बुजुर्गों के पाँव छूकर उनको आदर देते हैं। यह भारतीय पारम्परिक संस्कार हैं। उनको इस सांस्कारिक मनोवृत्ति से परिचय कराना बहुत आवश्यक है। उनसे बात करने पर पता चलता है कि उनके लड़के तो स्कूल जा रहे हैं,पर लड़कियाँ नहीं जा रही हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है लड़कियों को तीसरी कक्षा के बाद घर बिठा दिया गया है। वहाँ स्त्रियों को लेकर एक जागरुकता, एक चैतन्यता नहीं आई है। ऐसे में हम उन बच्चियों को समझाते हैं कि और पढ़ाई करो। साथ ही जब वे माँ बनेंगी तो किन बातों का ख़्याल रखना चाहिए। पहली बात, समता। लिंग भेद को खत्म करना है। हम कहते हैं कि तुम जागरूक बनना ताकि विरोध करने की शक्ति उत्पन्न हो सके। तुम्हारी कोख में लड़का हो या लड़की, तुम उन्हें जन्म दोगी और एक समतापूर्ण दृष्टि दोनों के प्रति दोनों के प्रति अपनाओगी। दूसरी बात, शिक्षा बराबर दोगी। इस समाज में औरत से ही परिवर्तन सम्भव। तीसरी बात, स्वावलम्बी। लड़कियों को यह बताना चाहिए कि नौकरी करो, पैसे कमाओ, लेकिन परिवार के लिए नहीं, बल्कि अपनी स्वायत्तता के लिए। उसके साथ-साथ यह मानकर चलो कि तुम्हारे हाथ किसी के आगे भीख माँगने के लिए नहीं हैं। चौथी बात, स्वाधार। यानि जो पारिवारिक निर्णय है उसमें बराबर की भूमिका निभाना। तुम्हारी न सुनी जाए, बावजूद इसके तुम दवाब बनाना। बेटियों को यह संस्कार नहीं दिया जाना चाहिए कि ससुराल जाकर सास की सेवा करना, तेरे पति की देहरी से तेरी अर्थी ही निकलनी चाहिए आदि, बल्कि मनुष्य होने के नाते सास की सेवा करना ही। वह तो तुम्हारा कर्तव्य है। साथ ही अपने शिक्षित होने की चेतना को परिवर्तित करना और स्वाधार भी ग्रहण करना। आज की कामकाजी और शिक्षित स्त्रियों में भी यह देखने को मिलता है कि उसके स्व का आधार ही नहीं है। पति का निर्णय ही उसका निर्णय हो जाता है। वह सोनोग्राफ़ी करवाके अपना बच्चा गिरवा देती है। ग्रामीण इलाकों में तो यह और अधिक है। पाचवां यह कि स्त्रियों को चाहिए कि वह अपने सम्मान के प्रति जागरूक रहे। इससे आने वाली पीढ़ी को सम्मानजनक जीने का संदेश मिल सकेगा। अपनी प्रतिष्ठा, स्वाभिमान और सम्मान को घोंट कर जीवित नहीं रहना चाहिए। कहा जाता है कि स्त्री बनाई जाती है। मैं कहती हूँ कि स्त्री, स्त्री होकर पैदा होती है। उसकी देख में जन्म के साथ ही एक अदद कोख है। स्त्री-विमर्श की बात तो बहुत समय से उठती रही है, लेकिन पितृसत्ता ने उसे एक खुबसूरत मोड़ दे रखा है। पुरुष कहते हैं कि तुम खूब कमाओ और उस कमाई का एक हिस्सा ब्यूटी पार्लर में दो ताकि तुम ज़्यादा चमकीली दिखो। घर में बैठकर अपने नाखून रगड़ो। अपने गालों को मलो। ये अव्यक्त तलछट हैं, जिसके बारे में स्त्री सोच ही नहीं सकती है। स्त्री को वस्तु बनने से जो मुक्ति की बात है, इसे पुरुष खूबसूरती से बदल देते हैं। इस जाल में शिक्षित स्त्रियाँ भी आ जाती हैं। उन्हें कहा जाता है कि गाड़ियाँ खरीदो, खुद को खूबसूरत बनाओ। आज बड़े-बड़े मल्टीनेशनल कम्पनियों में लड़कियों को ड्रेस दे दिया गया है। इससे स्त्रियों को सावधान होने की ज़रूरत है। इसमें पूँजिपतियों के अपने स्वार्थ निहित हैं। यह सब स्त्री को देह बनाए रखने के षड्यंत्र हैं, तमाशे हैं। हमेशा स्त्री के धड़ के नीचले हिस्से की बात की जाती रही है। अगर उसे वास्तव में मुक्ति चाहिए तो मस्तिष्क का इस्तेमाल करना होगा।
एक ओर स्त्री-विमर्श की बात और दूसरी तरफ हिंदी लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' शब्द का प्रयोग किस मानसिकता का परिचायक है?
एक बड़े पुलिस ऑफ़िसर कम वाइस चांसलर ने स्त्री-विमर्श के जिन मुद्दों को विमर्श के केंद्र में लाने की कोशिश की,उससे वे छिटक गए। उनके पितृसत्ता के दम्भ ने जोर मारा और उन्होंने बड़े ही पारिहासिक ढंग से 'छिनाल' और 'बिस्तरों में कई-कई बार' जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। ऐसा नहीं होना चाहिए था। इससे एक बात ज़ाहिर होती है कि स्त्रियों को भी विमर्श करने की ज़रूरत है। क्या वे वाकई इस मुद्दे पर भटक गई हैं या फिर विमर्श सही दिशा में चल रहा है। एक शिक्षाविद् द्वारा प्रयोग किए गए शब्दों से जो स्त्री-समाज आहत हुआ, वह स्वाभाविक होते हुए भी आवश्यकता से अधिक तूल दिया गया। पुरुषों के पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति का हमें ध्यान रखना पड़ेगा। पुरुष डीआईजी हो जाए, वाइस चांसलर हो जाए या डॉक्टर हो जाए, लेकिन उसके मन में यदि सामंतवादी कीटाणु ज़िंदा हैं, तो वह सही पक्ष के तरफ इंगित करने के बावजूद स्त्रियों का मज़ाक़ उड़ाएगा। इसके लिए वह छिछले शब्दों का इस्तेमाल कर सकता है। उस समय उसे यह याद नहीं रहा होगा कि वह किस पद पर है, पढ़ा-लिखा व्यक्ति और लेखक है। वह अपनी बात को और ढंग से समझा सकता है। एक कौशलपूर्ण अभिव्यक्ति से व्यक्त कर सकता है। लेकिन यह उसकी पितृसत्तात्मक मनोवृत्ति ही है, जो स्वाभाविक है। वह हमें छिनाल भी कह सकता है, रण्डी भी कह सकता है। स्त्रियों को लेकर जितने भी अपशब्द पितृसत्ता ने गढ़े हैं, वह हमें उससे मंडित कर सकता है। हमारे लिए यह चुनौती है। हमारे अंदर यह पहचानने की दृष्टि होनी चाहिए कि यह बात कहाँ से व्यक्त हो रही है और इसकी वजह क्या है? या फिर छिछली भाषा से मुक्त होकर हम लिखकर प्रतिवाद कर सकते हैं। उन्हें इस बात के आभास से मुक्त करा दें कि हम एक छुईमुई हैं। एक लेखिका होने के नाते मैं इसे एक चुनौती मानती हूँ। इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल, शब्दकर्मी होने के बावजूद सिर्फ एक डरा हुआ व्यक्ति ही कर सकता है। हाँ,जिन लोगों ने इस साक्षात्कार को बेबाक़ कहा था, वे बेबाक़ी शब्द का गलत अर्थों में व्याख्यायित कर गए। बेबाक़ी का अर्थ होता है बातों को स्पष्टता से व्यक्त करना, ना कि गालियों में।
लेखक के जीवन में दुख का होना कितना आवश्यक है?   
दुख तो किसी को भी हो सकता है, लेकिन दुख के साथ अगर असंतोष नहीं जन्मा तो लेखक उस समस्या की तह तक नहीं पहुंच पाएगा। जिस समस्या ने व्यक्ति को पीड़ा की इस सीमा तक पहुंचा दिया है। जैसे राह चलते सब देखते हैं कि किसी का एक्सिडेंट हुआ पड़ा है। सभी लोग उसके दुख से दुखी होकर अपनी नौकरी की चिंता में निकल जाते हैं। इसी को जब एक लेखक देखता है, तो कई बिंदुओं से सोचता है। कहीं वह हड़बड़ी में तो नहीं था? कहीं वह पीये हुए तो नहीं था?ये रफ ड्राइवर तो नहीं है? किसी फ़िल्मी अलमस्ती में तो नहीं था? एक लेखक सिर्फ़ दुख नहीं करेगा। सामाजिक व्यवस्था के जिस दवाब में दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति रह रहा है, उससे इस दुर्घटना को लेखक जोड़ेगा। वह सोचेगा कि ड्राइवर कहीं मानसिक रूप से उद्वेलित तो नहीं था? कहीं उसके घर में झगड़ा तो नहीं हुआ था? लेखक को एक तरह की बैचैनी महसूस होगी। आखिर क्या कारण है कि यह दुर्घटना हुई। यदि व्यक्ति लेखक न भी हुआ और एक सम्वेदनशील व्यक्ति हुआ तो भी उसकी यह कोशिश होगी कि किसी तरह इसको इलाज के दरवाज़े तक पहुंचाया जा सके। यह मनुष्यता है। यही मनुष्यता व्यक्ति को अधिक सम्वेदनशील बनाती है।   
पुरस्कार को लेकर लेखकों में बढ़ता असंतोष कहाँ तक जायज है?
मुझे लगता है कि वह लेखक, लेखक नहीं है, जो पुरस्कार के लिए लिखता है। ऐसा देखने-सुनने  में आता है कि बड़े-बड़े लेखकों में भी यह भावना व्याप्त है। लेखकों का सम्मान करना बहुत अच्छी बात है। उन्हें पुरस्कृत किया जाता है, तो उनके मन में एक अच्छा भाव पैदा होता है कि समाज उन्हें सम्मानित कर रहा है। लेखक की चुनौतियों को पुरस्कार देकर समाज उनकी पीठ थपथपा रहा है। सम्मान के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है। लेकिन जब यह लेखक की एकमात्र बेचैनी बनने लगती है, तब मुझे तकलीफ़ होती है। जहाँ तक नई पीढ़ी की बात है, तो जो लोग प्रतियोगिता समझ कर लेखन करते हैं, वे लेखक नहीं महज एक प्रतियोगी हैं। एक लेखक की बैचैन रूह किसी भी स्थितियों में, चाहे पुरस्कार मिले या न मिले, लिखता रहेगा। उसे इस बात का मलाल हो सकता है कि उसे नहीं पहचाना जा रहा है,जिसका सम्बंध पाठकों से है। प्रेमचंद को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला इसका मतलब यह नहीं कि वे बड़े लेखक नहीं हैं। रविंद्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिला, इससे सिर्फ वही नहीं बल्कि हम भी सम्मानित हुए। सामाजिक सरोकार से जुड़े लेखकों की बैचैनी न तो पुरस्कार न मिलने से खत्म होती है और न ही पुरस्कार मिल जाने से। 

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