'इज्जत का प्रेत' हम औरतों के सिर पर चैबीसों घंटों, ताउम्र सवार रहता है. ये 'इज्जत का प्रेत' हमारी 'योनि' में कुंडली मारकर बैठा रहता है. इस प्रेत की स्त्रियों के जीवन में इतनी बड़ी भूमिका है कि ये ना रहे तो हमारे जीने की वजह और अधिकार तुरंत ही खत्म हो जाते हैं...
गायत्री आर्य
'चलती कार में रात भर लूटी छात्रा की इज्जत ', 'चलती बस से कूदकर महिला ने इज्जत बचाई', 'अपने ही स्टाफ की बहू की आबरु लूटी पुलिसकर्मियों ने', 'प्रधानाचार्य ने छात्रा की इज्जत लूटी', 'वहशी पिता ने अपनी मासूम पुत्री की अस्मत तार-तार की'. हर रोज ऐसी ही भयानक और मनहूस खबरें नाश्ते की मेज पर हमारा इंतजार करती हैं....और इससे भी ज्यादा भयानक है राष्टीय अखबारों द्वारा ये लिखा जाना कि 'लड़की की इज्जत लुट गई' या लूट ली गई.'
बलात्कार करने वाले आदमियों की इज्जत कभी लुटते नहीं सुनी. इसी से शक होता है कि उनकी इज्जत होती भी है या नहीं ? हमारे यहां तो जब-तब औरतें हमेशा के लिए 'बेइज्जत' हो जाती हैं, लेकिन हमारे देश के पुरुष रक्षामंत्री विदेशियों द्वारा पूरे कपड़े उतारे जाने पर भी बेइज्जत नहीं होते...!
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के हिसाब से बलात्कार के कुल दर्ज मामलों में, प्रत्येक पांच मामलें में से सिर्फ एक में ही बलात्कारी को सजा मिल पाती है. बाकि के सारे बलात्कारी 'बाइज्जत बरी' हो जाते हैं ! ...और ऐसे में पीडि़त स्त्री को तीहरी सजा मिलती है. पहली सजा तो यह कि एक स्त्री सिर्फ अपनी मादा होने के कारण ही बलात्कार पाने के योग्य हो जाती है ! दूसरी सजा उसे तब मिलती है जब कानून के लंबे हाथों के बावजूद, अपराधी पीडि़ता की आखों के आगे खुल्ले घूमते फिरते हैं. तीसरी सजा उसे तब मिलती है जब दोषी पकड़े जाने पर भी 'बाइज्जत बरी' हो जाते हैं और पीडि़ता को 'बेइज्जत' और 'इज्जत लुटा हुआ' घोषित कर दिया जाता है. ...और इस पूरे प्रकरण के दौरान और बाद में पीडि़ता का जो मानसिक बलात्कार होता है उसका हिसाब तो चित्रगुप्त भी नहीं लिख सकता. शरीर व कोमल भावनाओं के साथ हुई हिंसा का भला हमारी इज्जत से क्या व कैसा संबंध है...?
'इज्जत का प्रेत' हम औरतों के सिरों पर चैबीसों घंटों, ताउम्र सवार रहता है. ये 'इज्जत का प्रेत' हमारी 'योनि' ( जिसे की 'सृजन द्वार' कहना चाहिए) में कुंडली मारकर बैठा रहता है . इस प्रेत की स्त्रियों के जीवन में इतनी बड़ी भूमिका है कि ये ना रहे तो हमारे जीने की वजह और अधिकार तुरंत ही खत्म हो जाते हैं. जैसे ही कोई पुरुष हमारे 'सृजन द्वार' में अनाधिकृत व जबरन प्रवेश करता है, 'इज्जत का प्रेत' सरपट हमारी देह छोड़कर भागता है. इधर इज्जत के प्रेत ने स्त्री देह छोड़ी, उधर स्त्री का सांसे लेना भारी ! एक और अदभुत बात यह है कि बाकि जितने भी कामों में व्यक्ति बदनाम होते हैं वे उनके खुद के किये-धरे होते हैं, लेकिन बलात्कार के घिनौने खेल में कर्ता सिर्फ पुरुष होता है....पर कुपरिणाम सिर्फ स्त्री को भुगतना पड़ता है. आखिर क्यों....?
निहायत आश्चर्य व अफसोस की बात तो यह है, कि ज्यादातर बौद्धिक तबका, लेखक (लेखिकाएं भी), विचारक, चिंतक, पत्रकार आज के आधुनिक तकनीकी युग में भी बलात्कार की शिकार युवती के लिए 'इज्जत लुट गई', 'अस्मत तार-तार हो गई', जैसे शब्द ही लिखते-पढ़ते हैं. आज भी राष्टीय अखबारों और स्तरीय पत्रिकाओं में ये शब्द लिखे जाते हैं. कोई भी ये क्यों नहीं कहता कि ' अमुक व्यक्ति ने बलात्कार करके अपनी इज्जत लुटवाई'! असल में बलात्कार के विशेष संदर्भ में प्रयोग किये जाने वाले इस शब्द (इज्जत लुटना) के पीछे एक लंबी पुरुषसत्तात्मक सोच है, जिसे बदलने की जरुरत है.
'इज्जत' शब्द के उच्चारण मात्र से हमारे जहन में स्त्री की छवि घूम जाती है. यूं लगता है जैसे इज्जत शब्द स्त्री का ही पर्यायवाची है. खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और बातों में हम कितने आधुनिक हो गए हैं. लेकिन स्त्रियों के प्र्रति इस बर्बर सोच में कही न कोई कटौती है न बदलाव. जबकि सच यह है कि बलात्कारी तो सिर्फ देह व दिमाग को घायल करता है. बाकि बचे खिलवाड़ तो रिश्तेदार, पड़ोसी, समाज व मीडि़या के लोग करते हैं. हम ही तो पीडि़ता को बार-बार कहते हैं, अहसास दिलाते हैं कि तुम्हारी इज्जत लुट गई....अब तुम किस काम की...? बलात्कारी तो इस एक्सिडेंट में सिर्फ घायल करने वाले वाहन का काम करता है. लेकिन उस घायल को प्यार, अपनेपन, साथ और संवेदना की 'मरहम' लगाने की बजाए, अपमान और उपेक्षा के जहरीले इंजेक्शन देकर हत्या तो हम ही करते हैं!
उस लड़की/स्त्री की आत्महत्या या 'सामाजिक हत्या' के जिम्मेदार तो उस बलात्कारी से ज्यादा हम हैं. सजा का इकदार सिर्फ बलात्कारी को क्यों व कैसे माना जाए...? जो व्यक्ति दिमाग से बीमार है उससे तो अैर भला अपेक्षा ही क्या की जा सकती है. लेकिन हम, जो सोचते-समझते हैं, जिनका दिमाग ठिकाने पर है, जो 'नारी' की पूजा की बात करते हैं....उनकी गलती भला कैसे क्षम्य है...? इन सामाजिक समूहों और संस्थाओं में जब इतनी ताकत है कि वे किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए मजबूर कर सकते हैं यो फिर उसकी सामूहिक हत्या कर सकते हैं...तो से समाज उलटे उस पीडि़ता की ही हत्या का भागीदार क्यों बनता है? दो"ी को आत्महत्या के लिए विव'ा क्यों नहीं करता? उसका हुक्का-पानी क्यों बंद नही करता...? उसकी सामाजिक हत्या क्यों नहीं करता...?
न्यायिक प्रक्रिया को दोषी ठहराना, अदालतों को गलियाना कितना आसान है कि दोषी को सजा ही नहीं देता. लेकिन जब हम ही अपनी गलत सोच और व्यवहार के कारण दोषी को सजा नहीं देते तो अदालत को क्या कहा जाए? असल मेंयह अपनी गल्तियों व कमियों पर पर्दा डालने की सोची-समझा तरीका है कि सिर्फ अदालतों पर चिल्लाते रहो. बलात्कारी तो निःसंदेह सजा का हकदार है ही लेकिन 'इज्जत लुट गई' कहने, लिखने वाले और लड़की की सामाजिक हत्या करने वाले भी तो निश्चित तौर पर माफी के काबिल नहीं हैं.
बार-बार अपराधी, पुलिस तंत्र और न्याय व्यवस्था पर चिल्लाकर हम अपने अपराध और और नाकामी को और कब तक छिपाते फिरेंगे? कोई बताए हमें किसने 'इज्जत लुट गई' कहकर पीडि़ता को जख्मों पर नमक छिड़कने की जिम्मेदारी दी है? हमें किस अदालत या पुलिस थाने ने बलात्कार की शिकार लड़की या स्त्री का साथ देने से रोका हुआ है? आखिर पीडि़ता को स्कूल से निकालने, उसके साथ बातचीत बंद करने, अजीब सी नजरों से देखने, उसे घर में ही कैद रहने को मजबूर करने के लिए हमें किसने मजबूर किया है?
यह तो 'तोल-मोल के बोल' और 'मीठी वाणी' की शिक्षा देने वाल समाज है. नारी की पूजा करने वाला देश है. फिर क्यों सारी पूजा-अर्चना मंदिर में देवी की मूर्तियों से ही चिपकी रह जाती है? क्या पुलिस तंत्र ने व्यवहार में सम्मान करने से मना किया है? यह तो शब्द को ब्रहम कहने-समझने वाला देश है. एक-एक शब्द को सोच-समझा कर बोलने की सीख दी जाती है. यदि सोच-समझकर ही हम पीडि़ता के लिए इन शब्दों और ऐसे व्यवहार का प्रयोग कर रहे हैं तो फिर दीमागी बीमारी में हमला करने वालों से हमें क्या शिकायत करनी चाहिए?
यदि हम सच में बदलाव चाहते हैं तो बलात्कार की शिकार लड़कियों से हमें संवेदना है तो सबसे पहले 'इज्जत लुट गई', 'अस्मत तार-तार' हो गई जैसी शब्दावली का प्रयोग बंद करना चाहिए. कानून बनाकर ऐसी शब्दावली प्रयोग करने वालों को दंडि़त करना चाहिए . हिन्दी मीडिया को कब अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास होगा? लड़कियों और स्त्रियों को भी इस 'इज्जम लुट जाने' जैसी सोच से खुद को बाहर निकालना होगा.
खुद को ही अपराधी और चरित्रहीन समझने वाली इस 'आत्मघाती' प्रवृत्ति से बाहर निकालना होगा. क्योंकि बलात्कार हो जाने के बाद भी न तो हमारी योग्यता कम या खत्म होती है और न ही हमारी जरुरतें. हमारे सपनें, संवेदनाएं, स्नेह, ममता, प्रबंध कौशल, जूझने कि क्षमता...कुछ भी तो कम या खत्म नहीं होता और न ही खत्म होती है हमारी 'इज्जत'....!
लेखिका गायत्री आर्य को हाल ही में नाटक के लिए मोहन राकेश सम्मान मिला है.
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