निर्धनता बनाम आभासी विकास
यूं तो आंकड़े सत्य की शहादत होते है। परिस्थिति का सही आंकलन और उसके सन्दर्भ में परिणामदायक नियोजन के लिए आंकड़ो की गवाही,उनकी मौजूदगी बहुत आवश्यक होती है,किन्तु कभी कभी आंकड़ो की छाया तले सरकारें विकास के बढ़े-बढ़े बाँध बना कर खुद अपनी पीठ थपथपा लेने का साहसी कार्य भी करती है। पर सरकार में योजना आयोग जैसे प्रतिष्ठित और जिम्मेदार प्रतिष्ठान द्वारा आंकड़ों का ऐसा भ्रामक खेल लज्जास्पद है। यह आंकड़े सरकार के साथ-साथ पूरे देश को ही शर्मिंदा करने वाले हैं कि आजादी के छह दशक बाद भी देश की 60 प्रतिशत ग्रामीण आबादी 35 रुपये से भी कम दैनिक आय पर गुजारा करने को मजबूर है। शहरी आबादी की हालत भी बहुत बेहतर नहीं है। लगभग 60 प्रतिशत शहरी आबादी भी 66 रुपये की दैनिक आय पर गुुजर बसर करने को मजबूर है। इन आंकड़ों को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये किसी गैर सरकारी संगठन अथवा विपक्षी राजनीतिक दल द्वारा जारी नहीं किये गये हैं। ये आंकड़े केंद्र सरकार के उस नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट का हिस्सा हैं, जिसके आंकड़ों के आधार पर सरकार देश और उसके विभिन्न वर्गों के विकास के लिए योजनाएं बनाती है।
ये आंकड़े बहुत पुराने भी नहीं हैं कि सरकार दावा कर सके कि हाल के वर्षों में तो देश की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है। ये आंकड़े एनएसएसओ द्वारा किये गये राष्ट्रीय सर्वे के 66 वें चरण पर आधारित हैं, जो जुलाई,2009 से जून,2010 के बीच पूरा किया गया। अगर देश के ग्रामीण और शहरी, दोनों ही क्षेत्रों में 60-60 प्रतिशत आबादी क्रमशः 35 और 66 रुपये की दैनिक आय पर किसी तरह गुजारा कर रही है, तब तो यह कहने और मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार की बाबत सरकार द्वारा किये जाते रहे तमाम दावे महज छलावा ही हैं। दरअसल जिस विकास की झलक से भी देश की आधी से अधिक आबादी वंचित हो, वह विकास माना ही नहीं जा सकता। हाल के वर्षों में अवश्य विश्वव्यापी आर्थिक मंदी ने अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार थामी है, पर एनएसएसओ के इन आंकड़ों से कहीं भी यह संकेत नहीं मिलता कि मंदी के कारण इस आबादी की आय में कमी आयी है। आबादी के जिस बहुसंख्यक वर्ग को विकास में हिस्सा ही नहीं मिला, विकास की कथित रफ्तार से जब उसकी आय कभी बढ़ी ही नहीं, तो फिर कम होने का तर्क कैसे दिया जा सकता है।
दरअसल सरकार के ही एक बेहद विश्वसनीय और महत्वपूर्ण संगठन के ये आंकड़े हमारे देश और समाज की उसी भयावह तस्वीर को पुनरू पेश करते हैं, जो बताती है कि आजादी के छह दशक और तथाकथित आर्थिक सुधारों के दो दशक बाद भी एक-तिहाई से अधिक आबादी दो वक्त की रोटी के लिए भी जद्दोजहद करने को मजबूर है। ये तथ्य तब और भी डरावने लगते हैं जब सरकार लगातार दावा करती हो कि उसके आर्थिक सुधारों ने तो देश का कायाकल्प ही कर दिया है और अब बस भारत दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने ही वाला है। सरकारी आंकड़े अकसर निर्विवाद नहीं होते। इसीलिए यह मुहावरा भी चल पड़ा है कि आंकड़े अकसर सच नहीं बोलते,पर सरकारें अपने ही नागरिकों से इस कदर झूठ बोलने लगें तो यह जनता के द्वारा जनता के लिए जनता के शासन संबंधी लोकतंत्र की अवधारणा पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। जनता के द्वारा निर्वाचित सरकारों में यह साहस होना ही चाहिए कि वे नागरिकों को सच बता सकें। जब सरकारों में सच बताने और स्वीकार करने का साहस होगा, तभी वे सही मायनों में वांछित परिणाम देने वाली जन कल्याणकारी योजनाएं बना सकें गी।
इसमें दो राय नहीं कि वर्ष 1991 में पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में जब बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण का रास्ता चुना था, तब देश की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही थी और पूरी दुनिया में उदारीकरण को ही हर आर्थिक संकट का ठोस समाधान बताया जा रहा था, लेकिन तब भी देश और दुनिया में अमेरिकापरस्त इस उदारीकरण के विरोधियों की कमी नहीं थी। फिर भी यह तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि उदारीकरण के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा सुधरी है, लेकिन क्या सुधार की दिशा भी सही है? इस सवाल का जवाब आसान नहीं है। वर्ष 2004 में आम आदमी की सरकार का नारा देकर केंद्रीय सत्ता में आयी कांग्रेस और उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह निश्चय ही यह दावा करना चाहेंगे और करते भी रहे हैं, कि उनकी आर्थिक नीतियों की दशा और दिशा दोनों ही सही हैं लेकिन गरीबी रेखा से लेकर देश की बहुसंख्यक आबादी की दैनिक आय तक तमाम आंकड़े खुद ही उन दावों पर प्रश्नचिन्ह बनकर खड़े हो जाते हैं। ज्यादा पुरानी घटना नहीं है जब संसद से लेकर सड़क तक भारी विरोध के चलते योजना आयोग को गरीबी की अपनी नयी परिभाषा वापस लेनी पड़ी थी। नहीं भूलना चाहिए कि योजना आयोग को भले ही उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया चला रहे हों, पर उसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं। सरकारी दावों और इन आंकड़ों का विरोधाभास दरअसल इसी आम धारणा को बल प्रदान कर रहा है कि भारत और इंडिया के बीच की खाई तेजी से बढ़ रही है। इस खाई के खतरों को कोई भी समझदार सहज ही समझ सकता है। इसलिए सरकार को चाहिए कि इसे बढ़ने देने के बजाय पाटने की पहल करे।
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