[LARGE][LINK=/index.php/weyoume/1566-2012-06-16-05-21-47]तो यह है मजदूरों के हित का ढिंढोरा पीटने वाली भाकपा (माले) का वर्ग चरित्र [/LINK] [/LARGE]
Written by कंवल भारती Category: [LINK=/index.php/weyoume]विश्लेषण-आलेख-ब्लाग-टिप्पणी-चर्चा-चौपाल[/LINK] Published on 16 June 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=5661fe7b10f7d5bfecf0c628445faee5e45d5d3a][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/weyoume/1566-2012-06-16-05-21-47?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
: [B]मुखिया और माले के बीच हुई सुलह के तहत ही दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ अदालत में गवाही नहीं दी, परिणामतः बरमेश्वर मुखिया और कई नक्सली ज्यादातर हत्याकांड के मुकदमों से बरी हो गये [/B]: [B]दरिंदे बरमेश्वर मुखिया की हत्या पर उस जैसा दरिंदा ही शोक मना सकता है, दलित शोक क्यों मनायेंगे, दलित तो बहुत खुश हैं [/B]: बरमेश्वर की हत्या पर लोगों की जिज्ञासा इस बात को लेकर ज्यादा थी कि दलितों की इस पर क्या प्रतिक्रिया है? जिन लोगों ने फोन करके मुझसे पूछा, उसका यही मतलब था। मैंने कहा कि हत्यारे की हत्या पर न मुझे कोई दुख है और न दलितों को। मैंने कहा कि दलितों को अपराधी की मौत पर दुख नहीं होता, वह अपराधी था और वह भी दलितों की नृशंस हत्याओं का। जिस व्यक्ति ने दलित मजदूरों के दमन के लिये रणवीर सेना बनायी हो, उनकी बस्ती पर धावा बोल कर उन्हें गोलियों से भूना हो, दुधमुही बच्ची तक को हवा में उछाल कर उस पर बन्दूक चला दी हो और गर्भवती स्त्री का पेट फाड़ कर गर्भस्थ शिशु को तलवार से काट डाला हो, उस दरिन्दे की हत्या पर उस जैसा दरिन्दा ही शोक मना सकता है, दलित शोक क्यों मनायेंगे?
दलित तो बहुत खुश हैं। और खुश क्यों न हों, उनके सबसे बड़े दुश्मन का अन्त जो हो गया! पर बिहार के भूमिहार खुश नहीं हैं, वे अपने नेता की हत्या पर गमजदा हैं। इसलिये प्रतिक्रिया में उन्होंने वह गुण्डागर्दी दिखायी कि बिहार के इतिहास में अमर हो गयी। भूमिहारों की इस एकता से दलित मजदूर आतंकित हैं, वे इसमें रणवीर सेना की वापसी की सम्भावना देख रहे हैं। दलितों की आशंका गलत नहीं है। भूमिहारों के हिंसक ताण्डव की जो तसवीरें अखबारों में आयी हैं, उससे यह निष्कर्ष क्यों न निकाल लिया जाय कि बिहार में सामन्तवाद अभी भी जिन्दा है। बरमेश्वर की हत्या के तुरन्त बाद भूमिहारों की उपद्रवी सेना ने आरा में दलित छात्रावास पर हमला किया, जो बताता है कि उनके निशाने पर दलित सबसे पहले हैं। आरा में शुक्रवार, यानी 1 जून को भूमिहारों ने जो बवाल किया, उसे हम एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया मान सकते हैं, पर जो 2 जून को पूरे बिहार और खासतौर से राजधानी पटना में हुआ, उसे स्वाभाविक प्रतिक्रिया नहीं कहा जा सकता। 3 जून के अखबार बताते हैं कि 2 जून को जो गुण्डागर्दी पटना में हुई, वह राज्य सरकार के सहयोग के बिना नहीं हो सकती थी। यदि राज्य सरकार चाहती तो मुखिया की हत्या के बाद जो आरा में हुआ, उसे वह दूसरी जगहों पर होने से रोक सकती थी। लेकिन राज्य सरकार ने इतनी ढील दी कि सारा उपद्रव बेरोक टोक आसानी से होता रहा। इसका क्या मतलब है?
बथानी टोला नरसंहार को रणवीर सेना ने 11 जुलाई 1996 को अंजाम दिया था, जिसके मुखिया बरमेश्वर थे। यह केस 14 साल तक आरा की निचली अदालत में चला जिसके फैसले में 3 अभियुक्तों को सजायेमौत और बाकी को उम्रकैद की सजा हुई थी। इसके विरूद्ध अभियुक्तों ने पटना हाईकोर्ट में अपील की, जिसने इसी 2012 मे अपना फैसला अभियुक्तों के पक्ष में दिया। पटना हाईकोर्ट ने सभी 23 अभियुक्तों को साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया। हाईकोर्टं ने चश्मदीद गवाह पर भी सवाल उठाये। उनकी गवाही को इस आधार पर अमान्य कर दिया गया, क्योंकि वे नरसंहार में मारे गये लागों के परिवारों से थे। हाईकोर्ट की आपत्ति 12 घंटे बाद लिखाई गयी थ्प्त् पर भी थी। अन्य गवाहियां हुई नहीं। जो मौके के गवाह थे, वे पहले ही मर चुके थे। इसलिये हाईकोर्ट ने भरोसेमंद गवाह और साक्ष्यों के अभाव में अभियुक्तों को बरी कर दिया। बरमेश्वर, जो 20 आपराधिक मामलों में दोषी था, पहने ही जमानत पर छूटा हुआ था।
अदालत के फैसलों पर सवाल उठाना अवमानना का विषय माना जाता है। लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि जब सभी अभियुक्त निर्दोष हैं, तो वे लोग कौन थे, जिन्होंने बथानी टोला में 11 जुलाई 1996 को एक 9 महीने की बच्ची समेत 8 बच्चों, 12 औरतों और एक पुरूष की नृशंस हत्याएं की थीं? बथानी टोला में मारे गये मजदूर मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के समर्थक थे। वे इस पार्टी के साथ अपने हकों के लिये लड़ते थे और भूस्वामियों द्वारा किये जा रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठाते थे। बथानी टोला कांड इसी आवाज की सजा थी, जिसे भूस्वामियों की रणवीर सेना ने अन्जाम दिया था। अभियुक्तों के पक्ष में हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि पूरे मामले में माले की क्या भूमिका रही? यह जानने का कोई अधिकृत रिकार्ड मेरे पास नहीं हैं। किन्तु गुन्जन कुमार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जो इसी 13 जून के 'अमर उजाला' में छपी है, कुछ खुफिया तसवीर सामने आती है। रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है कि बरमेश्वर सिंह उर्फ मुखिया की हत्या में रणवीर सेना के धुर विरोधी रहे नक्सली संगठन माले का कोई हाथ नहीं है।
रिपोर्ट बताती है कि बिहार पुलिस की जांच और खुफिया विभाग द्वारा हासिल जानकारियों के अनुसार नक्सली संगठनों से, जिनमें माले भी शामिल है, मुखिया की उस दौरान ही सुलह हो गयी थी, जब वह जेल में थे। रिपोर्ट कहती है कि खुफिया विभाग के सूत्रों के मुताबिक मुखिया और माले के बीच हुई सुलह के तहत ही दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के खिलाफ अदालत में गवाही नहीं दी। परिणामतः बरमेश्वर मुखिया और कई नक्सली ज्यादातर हत्याकांड के मुकदमों से बरी हो गये। तो यह है मजदूरों के हित का ढिंढोरा पीटने वाली वाम पार्टियों का वर्ग चरित्र। चूंकि इन पार्टियों का नेतृत्व उच्च जातियां करती हैं, इसलिये उनके लिये अपने सहजातियों के हितों की रक्षा करना जरा भी अस्वाभाविक नहीं है। समाजवादियों के इस वर्ग चरित्र को बाबासाहेब डा. आंबेडकर ने अपने समय में ही अच्छी तरह समझ लिया था। आज के दलित बुद्धिजीवी भी इस सत्य से अनभिज्ञ नहीं हैं। कम्युनिस्टों के साथ काम कर चुके हमारे अनेक दलित साथियों का अनुभव भी यही है। वे ब्राह्मण या ठाकुर पहले हैं और कम्युनिस्ट बाद में हैं। वे न वर्ग विहीन हुए और न जाति विहीन। यदि आज भारत में ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद और जातिवाद की जड़ें मजबूत हैं, तो उसका एक कारण वाम पंथ का ब्राह्मण नेतृत्व भी है। दलितों, मजदूरों और गरीबों के हितों की यह कैसी वाम राजनीति है कि वे मजदूरों की लड़ाई भी ठीक के नहीं लड़ सके।
आज भी बथानी टोला में पंचायत की 90 बीघा जमीन पर भूमिहार भूस्वामियों का अवैध कब्जा है। आज भी वहां मजदूर को 70 रुपये एक दिन की मजदूरी मिलती है, जबकि सरकारी रेट 144 रुपये प्रतिदिन है। यदि कोई मजदूर इसका विरोध करता है, भूस्वामियों और उच्च जातियों द्वारा मजदूरों के पूरे समुदाय का सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। आज भी स्थिति वहां यह है कि कोई भी दलित भूस्वामी के सामने नये कपड़े पहनने की हिम्मत नहीं करता है।
मुखिया ने जो बोया, उसने वही काटा। कहते हैं कि अत्याचारी को भी उसी तरह मरना होता है, जिस तरह वह दूसरों को मारता है। मुखिया को क्या पता था कि कोई गोली उसका भी इंतजार कर रही थी और खून से लथपथ उसकी लाश भी बीच सड़क पर पड़ी होगी। उसकी हत्या का जश्न मनाने वालों की आंखों के सामने निश्चित रूप से बथानी टोला में बेरहमी से मारे गये दलित मजदूरों के निरीह चेहरे हैं। लेकिन मुखिया की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले भूमिहारों को बथानी टोला के वे निर्दोष मजदूर जरा भी याद नहीं आये, जिन्हें मुखिया की सेना ने मौत के घाट उतारा था। पूरे पटना में आगजनी और तोड़फोड़ करने वाले इन मुखिया-समर्थकों ने जरा भी नहीं सोचा कि मुखिया हत्यारा था, न सिर्फ दलित मजदूरों का, वरन लोकतन्त्र का भी।
बेशर्मी की हद तो तब हो गयी, जब बिहार सरकार के एक मन्त्री गिरिराज किशोर ने बरमेश्वर मुखिया को गांधीवादी करार दे दिया। इस निर्लज्ज मन्त्री को यह कहते हुए जरा भी लज्जा नहीं आयी कि एक हत्यारा गांधीवादी कैसे हो सकता है? क्या गांधी ने दलित मजदूरों की हत्याओं के लिये सेना बनायी थी? क्या गांधी ने गरीब मजदूरों की हत्याएं करायीं थीं? लेकिन किसी ने भी गिरिराज किशोर से इन सवालों के जवाब नहीं मांगे। बिहार की नीतीश सरकार ने भी उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की। सत्ता पक्ष के कई विधायकों ने मुखिया की हत्या की निन्दा की। क्या यह बथानी टोला के पीड़ितों के प्रति अन्याय नहीं है, जिन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है? क्या गरीबों की हत्याएं कोई मायने नहीं रखती हैं? मुखिया की हत्या किसने की, इसका पता तो पुलिस लगा ही लेगी। पर, चिन्तनीय, प्रश्न यह है कि यह बिहार में रणवीर सेना के पुनः सक्रिय होने के संकेत लगते हैं। सम्भवतः ठण्डे पड़ते जातीय संघर्ष को गरमाने के लिये यह किसी सामन्ती और जातिवादी गिरोह का ही कारनामा है।
[B]लेखक कंवल भारती जाने माने दलित चिंतक और साहित्यकार है. उनसे संपर्क 09412871013 के जरिए किया जा सकता है.[/B]
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