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Sunday, June 24, 2012

विकास के नाम पर

विकास के नाम पर

Sunday, 24 June 2012 16:50

श्रीभगवान सिंह 
जनसत्ता 24 जून, 2012: आज से करीब सौ साल पहले गांधी ने 'हिंद स्वराज' में मानव-समुदाय को मोहाविष्ट करने वाली मशीनी सभ्यता को शैतानी-सभ्यता बता कर उससे बचने के लिए सावधान किया था। मगर इस दौरान इस शैतानी सभ्यता के साथ जिस कदर मनुष्य-समुदाय की गलबहियां बढ़ती गई है, उसे देखते हुए मानना पड़ता है कि वैश्विक स्तर पर 'फाउस्टियन पैक्ट' तेजी से पसरता जा रहा है। इसकी गिरफ्त में आना हर मनुष्य की नियति बनती जा रही है। 
प्रचलित मान्यता है कि पंद्रहवीं सदी की जर्मनी में फाउस्ट नाम का एक खगोल विज्ञानी था, जिसे जर्मन महाकवि गोएठे ने नायक बनाते हुए 'फाउस्ट' नाम से एक महाकाव्य ही रच दिया। इस काव्यकृति में फाउस्ट का चित्रण एक ऐसे नेक, भले इंसान के रूप में है, जो निर्विघ्न रूप से असीम सत्ता, सुख, सुरक्षा आदि का भोग करने के लिए अपनी आत्मा, विवेक, स्वतंत्र बुद्धि, मानवीय करुणा, सहानुभूति जैसे तमाम गुणों को शैतान के हवाले कर देता है। सत्ता, सुरक्षा, सुविधा की एवज में अपनी आत्मा, अपना विवेक शैतान को सौंप देना ही 'फाउस्टियन पैक्ट' का सार तत्त्व है।
'फाउस्ट' का कवि-कल्पित सत्य इस भूमंडलीकरण के दौर में हर जगह चरितार्थ होता दिखाई दे रहा है। उच्च तकनीक, श्रेष्ठ प्रौद्योगिकी ही आज का महाशैतान है, जिसके कंधे पर सवार विकास का महायान विचरण कर रहा है। वह हर आदमी को असीम सुख-सुविधा, शारीरिक श्रम से छुटकारा, विलासिता आदि उपलब्ध कराने का ऐसा मोहक वितान रचता जा रहा है, जिसमें हर व्यक्ति अन्य की चिंता से विरत होकर इसके कदमों में खुद को पूर्णत: समर्पित कर देने में ही अपना सर्वोत्तम हित समझने लगा है। इसे ही पूरे विश्व में विकास के नाम पर प्रचारित किया जा रहा है- ऐसा विकास, जिसमें दूसरे प्राणियों की चिंता से मुक्ति या दूसरे के प्रति संवेदनशील, करुणार्द्र न होने में ही आदमी होने की सार्थकता महसूस की जाने लगी है। विकास का ऐसा परिदृश्य अब तक के मानव-इतिहास में नहीं देखा गया था। आज हर व्यक्ति इस 'महाशैतानी सभ्यता' के समक्ष आत्म-समर्पण कर अपने निजी सुख-सुविधा की गारंटी पा लेने को मचल रहा है। 
सुख-सुविधा की बरसात करती इस प्रौद्योगिकी के दामन में अपने को सुपुर्द करता हुआ मानव-समुदाय आत्ममुग्ध है कि उसे मोबाइल ने पत्र लिखने के श्रम से; कंप्यूटर ने कागज पर कलम घिसने के श्रम से; वाशिंग मशीन, पानी के नल, एअरकंडीशनर, मिक्सी, गीजर जैसे उपकरणों ने उसे नाना प्रकार की झंझटों से मुक्त कर उसके जीवन को अवकाश, आराम से सराबोर कर दिया है। तेज रफ्तार वाहनों ने उसकी गतिशीलता को तेज, सुगम और आरामदायक बना दिया है। ट्रैक्टर, थ्रेसर, हारवेस्टर आदि ने हल-बैल की खिच-खिच से आजाद कर दिया है। बिजली इतनी इफरात में सुलभ है कि दिन और रात का फर्क ही मिट गया है- अंधेरी रात में भी वह बिजली की बदौलत नाना प्रकार के खेलों का आनंद ले सकता है, मौज-मस्ती कर सकता है, इसके लिए वह अब चांदनी रात का मोहताज नहीं रहा। इस प्रौद्योगिकी के चमत्कार ने उसके जीवन में हर क्षण मौज ही मौज, मस्ती ही मस्ती का आलम ला दिया है। 
इस नितांत आत्म-सुख, इंद्रिय-सुख केंद्रित प्रौद्योगिक सभ्यता की तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि इन समस्त भौतिक सुविधाओं को उपलब्ध कराने के उपक्रम में प्राकृतिक संसाधन तेजी से क्षरित होते जा रहे हैं। सदियों से अनवरत, निरंतर प्रवाह का संदेश मुखरित करती रहीं नदियां भीमकाय बांधों के कारण विलुप्त होती जा रही हैं। स्थिरता और दृढ़ता के संदेशवाहक रहे पर्वत-पहाड़ धूल-धूसरित किए जा रहे हैं। बहुत सारे पशु अप्रासंगिक, अनुपयोगी होते हुए मिटते जा रहे हैं, बहुत सारे पक्षियों की प्रजाति समाप्त होती जा रही है। बढ़ते शहरीकरण और सड़कों के फैलाव के कारण पेड़-पौधे खत्म हो रहे हैं। यह सब सृष्टि की जिन बहुमूल्य संरक्षणशील वस्तुओं की कीमत पर हो रहा है, उसकी तरफ ध्यान देना इस फाउस्टियन पैक्ट की गिरफ्त में फंसता मानव अपने पिछड़ते जाने का लक्षण समझ कर उससे तौबा कर लेता है। 

गांधी ने मानव-हित में अतिशय मशीनीकरण के बरक्स भारतीय सभ्यता के प्राचीन काल से विद्यमान रहे बुनियादी ढांचे की तरफ दुनिया का ध्यान आकृष्ट करने का साहस किया था- 'ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना नहीं आता था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग अगर यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है। उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। इसलिए उन्होंने छोटे देहातों से संतोष किया।' गांधी की इस समझ को आज के संदर्भ में बिलकुल झुठलाया नहीं जा सकता। शारीरिक श्रम के कष्ट से छुटकारा देने वाली यह सभ्यता अनेक बीमारियों, भूमंडलीय ताप, जल-संकट पर्यावरणीय असंतुलन जैसी समस्याएं खड़ा कर विकास के रथ पर सवार समाज को विनाश के गर्त में पहुंचाने का ही संकेत दे रही है।
निस्संदेह बढ़ते प्रौद्योगिकीकरण और शहरीकरण की इस आंधी में हम जहां आ पहुंचे हैं वहां हमारे अंत की आहट सुनाई पड़ने लगी है। इससे बचने का एकमात्र उपाय है पीछे लौटना- पूर्णत: न सही, अंशत: ही। इसी तरफ गांधी ने 'हिंद स्वराज' में संकेत किया था, और अमेरिकी विचारक जार्ज   केन्नान भी अपनी पुस्तक 'द क्लाउड्स आॅफ डेंजर' में कहा था- 'जब हम पर्यावरणवादियों की चेतावनियों से हट कर प्रदूषण रोकने के लिए सार्वजनिक प्राधिकारों की कोशिशों पर गौर करते हैं तो यह अधिक से अधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि इस मामले में पर्यावरण की दृष्टि से, वास्तविक दोषी उद्योगीकरण और शहरीकरण की प्रक्रियाएं नहीं, बल्कि खुद उद्योगीकरण और शहरीकरण ही हैं। दूसरे शब्दों में यह कि कम से कम कुछ हद तक दोनों प्रक्रियाओं को उलटी दिशा में मोड़े बिना समस्या पर काबू नहीं पाया जा सकता। 
कुछ मामलों में औद्योगिक उत्पादन की जटिल और परिष्कृत प्रक्रियाओं को छोड़ना और उसकी जगह अधिक प्राचीन प्रक्रियाओं को अपनाना पड़ेगा, जिसमें वर्तमान की अपेक्षा कम श्रम-विभाजन होता है। अभी हम जीवन और उत्पादन की जिस अति जटिल आधुनिक व्यवस्था में रह रहे हैं, उसे पूरी तरह त्याग देने जैसी कोई बात नहीं हो सकती, लेकिन यह अब अधिक से अधिक संदेहास्पद होता जा रहा है कि पर्यावरण में सामंजस्य स्थापित करने के लिए जो करना जरूरी है, वह मात्र थोड़ा हेर-फेर करने से पूरा हो जाएगा। हमें अधिक सरल और अधिक श्रम प्रधान जीवन और उत्पादन-पद्धति की ओर लौटने के रूप में कुछ वास्तविक त्याग करने होंगे।' 
गौरतलब है कि गांधी ने अत्यधिक मशीनीकरण और शहरीकरण के खतरों से बचने के लिए जिस हाथ-पैर के श्रम की अहमियत की ओर ध्यान आकृष्ट किया था, प्रकारांतर से अमेरिकी विचारक केन्नान भी उसी के पक्ष में 'अधिक सरल और अधिक श्रम-प्रधान जीवन और उत्पादन-पद्धति की ओर लौटने के रूप में कुछ वास्तविक त्याग' करने का प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं। सचमुच अगर हम दुनिया को बचाने के लिए इच्छुक हैं, तो असीम शारीरिक सुख-सुविधाओं की बरसात करने वाली इस दैत्याकार प्रौद्योगिकी के साथ गलबहियां कराने वाले फाउस्टियन पैक्ट के मोह से उबर कर सरल, श्रम प्रधान जीवन, हाथ-पैर की क्रियाओं पर आधारित उत्पादन-पद्धति को अपनाना होगा, नहीं तो इसका पसरता जाल आने वाले दिनों में पूरी सृष्टि के लिए सांस लेना दूभर कर देगा।

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