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Friday, November 2, 2012

समानता के पहरुए

समानता के पहरुए

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/31965-2012-11-02-05-40-49

Friday, 02 November 2012 11:10

अरुण माहेश्वरी
जनसत्ता 2 नवंबर, 2012: नवउदारवाद के लगभग चौथाई सदी के अनुभवों के बाद मुख्यधारा के राजनीतिक अर्थशास्त्र को बुद्ध के अभिनिष्क्रमण के ठीक पहले 'दुख है' के अभिज्ञान की तरह अब यह पता चला है कि दुनिया में 'गैर-बराबरी है', और इससे निपटे बिना मुक्ति, यानी आर्थिक-संकटों की लहरों में डूबने से बचने का रास्ता नहीं है। 'द इकोनॉमिस्ट' पत्रिका के ताजा अंक (13-19 अक्तूबर) में विश्व अर्थव्यवस्था के बारे में उन्नीस पन्नों की एक विशेष रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। शायद पहली बार 'इकोनॉमिस्ट' ने सिर्फ 'गैर-बराबरी' की समस्या को केंद्र में रख कर विश्व अर्थव्यवस्था का सिहांवलोकन किया है।
1989 में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद के पराभव और  'इतिहास के अंत' के विचारों से तैयार हुई जमीन पर जब अमेरिका ने एकध्रुवीय विश्व कायम करने के उद्देश्य से अपने वैश्वीकरण का अश्वमेध शुरू किया, तब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्वबैंक और परवर्ती डब्लूटीओ से लेकर संयुक्त राष्ट्र के सारे बहुस्तरीय विश्व संगठनों की बड़ी-सी सेना पूरे दम-खम के साथ उसकी इस विश्व विजय की लड़ाई में उतर गई थी। मान लिया गया था कि अब रास्ता पूरी तरह साफ है, घोड़ा दौड़ाना भर बाकी है और सभी स्वतंत्रताओं के मूल, 'वाणिज्यिक स्वतंत्रता' के ध्वजाधारी अमेरिका के नेतृत्व में दुनिया को संवरते देर नहीं लगेगी; जैसे अमेरिका के पास कभी साधनों की कोई कमी नहीं रही, उसी प्रकार अब पलक झपकते दुनिया की सारी समस्याओं के समाधान में कोई बाधा नहीं रहेगी।
आनन-फानन में साल भर के अंदर, 1990 में ढेर सारी प्रतिश्रुतियों के साथ यूएनडीपी की ओर से पहली मानव विकास रिपोर्ट आई। 'समाजवाद' नहीं रहा तो उसका गम क्या? गरीबों के परवरदिगार और भी हैं! कहा गया कि आर्थिक विकास को मानव विकास में बदलने का रास्ता किसी विचारधारा का मोहताज नहीं है, बस इसके लिए जरूरी है प्रश्नों की पहचान और उनके समाधान की ठोस कोशिशें। मानव विकास रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र के तत्त्वावधान में उसी दिशा में उठाया एक महत्त्वपूर्ण कदम बताया गया।
1990 में मानव विकास की अवधारणा को परिभाषित करने और उसे मापने के मानदंड निर्धारित करने के उद्देश्य से प्रकाशित पहली मानव विकास रिपोर्ट में तत्कालीन दुनिया की ठोस परिस्थितियों का जायजा लेते हुए लक्षित किया गया था कि पिछले तीन दशकों में विकासशील देशों ने मानव विकास की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। आमदनी के मामले में खाई बढ़ने पर भी मूलभूत आर्थिक विकास के मामले में उत्तर-दक्षिण के बीच का फासला काफी कम हुआ है। मानव विकास में प्रगति के औसत आंकड़ों से विकासशील देशों के अंदर- शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच, आदमी और औरत के बीच, धनी और गरीब के बीच- भारी विषमताओं पर परदादारी होती है।
इसी प्रकार, उसका अवलोकन था कि कम आमदनी के बावजूद मानव विकास का सम्मानजनक स्तर प्राप्त करना संभव है। साथ ही यह भी कहा गया कि आर्थिक विकास और मानव प्रगति के बीच कोई स्वचालित संबंध नहीं है। गरीबों को सामाजिक क्षतिपूर्ति की जरूरत है। विकासशील देश इतने भी गरीब नहीं हैं कि वे आर्थिक विकास के साथ ही मानव विकास की कीमत न चुका सकें। समायोजन के लिए मानव कीमत अनिवार्य नहीं, बल्कि चयन की बात है। मानव विकास की नीतियों की सफलता के लिए अनुकूल बाहरी परिवेश जरूरी है। कुछ विकासशील देशों, खासकर अफ्रीका के कुछ देशों को विदेशी सहायता की आवश्यकता है।
विकासशील देशों में मानव क्षमताओं को बढ़ाने के लिए तकनीकी सहयोग देना होगा। मानव विकास के कामों में सफलता के साथ गैर-सरकारी संगठनों को शामिल करना होगा। आबादी में वृद्धि को रोकना जरूरी है। तेजी के साथ लोग शहरों में जमा हो रहे हैं और भावी पीढ़ियों की जरूरतों के साथ कोई समझौता किए बगैर आज की पीढ़ी की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास की एक टिकाऊ नीति तैयार करनी होगी। इन्हीं सोलह अवलोकनों और निष्कर्षों के आधार पर मानव विकास की अवधारणा और उसे मापने के मानदंड तय किए गए।
आगे इसी अवधारणा और माप के मानदंड के आधार पर दुनिया की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के नाना पक्षों के बारे में पिछले इक्कीस वर्षों से हर साल एक के बाद एक मानव विकास रिपोर्ट आ रही है। गौर करने लायक बात यह है कि इन सभी रिपोर्टों में किसी न किसी रूप में, प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से राष्ट्रों के बीच और राष्ट्रों के अंदर गैर-बराबरी से जुड़े ढेरों तथ्य प्रकाशित हुए हैं। लेकिन गैर-बराबरी का सवाल मानव विकास के भौतिक और आत्मिक, दोनों पक्षों के लिए सबसे अहम और केंद्रीय सवाल होने पर भी मजे की बात यह है कि आज तक मुख्यधारा के सामाजिक-आर्थिक विमर्श में इसे अलग से विचार का विषय नहीं बनाया गया है।
संयुक्त राष्ट्र की तर्ज पर ही दुनिया के विभिन्न देशों में भी सरकारी स्तर पर मानव विकास संबंधी रिपोर्टें तैयार करने का सिलसिला शुरू हो गया। खुद संयुक्त राष्ट्र ने क्षेत्र विशेष के लिए ऐसी अलग-अलग रिपोर्टें तैयार कीं। इन सबको एक प्रकार के नए दृष्टिकोण के आधार पर सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से रूबरू होकर उनके समाधान की नई रणनीतियों की दिशा में बढ़ने का उपक्रम कहा जा सकता है।
इन सांस्थानिक और सरकारी उपक्रमों के साथ ताल मिलाते हुए अर्थनीति के अध्येताओं की भी एक नई फौज सामने आई। इनमें विशेष तौर पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव कोफी अन्नान के विशेष सलाहकार जैफ्री सैक्स की किताब 'द एंड आफ पावर्टी', और अभिजीत वी बनर्जी और एस्थर दुफ्लो की 'पुअर इकोनॉमिक्स' की चर्चा की जा सकती है।
गरीबी में फंसे लोगों को उससे उबारने के लिए दुनिया के अलग-अलग कोनों की ठोस समस्याओं के ठोस उपायों को बताने वाली बनर्जी-दुफ्लो की किताब के पहले अध्याय में ही पूरे निश्चय के साथ घोषणा की गई है कि इस किताब का संदेश गरीबी के फंदों से कहीं परे जाता है। जैसा कि हम देखेंगे विशेषज्ञजन, राहतकर्मी या स्थानीय नीति नियामकों में अक्सर तीन आई- आइडियोलॉजी, इग्नोरेंश और इनर्शिया (विचारधारा, अज्ञान और अंतर्बाधा)- से इस बात को जाना जा सकता है कि नीतियां (अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में) क्यों विफल होती हैं और क्यों किसी सहायता का अपेक्षित फल नहीं मिल पाता।
कहने का तात्पर्य यह नहीं कि संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं या अर्थशास्त्रियों की नई फौज के इन अध्ययनों में कोई सचाई नहीं है और विश्व अर्थव्यवस्था के विकास की समस्याओं में इन अध्ययनों का कोई महत्त्व नहीं है। वास्तविकता यह है कि इस प्रकार के छोटे-छोटे स्तरों तक जाकर नाना प्रकार के विषयों की ठोस और गहन अध्ययन की कमियों ने दुनिया में समाजवाद की पूरी परिकल्पना का जितना नुकसान पहुंचाया उसकी थाह पाना मुश्किल है। कहा जा सकता है कि समाजवादी प्रकल्प की विफलता के मूल में 'तथ्यों से सत्य को हासिल करने' की वैज्ञानिक पद्धति की अवहेलना ने प्रमुख भूमिका अदा की थी। छोटी-छोटी सचाइयों को विचारधारा के भारी-भरकम कालीन के नीचे दबा कर समाजवादी दुनिया की नौकरशाहियां अपना उल्लू सीधा कर रही थीं।
इसीलिए, अर्थनीति का दुनिया के कोने-कोने की ठोस सचाइयों की ओर मुखातिब होना सिर्फ सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए नहीं, अर्थनीतिशास्त्र को भी अपनी आत्मलीनता से उबारने के लिए बेहद जरूरी है और इस दिशा में होने वाली हर कोशिश का स्वागत किया जाना चाहिए। इसके बावजूद गैर-बराबरी दूर करने, यानी समानता का प्रश्न आखिरकार विचारधारात्मक है। इस परिप्रेक्ष्य को गंवा कर मानव विकास की यात्रा लंबी दूरी तय नहीं कर सकती- समाजवाद के पराभव के बाद के बाईस वर्षों के अनुभवों से यह जाहिर है। पूंजीवादी परिप्रेक्ष्य से चिपक कर गैर-बराबरी खत्म करने की उम्मीद एक प्रकार से अर्थनीतिशास्त्र से इच्छा-मृत्यु की अपेक्षा करने जैसा है।
समाजवाद ने सभ्यता विकास की प्रक्रिया में आदमी की अकूत सर्जनात्मकता के उन्मोचन के अलावा जिस सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न की ओर मनुष्यता का ध्यान खींचा वह समानता, गैर-बराबरी को दूर करने का प्रश्न था। यह आर्थिक आधार से लेकर अधिरचना के पूरे ताने-बाने से सबसे अभिन्न रूप में जुड़ा प्रश्न है।
फ्रांसीसी क्रांति के झंडे पर स्वतंत्रता और भाई-चारे को जोड़ने वाली अनिवार्य कड़ी के तौर पर समानता की बात कही गई थी, लेकिन कालक्रम में देखा गया कि समानता की लड़ाई सिर्फ समाजवाद की लड़ाई बन कर रह गई। समाजवाद के पराभव के बाद इसी गैर-बराबरी दूर करने के सवाल को आर्थिक चर्चाओं की किसी सुदूर पृष्ठभूमि में डाल दिया गया।
गरीबी दूर करने की बात होती है, पिछड़ेपन के दूसरे सभी रूपों से मुक्ति की चर्चा की जाती है, लेकिन जब गैर-बराबरी का सवाल आता है तो उसे लगभग अटल सत्य मान कर उसके निवारण की चर्चा से सख्त परहेज किया जाता है। इसीलिए 'इकोनॉमिस्ट' जैसी मुख्यधारा की आर्थिक पत्रिका के ताजा अंक में गैर-बराबरी को अध्ययन का विषय बनाया जाना हैरानी पैदा करता और विचारणीय लगता है।
'इकोनॉमिस्ट' ने अपनी इस पूरी चर्चा को 'सच्चा प्रगतिवाद' बताया है। इसके सार-संक्षेप में कहा गया है कि उन्नीसवीं सदी के अंत तक वैश्वीकरण के प्रथम युग और अनेक नए आविष्कारों ने विश्व अर्थव्यवस्था को बदल दिया था। लेकिन वह 'सुनहरा युग' भी गैर-बराबरी के लिए प्रसिद्ध था, जब अमेरिका के लुटेरे शाहों और यूरोप के 'कुलीनों' ने भारी मात्रा में धन इकट्ठा किया था: 1899 से ही 'उत्कृष्ट उपभोग' की अवधारणा आ गई थी।
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई (और समाजवादी क्रांति के भय) ने थियोडर रूजवेल्ट के 'न्यास भंजन' (ट्रस्ट बस्टिंग) से लेकर लॉयड जार्ज के जनता के बजट तक के सुधारों की एक धारा पैदा की। सरकारों ने प्रतिद्वंद्विताओं को बढ़ावा दिया, प्रगतिशील कर-प्रणाली लागू की और सामाजिक सुरक्षा के जाल के धागे बुने। अमेरिका में प्रगतिशील युग के रूप में जाने जाने वाले इस नए युग का उद्देश्य था उद्यम की ऊर्जा को कम किए बिना एक न्यायसंगत समाज तैयार करना।
इसी संदर्भ में 'इकोनॉमिस्ट' का कहना है कि आधुनिक राजनीति को इसी प्रकार के पुनराविष्कार की, आर्थिक विकास को बिना आहत किए गैर-बराबरी दूर करने के मार्ग के साथ सामने आने की जरूरत है।
गौरतलब है कि यह समूची चर्चा आज राष्ट्रपति चुनाव के मौके पर अमेरिकी राजनीति का एक केंद्रीय विषय बनी हुई है। ओबामा समर्थक रिपब्लिकन उम्मीदवार मिट रोमनी को लुटेरा शाह कह रहे हैं, तो रोमनी समर्थक ओबामा को 'वर्ग योद्धा' कह कर कोस रहे हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रास्वां सोलेड ने अमीरों पर आयकर की दर बढ़ा कर पचहत्तर प्रतिशत करने की मांग की है। तमाम साजिशों को धता बताते हुए समाजवाद की शपथ लेकर फिर एक बार वेनेजुएला के राष्ट्रपति चुनाव में शानदार जीत हासिल करने वाले शावेज का कहना है कि अगर वे अमेरिका में होते तो आगामी राष्ट्रपति चुनाव में ओबामा का समर्थन करते।
नोम चोमस्की ने एक बार कहा था कि आज की विश्व परिस्थितियों में अमेरिकी सत्ता की नीतियों में मामूली परिवर्तन भी दुनिया की राजनीति में भारी परिवर्तनों का सबब बन सकती है। इसलिए भी इस ओर खास नजर रखने की जरूरत है।


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