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Saturday, December 13, 2014

अपने छात्रों के लिए हमारे गुरुजी की कविता


आधी रात के सोर 5

कभी-कभी सोचता हूँ
क्या था मुझ में, 
कि जो ,
मेरे संपर्क में आयी
नयी पीढ़ी ने
मुझ में खोज निकाला है.
वह नयी पौध, 
वे, जो मेरे अध्यापकीय जीवन की
वाटिका में साल-दर साल उगती रही,
और कुछ पाकर और
बहुत कुछ देकर
अपनी मंजिल की और
बढ़्ती चली गयी.
और मैं केवल मील के पत्थर
या मार्ग संकेतक
की तरह अपने स्थान पर
खड़ा रहा.

उनके जीवन में
ऐसे मील के पत्थर
अनेक आये होंगे, 
जैसे हम सब के 
जीवन में आते हैं,
यदा-कदा, हम उन्हें 
प्रसंग आने पर याद कर लेते हैं
पर वह पौध,
जो आज पल्लवित होकर
तल्लीताल के
रिक्शा स्टैंड से लेकर
दिल्ली के मुगल उद्यान तक
जीवन के हर क्षेत्र में
विकीर्ण हैं 
आज भी मेरे साथ 
जुडे हुई हैं,
ऐसा क्या था मुझ में
जो उन्हें औरों में नहीं मिला
या जो पौध मेरे संपर्क में आयी,
वह कुछ विशेष थी.

फिर भी
मुझ में कुछ विशेष है,
ऐसा यदि उन्हें लगा हो, 
तो वह उनका है
जिन्होंने
मेरे अन्तस को ढाला था,
पिता हों, दादी हो
या मेरे गुरु जन,
या मुझ एकलव्य
के वे गुरु, जिनसे मेरा साक्षात्कार
पुस्तकों के माध्यम से हुआ था
किन्तु जो द्रोणाचार्य नहीं थे,
द्रोणाचार्य, जो अपने आका 
की चापलूसी और पेट के लिए
अपनी माटी के पुतले को
गुरु मान लेने मात्र के बदले
उपासक का अंगूठा,
उसकी सामर्थ्य, छीन लेते हैं

जो मुझे मिले,
उनमें गुरुडम नहीं था,
केवल अपनापा था,
दिशा देने की चाह थी, 
वात्सल्य था,
इसीलिए शायद मेरी दृष्टि 
अध्यापक की मेज के आगे,
सहमे, सिकुड़े से बैठे 
वर्तमान पर न होकर,
अपनी मेज से भी बहुत
ऊपर उठने में सक्षम
भविष्य पर रही
इसीलिए मैं उनमें
अपने व्यवहार से
समाज के सबसे निचले
पायदान पर
किसी सहारे की तलाश करते
लोगों की ओर उन्मुख करने 
और मानव मूल्यों का
उन्मेष करने में लगा रहा
क्योंकि
मेरे सामने बैठे अनेक बच्चों में
गाहे-बगाहे
मेरा अतीत झाँकने लगता था.
और यही अतीत
लगभग सर्वहारा अतीत,
मुझे शब्दों से आगे 
व्यवहार की ओर भी
धकेलता रहता था.
और मेरा संकल्प,
इस सड़ी- गली- व्यवस्था की
दीवार से ईंटों को
निकाले के प्रयास में ही
अपनी सार्थकता का संकल्प,
मुझे सदा प्रेरित करता रहा
फिर मेरा युग भी
शायद कुछ अलग था
वह युग 
जब माता-पिता
बच्चों को अपनी विफलताओं
के प्रतिकार का 
माध्यम नहीं, 
नयी संभावनाओं के
अंकुर समझते थे,
पानी देते थे, गोड़्ते भी थे
काट-छाँट भी करते थे,
पर ये अंकुर उगते ही
फल देने लगें
और 
उनके अनुसार विकसित होकर
उनकी लागत को
चुकाना आरम्भ कर दें,
यह सोच 
शायद तब इतनी उग्र नहीं थी
वह सोच, जो
विशाल वृक्ष की संभावना वाले
पौधों को भी 
बोनसाई बना रही है.

फिर मेरा विषय साहित्य,
जैसे उडान के लिए खुला आकाश,
और
अपना सब कुछ 
उडेल देने के लिए आतुर
बादल सा मेरा मन,
शायद यही कुछ था
जिसका उपहार
मेरे मन में 
ताजगी भर देता है.

वे अंकुर, जिनकी पौध शाला में भी
वर्षों पहले
नये अंकुर उभर आये हैं
किसी भी माध्यम से,
मुझे स्पन्दित कर, 
मन में सुबह की ओस सी
नयी ताजगी भर जाते हैं
और मेरी बूढ़ी होती देह में
तब का जवान मन
हरियाने लगता है.

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