Wednesday, 27 March 2013 12:13 |
केपी सिंह पुलिस के साथ बदसलूकी और मारपीट की घटनाओं के लिए अकेले शासकीय संस्थाओं को दोष देना उचित नहीं होगा। शासकीय संस्थाएं उसी प्रकार काम करेंगी जैसा उन्हें बनाया जाएगा। भारत की शासन-प्रणाली अंग्रेजों की देन है। ब्रिटिश समाज एक बेहद अनुशासित समाज है और वहां के कानून उसी अनुशासित जनता की जरूरतों को ध्यान में रख कर बनाए गए थे। ब्रिटेन की शासन प्रणाली और कानूनों को हमने भारत जैसे अनुशासनहीन देश में लगभग ज्यों का त्यों अपना लिया। शायद यह एक बड़ी भूल थी। एक अनुशासित समाज पहले राष्ट्र, समाज और नागरिकों के प्रति अपने कर्तव्यों को समझता है और फिर अपने अधिकारों की बात करता है। इसके ठीक विपरीत, एक अनुशासनहीन समाज की प्रणालियां पहले अपने हक जताती हैं और बाद में राष्ट्र और समाज के प्रति दायित्वों की बाबत सोचती हैं। भारतीय शासनतंत्र इसी दोष का शिकार हो गया प्रतीत होता है। पुलिस की सरेआम पिटाई से आम नागरिकों और देश की व्यवस्था को अनेक खतरनाक संकेत मिल रहे हैं। वकीलों ने अदालतों में काम ठप करके यह अहसास करा दिया कि उनके बिना न्याय-व्यवस्था नहीं चल सकती। और यह भी कि अपने समूह के प्रति उनकी वफादारी सर्वोपरि और अटूट है। विधायिका ने जता दिया है कि उन्हें कानून की वर्दी पर हाथ डालने में कतई झिझक नहीं है। पुलिस को भी अब यह अहसास हो गया है कि उनकी वर्दी के अनुशासन की बेड़ियां उन्हें अन्याय सहने के लिए मजबूर कर रही हैं। जयपुर में पुलिस की भूख हड़ताल एक गंभीर चेतावनी है। यह एक दुखद स्थिति है कि पुलिस वाले अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय की दुहाई देकर विरोध-प्रदर्शन करने लगे हैं। अखबार में छपी एक खबर के मुताबिक अकेले चंडीगढ़ शहर में पिछले तीन महीने में पुलिस पर हमले की दस घटनाएं दर्ज हुई हैं। पुलिस ने प्रशासन से गुहार लगाई है कि इन मुकदमों को त्वरित अदालत के माध्यम से शीघ्र निपटा कर दोषियों की सजा दी जाए। उनकी दलील है कि अगर पुलिस ही असुरक्षित होगी तो जनता कैसे सुरक्षित महसूस करेगी? मुंबई में भी उच्च पुलिस अधिकारियों ने मुख्यमंत्री से मिल कर पुलिस का मनोबल न गिरने देने की गुहार लगाई। जयपुर की घटना के परिप्रेक्ष्य में एक और लक्षण उभर कर सामने आया है। जनता में किसी के भी साथ हो रहे अन्याय को समझने और परखने की कुव्वत है। व्यवस्था में बैठे लोग एकबारगी न्याय और अन्याय को समझने में चूक कर सकते हैं, पर जनता नहीं। और इतिहास गवाह है कि जब जनता न्याय करने सड़कों पर निकलती है तो उसके सामने व्यवस्था के आदेश निरर्थक होकर रह जाते हैं। प्रशासन लाचार हो जाता है। अत: प्रशासन और व्यवस्था के हित में यही है कि वह हमेशा न्याय के पक्ष में नजर आए। अगर ऐसा नहीं होगा तो लोग अपना न्याय खुद करने लगेंगे। अराजकता की यही निशानी होती है। आदर्श सामाजिक, न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए एक सशक्त पुलिस का होना बेहद जरूरी है। पर सशक्त पुलिस से अभिप्राय एक निरंकुश पुलिस से कतई नहीं है। पुलिस पर अंकुश जरूरी है, पर इस तरह से नहीं कि वह असहाय, प्रताड़ित और हतोत्साह महसूस करना शुरू कर दे। अगर पुलिस वाले कानून तोड़ते हैं तो उन्हें आम नागरिक से दोगुनी सजा मिलनी चाहिए। और अगर कोई पुलिस पर जबर करता है तो उसे चार गुनी सजा होनी चाहिए। पुलिस पर हमला पुलिसिया जबर से कहीं अधिक खतरनाक होता है। पुलिसिया जबर का इलाज कानून में है, मगर पुलिस के साथ हिंसा हो तो उसका इलाज ढूंढ़ना इतना आसान नहीं है। पुलिस व्यवस्था की प्रहरी है। अगर प्रहरी ही असहाय महसूस करेगा तो व्यवस्था कैसे सशक्त हो सकती है? http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41359-2013-03-27-06-44-15 |
Friday, March 29, 2013
पुलिस का मानवाधिकार
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