अलविदा, नादिन गार्डिमर
साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखिका, नादिन गार्डिमर नहीं रहीं। 90 साल की उम्र में हुयी उनकी मौत का साथ ही दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी और रंगभेद की नीतियों के खिलाफ हुए संघर्ष की एक महान योद्धा के जीवन का अंत हो गया। उनकी मौत के साथ-साथ ही अफ्रीकी देशों में आज़ादी के सबसे बड़े नायक नेल्सन मंडेलाकी एक घनिष्ठ कामरेड के जीवन का अंत हो गया।
नादिन गार्डिमर रंगभेद के खिलाफ चले आन्दोलन के हरावल दस्ते के अगली कतार की नेता थीं। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ चले संघर्ष में ज़बरदस्त भूमिका निभाई। नेल्सन मंडेला के 1962 वाले मुक़दमे में वे बहुत ही सक्रियता के साथ रंगभेदी सरकार के खिलाफ बने मोर्चे में सक्रिय थीं। उस केस में नेल्सन मंडेला ने अपने बचाव के लिए जो बयान दिया था, वह आज़ादी की लड़ाई का एक बहुत ही अहम दस्तावेज़ है। उस बयान को नादिन गार्डिमर ने ही तैयार किया था। बाद मे “आई एम प्रेपेयर्ड टू डाई“ नाम से उस मंडेला के बयान को पुस्तक के रूप में छापा गया। दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में उसका अनुवाद हो चुका है।
नादिन गार्डिमर अफ्रीकी आन्दोलन की इतनी बड़ी नेता थीं कि जब नेल्सन मंडेला को जेल से छोड़ा गया तो मंडेला ने रिहाई के बाद सबसे पहले उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों के बारे में बाकी दुनिया को जानकारी नादिन गार्डिमर की किताबों से ही मिली। उन्होंने ही दुनिया को बताया कि दक्षिण अफ्रीका में किस तरह से शरीर के रंग की वजह से काबिल लोगों को समाज के विकासक्रम में सबसे पीछे डाल दिया जाता है। अमरीका और ब्रिटेन की अफ्रीका नीति के पोल भी सबसे पहले नादिन गार्डिमर ने ही खोली थी। उन्होंने ही सारी दुनिया को बताया था कि लोकशाही के समर्थन का दावा करने वाली पश्चिमी देशों की सरकारें किस तरह से दक्षिण अफ्रीका में हो रहे रंगभेद के अन्याय के तांडव का समर्थन करती हैं। उन्होंने ही बताया कि दक्षिण अफ्रीका में आधी रात को भी कोई भी पुलिस वाला किसी भी काले आदमी के घर पर दस्तक दे सकता है और उसके परिवार के बच्चों और महिलाओं को अपमानित कर सकता है।
उनकी साहित्यिक कृतियों से ही अंग्रेज़ी पढने वाली दुनिया को पता लगा कि दक्षिण अफ्रीका में आज़ादी की बात सोचना भी असंभव है। नादिन गार्डिमर की किताबों में ही लिखा हुआ है कि जब वहाँ की कोर्ट से जब कोई काला आदमी जेल से रिहा हो जाता है तो जेल के गेट के बाहर ही उसको फिर किसी ऐसे जुर्म का फर्जी आरोप लगाकर पकड़ लिया जाता है जो उसने कभी किया ही नहीं था। इस तरह से कोर्ट की न्याय के स्वांग की प्रक्रिया के बीच दक्षिण अफ्रीका का आम आदमी कुछ मिनटों के लिए ही आज़ादी की हवा में सांस ले सकता है। उनकी साहित्यिक रचनाओं के बारे में दुनिया भर के नामी आलोचकों और समाजशास्त्रियों की राय है कि वह साहित्य कम और सामाजिक इतिहास ज़्यादा है। उनका कहना है कि उन्होंने इतिहास नहीं लिखा लेकिन किसी भी साहित्यिक रचना में उन्होंने जो डिटेल शामिल किया है, वास्तव में उसको उस कालखंड का इतिहास माना जा सकता है।
नादिन गार्डिमर ने आत्मकथा नहीं लिखी है लेकिन अक्सर कहा जाता है कि उनकी कई रचनाओं में जो सन्दर्भ में वे उनके भोगे हुए यथार्थ के टुकड़े हैं। हर रचना में सच्चाई बहुत ही साफ़ तरीके से दर्ज है। बहुत सारे आलोचकों ने अक्सर दावा किया है कि उनकी कुछ रचनाएं आत्मकथात्मक हैं। उनकी साहित्यिक रचनाओं के बारे में कहा जाता है कि उनकी हर किताब में साफ़ साफ़ इतिहास लिखा हुआ है। बस उसमें नाम और तारीख सच नहीं होती बाकी सब कुछ सच्चाई होती है। उन्होंने पचीसों किताबें लिखी। 1949 में उनकी पहली किताब ‘फेस टू फेस‘ छपी थी। उनका सबसे महत्वपूर्ण शाहकार “टेलिंग टाइम्स — राइटिंग एंड लिविंग 1954-2008“ है। मैं इसको इंसानी बुलंदी का सबसे अहम दस्तावेज़ मानता हूँ। यह साहित्य नहीं है यह उनकी गैर साहित्यिक रचनाओं का संकलन है। इस किताब में उनकी वह रचनाएं हैं जिनमें अफ्रीकी अवाम की लड़ाई के 35 वर्षों और नेल्सन मंडेला की रिहाई के बाद के वर्षों की राजकाज और सामाजिक सामंजस्य की दुविधाओं को रेखांकित किया गया है। उनके तीन उपन्यासों को रंगभेदी सरकार ने प्रतिबंधित भी कर रखा था लेकिन वे किताबें बाकी दुनिया में हमेशा उपलब्ध रहीं।
नादिन गार्डिमर एक युगद्रष्टा रचनाकार थीं। उनकी 1981 में छपी किताब “जुलाई पीपुल“ को पढ़कर लगता है कि जैसे वे एक नए देश की जीत और उसके लोगों के सपनों को पूरा होने की कहानी बता रही हों। लगता है कि वह दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के बाद की घटनाएं हैं। जबकि दक्षिण अफ्रीका को आज़ादी की उम्मीद इस किताब के छपने के दस साल बाद नज़र आनी शुरू हुयी थी। उस दौर तो में किसी को उम्मीद भी नहीं थी कि दस साल बाद नेल्सन मंडेला रिहा हो जायेंगे और एक नए राष्ट्र का जन्म होगा जिसमें रंगभेद नहीं होगा।
नादिन गार्डिमर को इतने सम्मान मिले हैं कि गिनवाना बहुत ही मुश्किल है। उनको 1974 में बुकर प्राइज़ मिला था और 1991 में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। यह दक्षिण अफ्रीका के खाते का पहला नोबेल सम्मान था। इसके अलावा कामनवेल्थ और पुरानी ब्रिटिश कालोनियों में जो भी सम्मान होते हैं, सब उनको मिल चुके हैं। बेझिझक कहा जा सकता है कि दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के संघर्ष के सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़नबीस ने दुनिया से अलविदा कह दिया है।
No comments:
Post a Comment