परिचय
जन्म : 2 जनवरी 1934
भाषा : हिंदी
विधाएँ : उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, बाल साहित्य
मुख्य कृतियाँ
उपन्यास : सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मनबोध बाबू, उत्तरगाथा, बदनाम, बेमतलब जिंदगियाँ, अग्नि देवी, धर्मपुर की बहू, अर्जुन जिंदा है, सहदेवराम का इस्तीफा, कथा कहो कुंती माई, समकाल कहानी संग्रह : पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, हरिजन सेवक, पहला पाठ, असाढ़ का पहला दिन, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला नाटक : लाखो, सुबह के लिए, बाबू जी का पासबुक, कुतुब बाजार गीत संग्रह : रुक जा बदरा संपादन : सन साठ के बाद की कहानियाँ, ग्राम्य जीवन की श्रेष्ठ कहानियाँ
निधन
15 जुलाई 2014, आरा (बिहार)
मधुकर सिंह सचमुच जनता के लेखक थे
मैं आरा को नहीं धरहरा, आरा को जानता था, क्योंकि वहां मधुकर सिंह रहते थे. अपने गाँव में रहते हुए जब उनकी कहानियां पढता था तो लगता था अपने गाँव के टोले-मोहल्ले की कहानियां पढ़ रहा हूँ. बाद में जब कहानियां लिखना शुरू किया तो उसके पीछे कहीं न कहीं मधुकर सिंह की उन कहानियों का आकर्षण भी था जिनकी बदौलत उन्होंने धरहरा, आरा को हिंदी साहित्य का अमर गाँव बना दिया. उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए पढ़ते हैं कवि-उपन्यासकारनिलय उपाध्याय की यह श्रद्धांजलि. निलय जी उनको बहुत करीब से जानते थे- प्रभात रंजन
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मधुकर सिंह की मौत को भूल पाना मेरे लिए आसान नही है।
आरा मे मैं नया नया आया था। मधुकर सिंह से मेरी पटती थी, उनके साथ कभी यह अहसास नहीं होता कि हम अपने किसी वरिष्ठ लेखक के साथ बैठे है। तब मैं नया नया लिखना आरंभ किया था। एक दिन मधुकर सिंह मेरे घर आए थे और हम दोनों पूरी रात बात कर रहे थे।
मधुकर सिंह ने कहा जो साहित्य को एक रात नही दे सकता वो पूरी उम्र क्या देगा?
मैंने तो बस एक रात दी पर पता चल गया कि मधुकर सिंह ने साहित्य को पूरी उम्र दे दी है। संयोग से आरा के उसी जैन स्कूल में पढाते थे जिसमे जगदीश मास्टर पढाते थे। जगदीश मास्टर अवचेतन में मधुकर सिंह के साथ थे।
आज जब याद करता हूं कि मधुकर सिंह ने मुझे क्या दिया तो एक लंबी सूची मेरे सामने है।
एक बार मैंने पूछा कि किस तरह आप किसी विषय को देखते हैं. मधुकर सिह थोडी देर के लिये चुप हो गये. कुछ देर बाद उन्होने एक छोटी सी कहानी सुनाई-
किसी किसान के पास एक गाय थी. गाय ने बछड़ा दिया और बछड़ा मर गया. किसान दूध निकालने के लिये गाय को इन्जेक्श्न देता, बांध देता. घटना बस इतनी है।
बकौल मधुकर सिंह..इस घटना को आम आदमी के नजरिए से देखा जाए तो किसान क्रूर नज़र आता है. दूध निकालने के लिए पशुता पर उतारू हो जाता है. किन्तु जब इसी घटना को एक लेखक देखता है तो उसे याद आता है कि किसान ने जब गाभिन गाय खरीदी तो उसके घर के उपर छप्पर नही था. उसके बच्चे के देह पर कपडे नही थे. उसकी सोच थी कि गाय का दूध बेच कर वह यह सब कर लेगा. लेकिन उसपर तो विप्पति का जैसे पहाड टूट पडा. बच्चे का कपडा भी नही छप्पर भी नही और बछडा भी नही. तब किसान को क्रूरता अपनानी पडी.
मधुकर सिह ने बताया कि यही द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है.
एक लेखक उस किसान कि उस क्रूरता में करुणा की तलाश करता है। तब से इसे नही भूल पाया ।
मधुकर सिंह की हंसी मै नहीं भूल पाता, हंसते तो मुंह गोल हो जाता और हो हो कर हंसते।
किसी की आलोचना करनी होती तो उसे चिरकूट कहते। चिरकूट मतलब पुराना फ़टा हुआ कपडा। गंगा यात्रा के दौरान आरा से निकलते हुए कथाकार मधुकर सिंह से मिला था। बाएं कान से सुनाई नहीं देता था उनको, लिख कर देने पर बात करते मगर बातों मे वहीं जीवन्तता। (कल आपका कार्यक्रम था, मुझे पता होता तो जरूर आता। जब मन उबता है पटना चला जाता हूं..और जाने कितनी बातें ) उनकी नजरों का कायल पहले भी था, इस बार हुआ क्योकि वे बिना चश्मे के पढते थे।
हिन्दी कहानी में आज भोजपुर एक स्कूल है, जिसके निर्माता है मधुकर सिंह।
उन्होने आरा को बिहार की सांस्कृतिक राजधानी का दर्जा दिलवाया। किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, गरीबों, औरतों,दलितों-वंचितों के भीतर विरोध की आंच देखना हो तो मधुकर सिंह उदाहरण है। जो उन्हे पिछडो का लेखक मानते है वे उनकी कहानी दुश्मन जरूर पढ़ें जिसके नायक जगजीवन राम थे।
मधुकर सिंह का मानना था जो लेखक अपनी जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा।
आप चले गए मधुकर जी, कैसे यकीन कर लूं।
http://www.jankipul.com/2014/07/blog-post_8912.html
मधुकर होने का मतलब
।। प्रेम भारद्वाज ।।
संपादक, पाखी
जब मधुकर सिंह ने लिखना शुरू किया तब वह नेहरू युग से मोहभंग के बाद आक्रोश, नाराजगी और जनांदोलनों का दौर था. वह दिल्ली माने सत्ता, माने सुविधा, माने तिकड़म से इसलिए दूर रहे, क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना वह दिल्ली नहीं पहुंचता था.
एदुआदरे गालीआनो ने लिखा है, ‘इस दुनिया में वर्गीकरण की एक अजीब सनक है. और इस वजह हम सबके साथ कीड़ों की तरह व्यवहार होता है.’ मधुकर सिंह के 15 जुलाई को अचानक चले जाने पर अगर ये पंक्तियां सहसा जेहन में कौंधी तो जरूर इसका कोई मतलब है. मतलब दोहरा है, एक उनके लिए, जिनके बारे में मधुकर सिंह जिंदगी की आखिरी सांस तक लिखते रहे. दूसरे खुद लेखक के मुताल्लिक, जिसे कीड़ा नहीं तो ‘कुजात’ जरूर समझा गया. यह एक मधुकर सिंह नहीं, हाशिये का दर्द और उपेक्षा का दंश ङोलनेवाले हिंदी के बहुत सारे ‘मधुकरों’ की तल्ख हकीकत है. हमारे समय में मधुकर सिंह होने का अर्थ क्या है, यह कथाकार मधुकर सिंह के संघर्ष और उनकी व्यथा-कथा की कुछ झलकियों से जाना-समझा जा सकता है.
अंत के पहले तक अंत नहीं मानने की जिद ही किसी लेखक को मधुकर सिंह बनाती है. कायदे से मुङो लिखना चाहिए कि मधुकर सिंह हिंदी कथा साहित्य के महान लेखक थे. उनके निधन से साहित्य के एक युग का अंत हो गया. एक अपूरणीय क्षति हुई है.
लेकिन, मैं ऐसा न लिख कर सिर्फ वहीं बातें करूंगा जो हिंदी समाज में मधुकर सिंह के बनने, होने और मिट जाने की वजहें रही हैं और जिसे हमने भीष्मीय-अश्वत्थामीय आभिशप्तता के रूप में स्वीकार कर लिया है. हमने कबूल लिया है कि जो दिल्ली से दूर रहेगा, वह साहित्य की प्रारंभिक नागरिकता से भी दूर होगा. जो किसी महंत का शिष्यत्व नहीं स्वीकारेगा, वह हाशिये पर ही रहेगा. जो हिंदी में प्रचलित कलावाद की तलवारें नहीं चमकायेगा, उसके जीवन में अंधकार बना रहेगा.
मधुकर सिंह ने अपने एक आत्मकथात्मक लेख में कहा, ‘पुलिसमैन पिता मुङो दारोगा बनाना चाहते थे, लेकिन मैं बन गया लेखक. उन्होंने बचपन में ही मेरी शादी कर दी. जब मैं मैट्रिक में पढ़ता था, तभी बाप भी बन गया. तभी से दो पीढ़ी के बापों का संघर्ष जारी रहा. मेरी ‘तक्षक’ कहानी इसी तनाव की गाथा है. सुराजियों को बर्फ की सिल्ली पर भी वंदे मातरम गाते हुए सुनता था. पुलिस और सरकार के खिलाफ मैंने बराबर लिखा.’ असल में उन्होंने बहुत पहले ही समझ लिया था कि उन्हें करना क्या है. जिस पुलिसिया जुल्म के खिलाफ उनकी कहानियां चीत्कार करती हैं, उस पुलिस व्यवस्था का हिस्सा वह कैसे बन सकते थे. संघर्ष उनकी धमनियों में लहू बन कर जिंदगी की आखिरी सांस तक दौड़ता रहा. संघर्ष उनके जीवन में भी रहा और लेखन में भी.
2 जनवरी, 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में जन्मे मधुकर सिंह दस साल की अवस्था में भोजपुर जिले के धरहरा गांव आ गये. शोषण, विषमता और संघर्ष से मधुकर सिंह का गहरा रिश्ता रहा. बचपन में ही उन्होंने अंगरेजों के विरुद्ध सुराजियों को आजादी के लिए संघर्ष करते देखा. जवान हुए तो आजाद देश में गरीबों-वंचितों, भूमिहीनों, किसानों, मजदूरों के शोषण चक्र में बदलाव नहीं आया. आजादी के चमकते सूरज के उगने के बावजूद जुल्म का स्याह अंधेरा बरकरार रहा. मधुकर सिंह जानते थे कि अंधेरे को दूर करने का एक ही रास्ता है- रोशनी. वे बेजुबानों की जुबान बन कर रचनाओं के जरिये चीखे, तो उन पर तरह-तरह के आरोप लगे. यहां तक कि उन्हें नक्सली लेखक भी कहा गया.
साठ के दशक में जब मधुकर सिंह ने लिखना शुरू किया, तब वह नेहरू युग से मोहभंग के बाद आक्रोश, नाराजगी और जनांदोलनों का दौर था. वह दिल्ली माने सत्ता, माने सुविधा, माने तिकड़म से इसलिए दूर रहे क्योंकि उन्होंने जो रास्ता चुना वह दिल्ली नहीं पहुंचता था. उन्होंने दलितों, पिछड़ों के संघर्ष और उनकी जिजीविषा को अपनी रचनाओं का केंद्रीय विषय बनाया. अगर भोजपुर क्षेत्र के किसानों की व्यथा-कथा, वहां के समाज, राजनीतिक संघर्ष को जानना हो तो मधुकर सिंह के कथा साहित्य में उसे ढूंढ़ा जा सकता है. वह साधारण आदमी थे.
उनकी छोटी जरूरतें थीं, मामूली इच्छाएं. सपना भी खुद के लिए नहीं, उन गरीब किसानों, मजदूरों के लिए देखा जो उनकी कहानियों के पात्र थे. सोवियत लैंड जैसा पुरस्कार जरूर लिया, पर पुरस्कार की राजनीति से दूर रहे. वह सहज, सरल और साधरण थे, जो शायद उनका अपराध बन गया और सजा के तौर पर उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.
अंत में यान ओत्शानेक की पंक्तियां याद आ रही हैं, ‘कुछ लोगों को अक्सर याद किया जाता है, कुछ हंै जिन्हें हमेशा के लिए भुला दिया जाता है. कुछ ऐसे भी हंै जिनका जिक्र कोई नहीं करता. वे बिना शब्दों के जीवित रहते हैं, मुंह के पीछे, आंखों के पीछे वे पुराने घरों में अविरल गिरते प्रवाहमान इतिहास का आंगन होते हैं.’ मधुकर सिंह उन लोगों में हंै, जिनके रचे शब्द उनकी हमेशा याद दिलाते रहेंगे. खास कर तब जब किसी गरीब किसान की आंखों में आंसू होंगे और वह अपना दर्द बयान करने में गूंगा साबित कर दिया जायेगा.
कथाकार मधुकर सिंह को सम्मानित करते प्रणय कृष्ण ।
आरा : बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह पिछले करीब पाँच साल से पैरालाइसिस के कारण कहीं भी अपने पैरो के बल पर चलकर जाने में असमर्थ हैं, लेकिन उनके लेखनी पर उनके हाथों और दिमाग की पकड़ कतई कमजोर नहीं पड़ी है। भोजपुर जिले के मुख्यालय आरा से बिल्कुल सटे हुए अपने गाँव धरहरा में अपने घर में वे अस्वस्थता की स्थिति में भी लिख रहे हैं। ‘सोनभद्र की राधा’, ‘सबसे बड़ा छल’, ‘सीताराम नमस्कार’, ‘जंगली सुअर’, ‘मनबोध बाबू’, ‘उत्तरगाथा’, ‘बदनाम’, ‘बेमतलब जिंदगियां’, ‘अगिन देवी’, ‘धर्मपुर की बहू’, ‘अर्जुन जिंदा है’ आदि मधुकर सिंह के उन्नीस उपन्यास और ‘पूरा सन्नाटा’, ‘भाई का जख्म’, ‘अगनु कापड़’, ‘हरिजन सेवक’, ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ आदि दस कहानी संग्रह और प्रतिनिधि कहानियों के कुछ संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। ‘लाखो’, ‘सुबह के लिए’, ‘बाबू जी का पासबुक’, ‘कुतुब बाजार’ आदि उनके चर्चित नाटक हैं। ‘रुक जा बदरा’ नामक उनका एक गीत संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन भी हुए हैं। वे जन नाट्य संस्था युवानीति के संस्थापकों में रहे हैं। उन्होंने कुछ कहानी संकलनों का संपादन भी किया है। बच्चों के लिए भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनकी रचनाओं के तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं। उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है।
मधुकर सिंह उस पीढ़ी के साहित्यकार हैं, जिनका जनांदोलनों से अटूट नाता रहा है। सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलनों का उनके कथा साहित्य पर गहरा असर रहा है। आज भी उनका यकीन है कि जो लेखक अपनी जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा। 22 सितंबर को नागरी प्रचारिणी सभागार में अपने सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने मजबूती से इस यकीन को जाहिर किया।
राँची, भोपाल, दिल्ली, बर्नपुर, बनारस, गोरखपुर, लखनऊ, गिरिडिह, पूर्णिया, पटना, एटा आदि कई शहरों से साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान समारोह में शामिल होने के लिए अपने खर्चे पर आरा आए थे। सबसे बड़ी बात यह कि समाज के हर तबके के लोग सभागार में मौजूद थे। जिन लोगों के जीवन संघर्ष और आंदोलन की कथा मधुकर सिंह ने कही है, उस दलित-वंचित मेहनतकश जनता की भारी तादाद नागरी प्रचारिणी सभागार में मौजूद थी।
अपने साथियों के कंधों और बाजुओं का सहारा लेकर जैसे ही मधुकर सिंह मंच पर पहुंचे, सभागार में देर तक लोगों की तालियां गूंजती रहीं। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने जसम राष्ट्रीय परिषद की ओर से उन्हें पच्चीस हजार का चेक, शाल और मानपत्र प्रदान कर सम्मानित किया। मधुकर सिंह जसम की स्थापना के समय से ही इसके साथ हैं और इसके राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी के सदस्य के अलावा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे जन नाट्य संस्था ‘युवानीति’ के संस्थापकों में से रहे हैं और आरा शहर की एक मुसहरटोली में उन्हीं की बहुचर्चित कहानी ‘दुश्मन’ के मंचन से युवानीति ने अपने सफर की शुरुआत की थी।
प्रणय कृष्ण ने मानपत्र को पढ़कर सुनाया, जिसमें जसम की राष्ट्रीय परिषद ने मधुकर सिंह का महत्व इस रूप में रेखांकित किया है कि वे प्रगतिशील जनवादी कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। वे फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने आजीवन न केवल ग्रामीण समाज को केंद्र बनाकर लिखा है, बल्कि वहाँ चल रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के संघर्षों को भी शिद्दत के साथ दर्ज किया है। वे सही मायने में ग्रामीण समाज के जनवादीकरण के संघर्षो के सहचर लेखक हैं। वे साहित्य-संस्कृति की परिवर्तनकारी और प्रतिरोधी भूमिका के आग्रही रहे हैं। उनके साहित्य का बहुलांश मेहनतकश किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और गरीब-दलित-वंचित वर्ग के इसी क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया है। इस आंदोलन के संस्थापकों में से एक जगदीश मास्टर और उनके साथी उनकी रचनाओं में बार-बार नजर आते हैं। जगदीश मास्टर मधुकर सिंह के साथ ही जैन स्कूल में शिक्षक थे और सामंती जुल्म के खिलाफ दलितों-वंचितों के जनतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष में शहीद हुए थे। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुकर सिंह की रचनाएं बेहद महत्व रखती हैं। सामाजिक मुक्ति के प्रश्न को उन्होंने जमीन के आंदोलन से और स्त्री मुक्ति के सवाल को दलित मुक्ति से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे एक वामपंथी लेखक हैं और वामपंथ से सामंतवाद के अवशेषों, वर्ण-व्यवस्था और पूंजीवाद के नाश की अपेक्षा करते हैं।
सम्मान सत्र में लोगों ने मधुकर सिंह से जुड़ी हुई अपनी यादों को भी साझा किया। शुरुआत उनके बचपन के मित्र और उनकी कई रचनाओं के पात्र कवि श्रीराम तिवारी ने की और उनके आजाद स्वभाव को खासकर चिह्नित किया। युवानीति के पूर्व सचिव रंगकर्मी सुनील सरीन ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान उस जन सांस्कृतिक पंरपरा का सम्मान है, जिसने कई नौजवान लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को बदलाव का स्वप्न और वैचारिक ऊर्जा दी है। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत ने कहा कि अगर सौ समाज शास्त्रीय अध्ययन एक पलड़े पर रख दिए जाएं और दूसरे पलड़े पर मधुकर सिंह की कुछ चुनिंदा कहानियां, तो उनकी कहानियों का पलड़ा भारी पड़ेगा। वे हमेशा नए विचारों और नौजवानों के साथ रहे हैं। बनाफरचंद्र ने उनसे हुई मुलाकातों का जिक्र करते हुए कहा कि साहित्यिक बिरादरी में अपने दोस्ताना मिजाज के कारण मधुकर सिंह एक अलग ही पहचान रखते हैं।
पटना, दूरदर्शन के निदेशक कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि भोजपुर का हमारे लेखन और राजनीति में बहुत बड़ा महत्व है। भोजपुर ने एक बुजुर्ग संघर्षशील लेखक का इस तरह सम्मान करके अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। रेणु नेहरू युग की स्वप्नशीलता के लेखक थे, लेकिन उन्होंने जिस ग्रामीण सौंदर्य को पेश किया है, मधुकर सिंह के गांव वैसे नहीं हैं। मधुकर सिंह ने हिंदी कहानी को रूमानियत और आभासी यथार्थ से बाहर निकाला। वे एक श्रमजीवी लेखक हैं। प्रेमचंद की परंपरा को लेकर आज खूब विवाद खड़े किए जा रहे हैं, उन पर ऐसे लोग अपनी दावेदारी जता रहे हैं, जो उनकी परंपरा के विरोधी हैं। लेकिन सही मायने में मधुकर सिंह प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं। वे शरीर से भले लाचार हैं, पर उनका दिमाग लाचार नहीं है।
कहानीकार अरविंद कुमार ने कहा कि जब चंद्रभूषण तिवारी द्वारा संपादित पत्रिका ‘वाम’ में मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ छपी, उस दौर में ही वे समांतर कहानी आंदोलन से बाहर आने लगे थे। वहां से उनकी नई शुरुआत होती है। उस कहानी में नेता की धूल उड़ाती जीप और उसके पीछे भागते बच्चों का जो दृश्य है, वह कैमरे की आंख से देखा प्रतीत होता है। उनकी कहानियों में जो नाटकीय तत्व है, वह भी महत्वपूर्ण है।
कथाकार अनंत कुमार सिंह ने कहा कि पूंजीवाद ने जिस सामूहिकता को खत्म किया है, मधुकर सिंह उस सामूहिकता के लिए जीवन और रचना दोनों स्तर पर संघर्ष करने वाले लेखक हैं। कथाकार सुरेश कांटक ने कहा कि मधुकर सिंह का साहित्य जन-जन की आकांक्षा से जुड़ा हुआ साहित्य है। चर्चित रंगकर्मी राजेश कुमार ने कहा कि भोजपुर से अभिजात्य और सामंती संस्कृति के खिलाफ जनता के रंगकर्म की जो धारा फूटी, उसका श्रेय मधुकर सिंह को है। कथाकार मदन मोहन ने चिह्नित किया कि समांतर आंदोलन के साथ होने के बावजूद मधुकर सिंह की जो वैचारिक आकांक्षा थी, वह उस दौर की उनकी कहानियों में दिखती है। उस आकांक्षा ने ही उन्हें जनसांस्कृतिक आंदोलन का हमसफर बनाया। वरिष्ठ कवयित्री उर्मिला कौल ने कहा कि आरा के लोगों के लिए इस सम्मान समारोह की लंबे समय तक मधुर स्मृति रहेगी। मधुकर सिंह की रचनाओं में गांवों के अभावग्रस्त परिवारों की पीड़ा और विवशता नजर आती है। युवानीति के पूर्व रंगकर्मी और वामपंथी नेता सुदामा प्रसाद ने कहा कि भोजपुर में जो सामंतवाद विरोधी संघर्ष शुरू हुआ, उसने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया। राष्ट्रीय स्तर पर भी उसका प्रभाव पड़ा। शासकवर्ग की संस्कृति और मेहनतकशों की संस्कृति के बीच फर्क को समझना आसान हुआ। मधुकर सिंह उन रचनाकारों में हैं जिन्होंने इस फर्क को स्पष्ट किया। प्रो. पशुपतिनाथ सिंह ने युवा पीढ़ी के बदलते पाठकीय आस्वाद पर सवाल उठाते हुए कहा कि देश में जिस तरह का संकट है, उसमें उन्हें मधुकर सिंह सरीखे लोगों का साहित्य पढ़ना चाहिए।
वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, रंगकर्मी डा. विंद्येश्वरी, लेखक अरुण नारायण, पत्रकार पुष्पराज ने भी सम्मान सत्र में मधुकर सिंह के महत्व को रेखांकित किया। इस सत्र की अध्यक्षता सुरेश कांटक, पशुपतिनाथ सिंह और बनाफरचंद्र ने की।
दूसरा सत्र विचार-विमर्श का था, जिसका विषय था- कथाकार मधुकर सिंह: साहित्य में लोकतंत्र की आवाज। विमर्श की शुरुआत करते हुए कहानीकार सुभाषचंद्र कुशवाहा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में निम्नवर्ग की क्या स्थिति है, मधुकर सिंह की कहानियों में इसे देखा जा सकता है। जाति की राजनीति से उत्पीडि़त समुदायों की मुक्ति संभव नहीं है, यह मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों में आठवें दशक में ही दिखाया है। जाति का विकास जाति का ही नेता कर सकता है, इस तर्क और धारणा को उन्होंने गलत साबित किया है। वे निम्न वर्ग के शोषण में धर्म की भूमिका को चिह्नित करते हैं। वे सवाल उठाते हैं कि जेलों में बंद लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा निम्नवर्ग का क्यों है? क्यों हक मांगने वालों को नक्सलवादी करार दिया जाता है? किस तरह गांधीवाद का इस्तेमाल शोषक वर्ग अपने वर्चस्व बनाए रखने के लिए करता है, इसे भी उन्होंने अपनी कहानियों में दिखाया है।
चर्चित युवा कहानीकार रणेंद्र ने कहा कि मधुकर सिंह वर्णवादी कथाकार नहीं है, उनके साहित्य में वर्ण से उत्पन्न जो पीड़ा है वह वर्ग चेतना तक पहुंचती है। अंबेडकर की गांवों के बारे में जो धारणा थी, वह मधुकर सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए सही प्रतीत होती है। वे लोक जीवन में रस नहीं लेते, बल्कि उसे जनतांत्रिक बनाने की चिंता और संघर्ष को अभिव्यक्त करते हैं। वे दिखाते हैं कि किस तरह जो वर्ग अंग्रेजों के समय व्यवस्था का लाभ ले रहा था, वही आजादी के बाद के भारतीय लोकतंत्र का लाभ उठाता रहा। मधुकर सिंह को हिंदी के बड़े आलोचकों ने उपेक्षित किया, पर उनकी 10-15 कहानियां ऐसी हैं, जो मानक हैं। उनका जो देय है, उसका श्रेय उन्हें मिलना चाहिए।
आलोचक रवींद्रनाथ राय ने कहा कि मधुकर सिंह के साहित्य में भोजपुर का आंदोलन दर्ज है। सामाजिक मुक्ति और आर्थिक आजादी के लिए गरीब मेहनतकशों का जो संघर्ष है, मधुकर सिंह उसके कथाकार हैं।
वरिष्ठ आलोचक खगेंद्र ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मधुकर सिंह के जुड़ाव को याद करते हुए कहा कि एक रचनाकार के रूप में वे जीवन और समाज के यथार्थ के प्रति सचेत लेखक हैं। 60 का दशक, जो कि समझ को गड्डमड्ड करने वाला दौर था, उसमें उन्होंने कहानी के सामाजिक यथार्थवादी धारा की परंपरा को आगे बढ़ाया। दलित चेतना एक आंदोलन के रूप में जरा देर से आई, पर मधुकर सिंह ने इस मेहनतकश समाज के संघर्ष को उसी दौर से चित्रित करना शुरू कर दिया था।
गीतकार नचिकेता ने कहा कि चुनावों के जरिए निम्नवर्ग के जीवन को नहीं बदला जा सकता, मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों के जरिए दिखाया है। वे जनता के लेखक हैं और जनता के लेखक ऐसे ही सम्मान के हकदार होते हैं। शिवकुमार यादव ने भोजपुर के संघर्ष के साथ साहित्य के गहरे रिश्ते के संदर्भ में मधुकर सिंह की कहानियों को चिह्नित किया।
कवि चंदे्रश्वर ने कहा कि मधुकर सिंह की कहानियां भारतीय लोकतंत्र के झूठ का पर्दाफाश करती हैं। कवि बलभद्र ने कहा कि सामाजिक आंदोलनों और किसान संघर्षों की जरूरत को महसूस करते हुए मधुकर सिंह ने लोक साहित्य से भी बहुत कुछ लिया। भोजपुर में मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल और सुरेश कांटक की कथात्रयी ने जो काम किया है, उसका हिंदी साहित्य की जनसंघर्षधर्मी परंपरा में अलग से मूल्यांकन होना चाहिए।
जलेस के राज्य सचिव वरिष्ठ कहानीकार नीरज सिंह ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान केवल भोजपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश के जनधर्मी, संघर्षधर्मी साहित्य के लिए गौरव की बात है। उत्पीडि़त, दलित-शोषित, वंचित वर्गों के प्रति गहरी पक्षधरता के कारण ही वे सत्ताभोगी चरित्रों पर तीखे प्रहार करते हैं। वे एक यारबाश व्यक्ति रहे हैं और अपने से कम उम्र के लोगों के साथ भी उनके बड़े आत्मीय संबंध रहे हैं।
समकालीन जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने कहा कि मधुकर सिंह भोजपुर के आंदोलन में देश के स्वाधीनता आंदोलन की निरंतरता देखते हैं। राष्ट्र और लोकतंत्र के संदर्भ में उनकी धारणाएं भगतसिंह और अंबेडकर से मेल खाती हैं। वे भारत की खोज के नहीं, बल्कि भारत के निर्माण के कथाकार हैं। इस देश में राजनीति, समाज, अर्थनीति और संस्कृति सारे स्तरों पर सच्चे जनतंत्र की आकांक्षा और उसके लिए होने वाले संघर्ष के कथाकार हैं। उनकी कहानियों में गरीब दलित मेहनतकश वर्गीय तौर पर सचेत हैं, वर्ग दुश्मन को वे बहुत जल्दी पहचान लेते हैं। मधुकर सिंह परिवर्तनकारी राजनीति और संस्कृतिकर्म के बीच एकता का स्वप्न देखने वाले साहित्यकार हैं। यह अकारण नहीं है कि उन्होंने बिहार के आदिवासी संघर्ष से जुड़े चरित्रों पर न केवल उपन्यास लिखा, बल्कि नवसाक्षरों और बच्चों के लिए भी कई पुस्तिकाएं लिखीं।
वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने कहा कि इस सम्मान समारोह में पांच हिंदी राज्यों और एक अहिंदी प्रांत पश्चिम बंगाल से प्रमुख साहित्यकारों का शामिल होना गहरा अर्थ रखता है। मधुकर सिंह ने एक अस्वस्थ समाज का स्वस्थ साहित्य रचा है। शोषित-दलित समाज के संघर्ष की जो इनकी कहानियां हैं, वे वर्गचेतना संपन्न कहानियां हैं। वे एक मास्टर साहित्यकार की मास्टर कहानियां हैं, जिनमें कुछ तो मास्टर पीस हैं। उनकी कहानियां रात में जलती हुई मोमबत्तियों और कहीं-कहीं मशाल की तरह हैं। वे फैंटेसी नहीं, बल्कि यथार्थ के कथाकार हैं। यह संघर्षधर्मी यथार्थवाद ही भोजपुर के कहानीकारों की खासियत है। कथा साहित्य में एक भोजपुर स्कूल है, जिसका असर पूरे देश के कई कहानीकारों पर देखा जा सकता है। इस भोजपुर स्कूल पर वर्तमान के राजनीतिक-सामाजिक संघर्षों का प्रभाव तो है ही, इसके साथ संघर्षों का एक शानदार इतिहास भी जुड़ा हुआ है, जो 1857 से लेकर भोजपुर आंदोलन तक आता है।
रविभूषण ने कहा कि साहित्य में लोकतंत्र की आवाज तभी आती है, जब राजनीति में लोकतंत्र की आवाज खत्म होने लगती है। जो नई कहानी की त्रयी है, उनकी कहानियों में लोकतंत्र के संकट की शिनाख्त इस तरह से नहीं है, जिसे मधुकर सिंह अपनी कहानियों में शुरू से ही चिह्नित करते हैं। भोजपुर की जो कथात्रयी है, वह सचमुच लोकतंत्र के संकटों के खिलाफ संघर्ष करती नजर आती है। यह अकारण नहीं है कि मधुकर सिंह की कई कहानियों में रात्रि पाठशालाएं हैं। वे जनता की राजनीतिक चेतना को उन्नत करने की कोशिश करते हैं। नुक्कड़ नाटक जो खुद एक लोकतांत्रिक विधा है, उससे जुड़ते हैं। गीत, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि कई विधाओं में मधुकर सिंह की जो आवाजाही है, उसके पीछे एक स्पष्ट वैचारिक मकसद है। आज जबकि लोकतंत्र भ्रष्टतंत्र, लूटतंत्र और झूठतंत्र में तब्दील हो चुका है, तब उसके खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें जिन साहित्यकारों में मिलती हैं, मधुकर सिंह उनमें अग्रणी हैं। विचार-विमर्श सत्र की अघ्यक्षता खगेंद्र ठाकुर, नीरज सिंह और रविभूषण ने की। दोनों सत्रों का संचालन कवि जितेंद्र कुमार ने किया।
अंतिम सत्र में युवानीति ने मधुकर सिंह की मशहूर कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य प्रस्तुति की। रंगकर्मी रोहित के निर्देशन में तैयार इस नाटक में मधुकर सिंह के भोजपुरी गीत का भी इस्तेमाल किया गया था। शासकवर्ग किस तरह दलित-उत्पीडि़त जनता के नेताओं का वर्गीय रूपांतरण कर उन्हें अपनी ही जनता से काट देता है, इस नाटक में दर्शकों ने इसे बखूबी देखा।
पटना की नाट्य संस्था हिरावल ने मधुकर सिंह की कहानी ‘कीर्तन’ पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया। इसमें देश में बाबाओं के अंधश्रद्धा के कारोबार तथा सामंती पितृसत्ता और मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के साथ उनके गहरे रिश्ते पर तीखा व्यंग्य था। निर्देशन संतोष झा ने किया था।
तीसरा नाटक जसम बेगूसराय की नाट्य संस्था रंगनायक ने किया। दीपक सिन्हा निर्देशित नाटक ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित था, जिसमें मधुकर सिंह ने ऐसे छद्म प्रगतिशील जनवादी लेखकों पर व्यंग्य किया है, जो शासकवर्ग पर आश्रित होकर लेखन करते हैं और व्यवहार में ग्रामीण इलाकों और आदिवासी अंचलों में चल रहे जनसंघर्षों का विरोध करते हैं। इन तीनों नाट्य प्रस्तुतियों की खासियत यह थी कि ये पात्र बहुल नाटक थे। इतने सारे कलाकारों को एक साथ इन नाटकों में देखना दरअसल रंगकर्म के भविष्य के प्रति भी उम्मीद जगाने वाला था।
चित्रकारों ने भी अपनी कला के साथ इस सम्मान समारोह में शिरकत की। मंच पर ठीक सामने चित्रकार भुवनेश्वर भास्कर द्वारा बनाए गए छह पोस्टर लगाए गए थे, जो उन्होंने मधुकर सिंह के साथ अपनी स्मृतियों की अभिव्यक्ति के बतौर बनाया था। सभागार के बाहर चित्रकार राकेश दिवाकर ने मधुकर सिंह की रचनाओं पर आधारित चित्र लगाए थे। अभिधा प्रकाशन तथा जनपथ पत्रिका की ओर से बुक स्टाल भी लगाया गया था।
इस समारोह में रामधारी सिंह दिवाकर, रामनिहाल गुंजन, वाचस्पति, कल्याण भारती, संतोष सहर, अशोक कुमार सिन्हा, राकेश कुमार सिंह, उमाकांत, फराज नजर चांद, हीरा ठाकुर, दिव्या गौतम आदि साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी और चित्रकार मौजूद थे।
कथाकार मधुकर सिंह
आरा: अपने शैक्षिक प्रमाणपत्रों के अनुसार कथाकार मधुकर सिंह 2 जनवरी 2014 को अस्सी साल के हो जाएंगे। पिछले लगभग पाँच वर्षों से वे लकवे से ग्रस्त हैं। पहले की तरह सभा-गोष्ठियों में जाना और मित्रों व आत्मीय जन से उनके घर जाकर मिल पाना इनके लिए संभव नहीं रह गया है। बीमारी ने इनकी श्रवण क्षमता पर भी असर डाला है, लेकिन इस हाल में भी इनका लेखन कार्य बाधित नहीं हुआ है। वे लगातार पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे हैं और इनका प्रण है कि जिंदगी भर लिखते रहेंगे।
एक ऐसे परिवार और समाज में मधुकर सिंह का जन्म हुआ, जिसमें दूर-दूर तक साहित्य लेखन की कोई विरासत नहीं थी। 2 जनवरी 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में इनका जन्म हुआ और लगभग 10 वर्ष की उम्र में वे भोजपुर जिले में अपने गाँव धरहरा आ गए। इनके बाल मन पर बांग्ला की ‘यात्रा पार्टी’ और बाउल लोकगीतों तथा माँ द्वारा सुनाए गए बांग्ला और भोजपुरी के लोकगीतों व लोककथाओं का बहुत असर रहा। जब वे मैट्रिक में थे, तभी एक नाटक लिखा। इसके बाद गाँव में एक नाटक मंडली बनाई और भोजपुरी गीत लिखने लगे। इनके भोजपुरी गीतों का एक संग्रह ‘रुक जा बदरा’ के नाम से 1963 में आया। उसी वक्त इन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू किया और बाद में फिर कई उपन्यास भी लिखे। ‘सोनभद्र की राधा’, ‘सबसे बड़ा छल’, ‘सीताराम नमस्कार’, ‘सहदेव राम का इस्तीफा’, ‘जंगली सुअर’, ‘मेरे गाँव के लोग’, ‘समकाल’, ‘कथा कहो कुंती माई’, ‘अगिन देवी’, ‘अर्जुन जिंदा है’, ‘बाजत अनहद ढोल’, ‘बेनीमाधो तिवारी की पतोह’, ‘जगदीश कभी नहीं मरते’ समेत मधुकर सिंह के उन्नीस उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा ‘पूरा सन्नाटा’, ‘भाई का जख्म’, ‘अगनु कापड़’, ‘पहला पाठ’, ‘असाढ़ का पहला दिन’, ‘पाठशाला’, ‘माई’, ‘पहली मुक्ति’, ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ समेत इनके दस कहानी संग्रह और कहानियों के कुछ प्रतिनिधि संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। इन्होंने कई कहानी संकलनों का संपादन भी किया है। ‘लाखो’, ‘सुबह के लिए’, ‘बाबूजी का पासबुक’ और ‘कुतुब बाजार’ नामक इनके नाटक भी प्रकाशित हो चुके हैं। वे आरा की चर्चित नाट्य संस्था ‘युवानीति’ के संस्थापकों में से रहे हैं। इन्हीं की कहानी ‘दुश्मन’ के मंचन से युवानीति ने जननाट्य आंदोलन के सफर की शुरुआत की थी। इनकी रचनाओं के अनुवाद तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी भाषा में भी हुए हैं। ‘इस बार’ पत्रिका के अलावा उन्होंने कई दूसरी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है और पत्रकारिता भी की है। मधुकर जी ने बच्चों के लिए भी लिखा है।
सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों और साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से मधुकर सिंह का प्रत्यक्ष जुड़ाव रहा है। बिहार के सोशलिस्ट आंदोलन और वामपंथी आंदोलन का इनकी रचनाओं पर गहरा असर रहा है। भोजपुर के किसान आंदोलन और जगदीश मास्टर सरीखे उसके नायकों का इनकी रचनाओं पर खासा प्रभाव है। समांतर कथा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई और हर दौर में दलित-उत्पीडि़त, शोषित-वंचित लोगों के दुख-दर्द, उनकी आकांक्षाओं और संघर्षों की अभिव्यक्ति को अपने लेखन का मकसद बनाए रखा। पहले प्रगतिशील लेखक संघ और बाद में जन संस्कृति मंच के निर्माण के समय से उसके साथ रहे मधुकर सिंह का सभी प्रगतिशील-जनवादी संगठनों और उनसे जुड़े लेखक-संस्कृतिकर्मियों से बेहद आत्मीय जुड़ाव रहा है। फणीश्वरनाथ रेणु के बाद वे बिहार के ऐसे कहानीकार हैं, जिनका कथा साहित्य सामाजिक बदलाव की चेतना के कारण खास महत्व रखता है। उनकी यह भी खासियत है कि उन्होंने गाँवों को सदैव अपने लेखन के केंद्र में रखा और ग्रामीण समाज के जनतांत्रीकरण की जरूरत को शिद्दत से उठाया।
साहित्यिक-सांस्कृतिक बिरादरी में मधुकर सिंह अपने दोस्ताना स्वभाव के लिए जाने जाते रहे हैं। आज जबकि वे अस्वस्थ हैं, तब हम सबने उनके साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें सम्मानित करने का फैसला किया है, ताकि उनकी जिंदगी और लेखन को इससे नई उर्जा मिले। सम्मान समारोह 22 सितंबर 2013 को 11 बजे दिन से आरा नागरी प्रचारिणी सभागार में शुरू होगा।
आयोजन में जसम के महासचिव युवा आलोचक प्रणय कृष्ण उन्हें सम्मानित करेंगे और उसके बाद मधुकर सिंह अपना वक्तव्य देंगे। उसके बाद लोग उनसे जुड़ी अपनी यादों को साझा करेंगे। दूसरे सत्र में ‘कथाकार मधुकर सिंह: साहित्य में लोकतंत्र की आवाज’ विषय पर देश के विभिन्न हिस्सों से आए जाने-माने साहित्यकार अपने विचार रखेंगे तथा उनके साहित्यिक योगदान का मूल्याँकन करेंगे। शाम के आखिरी सत्र में मधुकर सिंह की कहानियों- ‘दुश्मन’, ‘कीर्तन’ और ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ पर आधारित युवानीति (आरा), हिरावल (पटना) तथा रंगनायक, जसम (बेगसूराय) की नाट्य प्रस्तुति होगी। इस आयोजन में वरिष्ठ आलोचक रविभूषण, दूरदर्शन के निदेशक-कवि कृष्ण कल्पित, कथाकार सुरेश कांटक, सुभाषचंद्र कुशवाहा, रणेंद्र, मदन मोहन, रामधारी सिंह दिवाकर, पंकज मित्र, बनाफरचंद्र, भाषाविद् राजेंद्र प्रसाद सिंह, राजनीतिक विश्लेषक ब्रज कुमार पांडेय, रंगकर्मी राजेश कुमार, सुनील सरीन, कवि चंद्रेश्वर, बलभद्र, सुरेंद्र प्रसाद सुमन समेत भोजपुर जनपद और बिहार राज्य के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी शिरकत करेंगे।
इस संबंध में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस को सुधाकर उपाध्याय, रामनिहाल गुंजन, अनंत कुमार सिंह और जितेन्द्र कुमार ने संबोधित किया। इस मौके पर रंगकर्मी रोहित भी मौजूद थे।
(मधुकर सिंह सम्मान समारोह समिति की ओर से जारी)
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