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Sunday, March 10, 2013

सिर्फ बातों से क्या होगा

सिर्फ बातों से क्या होगा

Sunday, 10 March 2013 11:53

तवलीन सिंह 
जनसत्ता 10 मार्च, 2013: नरेंद्र मोदी के एक भाषण ने क्या कमाल किया कि मुरझाई हुई कांग्रेस पार्टी दोबारा खिल उठी और कमर कस कर राजनीतिक युद्धभूमि पर उतर आई है। देखा आपने कितनी शान से, कितने जज्बाती होकर प्रधानमंत्री बोले थे लोकसभा में। कैसे उन्होंने कांग्रेस के शाही 'परिवार' पर गुजरात के मुख्यमंत्री द्वारा लगाए गए आरोपों का खंडन किया। कैसे उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं का मखौल उड़ाया। 'लौहपुरुष आडवाणी को सामने किया था न आपने पिछले आम चुनावों में मनमोहन सिंह का प्रतिद्वंद्वी बना कर और देखा क्या हुआ? अगले चुनावों में भी देखना क्या होता है।'
उधर राहुल गांधी ने इतनी मुद्दत के बाद पत्रकारों से मिलने का अचानक फैसला किया कि उनकी हर बात अगले दिन की सुर्खी बन गई। शायद ही कभी पहले कांग्रेस पार्टी के युवराज साहब ने इतनी लंबी बातचीत की होगी पत्रकारों से। इस भेंट में पहली बार उनके राजनीतिक विचारों के बारे में थोड़ी-सी जानकारी मिली है हमें। मालूम हुआ है कि वे प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते हैं और न ही किसी अन्य ऊंचे पद पर बैठना पसंद करते हैं। एक आम कार्यकर्ता की तरह वे कांग्रेस का संगठन मजबूत करने में लगना चाहते हैं, ताकि राजनीतिक शक्ति 'हाईकमान' में न रहने के बदले उन सांसदों और विधायकों के हाथों में पहुंचे, जिनकी अभी तक कोई आवाज नहीं है।
विचार अच्छा है, लेकिन सवाल यह है कि अभी तक राहुल जी ने अपने ऊंचे विचारों पर अमल क्यों नहीं किया है। कांग्रेस पार्टी में उनकी जगह इतनी ऊंची है कि सब जानते हैं कि उनकी माताजी के अलावा उनसे ज्यादा ताकतवर नेता नहीं है भारत देश में। प्रधानमंत्री उनके बाद आते हैं, क्योंकि राहुल जी कभी अपनी गद्दी, अपनी राजनीतिक विरासत, वापस ले सकते हैं। नहीं ली है अगर अभी तक तो सिर्फ इसलिए कि बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों में बुरी तरह हारने के बाद ऐसा लगा कि वे थोड़ी हिम्मत हार गए थे। 
क्या यही कारण है कि प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते? प्रधानमंत्री बनने से उनकी राजनीतिक शक्ति में कोई फर्क नहीं आने वाला है। फर्क सिर्फ यह होगा कि परदे के पीछे से राजनीति नहीं हो सकेगी। जिम्मेदारियां और जवाबदेही आती हैं प्रधानमंत्री पद के साथ, जिनसे शायद राहुल जी दूर रहना चाहते हैं। 
निजी तौर पर मुझे राहुल जी का राजनीतिक मकसद सिर्फ इसलिए समझ में नहीं आता है कि अपने विचारों पर अमल करने में उन्हें संकोच क्यों है। मिसाल के तौर पर कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष होने के नाते आदेश जारी कर सकते हैं कि भविष्य में परिवारवाद के आधार पर टिकट नहीं बांटे जाएंगे। हुक्म दे सकते हैं कार्यकर्ताओं को कि उन लोगों की तरक्की होगी, जो दिल्ली दरबार से दूर रहकर अपने चुनाव क्षेत्रों में मेहनत करते दिखते हैं। ऐसा क्यों नहीं किया है उन्होंने अभी तक। 

राहुल जी कहते हैं कि वे चालीस-पचास ऐसे राजनेता तैयार करना चाहते हैं जो मुख्यमंत्री बन सकते हैं और प्रधानमंत्री भी। लेकिन यह नहीं बताया है कि यह होगा कैसे जब हर राज्य चुनाव जीतने के बाद विधायक दिल्ली दरबार में भागे आते हैं 'हाईकमान' से सुनने के लिए कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा। गलत परंपरा है, बहुत गलत, तो इसको कभी उन्होंने बदलने की कोशिश क्यों नहीं की है? 
कांग्रेस के कार्यकर्ता जब 'हाईकमान' की बात करते हैं तो उस हाईकमान में वे न प्रधानमंत्री को गिनते हैं और न ही अन्य वरिष्ठ नेताओं को। उनके लिए 'हाईकमान' में सिर्फ सोनिया, राहुल और प्रियंका गांधी हैं तो इसको कैसे बदलेंगे युवराज साहब? उन्होंने स्वीकार तो किया है कि यह परंपरा शुरू उनकी दादीजी ने की थी, जब उन्हें बगावत के आसार दिखे पार्टी के आम सदस्यों में। कांग्रेस पर काबू रखने के लिए इंदिरा जी ने क्या नहीं किया? तोड़ डाला पार्टी को और उन लोगों को निकाल फेंका जो बगावती किस्म के थे, जो उनका कहना नहीं मानते थे और जिनके सोच-विचार अलग थे। 
जब राहुल जी के पिता प्रधानमंत्री बने वे इतने लोकप्रिय थे कि कोई भी परिवर्तन ला सकते थे कांग्रेसी परंपराओं में। चमचों को बाहर फेंक कर नए सिरे से संगठन का निर्माण कर सकते थे लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। जब 21 मई, 1991 को श्रीपेरुंबुदुर की उस आम सभा में उनकी हत्या की गई, कांग्रेस का यह हाल बन गया था कि पूर्व मंत्री, मुख्यमंत्रियों ने तय किया कि उनकी जगह सिर्फ उनकी पत्नी ले सकती हैं, बावजूद इसके कि सोनिया जी ने राजनीति में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी तब तक, बावजूद इसके कि वे एक भी भारतीय भाषा नहीं बोल सकती थीं उस समय। 
कहने का मतलब मेरा यह है कि कांग्रेस पार्टी एक राजनीतिक दल न रह कर गांधी परिवार की निजी कंपनी बन गई थी और आज भी है। संगठन में सारी कमजोरियां आई हैं इस कारण। इसे अगर बदलना चाहते हैं राहुल जी, तो उनका तहेदिल से समर्थन करती हूं मैं। सवाल सिर्फ यह है कि राजनीति में एक दशक गुजारने के बाद वे सिर्फ बातें ही क्यों कर रहे हैं।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/40531-2013-03-10-06-27-22

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