सिंगरौली: इंसान और ईमान का नरक कुंड
7 जून, 2014 की रात
बीते 3 जून को ‘विदेशी’ अनुदान वाली स्वयंसेवी संस्थाओं पर भारत के गुप्तचर ब्यूरो द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को कथित तौर पर सौंपी गई एक खुफिया रिपोर्ट के मीडिया में लीक हो जाने के बाद जब राष्ट्रीय मीडिया में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा था, तो दिल्ली से करीब हज़ार किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश के सिंगरौली जि़ले में एक अलग ही कहानी घट रही थी। सिंगरौली रेलवे स्टेशन से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय बैढ़न में कलेक्ट्रेट के पीछे हरे रंग के एक मकान को 7 जून की रात 12 बजकर पांच मिनट पर पुलिस ने अचानक घेर लिया। उस वक्त वहां मौजूद आधा दर्जन लोगों में से पुलिस ने दो नौजवानों को चुन लिया। जब पुलिस से पूछा गया कि ये क्या हो रहा है, तो टका सा जवाब आया कि अभी पता चल जाएगा। इन दोनों युवकों को उठाकर एक अज्ञात ठिकाने पर ले जाया गया। फिर इस मकान में बचे लोगों ने परिचितों को फोन लगाने शुरू किए। बात फैली, तो पलट कर प्रशासन के पास भी दिल्ली-लखनऊ से फोन आए। काफी देर बात पता लग सका कि इन्हें छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे माडा थाने में पुलिस उठाकर ले गई है। इन दो युवकों के अलावा दो और व्यक्तियों को उठाकर पुलिस माडा थाने में ले आई थी। थाने में पहले से ही एस्सार कम्पनी के तीन अधिकारी बैठे हुए थे। वे रात भर बैठ कर पुलिस को एएफआइआर लिखवाते रहे। चारों पकड़े गए लोगों के ऊपर धारा 392, 353 और 186 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। अगले दिन अदालत में पेशी के बाद इन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। फिर जबलपुर उच्च न्यायालय से जब एक बड़े वकील राघवेंद्र यहां आए, तब कहीं जाकर चार में से तीन की ज़मानत अगले दिन हो सकी। चौथे शख्स पर शायद तीसेक साल पहले कोई मुकदमा हुआ था, जिसका फायदा उठाकर पुलिस उसे 28 दिनों तक जेल में रखने में कामयाब हो सकी।
ये कहानी विनीत, अक्षय, विजय शंकर सिंह और बेचन लाल साहू की है। विनीत और अक्षय शहरों से पढ़े-लिखे युवा हैं जो ग्रीनपीस नाम केअंतरराष्ट्रीय एनजीओ में नौकरी करते हैं। उमर बमुश्किल 25 से 30 के बीच और जज्बा ऐसा गोया किसी इंकलाबी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता हों। विजय शंकर सिंह और बेचन लाल दोनों पड़ोस के अमिलिया गांव के निवासी हैं जहां ग्रीनपीस का ”जंगलिस्तान बचाओ’‘ प्रोजेक्ट चल रहा है। ग्रीनपीस वैसे तो इस देश में जलवायु परिवर्तन और जैव-संवर्द्धित फसलों के मुद्दे पर लगातार काम करता रहा है, लेकिन सिंगरौली जिले में एस्सार और हिंडालको के संयुक्त उपक्रम महान कोल लिमिटेड के खिलाफ ग्रामीणों के संघर्ष के बहाने इसका नाम इधर बीच ज्यादा चर्चा में आया है और इंटेलिजेंस ब्यूरो ने भी अपनी लीक हो चुकी खुफिया रिपोर्ट में इस प्रोजेक्ट का जिक्र करते हुए कहा है कि ग्रीनपीस विदेशी पैसे से देश के विकास में रोड़ा अटका रहा है। खुद ग्रीनपीस के लोग मानते हैं कि यह संस्था मोटे तौर पर ”फोटो ऑप” यानी फोटो खिंचवाने वाली संस्था के तौर पर जानी जाती रही है और ऐसा पहली बार है जब उसने किसी जनसंघर्ष में सीधा दखल दिया है तथा अपनी मौजूदगी बनाए रखी है। महान संघर्ष समिति नाम के एक खुले संगठन की मार्फत ग्रीनपीस सिंगरौली में अपना काम कर रही है। बीते 7 जून की रात गिरफ्तार हुए बेचन लाल साहू और विजय शंकर सिंह दोनों इसी समिति के सदस्य बताए जाते हैं। चूंकि यह समिति न तो पंजीकृत है और न ही इसका कोई आधिकारिक लेटरहेड इत्यादि है, इसलिए इसके सदस्यों समेत अन्य पदाधिकारियों का कोई अता-पता नहीं है। ग्रीनपीस का दावा है कि पूरे के पूरे गांव ही इस समिति के सदस्य हैं और हर सदस्य इसका अध्यक्ष है। यह बात सुनने में चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न लगे, लेकिन सिंगरौली की हवा में यह संदेश साफ़ समझा जा सकता है कि यहां किसी किस्म की असहमति के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे आप पंजीकृत हों या खुले संगठन के तौर पर काम कर रहे हों। ग्रीनपीस पर सरकार की टेढ़ी नज़र, महान संघर्ष समिति और कंपनियों के प्रोजेक्ट के प्रति जनता के रुख़ के आपसी रिश्ते को समझने के लिए हमें इस जगह के इतिहास-भूगोल पर एक नज़र डालते हुए यहां के समाज को समझना होगा।
ऊर्जांचल में प्रवेश
सिंगरौलीसे बाहर रहने वालों के लिए यह एक ऐसा नाम है जो देश को बिजली देता है। यहां एनटीपीसी, कोल इंडिया, एनसीएल, जेपी, रिलायंस, एस्सार, हिंडालको आदि कंपनियों के पावर प्रोजेक्ट और कोयला खदानें हैं। इस इलाके को ऊर्जांचल भी कहते हैं। सिंगरौली हालांकि अपने आप में सिर्फ एक रेलवे स्टेशन है जबकि इसका जिला मुख्यालय स्टेशन से 40 किलोमीटर दूर बैढ़न में है। इसे जिला बने हुए महज पांच साल हुए हैं। इसके पहले यह मध्यप्रदेश के सीधी जिले में आता था। एक तरफ उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, दूसरी तरफ झारखंड के गढ़वा रोड और तीसरी तरफ छत्तीसगढ़ के सरगुजा व अम्बिकापुर से घिरा यह इलाका कैमूर की हरी-भरी पहाडि़यों में बसा है। बिहार की सीमा भी यहां से बहुत दूर नहीं है। यहां से कटनी, इलाहाबाद, बनारस, जबलपुर, हावड़ा के लिए रेलगाडि़यां मिल जाती हैं लेकिन दिल्ली के लिए कोई सीधी गाड़ी नहीं है। मध्यप्रदेश के कटनी से आते वक्त ऊर्जा परियोजनाओं की चमकदार बत्तियां भरसेन्डी से दिखना शुरू हो जाती हैं। फिर मझौली और बरगवां आते-आते बत्तियों की चमक बढ़ती जाती है। कटनी से आठ घंटे के सफ़र में बीच में कोई बड़ा स्टेशन नहीं है। छोटे-छोटे प्लेटफॉर्मों पर पानी मिलना भी मुश्किल है। दोनों तरफ कैमूर की पहाडि़यां और घने जंगल हैं। सिंगरौली उतर कर आम तौर से लोग बैढ़न ही जाते हैं क्योंकि काम भर का शहर और बाज़ार वहीं है।
इसी बैढ़न में नॉरदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के अमलोरी गेस्टहाउस में अपनी पहली रात की रिहाइश में यह पता चला कि बिजली यहां भी जाती है। एनसीएल की कई परियोजनाओं में एक अमलोरी परियोजना है। इसी परियोजना का विशाल गेस्टहाउस बैढ़न के राजीव गांधी चौक से करीब सात किलोमीटर आगे स्थित है। यहां के कर्मचारी बताते हैं कि जब एनसीएल की खदानें अस्सी के दशक में बन रही थीं और यहां मशीनें लगाने के लिए जापान और रूस से इंजीनियर आए थे, तो इस गेस्टहाउस में स्विमिंग पूल में बैठे हुए तंदूर पर पका खाना खाने और शराब पीने की आलीशान व्यवस्था थी। आज बीस साल बाद यह गेस्टहाउस तकरीबन उजाड़ है। कमरों में पंखे नहीं चलते और एसी मशीनें रह-रह कर ऐसी आवाज़ें करती हैं कि सोये में दिल दहल जाए। बिजली का आलम ये है कि पहली ही रात वह लगातार छह घंटे गायब रही। सवेरा होने पर एक और बात पता चली कि यदि आपके पास अपना साधन नहीं है तो आप सिंगरौली में एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा सकते। निजी टैक्सियों की दर प्रतिदिन दो हज़ार रुपये है। पैदल चलना दूभर है क्योंकि दूरियां बहुत हैं। कुछ निजी बसें ज़रूर हैं जिनके पास चलकर जाना होता है। बाहर निकलते ही सवेरे के अखबार पर नज़र पड़ी जिसका पहला शीर्षक कुछ यूं था, ”एनसीएल की अमलोरी परियोजना से काली हो गई कांचन नदी।” यह अखबार था दैनिक भास्कर, जिसके मालिकान की कंपनी डीबी कॉर्प को भी यहां एक पावर प्रोजेक्ट की अनुमति मिली हुई है। एनसीएल के जनसंपर्क विभाग के एक कर्मचारी बताते हैं कि ऐसी खबरें आए दिन यहां छपती हैं ताकि कंपनी से कोई डील की जा सके। देर शाम तक यह खबर लिखने वाले रिपोर्टर को ‘मैनेज’ करने की कोशिश भी होती रही।
बहरहाल, बैढ़न के जिस हरे रंग के मकान से 7 जून की रात गिरफ्तारियां हुई थीं, हम वहां पहुंचे। यह ग्रीनपीस का गेस्टहाउस था। इससे करीब सौ मीटर पहले हरे रंग का ही ग्रीनपीस का एक दफ्तर भी है। गेस्टहाउस में ग्रीनपीस के कर्मचारी रहते हैं। इसमें एक रसोई भी है और रसोइया भी। संस्था के पास एक स्कॉर्पियो गाड़ी है जिसकी पहचान विरोधियों को बिल्कुल साफ़-साफ़ है। यहां से 40 किलोमीटर दूर अमिलिया गांव की ओर बढ़ते हुए जैसे ही हमने मुख्य सड़क छोड़ी, हमें बताया गया कि कंपनी की एक जीप हमारा पीछा कर रही है। ऐसा रोज़ ही होता है। ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं पर लगातार नज़र रखी जाती है। बैढ़न के राजीव गांधी चौक पर स्थित सीपीएम के दफ्तर में बैठे पार्टी प्रभारी रामलल्लू गुप्ता बताते हैं कि आज से दो साल पहले जब ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई यहां काम करने आई थीं, तो वे अपने साथ सीपीएम के केरल से एक सांसद को लेकर आई थीं जिसका स्थानीय प्रशासन पर काफी दबाव रहा। शुरुआत में यहां सीटू (सीपीएम का मजदूर संगठन) और एटक (सीपीआइ के मजदूर संगठन) ने ग्रीनपीस के कामों को काफी समर्थन दिया था जिसके चलते इन्हें कोई खतरा न
हीं हुआ और संस्था अपना काम करती रह सकी। पिछले चुनाव में सीपीआइ से लोकसभा चुनाव लड़ चुके एटक प्रभारी संजय नामदेव कहते हैं, ”जब तक ये लोग हमारे साथ रहे, किसी की हिम्मत नहीं थी कि इन्हें कुछ बोल सके। बाद में इन्होंने कुछ गड़बडि़यां कीं, जिसके कारण हम लोगों ने अपना पैर पीछे खींच लिया। नतीजा आपके सामने है।”
ऐसा नहीं है कि निशाने पर सिर्फ ग्रीनपीस है।रामलल्लू गुप्ता का इस इलाके में बहुत सम्मान है। उन्होंने अपना जीवन और परिवार सब कुछ मजदूर आंदोलन के हित दांव पर लगा दिया है। प्रशासन ने उन्हें एक ज़माने में नक्सली घोषित कर दिया था और बिना बताए उनके घर की कुर्की का आदेश दे दिया था। स्थानीय लोगों के बीच ईमानदार लेकिन अराजक माने जाने वाले संजय नामदेव के ऊपर तकरीबन चार दर्जन मुकदमे कायम हैं। उन्हें रासुका के तहत निरुद्ध किया जा चुका है। इतने हमलों के बावजूद वे बिल्कुल कलेक्ट्रेट के सामने राजीव गांधी चौक पर एक कमरे के दफ्तर में बैठे ‘काल चिंतन’ नाम का अखबार अब भी निकालते हैं। गुप्ता कहते हैं, ”इस इलाके को तो 1995 में ही नक्सली घोषित कर दिया गया था ताकि कंपनियों को अपना कारोबार करने में आसानी हो। मुझसे पहले यहां पार्टी का काम रमणिका गुप्ता देखती थीं जो हज़ारीबाग से एमएलए रह चुकी हैं। उस दौरान कम्युनिस्ट आंदोलन जिस उफान पर था, वैसा कभी नहीं देखा गया। कांग्रेस उनकी जान के पीछे ऐसा पड़ गई थीं कि उन्हें मुरदे की तरह कंधे पर लादकर शहर की सीमा से बाहर निकालना पड़ा।”
एटक और सीटू की नाराज़गी के कारण ग्रीनपीस आज सिंगरौली में अकेला पड़ चुका है। कुछ बिरादराना संस्थाएं हैं जो इसके साथ संवाद रखती हैं, लेकिन इसके काम करने की शैली पर सिंगरौली में सवाल हैं। सरकार इसके विदेशी फंड पर सवाल उठाती है, लेकिन यहां स्थानीय स्तर पर विदेशी फंड की कोई खास चर्चा नहीं है। ग्रीनपीस का जो आधार क्षेत्र है, वहां खबर के लिहाज से बहुत कुछ हाथ नहीं लगता क्योंकि देश के ऐसे तमाम हिस्से हैं जहां एनजीओ काम कर रहे हैं और वहां के लोग एनजीओ की ही बात को दुहराते हैं। मसलन, अमिलिया गांव में बच्चा-बच्चा जिंदाबाद बोलना सीख गया है। एक-एक आदमी सामान्य संबोधन की जगह जिंदाबाद बोलता है। अनपढ़ औरतें भी सामुदायिक वनाधिकार की बात करती हैं। जेल में 28 दिन बिता चुके बेचन लाल साहू पूछते हैं, ”हम लोग अपने अधिकार के लिए थाने से लेकर दिल्ली तक जा चुके, हर जगह अर्जी लगाए, इतना मुकदमा किए, लेकिन सरकार हमारी एक नहीं सुनती। आखिर क्यों?” जब मैं लड़ाई के तरीकों पर सवाल उठाता हूं, तो वे तुरंत बोलते हैं, ”नहीं, लड़ाई तो अहिंसक और शांतिपूर्ण ही रहेगी।” बीच में उन्हें टोकते हुए ग्रीनपीस के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ”आखिर कानून के दायरे में नियमगिरि के लोगों ने वेदांता से लड़ाई जीती ही, तो हम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?” सभी लोग सहमति में सिर हिलाते हैं। जिंदाबाद बोलकर सब आगे बढ जाते हैं और हम घाटी की तरफ चल पड़ते हैं जहां कुछ औरतों ने कंपनी के खिलाफ गोलबंदी की हुई है।
बुधेर गांव के रास्ते में पड़ने वाली एक घाटी में एक पेड़ के नीचे करीब तीसेक औरतें बैठी हैं। पता चलता है कि पेड़ों की मार्किंग के बाद एस्सार कंपनी वाले पत्थर लगाकर वन क्षेत्र को घेरने की तैयारी कर रहे हैं। पेड़ के पास में ही एक अधबना पिलर मौजूद है। पिछले कुछ दिनों से अमिलिया गांव की ये औरतें रोजाना यहां एकजुट हो रही हैं और पिलर को बनने से रोके हुए हैं। आज भी ये सवेरे से ही यहां डटी हुई हैं और कंपनी के लोगों को लौटा चुकी हैं। हमारे वहां पहुंचने पर सभी एक स्वर में नारा लगाती हैं, ‘जिंदाबाद’। थोड़ी बातचीत करने पर एक महिला बताती हैं, ‘इस जंगल से हम लोग तेंदु, डोरी, महुआ बीनते हैं। इसी पर हमारा जीवन निर्भर है और कंपनी वाला इसको लेना चाह रहा है। जंगल तो हमारा था और हमारा ही रहेगा।” इसी बातचीत के बीच में ग्रीनपीस के विनीत अचानक उस महिला से कहते हैं, ‘पहले तुम लोग ये समझती थीं कि जंगल सरकार का है अब ये समझती हो कि जंगल जनता का है। ये समझदारी कैसे बनी, जरा इसके बारे में भी बताओ।’ महिला कहती है, ‘जंगल तो हमारा हइये है।’ मैंने विनीत की बात को साफ़ करते हुए महिला से कहा, ”ये बताइए कि ग्रीनपीस के लोगों ने आपकी जागरूकता बढ़ाने में कैसे मदद की।” इस पर वह महिला मुस्कुरा दी। उसके हंसने का आशय जो भी रहा हो, लेकिन विनीत ने फिर विस्तार से बताया कि कैसे इस गांव के लोग पहले जंगल को सरकारी समझते थे और उन्हें बताना पड़ा कि यह जंगल उन्हीं का है। विनीत बोले, ”जो भी फैसला लेना है, इन्हीं लोगों को लेना है। सारी लड़ाई महान संघर्ष समिति की है। हम तो बस पॉलिसी लेवल पर इनकी मदद करते हैं।”
चयनित विरोध की राजनीति
हम निकलने को हुए तो एक नौजवान जंगल की ओर से आता दिखा। उसने एक खूबसूरत सी सफेद रंग की टीशर्ट पहनी हुई थी। उस पर लिखा था ”आइ एम महान”। जंगलिस्तान प्रोजेक्ट का लोगो भी छपा था। उसने बताया कि यह शर्ट उसने बंबई से खरीदी है। बंबई क्यों गए थे, पूछने पर पता चला कि ग्रीनपीस की तरफ से गांव के कुछ लोगों को एस्सार कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए ले जाया गया था जहां इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। विनीत ने बताया कि वहीं इस प्रदर्शन के सिलसिले में यह टी-शर्ट कार्यकर्ताओं में बांटी गई थी, हालांकि गांव में ही रहने वाले समिति के एक युवक जगनारायण ने तुरंत बताया कि एक शर्ट की कीमत 118 रुपये है। कुल 40 पीस बनवाए गए थे। टी-शर्ट की कहानी चाहे जो हो, लेकिन शहर के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता यह सवाल ज़रूर उठाते हैं कि जब कोयला खनन करने वाली कंपनी महान कोल में एस्सार और हिंडालको की आधा-आधा हिस्सेदारी है, तो फिर सारा का सारा विरोध एस्सार का ही क्यों किया जा रहा है। लोकविद्या जनांदोलन से जुड़े एक स्थानीय कार्यकर्ता रवि कहते हैं, ”मैंने भी एक बार पूछा था कि आखिर एस्सार की इमारत पर ही क्यों बैनर टांगा गया? यह काम तो हिंडालको की बिल्डिंग पर भी किया जा सकता था? मुझे इसका जवाब नहीं मिला।”
संजय नामदेवग्रीनपीस के काम के बारे में विस्तार से समझाते हैं। शुरुआती दौर में महान कोल के खिलाफ संयुक्त संघर्ष में एक अनशन की याद करते हुए वे कहते हैं, ”अनशन सबने मिलकर किया था। अनशन की योजना मेरी थी। शाम को ग्रीनपीस ने अपने नाम से प्रेस में बयान जारी कर दिया। ये क्या बात हुई? इन लोगों ने हमारे आंदोलन को हाइजैक कर लिया। उसके बाद से मैं पलट कर वहां नहीं गया।” इसके उलट ग्रीनपीस के कार्यकर्ता और समिति के लोग संजय का नाम सुनते ही एक स्वर में कहते हैं, ”वह तो भगोड़ा है। तीन दिन बाद बीच में ही अनशन को छोड़ कर भाग गया।” ग्रीनपीस के यहां आने से काफी पहले से संजय नामदेव सिंगरौली में ऊर्जांचल विस्थापित एवं कामगार यूनियन चला रहे हैं। इसका दफ्तर बरगवां में है। बीती 17 जनवरी को उन्होंने बरगवां में विस्थापितों और मजदूरों का एक विशाल सम्मेलन किया था। संजय कहते हैं, ”हम लोग तो यहां की सारी परियोजनाओं से विस्थापित लोगों और इनमें काम करने वाले मजदूरों की बात करते हैं। सवाल उठता है कि जब इतनी सारी परियोजनाएं यहां लगाई जा रही हैं तो ग्रीनपीस वाले सिर्फ एस्सार के पीछे क्यों पड़े हुए हैं।” ग्रीनपीस के सुनील दहिया ऐसे सवाल उठाने पर जवाब देते हैं, ”इस सवाल का जवाब मैं नहीं दे सकता। हो सकता है कि ऊपर के अधिकारियों ने यह देखा हो कि कौन सी कंपनी का विरोध करना ज्यादा ‘फीजि़बिल’ होगा। शायद उन्होंने सर्वे किया हो कि किसी बिल्डिंग पर जाकर विरोध करना ज्यादा आसान, व्यवहारिक और प्रचार के लिहाज़ से उपयुक्त है। शायद यही सोचकर उन्होंने एस्सार को चुना हो। बार-बार एस्सार का नाम आने की एक वजह यह भी हो सकती है कि जिन गांवों के जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, वहां एस्सार कंपनी का प्लांट मौजूद है। चूकि गांव वालों को सामने एस्सार का प्लांट ही दिखता है, इसलिए समिति के लोगों ने एस्सार का विरोध करना चुना हो। हालांकि हम तो हिंडालको का भी विरोध करते हैं।”
चुनिंदा विरोध और व्यापक विरोध की राजनीति का फ़र्क सिंगरौली में बिल्कुल साफ़ दिखता है। पिछले कुछ वर्षों से यहां के विस्थापितों के बीच लोकविद्या की अवधारणा पर काम कर रहे रवि शेखर बताते हैं, ”यहां शुरू से तीन किस्म के संगठन रहे हैं। एक, जिनका अंतरराष्ट्रीय एक्सपोज़र रहा है। दूसरे, जिनका राष्ट्रीय एक्सपोज़र रहा है। तीसरे, जो स्थानीय हैं। तीनों ने अपने-अपने हिसाब से कंपनियों पर अलग-अलग मसलों को लेकर दबाव बनाया है और संघर्ष को आखिरी मौके पर भुना लिया है। कुछेक लोग अवश्य हैं जिन्हें हम ईमानदार कह सकते हैं, जैसे संजय या सीपीएम के रामलल्लू गुप्ता, वरना सबने ठीकठाक पैसा बनाया है।’‘ ऐसा कहते हुए हालांकि रवि ग्रीनपीस के काम को ज़रूर सराहते हैं, ”शुरुआत में इनके काम करने का तरीका ठीक नहीं था। ये लोग पहली बार फील्ड में काम कर रहे थे और कई मसलों पर अपने निर्णय स्थानीय लोगों पर थोपते नज़र आते थे। धीरे-धीरे इन्होंने काम करना सीखा और मुझे खुशी है कि लोगों की भावनाओं को जगह देकर आज ग्रीनपीस ने यहां बरसों बाद एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है। मुझे लगता है कि यहां काम कर रहे मजदूर संगठनों और अन्य को भी काम करने के अपने तरीकों में बदलाव लाना चाहिए।”
अमिलिया से लेकर बुधेर गांव तक आंदोलन की एक ज़मीन अवश्य दिखती है। पेड़ के नीचे गोलबंद औरतों से लेकर जिंदाबाद बोलता बच्चा-बच्चा ग्रीनपीस की मेहनत का अक्स है। कुछ बातें हालांकि ऐसी हैं जो अस्पष्टता लिए हुए हैं। मसलन, हम अपनी यात्रा के अगले पड़ाव में अनिता कुशवाहा के घर बुधेर गांव में पहुंचते हैं। अनिता शादीशुदा हैं। अपने पिता के घर पर रहती हैं। आंदोलन का महत्वपूर्ण चेहरा हैं लेकिन उनके पति खुद एस्सार कंपनी में नौकरी करते हैं। वे तीन दिन से काम पर गए हुए हैं और नहीं लौटे हैं। वे बताती हैं कि कंपनी ने 12000 रुपये का भुगतान अब तक नहीं किया है। उनके पिता के पास इस सीज़न में तेंदू पत्ते के संग्रहण का टेंडर है। हम जब वहां पहुंचते हैं, तो उनके पिता तेंदू पत्ता संग्राहकों के जॉब कार्ड उलट-पलट रहे होते हैं। इस गांव के 40 परिवारों में से 30 का ठेका उनके पास है। अगले दसेक दिन में तेंदू पत्ते का सीज़न समाप्त हो जाएगा। सरकार जो भी कमीशन देगी, वही उनकी कमाई होगी। जॉब कार्ड पर सबसे ज्यादा नाम क्रमश: खैरवार, यादव और कुशवाहा के हैं। खैरवार यहां के आदिवासी हैं। जो बातें हमें घाटी में गोलबंद महिलाओं ने बताई थी, अनिता भी कमोबेश वही सारी बातें हमसे बिल्कुल रटे-रटाए लहजे में कहती हैं। उनकी ससुराल बिहार के औरंगाबाद जिले में है। अब तक दो-तीन बार ही वे वहां गई हैं। यहां रहकर आंदोलन में हाथ बंटाती हैं। उन्हें नहीं पता कि उनके पति कंपनी में क्या काम करते हैं अलबत्ता कंपनी के उन अधिकारियों के नाम उन्हें कंठस्थ हैं जो गाहे-बगाहे यहां डराने-धमकाने आते हैं। हम अनिता के घर से देर शाम को लौटे। अगले दिन पता चला कि आधी रात उनके चाचा ने इस बहाने उनकी पिटाई की थी कि उन्होंने उनकी ज़मीन से फल क्यों बंटोरे। ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं का कहना है कि उसका चाचा कंपनी का आदमी है। अनिता कह रही थी कि उसका पूरा परिवार कंपनी का विरोधी है। किस घटना का क्या तर्क है, यह समझना यहां वाकई मुश्किल है।
पहचान का संकट
सिंगरौलीमें कौन किसका आदमी है, यह जानना सबसे मुश्किल काम है। यही सिंगरौली का सबसे बड़ा सवाल भी है। यह सवाल नया नहीं है, बल्कि आज़ाद भारत में उभरे औद्योगिक केंद्रों के भीतर नागरिकता की पहचान के संकट से जुड़ी जो प्रवृत्तियां अकसर दिखती है, उसकी ज़मीन सिंगरौली में बाकी हिंदुस्तान से काफी पहले तैयार हो चुकी थी जब 1840 में यहां पहली बार कोयला पाया गया। सिंगरौली में कोयला खनन की पहली संभावना को एक अंग्रेज़ कैप्टन राब्थन ने तलाशा था (लीना दोकुज़ोविच, सन्हति, 30 सितंबर 2012)। अठारहवीं सदी के अंत में यहां खनन का कारोबार शुरू हुआ। सिंगरौली की पहली ओपेन कास्ट खदान 1857 में कोटव में खोदी गई और सोन नदी के रास्ते दूसरे शहरों तक कोयले का परिवहन शुरू हुआ। कालांतर में रेलवे के विकास के चलते कोयले को ले जाना ज्यादा आसान हो गया जिसके चलते दूसरी खदानों को तरजीह दी जाने लगी और अगले कई सालों तक सिंगरौली की खदानें निष्क्रिय पड़ी रहीं। भारत की आज़ादी के बाद राष्ट्रीयकरण के दौर में जब ऊर्जा की जरूरत बढ़ी, तो कोल इंडिया ने पचास के दशक के आरंभ में सिंगरौली में दोबारा खनन कार्य शुरू किया। इसी दौर में यह बात साफ़ हो सकी कि 200 किलोमीटर की पट्टी में बिखरी कोयला खदानों के साथ प्रचुर मात्रा में पानी की उपलब्धता के चलते यह थर्मल पावर प्लांटों के लिए आदर्श जगह हो सकती है।
इसके बाद 1960 में अचानक बिना किसी पर्याप्त सूचना के गोबिंद सागर जलाशय और रिहंद बांध के लिए विस्थापन का काम शुरू कर दिया गया। चूंकि आबादी बहुत ज्यादा नहीं थी और सरकार के पास वन भूमि प्रचुर मात्रा में थी, इसलिए प्रत्येक परिवार को शुरू में पांच एकड़ ज़मीन दे दी गई। विस्थापितों में कुल 20 फीसदी परिवार जिनमें अधिसंख्या आदिवासी थे, उन्होंने इसके बावजूद इलाका छोड़ दिया जिनका आज तक कुछ अता-पता नहीं है (जन लोकहित समिति की रिपोर्ट, कोठारी 1988)। किसी पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों ने औना-पौना मुआवज़ा स्वीकार कर लिया जिसमें एक नया मकान बनाना भी मुमकिन नहीं था। इन विस्थापित परिवारों में करीब 60 फीसदी जलाशय के उत्तरी हिस्से में बस गए, जो एक बार फिर कालांतर में एनटीपीसी के सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट लगने के कारण विस्थापित हुए।
हार्डीकर की रिपोर्ट के मुताबिक सिंगरौली में बांध/जलाशय, खनन और ताप विद्युत परियोजनाओं से दो लाख से ज्यादा लोग अब तक उजड़े हैं। हार्डीकर अपनी रिपोर्ट में डाना क्लार्क को उद्धृत करते हैं (सेंटर फॉर इंटरनेशनल लॉ में अमेरिकी अटॉर्नी, जिन्होंने सिंगरौली में विशेष तौर से विश्व बैंक अनुदानित परियोजनाओं की भूमिका पर टिप्पणी की है), ”…सिंगरौली में ग्रामीणों की यातना की कहानी चौंकाने वाली है और इन लोगों का समग्र आकलन होना चाहिए जिनकी जिंदगी विकास के नाम पर तबाह कर दी गई।” जिस विकास की बात क्लार्क कर रही हैं, उसमें तेज़ी अस्सी के दशक में आई जब एनटीपीसी के तीन प्रोजेक्ट यहां प्रस्तावित हुए, साथ ही उत्तर प्रदेश बिजली बोर्ड का अनपरा प्रोजेक्ट प्रस्तावित किया गया। इन सभी परियोजनाओं के लिए नौ ओपेन कास्ट खदानें लगाई गईं जिनका मालिकाना नॉरदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के पास है। अगले दशक में इनके चलते 20,504 भूस्वामियों की ज़मीनें गईं और 4,563 परिवार विस्थापित हो गए। कई दूसरी बार विस्थापित हुए थे।
सिंगरौली क्षेत्र में परियोजनावार विस्थापितों और ज़मीन से उजाड़े गए लोगों का वितरण
(1980 के दशक में)
(1980 के दशक में)
परियोजना | ज़मीन से उजाड़े जाने वालों की संख्या1 | प्रभावित परिवरों की संख्या2 | पुनर्वास कॉलोनियों में जिन परिवारों को प्लॉट दिए गए | जिन परिवारों को अब भी प्लॉट मिलने हैं |
एनसीएल | 6175 | 3244 | 1031 (32 फीसदी) | 2213 (68 फीसदी) |
एनटीपीसी | 10,160 | 3947 | 2790 (71 फीसदी) | 1157 (29 फीसदी) |
यूपीएसईबी | 1536 | 1152 | 752 (65 फीसदी) | 400 (35 फीसदी) |
एमजीआर (कोयले के लिए मेरी गो राउंड रेल ट्रैक)
| 2633 | 161* | 0 | 0 |
कुल योग | 20,504 | 8,504 | 4563 (55 फीसदी) | 3770* (45 फीसदी) |
इसमें यूपी बिजली बोर्ड के अनपरा प्रोजेक्ट से हुए विस्थापन का आंकड़ा शामिल नहीं है।
1 वे परिवार जिनकी पूरी या कुछ ज़मीनें गईं
2 वे परिवार जिनके मकान गए
* एमजीआर प्रोजेक्ट द्वारा विस्थापित 161 परिवारों को बाहर रखा गया है क्योंकि इन्हें पुनर्स्थापन का लाभ नहीं मिला है।
स्रोत: जीएचके/एमआरएम इंटरनेशनल 1994 (विश्व बैंक द्वारा नियुक्त समूह)
विश्व बैंकने हालांकि एनटीपीसी से प्रभावित लोगों के लिए उपयुक्त पुनर्वास और पुनर्स्थापन पर ज़ोर दिया था और कोयला खनन परियोजनाओं ने हर प्रभावित परिवार में से एक व्यक्ति के लिए रोजगार का प्रावधान किया था, लेकिन लोगों ने खुद को जन लोकहित समिति के बैनर तले संगठित किया और परियोजनाओं का विरोध किया। समिति की रिपोर्ट कहती है, ”5 फरवरी 1988 को सामूहिक विरोध की एक विशाल अभिव्यक्ति के तहत 15000 से ज्यादा लोग जिनमें अधिकतर आदिवासी थे, सिंगरौली की सड़कों पर उतरे… वे बीते दिन दशकों में बार-बार हुए विस्थापन के सदमे और असुरक्षा से तंग आ चुके थे…।” विस्थापन की कहानी हालांकि यहीं नहीं रुकी बल्कि सिंगरौली के ”विकास” की तीसरी लहर निजी कंपनियों के रूप में देखने को अई जब यहां रिलायंस, हिंडाल्को और एस्सार ग्लोबल को परियोजनाएं शुरू करने की अनुमति मिली। एक बार फिर पहले से विस्थापित लोगों के सामने फिर से विस्थापित होने का खतरा पैदा हो गया। पहली और दूसरी लहर में विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाओं के कर्ज की भूमिका थी तो इस बार सीधे तौर पर कॉरपोरेट वित्तीय पूंजी से लोगों का सामना था।
संजय कहते हैं, ”जब तक सरकारी कंपनियों से विस्थापन का सवाल था, उनसे तो हम किसी तरह लड़-झगड़ लेते थे। माहौल इतना खराब नहीं था। प्राइवेट कंपनियों के आने के बाद स्थिति काबू से बाहर हो गई है। कब किसे उठा लिया जाए, मार दिया जाए, कोई पता नहीं।” छह दशक में लोगों के बीच पनपा यही डर और अविश्वास था कि हर व्यक्ति चाहे वह प्रभावित हो या अप्रभावित, निजी समृद्धि के एजेंडे में जुट गया और धीरे-धीरे आंदोलनों के ऊपर से जनता का विश्वास जाता रहा। रामलल्लू गुप्ता कहते हैं, ”लोगों को पैसा दो तो वे भागे हुए आएंगे। इनका ईमान बिगड़ गया है। अब हमारे बार-बार बुलाने पर भी कोई नहीं आता।” सिंगरौली एटक के महासचिव राजकुमार सिंह कहते हैं, ”यहां की जनता ही दोगली हो गई है। जब तक यहां की जनता का आखिरी रस नहीं निचुड़ जाएगा, उसे अपने सामने मौजूद खतरे की बात समझ में नहीं आने वाली। हम लोग उसी दिन का इंतज़ार कर रहे हैं।”
अविश्वास की ज़मीन
सिंगरौली का इलाका बहुत पिछड़ा और सामंती रहा है। यहां हमेशा से ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्व रहा है। लोगों की मानें तो अब भी ऐसे गांव यहां पर हैं जहां कोई निचली जाति का दूल्हा अपने पैरों में चप्पल पहन कर गांव के रास्ते से नहीं जा सकता। यह बात अलग है कि अधिकतर आदिवासी बहुल गांवों में ऊंची जातियों की संख्या नगण्य रही है, मसलन अमिलिया में ज्यादा आबादी खैरवार, यादव, गोंड, साकेत और चार बैगा परिवारों से मिलकर बनी है जबकि राजपूत और ब्राह्मणों के दो-चार परिवार हैं। फिर भी यहां के सरपंच संतोष सिंह हैं जो कि राजपूत हैं और महान कंपनी के हमदर्द हैं। इसी तरह बुधेर गांव में सिर्फ एक ब्राह्मण परिवार है और ज्यादातर यादव हैं। कंपनियों को यहां पैर जमाने में इसलिए आसानी हुई क्योंकि ऊंची जातियां स्वाभाविक रूप से उनकी सहायक बन गईं। अमिलिया गांव में करीब 75 फीसदी लोगों ने एस्सार-हिंडाल्को को अपनी ज़मीन नहीं दी है, फिर भी दबाव के तहत 345 एकड़ की रजिस्ट्री कंपनी के नाम हो चुकी है। नतीजा यह हुआ है कि गांव की आबादी दो हिस्सों में बंट गई है। एक वे जिन्होंने कंपनी को ज़मीन लिखवाई है और दूसरे वे जिन्होंने अपनी ज़मीनें देने से इनकार कर दिया है। इसकी स्वाभाविक परिणति यह हुई है कि ज़मीन न देने वालों ने जहां महान संघर्ष समिति बनाकर लड़ाई शुरू की, उसके उलट कंपनी के हमदर्द लोगों ने महान बचाओ समिति बना ली। संघर्ष समिति के कृपा यादव बताते हैं कि महान बचाओ समिति में सब कंपनी के लोग हैं और वे लोग हमेशा संघर्ष समिति के कार्यक्रमों से उलट अपने कार्यक्रम करते हैं व गांव वालों को बहकाते हैं।
संघर्ष समितिके सदस्य विजय शंकर सिंह अपने संदर्भ में कहते हैं, ”ये बात तो ठीक है कि ब्राह्मण-राजपूत कंपनी के साथ हैं, लेकिन सब नहीं हैं। जो गरीब होगा वो कंपनी के साथ क्यों जाएगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम राजपूत हैं, लेकिन हम ता कंपनी के खिलाफ ही हैं।” शहर में मेरी जिन लोगों और कार्यकर्ताओं से बात हुई, सबकी बातचीत में अपने आप ”ब्राह्मण-ठाकुर” का जिक्र एक न एक बार ज़रूर आया। सीपीएम के गुप्ताजी के मुताबिक ऊंची जातियों ने अपने स्वार्थ में पूंजी का दामन थाम लिया है और आज की स्थिति ऐसी है कि सिंगरौली के परियोजना क्षेत्र वाले गांवों में वर्ग विभाजन और जाति विभाजन दोनों ही एक साथ एक ही पैटर्न पर देखने में आ रहा है। जो कंपनी के खिलाफ है, वह अनिवार्यत: गरीब और निचली जाति का है।
जाति का यह ज़हर सिर्फ सामान्य लोगों में ही व्याप्त नहीं है बल्कि लंबे समय से आंदोलन कर रहे यहां के कथित आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं के बीच भी अपनी-अपनी जातियों के हिसाब से कंपनी से दूरी या निकटता बनाने की प्रवृत्ति मौजूद है। एक कार्यकर्ता नाम गिनवाते हुए बताते हैं कि पिछले बीसेक साल में जिन लोगों के हाथों में यहां के मजदूरों-किसानों के संघर्ष की कमान रही, उन्होंने कैसे आखिरी मौके पर अपनी ऊंची जाति का लाभ लेते हुए कंपनियों से डील कर ली।
रवि शेखर बताते हैं, ”इसी का नतीजा है कि आज सिंगरौली में जब कोई नया चेहरा दिखता है तो सबसे पहले लोगों के दिमाग में यही खयाल आता है कि आया है तो दो अटैची लेकर ही जाएगा।” पिछले वर्षों में जिस कदर यहां पैसा आया है और बंटा है, उसने सामान्य और सहज मानवीय बोध को ही चोट पहुंचाई है। बैढ़न में राजीव गांधी चौक पर समोसे की दुकान के बगल में पहली शाम जब कुछ लोगों से मिलने हम पहुंचे, तो मेरे कुछ पूछने पर जवाब देने से पहले ही मेरे सामने ऐसा ही एक सवाल उछल कर आया, ”पहले ये बताइए कि किसके यहां से आए हैं। क्यों आए हैं।” अपने बारे में बताने पर टका सा जवाब मिला, ”ठीक है, बहुत पत्रकार यहां आते हैं और झोला भरकर ले जाते हैं। आप बुरा मत मानिएगा। यहां का कुछ नहीं हो सकता। आए हैं तो अपना काम बनाकर निकल लीजिए।”
लोग यहां धीरे-धीरे खुलते हैं। आसानी से उन्हें किसी पर भरोसा नहीं होता। उनका भरोसा कई बार तोड़ा जो गया है। सवाल सिर्फ घरबार, पुनर्वास और नौकरी का नहीं है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी दिलचस्प होगा। सिंगरौली में जब एनटीपीसी लगा था, तो कहा गया था कि परियोजना क्षेत्र के आठ किलोमीटर के भीतर बिजली मुफ्त दी जाएगी। कई साल तक ऐसा नहीं हो सका। उसके बाद नियमों में बदलाव कर के आठ को पांच किलोमीटर कर दिया गया। फिर भी यह लागू नहीं किया जा सका। फिर मध्यप्रदेश सरकार ने अपनी मांग बताई, तो एनटीपीसी ने कहा कि हम तो 32 मेगावाट ही दे सकते हैं। यह मांग से काफी कम मात्रा थी। आज तक यह ”नियम” सिंगरौली में लागू नहीं हो सका है और इसका सबसे बड़ा प्रहसन यह यह कि सामान्य लोगों के बिजली के बिल इस बार 2000 से 65000 रुपये तक आए हैं। लोग अब ऐसी बातों पर हंसते हैं और हंस कर टाल देते हैं।
कुछ नई चीज़ों पर लोगों को भरोसा कायम हुआ था। पता चला कि उसे भी देर-सबेर टूटना ही था। मसलन, एक स्थानीय महिला हैं मंजू जी, जो एनटीपीसी विंध्यनगर की पुनर्वास कॉलोनी नवजीवन विहार में 40 बटा 60 के प्लॉट में रहती हैं। बिहार के वैशाली की रहने वाली हैं। इन्होंने पिछले दो दशक की अपनी सिंगरौली रिहाइश में विस्थापन का दंश झेला है लेकिन अपनी मेहनत और समझ बूझ के चलते आज सामान्य खुशहाल जीवन बिता रही हैं। वे आजकल सरकारी स्कूलों में मिड डे मील की आपूर्ति करती हैं। खाना घर की औरतें ही मिल कर बनाती हैं जिससे बाहरी रसोइये का खर्चा बचता है और उनकी बच्ची को अच्छी शिक्षा हासिल होती है। मंजू करीब एक दशक तक समाजवादी पार्टी से जुड़ी रही थीं, लेकिन उन्हें आम आदमी पार्टी में इस बार नई उम्मीद दिखी थी। उन्होंने आम आदमी पार्टी की तरफ से इलाके में काफी सामाजिक काम किया और जब चुनाव का वक्त आया तो नियम के मुताबिक पर्याप्त प्रस्तावकों के दस्तखत लेकर पार्टी मुख्यालय में उम्मीदवारी के लिए भेज दिया। अपेक्षा से उलट संसदीय चुनावों में यहां से उम्मीदवार पंकज सिंह को बना दिया गया जो ग्रीनपीस से जुड़े रहे थे।
मंजूहंसते हुए कहती हैं, ”पता नहीं क्या हुआ, समझ में ही नहीं आया। अब तो चुनाव के बाद कुछ पता ही नहीं चल रहा है कि पार्टी है भी या नहीं। पंकज भी कई दिनों से नहीं दिखे हैं।” उन्हें टिकट क्यों नहीं मिला, इस बारे में पूछने पर वे कहती हैं, ”सब जगह तो देखिए रहे हैं कि टिकट किसको मिला। हस्ताक्षर करवाने वाला मामला तो बस दिखाने के लिए कि पार्टी में लोकतंत्र है। मेहनत हम लोगों से करवाया और उम्मीदवार ऊपर से गिरा दिया।” उधर पंकज सिंह, जो ग्रीनपीस की नौकरी छोड़ने के बाद चुनाव प्रचार के लिए बैढ़न में जहां एक मकान में किराये पर रह रहे थे, अब वे वहां नहीं रहते। मकान कई दिनों से बंद पड़ा है।
धुंधलाती उम्मीद
अपनी महान नदी और उससे लगे महान के जंगल को बचाने के लिए ग्रामीणों के पास नियमगिरि के संघर्ष के मॉडल से चलकर एक उम्मीद ग्राम सभा के नाम से आई थी। उन्हें बताया गया था कि कानूनी दायरे में किस तरह संघर्ष संभव है और ग्रामसभा अगर चाहे तो परियोजना व जमीन अधिग्रहण को खारिज कर सकती है। बीते साल 6 मार्च को यहां अमिलिया, बुधेर और सुग्गो गांव में ग्रामसभा आयोजित की गई। ग्रामसभा में कुल 184 लोगों की मौजूदगी थी लेकिन जब दस्तावेज सामने आए तो पता चला कि कुल 1125 लोगों के दस्तखत उसमें थे। नाम देखने पर आगे साफ़ हुआ कि इसमें 10 ऐसे लोगों के दस्तखत थे जो काफी साल पहले गुज़र चुके थे। इसके अलावा ऐसी तमाम महिलाओं और पुरुषों के भी दस्तखत थे जो ग्रामसभा में आए ही नहीं थे। यह खबर काफी चर्चित हुई और आज भी ग्रीनपीस के दफ्तर में या गांवों में कोई पत्रकार पहुंचता है तो लोग सवा साल पुरानी इस घटना का जि़क्र करते हैं। इस मामले पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में एक याचिका भी सात लोगों के नाम से दायर है। अभी तक इसकी ग्रामसभा के निर्णय की स्थिति अस्पष्ट है। ताज़ा खबरों के मुताबिक कंपनी के हमदर्द समूह महान बचाओ समिति ने दोबारा ग्रामसभा रखवाने का प्रस्ताव भेजा है और जिला कलक्टर सेल्वेंद्रन ने अगले एक माह के भीतर इसे आयोजित करने का आश्वासन दिया है।
फिलहाल, अमिलिया, बुधेर, बन्धोरा, खराई, नगवां, सुहिरा, बंधा, पिडरवा आदि कुल 54 प्रभावित होने वाले गांवों के लोग कंपनी और प्रशासन से बचते-बचाते इस ग्रामसभा की उम्मीद में हैं। वे एक बात तो समझ चुके हैं कि ग्रामसभा भी उनकी समस्या का असल इलाज नहीं है। जहां तक स्थानीय प्रशासन और पुलिस में उत्पीड़नों से जुड़ी शिकायत का सवाल है, तो इस इलाके में यह एक बेहद भद्दा मज़ाक बनकर रह गया है क्योंकि स्थानीय पुलिस चौकी बन्धोरा स्थित एस्सार कंपनी के प्लांट के भीतर मौजूद है। सुहिरा के पास एक नई पुलिस चौकी की इमारत कब से बनकर तैयार है, लेकिन आज तक उसमें पुलिस चौकी को स्थानांतरित करने का आश्वासन ही मिल रहा है। बेचन लाल साहू कहते हैं, ”कोई भी शिकायत लिखवानी हो तो पहले आपको कंपनी के मेन गेट पर गार्ड के यहां रजिस्टर में अपना नाम पता लिखना होगा और उसकी अनुमति से ही आप पुलिस चौकी जा सकते हैं। बताइए, इससे बड़ा मज़ाक और क्या होगा।”
स्थानीय प्रशासन, संस्थाएं, सरकारी और निजी कंपनियां व रसूख वाले ऊंची जाति के लोग- इन सबका एक ऐसा ख़तरनाक जाल सिंगरौली में फैला हुआ है जिसे तोड़ना तकरीबन नामुमकिन दिखता है। इसके बावजूद कुछ बातें उम्मीद जगाती हैं। मसलन, करीब नब्बे साल के कड़क सफेद मूंछों वाले एक बुजुर्ग हनुमान सिंह को आप हमेशा राजीव गांधी चौक पर बैठे देख सकते हैं। वे पुराने समाजसेवी हैं और आज तक इसी काम में लगे हुए हैं। 25 जून की दोपहर वे कोई आवेदन लिखवाने के लिए संजय नामदेव के पास कालचिंतन के दफ्तर आए हुए थे। जबरदस्त उमस और गर्मी में पसीना पोंछते हुए वे संजय से कह रहे थे, ”जल्दी लिखो संजय भाई। आज जाकर कलेक्टर को दे आऊंगा। नहीं सुनेगा तो फिर से अनशन पर बैठ जाऊंगा।”
उनकी उम्र और जज्बा देखकर एक उम्मीद जगी, तो मैंने उनसे शहर के बारे में पूछा। वे बोले, ”यहां सब खाने के लिए आते हैं। अब देखो, पहले यहां साडा (विशेष क्षेत्र प्राधिकरण) था, फिर नगर निगम बना और अब नगरमहापालिका बन चुका है। दो सौ करोड़ रुपया नगरमहापालिका को आया था यहां के विकास के लिए। सामने सड़क पर देखो, एक पैसा कहीं दिख रहा है? ये गंदगी, कूड़ा, नाली… बस बिना मतलब का सात किलोमीटर का फुटपाथ बना दिया और बाकी पैसा खा गए सब। हम तो जब तक जिंदा हैं, लड़ते रहेंगे।” उनका आशय बैढ़न के राजीव गांधी चौक से इंदिरा गांधी चौक के बीच सड़क की दोनों ओर बने सात किलोमीटर लंबे फुटपाथ से था, जिसका वाकई में कोई मतलब नहीं समझ आता।
उस शाम हम जितनी देर चौराहे पर सीपीएम के दफ्तर में कामरेड गुप्ताजी के साथ बैठे रहे, कम से कम चार बार बिजली गई। राजीव और इंदिरा चौक के बीच शहर की मुख्य सड़क कही जाने वाली इस पट्टी से रात दस बजे अंधेरे में गुज़रते हुए नई नवेली मोटरसाइकिल पर एक शराबी झूमता दिखा, एक सिपाही एक हाथ में मोबाइल लिए उस पर बात करते और दूसरे हाथ से मोटरसाइकिल की हैंडिल थामे लहरा रहा था, तो एक तेज़ रफ्तार युवक हमसे तकरीबन लड़ते-लड़ते बचा। रवि शेखर बोले, ”यहां हर रोज़ एक न एक हादसा होता है। पहले ऐसा नहीं था। जिस दिन मुआवज़ा मिलने वाला होता है, लोगों को इसकी खबर बाद में लगती है लेकिन मोटरसाइकिल कंपनियों को पहले ही लग जाती है। वे बिल्कुल कलेक्ट्रेट के सामने अपना-अपना तम्बू गाड़कर ऐन मौके पर बैठ जाती हैं। इस तरह बाज़ार का पैसा घूम-फिर कर बाज़ार में ही चला जाता है।”
ग्रीनपीस के बैनर तले एक कंपनी के खिलाफ ग्रामीणों का संघर्ष सिंगरौली में ज्यादा से ज्यादा एक मामूली केस स्टडी हो सकता है। कैमूर की इन वादियों में कोयला खदानों, पावर प्लांटों, एल्युमीनियम और विस्फोटक कारखानों के बीचोबीच मुआवज़े और दलाली का एक ऐसा बाज़ार अंगड़ाई ले रहा है जहां सामंतवाद और आक्रामक पूंजी निवेश की दोहरी चक्की में पिसते सामान्य मनुष्यों से उनकी सहज मनुष्यता ही छीन ली गई है और उन्हें इसका पता तक नहीं है। यह सवाल ग्रीनपीस या उसके किसी भी प्रोजेक्ट से कहीं ज्यादा बड़ा है। आज का सिंगरौली इस बात का गवाह है कि कैसे विदेशी पूंजी और उससे होने वाला विकास लोगों को दरअसल तबाह करता है। लाखों लोगों को बरबाद करने, उनसे उनकी सहज मनुष्यता छीनने व इंसानियत को दुकानदारी में तब्दील कर देने के गुनहगार वास्तव में विश्व बैंक व अन्य विदेशी अनुदानों से यहां लगाई गई सरकारी-निजी परियोजनाएं हैं।विकास के नाम पर यहां तबाही की बात अमेरिकी अटॉर्नी डाना क्लार्क ने कई साल पहले कही थी, लेकिन अब तक इस देश की इंटेलिजेंस एजेंसियां इस बात को नहीं समझ पाई हैं। सिंगरौली इस बात का सबूत भी है कि या तो हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों में इंटेलिजेंस जैसा कुछ भी मौजूद नहीं है या फिर गैर-सरकारी संस्थानों की भूमिका पर आई उसकी रिपोर्ट दुराग्रहपूर्ण राजनीति से प्रेरित और फर्जी है।
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