Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Friday, October 19, 2012

पूंजीवादी संस्कृति में विज्ञान

पूंजीवादी संस्कृति में विज्ञान
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/30971-2012-10-19-05-09-41

Friday, 19 October 2012 10:38

सुधा चौधरी
जनसत्ता 19 अक्टुबर, 2012:  पूंजी को बढ़ने और फलने-फूलने के लिए जिस ज्ञानतंत्र की आवश्यकता रहती है उसका आधार वैज्ञानिक प्रमाण-मीमांसा हो सकती है। उद्योग, तकनीकी, प्रबंधन, प्रगति, विकास, शक्ति और प्रभुत्व पूंजी विस्तार के मूलमंत्र हैं। इसके लिए वैज्ञानिक अनुसंधानों को आगे बढ़ाना पूंजीवाद की अस्तित्वगत आवश्यकता है। प्रबोधन की घोषणा उभरती पूंजीवादी व्यवस्था की इसी जरूरत का हिस्सा था, जो अपनी समझ, अंतर्वस्तु और दिशा में मानवीय सभ्यता के नए उषाकाल का उद्घोष था।
इससे झांकती विश्वदृष्टि अपने स्वभावबोध में धर्म और उसकी तत्त्व मीमांसीय प्रस्थापनाओं पर निर्मम चोट करने वाली थी। मानवता ने यह उम्मीद लगाई कि वैज्ञानिक समझ के माध्यम से वह न केवल धर्म के कुहासे से बाहर निकल कर बेहतर ढंग से दुनिया को जानने और बनाने की क्षमता हासिल करेगा, बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में पसरे पांडित्यवाद, आस्थावाद और रहस्यवाद को भेदने में भी सक्षम होगा। ब्रह्मांड और उसमें मनुष्य की नियति से लेकर संस्कृति और इतिहास जैसे मानविकी क्षेत्रों पर भी विज्ञानसम्मत व्याख्या का मार्ग प्रशस्त होगा।
विज्ञान के माध्यम से समाज की गति को समझने पर सभ्यता का जो रास्ता खुलता है उसमें सुरक्षित, समतामूलक और जनतांत्रिक समाज के निर्माण की अपार संभावनाएं रहती हैं। विज्ञान जिस आचार और समाजशास्त्र के निर्माण की बुनियाद डालता है उसमें जाति, धर्म, लिंग आधारित विभाजित, खंडित और भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवहार के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। इसलिए मानव क्षमता पर भरोसा करने वाली इस वैज्ञानिक विश्वदृष्टि को सामाजिक मुक्ति के वैचारिक अस्त्र के रूप में देखा गया।
पर आज स्थिति उलट दिखाई देती है। सामाजिक जीवन में जनतांत्रिक व्यवहार और स्थितियां अधिसंख्य के लिए अब भी स्वप्नलोक की चीजें हैं और वैचारिक स्तर पर धर्म ही हमारे पूरे मनोजगत का निर्माण और संचालन करता है। धर्म का प्रभाव हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कम नहीं हुआ है। तमाम वैज्ञानिक प्रगति और सामाजिक सुविधाओं के बावजूद हमारे समाज और जीवन के स्थूल और सूक्ष्म आयामों में धार्मिक पाखंड की जकड़न, उसकी आक्रामकता और सघन-संगठित हुई है। विज्ञान की उपलब्धियों का भरपूर उपयोग करने वाला समाज अपने भीतर विज्ञान को झांकने की स्वीकृति नहीं दे पाया है। प्रौद्योगिकी उपलब्धियां हमारे जीवन की भौतिक सुख-सुविधाओं के उपयोग तक ही सीमाबद्ध होकर रह गई हैं। वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं क्षीण हो गई हैं। हमारे जीवन, सोच और व्यवहार के इस विरोधाभास के वस्तुनिष्ठ आधार और कारण क्या हैं?
इसके लिए उन सामाजिक दशाओं और व्यवस्थाओं को देखने की जरूरत है, जिनमें वैज्ञानिक चेतना और समझ को कुंठित कर धर्म को अपरिहार्य बना कर पोषित और संरक्षित किया जाता है। इसलिए विज्ञान की उपलब्धियों का भरपूर उपयोग करने वाले समाज की गैर-वैज्ञानिक चेतना के लिए विज्ञान के विकास को आगे बढ़ाने वाली शक्तियों के सामाजिक मंतव्यों को देखने की दरकार है। वैज्ञानिक अनुसंधान भले खोज और पद्धति शास्त्र में वस्तुनिष्ठ हों, पर अपनी सामाजिक प्रकृति में सत्ता-सापेक्ष होते हैं। विज्ञान का विस्तार और उस विस्तार की सीमाएं समय-समय पर सत्ता के हितों से नियंत्रित होती हैं। इसलिए विज्ञान की पक्षधरता और धर्म से मुक्ति की घोषणा को स्वायत्त परिघटना न मान कर उसकी वाहक शक्तियों की सत्ता संरचना का आकलन करने की आवश्यकता है।
विज्ञान केंद्रित प्रबोधन का नारा पंूजीवाद की ऐतिहासिक बाध्यता और वैचारिक आवश्यकता दोनों थी। आर्थिक स्तर पर कृषि से उद्योग और छोटे पैमाने के उत्पादन को विशाल पैमाने तक बढ़ाने के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है उसमें विज्ञान और उस पर आधारित ज्ञानपद्धति ही सहायक हो सकती है। औद्योगिक विकास को बढ़ाने के लिए प्राकृतिक प्रक्रियाओं के रहस्यों को भेदने की आवश्यकता रहती है। इसलिए पूंजीवाद बिजली, ऊर्जा, मशीनों के निर्माण और उपयोग से लेकर संचार उद्योग के संबंध में परी कथाएं नहीं सुनना चाहता। वह उसके वास्तविक नियमों और व्यावहारिक प्रक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने पर बल देता है, जिसके लिए विज्ञान को विकसित करने की बाध्यता रहती है। सामाजिक स्तर पर भी व्यापक प्रबंधन और नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक तकनीकी ही कारगर माध्यम बनती है।
सामाजिक-वैचारिक स्तर पर पूंजीवाद के लिए सामंती और धर्म-प्रधान जड़ सांस्कृतिक ढांचे को तोड़ने और उसके स्थान पर पूंजीवादी संस्कृति को स्थापित करने के लिए तर्क आधारित विश्वदृष्टिकोण को विकसित करना आवश्यक बन गया, जो विज्ञान के विकास के बिना संभव नहीं था। अपनी इस सांस्कृतिक आवश्यकता के कारण वैज्ञानिक संस्कृति और विश्वदृष्टिकोण से उत्पन्न तमाम तरह के खतरों से अवगत होते हुए भी पूंजीवाद ने अपने विकास की एक खास अवस्था तक उसे विकसित किया।
यही कारण है कि सोलहवीं शताब्दी में अपनी वैज्ञानिक खोजों के कारण ब्रूनो जैसे वैज्ञानिक को जिस सामंती व्यवस्था के हाथों जलना पड़ा, उसी व्यवस्था में डार्विन के विकास सिद्धांत को तमाम तरह के सामंती अवशेषों द्वारा विरोध करने पर भी न केवल राजनीतिक समर्थन मिला, बल्कि समाज और सरकार द्वारा हर प्रकार का संरक्षण और सम्मान भी मिला। यह दिखाने के लिए कि 'सामंती व्यवस्था समतामूलक समाज की दुश्मन है' न केवल समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृत्व जैसे मानवतावादी नारे लगाए, बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधानों को योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक तरह की शोध परियोजनाएं, अकादमियां और संस्थानों की स्थापना की। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में रॉयल सोसाइटी जैसी वैज्ञानिक संस्थाओं का उद््भव और विकास इसी परियोजना की अभिव्यक्ति थे।
इन अकादमियों के माध्यम से पूंजीवाद ने धर्म प्रतिष्ठानों से संगठित लड़ाई लड़ने के साथ-साथ वैज्ञानिक मुद्दों पर जनतांत्रिक बहस भी चलाई। सत्ता के इस विज्ञानपक्षीय व्यवहार से उत्साहित वैज्ञानिकों ने विज्ञान में मनुष्यता की सेवा करने की अपार संभावनाएं देखीं। वैज्ञानिक इस आत्मविश्वास से लैस थे कि प्रकृति, समाज, विचार, जीवन-व्यवहार संबंधी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसका समाधान विज्ञान में नहीं है। विज्ञान ही समस्त मानवीय समस्याओं को हल करने की कुंजी है। विज्ञानपक्षीय इस वातावरण से धर्म और ईश्वर प्रदत रहस्यवाद और अलौकिकता से संबंधित विचारों पर न केवल तार्किक हमले हुए, बल्कि विज्ञान को एक प्रतिष्ठित ज्ञानात्मक अनुशासन के रूप में मान्यता मिली।
पर पूंजीवाद का यह विज्ञानपक्षीय क्रांतिकारी जनतांत्रिक व्यवहार सामंतवाद का खात्मा कर खुद को स्थापित करने का माध्यम भर था। व्यक्ति से पहले मुनाफा, समाज से पहले बाजार, आवश्यकता से पहले लाभ के अर्थदर्शन की बुनियाद पर खड़ी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए विज्ञान और तर्क आधारित समाज और संस्कृति साधन हो सकती है, उसका साध्य नहीं। सत्तापक्ष भौतिकवादी विश्वदृष्टिकोण और समझ से डरता है। पूंजीवाद भी शुरू से ही समझ गया था कि वैज्ञानिक भौतिकवाद समाज को जिस वैज्ञानिक चेतना से लैस करता है वह विचारदृष्टि के स्तर पर उनके अस्तित्व के लिए चुनौतीपूर्ण स्थितियां पैदा करता है। इसलिए पूरी कोशिश रही है कि विज्ञान और वैज्ञानिक विश्वदृष्टिकोण पीड़ित, शोषित और दमित जनता की बौद्धिक शक्ति न बने।
सामंती अवशेषों का स्थायित्व न केवल सस्ता श्रम और कच्चा माल सुलभ कराने की गारंटी देता, बल्कि गैरबराबरी और असमान सामाजिक स्थितियों को चिरस्थायी सिद्ध करने के लिए मध्ययुगीन दकियानूसी, जातीय उन्माद, सांप्रदायिक पागलपन और बर्बरता के मनोविज्ञान का आधार भी प्रदान करता है। अपनी इस अस्तित्वगत आवश्यकता के कारण ब्रिटेन और फ्रांस की क्रांतियों के बाद पूंजीवाद यूरोप में मजबूती से स्थापित हो गया और राजसत्ता में सामंतवाद पर आधारित संस्कृति और धर्म प्रतिष्ठानों को चुनौती देने वाली ताकत के रूप में प्रतिष्ठा घट गई तो विज्ञान के साथ संबंधों में एक गुणात्मक परिवर्तन आ गया। ऐसा विज्ञान के स्वरूप और उद्देश्य दोनों स्तर पर हुआ।
आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अपने आपको स्थापित करने के बाद एक तरफ विज्ञान का इस्तेमाल मुनाफा बढ़ाने वाले उपकरण के रूप में हुआ तो दूसरी तरफ प्राकृतिक विज्ञानों पर किए जाने वाले अनुसंधानों पर अनेक सीमाएं थोप दीं, जिससे प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञानों के विकास में गहरा अंतर्विरोध उत्पन्न हुआ।
विजयी पूंजीपति वर्ग ने विज्ञान सम्मत दार्शनिक भौतिकवाद को अपने वर्गीय हितों के चलते ठुकरा दिया और सत्ता की रक्षा के लिए धर्म और परलोकवाद से जुड़े आदर्शवाद का सहारा लिया। यह अनायास नहीं है कि प्रबोधन के बौद्धिक प्रेरकों ने अपने वैज्ञानिक दर्शन के साथ न केवल अनेक समझौते किए, बल्कि आदर्शवादी प्रस्थापनाओं के फलने-फूलने के लिए पूरी जगह छोड़ी।
कांट ने 'ईश्वर का अस्तित्व' और 'आत्मा की अमरता' जैसी धारणाओं को नैतिकता की पूर्व-मान्यता के रूप में प्रस्तुत कर अज्ञेयवाद और रहस्यवाद की दुनिया रच डाली। वैज्ञानिक ज्ञान के जनक माने जाने वाले देकार्त ने 'मैं चिंतन करता हूं इसलिए मेरा अस्तित्व है' उक्ति के माध्यम से 'आत्मा और ईश्वर' के विचार को जन्मजात प्रत्यय के रूप में स्थापित कर धर्म की जड़ें मजबूत कीं। 'ऊर्जा' को यथार्थ मानने वाले लाइबनित्ज ने 'ऊर्जा' को ही 'ईश्वर' बना दिया। 'पूर्व स्थापित सामंजस्य के सिद्धांत' के माध्यम से मनुष्य की नियतिवादी व्याख्या की।
ये सभी चिंतक अपने अंतिम विश्लेषण और जीवनदृष्टि में धर्म के पोषक और संरक्षक रहे हैं। हालांकि पंूजीवाद की स्वभाविक मित्रता विज्ञान के साथ ही हो सकती है, पर अपने वर्ग-स्वार्थ के चलते वह सदा धर्म के लिए छिद्र छोड़ देता है, जो उसे तात्कालिक संकट से निजात दिलाने में अहम भूमिका निभाता है। भौतिक स्तर पर विज्ञान को बढ़ाना और वैचारिक स्तर पर गैर-वैज्ञानिक चेतना को बनाए रखना पूंजीवाद का चारित्रिक लक्षण है। इसके चलते विज्ञान की सामाजिक भूमिका को मजबूत वैचारिक जमीन नहीं मिल पाई।
अपने इन हितसंबंधों के कारण पंूजीवाद ने एक दौर में जिस सामंती संस्कृति को खत्म करने का हर संभव प्रयास किया, कालांतर में उसी को बचाए-बनाए रखने के लिए सामंती शक्तियों को संरक्षण दिया। उत्तर-आधुनिकता इसी कवायद का लोक लुभावना नाम है। यह अकारण नहीं है कि 'यथार्थ का वस्तुनिष्ठ स्वरूप और उसकी तार्किक-विश्लेषण द्वारा ज्ञेयता की क्षमता' जो प्रबोधन का बौद्धिक अस्त्र था, उत्तर-आधुनिकतावादियों ने इन्हीं दो संकल्पनाओं को अपने आलोचनात्मक विमर्श का मुख्य आधार बनाया। अधिकतर उत्तर-आधुनिक विचारक अपूर्णताओं, विखंडनों और विभाजित चेतनाओं के उपासक हैं। जीवन के प्रति खंडित और विभाजित दृष्टि और वैज्ञानिक ज्ञानमीमांसा की 'संस्कृति और भाव-सापेक्ष' परिभाषाएं सत्तावर्ग और धार्मिक ताकतों के लिए वरदान सिद्ध हुई हैं।
आज विज्ञान के युग में धर्म की जड़ें जनता की सामाजिक रूप से दमित अवस्था में हैं। पूंजीवादी आधार पर उद्योग का जो विकास हुआ, उसने श्रमिक जनता की दरिद्रता और कष्टों को समाज के अस्तित्व की आवश्यक शर्त बना दिया। जहां असुरक्षा, भय, दमन, पीड़ा उसके जिंदा रहने के पर्याय बन गए हैं। पूंजीवाद मानव जाति के विकास को जिन अंतर्विरोधों के दलदल में घसीट ले गया है वहां धर्म ही उसे आभासी राहत देता है। इसलिए धर्म के फैलने का कारण जनता का धर्म के प्रति सम्मोहन नहीं, बल्कि मानव-विरोधी सत्तातंत्र है। आज वह उत्पीड़न की अभिव्यक्ति के रूप में जीवित है।
जब तक शोषण-उत्पीड़नकारी सामाजिक ढांचे से मानव मुक्त नहीं होता तब तक जनता के मस्तिष्क से कोई भी शैक्षणिक पुस्तक या प्रौद्योगिकी विकास वैज्ञानिक चेतना को विकसित नहीं कर सकता। वैज्ञानिक चेतना वैज्ञानिक संस्कृति की उत्पाद होती है। इसलिए पूरा तंत्र अगर सामंती मूल्यों का पोषक है तो इस बात की पूरी संभावना है कि तांत्रिकों और ओझाओं द्वारा भूत उतारने, हवा बांधने, प्रेत से मुक्ति दिलाने, रोजगार दिलाने, बीमारी भगाने के वादे सही लगते रहें। आज की हमारी वैचारिक विडंबना के सूत्र मनुष्य की इन्हीं अभिशप्त दशाओं में हैं। अध्यात्म की इसी भौतिकता को देखने और समझने की दरकार है।


No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors