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Monday, October 29, 2012

Fwd: [New post] पाठयक्रम का व्यापार



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/29
Subject: [New post] पाठयक्रम का व्यापार
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "अंजनी कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय, लॉ फैकल्टी या डी स्कूल के फोटोकापी करने वाली दुका"

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पाठयक्रम का व्यापार

by समयांतर डैस्क

अंजनी कुमार

book_and-copyrightदिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय, लॉ फैकल्टी या डी स्कूल के फोटोकापी करने वाली दुकानों के बाहर एक स्टीकर चिपका दिया गया है: पूरी किताब फोटोकापी करने का आग्रह न करें। इसके पहले वहां न तो यह स्टीकर चिपका हुआ मिलता था और न ही यह मसला ही बनता था। 13 अगस्त, 2012 को दिल्ली उच्चन्यायालय में तीन बड़े प्रकाशकों आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कैंब्रीज यूनिवर्सिटी प्रेस और इनफॉर्मा यू.के. लि. की ओर से दिल्ली विश्वविद्यालय व राजेश्वरी फोटोकापी सर्विस पर मुकदमा दायर करने व 60 लाख एक हजार दो सौ रुपए का हर्जाना भरने की अपील के साथ फोटोकापी का मसला कानूनी व बहस के दायरे में आ गया है। लगभग एक हफ्ते बाद न्यायालय के आदेश पर राजेश्वरी फोटोकापी सर्विस-डी स्कूल, क्रिस्टल फोटोकॉपी-एस.आर.सी.सी और प्रदीप जीरॉक्स सेंटर-हिंदू कालेज में छापा मारा गया। इस कार्रवाई के पहले मुकदमा दायर करने वाले इन प्रकाशकों के लोग अलग- अगल समय में राजेश्वरी फोटोकॉपी सर्विस के यहां से जीराक्स मैटेरियल और किताबों की फोटोकापियां इकठ्ठा करते रहे। इन्होंने कोर्ट के सामने 134 किताबों की लिस्ट पेश की जिनकी आंशिक या पूरी किताब की फोटाकापी इन दुकानों से करवाई गई थी। ये किताबें इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान से संबधित हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय पर मुकदमा उसके द्वारा इन दुकानों का पंजीकरण करने के कारण स्वत: ही बन गया है। इन प्रकाशकों के द्वारा कोर्ट में दायर अर्जी के 14 वें बिंदु में विश्वविद्यालय पर आरोप इस प्रकार हैं: प्रतिवादी न. 2 -दिल्ली विश्वविद्यालय, छात्रों को प्रतिवादी न. 1 -राजेश्वरी फोटोकापी, से 'कोर्स पैक' खरीदने के लिए सक्रिय सलाह देता है।' यहां दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक व खरीदने वाले छात्र अमूर्त की श्रेणी में रख दिए गए हैं।

यह सारा मुकदमा कापीराइट एक्ट, 1957, इंटरनेशनल कापीराइट आर्डर, 1999 के तहत दर्ज किया गया है। आमतौर पर उपरोक्त प्रेस या कई अन्य प्रकाशक कापीराइट घोषित करने के बाद उसी पेज पर यह नोट दर्ज करते हैं: 'इस प्रकाशन का कोई भी हिस्सा पुनर्मुद्रित नहीं किया जा सकता। इसे बिना अनुमति के किसी भी तरह से पुनप्र्रकाशित करने या प्रस्तुत करने के किसी भी माध्यम में नहीं रखा जा सकता।' यह घोषणा इसी कापीराइट के उन अन्य प्रावधानों का उल्लेख नहीं करता जिसके तहत प्रस्तुत मैटेरियल का प्रयोग करने की छूट है। मसलन, छात्र व शिक्षक को शोध या निजी या व्यक्तिगत प्रयोग के लिए वह प्रस्तुत किए गए लेखन का प्रयोग इसके अन्य रूपों में किया जा सकता है। (देखें: कापीराइट एक्ट 1957, सेक्शन 52,1,आई व 52,1,ए।) इस कापीराइट एक्ट में किताब के कितने हिस्से का फोटोकापी किया जा सकता है, इसका कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन इस मुकदमें में एक बड़ा मसला शिक्षकों के इशारे पर बनाए जाने वाला 'क्रैश कोर्स' है। यदि आप अर्थशास्त्र के माइक्रो या मैक्रो अर्थशास्त्र का बेसिक कोर्स पढऩा चाहते हैं तो फोटो कापी में यह पूरा संकलन लगभग 300 रुपए में उपलब्ध हो जाता है। पर अगर आप इन्हें एक पुस्तक में लेना चाहें तो इन प्रकाशकों की ओर से ऐसी कोई सुविधा नहीं है। ऐसे में अगर कोई छात्र इन्हें अलग-अलग पुस्तक में लेना चाहे तो वे इतनी मंहगी पड़ती हैं कि सामान्य छात्र उन्हें खरीद ही नहीं सकते। प्रकाशनों के द्वारा दायर मुकदमें में 17 बिंदुओं में से दो-तिहाई इसी क्रैश कोर्स को समर्पित हैं। दिल्ली का शायद ही ऐसा कोई प्रमुख पुस्कालय हो जहां किताबों से फोटोकापी की सुविधा उपलब्ध न हो। ऐसे में यह मुकदमा फोटोकॉपी करवाने की विश्वव्यापी व्यवस्था पर ही बन जाता है।

वस्तुत: यह मुकदमा एक लिटमस टेस्ट की तरह ही है। पहले प्रकाशकों की मुख्य चिंता बेस्ट सेलर किताबों के पायरेटेड या चोर संस्करण छपे जाने को लेकर होती थी। लेकिन अब इन प्रकाशनों की चिंता छात्रों के द्वारा प्रयोग में लाई जा रही अध्ययन सामग्री हो गई है। प्रकाशकों की तरफदारी में द हिंदू में 11 सितंबर, 2012 को लिखे लेख में आकार पटेल की सारी चिंता लेखक व प्रकाशक का हित है। उनका मानना है पुस्तकों के वितरक 40 प्रतिशत हिस्सा अकेले खा जाते हैं। कुछ हिस्सा लेखक को जाता है। सारा पैसा प्रकाशक का लगता है और उसके पैसे की वापसी में काफी कठिनाई रहती है। इसलिए लेखक का विचार है कि विश्वविद्यालय पुस्तकों पर खर्च बढ़ाए, मध्यवर्ग से आनेवाले छात्र, जो किताबें खरीद सकते हैं अपने साथ के दोस्तों के साथ किताबें बांटकर पढ़ें, आदि। हालांकि आकार पटेल को इस बात की भी चिंता है कि आम छात्र 'अच्छे' नहीं हैं और छात्रों का इतिहास 'हिंसक' गतिविधियों से भरा रहा है। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि किस तेजी से विश्वविद्यालयों का निजीकरण हुआ है और उनकी संख्या बढ़ रही है। विश्वविद्यालयों की फीस में पिछले दस सालों में लगभग दस गुना की वृद्धि हो चुकी है। पुस्तकालयों द्वारा की जा रही खरीद यदि पहले जैसी हो, तो भी यह प्रति पुस्तक पांच कापी खरीद से ज्यादा नहीं हो पाती है। यथार्थ में इस संख्या में गिरावट हुई है। ऐसे में एक ही विषय की पढ़ाई कर रहे सारे छात्र, जिनकी संख्या हजारों में होती है, पुस्तकालयों पर निर्भर नहीं हो सकते। तकनीकी, मेडिकल, कंप्यूटर जैसे विषयों पर आने वाली किताबें तेजी से पुरानी पड़ती जाती हैं और उनके जो नए संस्करण आते हैं उनका मूल्य पांच हजार से पचास हजार तक होता है। दर्शनशास्त्र पर देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की लिखी हुई श्रंखला को सेज प्रकाशन ने सजिल्द छापा है पर उसका कुल मूल्य 30 हजार रुपए रखा है। आक्सफोर्ड, कैंब्रिज या वर्सो प्रकाशन की पुस्तकों का मूल्य किसी भी आम छात्र की खरीद ने की क्षमता से परे है।

देश के कुल 15 करोड़ के मध्यवर्ग से आने वाले युवाओं में से सिर्फ तीन प्रतिशत ही ऊंची शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं। इनमें से किताब खरीदने में 'सक्षम' छात्रों की तलाश आकार पटेल की नायाब खोज है। इसके जवाब में द हिंदू में ही प्रकाशित अपने लेख में (19 सितंबर) सुधन्वा देशपांडे ने दिल्ली विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र में एम. ए. की पढ़ाई कर रहे छात्र के बारे में एक अनुमान प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार एक छात्र को 544 संदर्भ देखने पड़ते हैं। इसके लिए उसे 296 पुस्तकों की जरूरत होगी। यदि प्रति पुस्तक का मूल्य औसतन 695 माना जाए तो यह राशि रु. 2,05,720 पर पहुंच जाएगी। किताबों की संख्या या कीमत जितनी बढ़ेगी लागत भी उसी अनुपात में बढ़ती जाएगी। मसलन, जिजेक, फ्रेडरिक जेम्सन, रेमंड विलियम्स की किताबों की कीमत हजार रुपए से नीचे नहीं होती। दर्शन व साहित्य में बहुत से पोस्टमाडर्नस्टि लेखकों की रचनाएं बाजार में उपलब्ध ही नहीं हैं और इसकी खरीद ऑनलाइन पुस्तक विक्रेताओं से विदेशी मूल्य पर करनी होती है। विश्वविद्यालय में शिक्षा का पुराना पैटर्न बदल जाने से भी किताबों की खरीद पर जोर बढ़ा है। बीए से लेकर एम. फिल. तक के कोर्स में हर महीने टर्म पेपर या एसाइनमेंट देने के लिए छात्रों को लगातार किताबों की जरूरत होती है और शिक्षक इसके लिए संदर्भ सूची भी उपलब्ध कराते हैं। यदि छात्र इन सारी पुस्तकों की खरीद में लग जाएं तो न तो उनका पढऩा संभव होगा और न ही उनका आर्थिक बोझ उठाना संभव। यह शिक्षा की वह व्यवस्था है जिसमें छात्रों के जीवन में बाजार बेहद सहज ढंग से घुसता है। साथ ही प्रकाशक पूरे योजनाबद्ध तरीके से इसे अंजाम देता है। कोर्स तय कराने से लेकर किताबों की उपलब्धता तक सुनिश्चित कराने में ये प्रकाशक शिक्षा मंत्रालय से लेकर स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और संबंधित विभागों तक में दखल देते हैं। मांग के अनुसार किताबों को छापते हैं। दरअसल किताब का ट्रिकल डाउन सिद्धांत शिक्षा के बाजारीकरण को नीचे तक खींच ले जाने का ही एक तर्क है।

पिछले दिनों विभिन्न वेवसाइटों पर नि:शुल्क किताब उपलब्ध कराने वाली साइटों को अमेरीका व योरोपीय देशों ने बंद कर दिया। यह प्रकाशकों के दबाव में किया गया। ये साइटें हर तरह की पुस्तकों का पीडीएफ व ई-फारमेट उपलब्ध करा रहे थे। इन साइटों पर काफी पुरानी पुस्तकें भी उपलब्ध थीं। 1990 के बाद ट्रिप्स के माध्यम से प्रापर्टी राइट्स के नियम और शिक्षा के बाजारीकरण के साथ तेजी से किताबों का धंधा बढ़ा है। ऑनलाइन पुस्तकों का कारोबार करने वाले रातों-रात अरबपतियों की श्रेणी में आ गये। इस खरीददारी में मुख्य भागीदारी सरकारी संस्थानों, एनजीओ और निजी विश्वविद्यालय व स्कूलों की श्रृंखला की है जो जनता, छात्रों तथा अभिभावकों का अंधा-धुंध पैसा इसमें लगवा रहेहैं। इसमें एक छोटा हिस्सा उन अकादमिक काम करने वालों का भी है जो शोध व इसके माध्यम से कैरियर बनाने में लगे हुए हैं। इसके बाद पाठकों का एक और छोटा समूह है जो समाज, दर्शन, इतिहास, संस्कृति व चल रही गतिविधियों से वाकिफ रहने या उसमें सक्रिय हिस्सेदारी करने के लिए पढ़ता है। किताबों का विस्तार तीन साल के बच्चे से लेकर बुजुर्ग हो रहे लोगों तक फैला हुआ है। कह सकते हैं कि यह ज्ञान व सूचना का बाजार है। इस पर कब्जा करने के लिए प्रकाशक सारी जोड़-तोड़ कर रहे हैं।

प्रकाशक कमाई के कई तरीके अपना रहे हैं। वे पिछले संस्करणों में चंद हेरफेर कर पुरानी किताबों को नए कापीराइट के तहत छापने में लगे हैं। यह उनके लिए 'चोर संस्करण' नहीं है। मार्क्स की पूंजी का पुनप्रकाशन अभी हाल में एक नए अनुवाद के साथ पेंगुइन ने छापा है। माओ, लेनिन, स्टालिन की किताबें इसी तरह के कापीराइट की दावेदारी से छपकर आई हैं। मॉरिसकानफोर्थ की पुस्तकें इसी तरह के कापीराइट से तीन अलग-अलग प्रकाशनों से छपकर बाजार में हैं। 1990 के बाद क्लासिक पुस्तकों के कारोबार पर कब्जा जमाने वाले इन प्रकाशकों ने मुनाफा बढ़ाने के लिए फोटोकापी करने के अधिकार पर हमला वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ ही कर दिया था। गोकि विश्व स्तर पर अभी यह बहस का मसला है पर पिछले दिनों से ऑनलाइन पुस्तकों की उपलब्धता पर रोक लगाकर पुस्तकों के व्यापार ने अपनी आक्रामकता को बढ़ा दिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में फोटोकापी की दुकानों पर छापे और मुकदमा इसी रणनीति का एक प्रयोग कही जा सकती है। अगर यह सफल होती है तो तीसरी दुनिया में उच्च शिक्षा खतरे में पड़ जाएगी।

बाजार पर कब्जादारी के इस खेल को ज्यादा स्वीकारर्य बनाने के लिए लेखक को भी माध्यम बनाया गया है। प्रकाशकों की ओर से बोलने वालों का तर्क है कि लेखक की 'मेहनत का पैसा' ये फोटोकापी वाले खा जाते हैं। प्रकाशक आमतौर पर किताबों की रायल्टी लेखक को चार प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक देते हैं। जबकि किताब का मूल्य इस तुलना में काफी अधिक होता है। यदि लेखक की सारी मेहनत को पुस्तक में जोड़ दिया जाय तब यह रायल्टी कई गुना बढ़ जाएगी। प्रकाशक मूलत: पूंजी लगाता है जब कि लेखक श्रम से उत्पाद प्रस्तुत करता है। यानी किसी किताब का आधार मूलत: लेखक का श्रम ही है जबकि उसे मिला, अगर मिला तो, सबसे कम है। बाजार के इस साधारण से सूत्र को यदि लागू किया जाय तो सबसे अधिक शोषण इस व्यवस्था में लेखक का ही होता है। वैसे भी लाभ कुल मिला कर श्रम पर ही फलता-फूलता है। दुर्भाग्य से बहुत से लेखक इस प्रकरण पर प्रकाशकों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं।

हिंदी में प्रकाशन बाजार में स्थिति और भी खराब है। शायद ही कोई हिंदी का लेखक हो जो रायल्टी पर अपनी जिंदगी का गुजर बसर कर रहा हो।

ये प्रकाशक क्लासिक का पुनर्मुद्रण कर बेचते समय किसको कितनी रायल्टी देते हैं जिससे पुस्तकों का मूल्य मनमाना वसूल करते हैं। इस पुनर्मुद्रण में उनकी कितनी लागत लग जाती है जिससे मार्क्स की पुस्तक पूंजी का मूल्य 1500 रुपए रख दिया जाता है। या जिजेक की 300 पेज की पुस्तक का दाम 1800 रुपए रख दिया जाता है। विडंबना यह है कि जिन प्रकाशकों ने यह मुकदमा दर्ज किया है वे आक्सफोर्ड व कैंब्रीज जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों से संबद्ध हैं। ये प्रकाशन जिस समय स्थापित किए गए उस समय इनका उद्देश्य छात्रों को वाजिब कीमतों पर स्तरीय पुस्तकें उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी था। और यह काम उन्होंने किया भी। यानी इन प्रकाशन संस्थाओं का जन्म एक आदर्श विचार से प्रेरित था, जिसे 'औपनिवेशिक दृष्टि' का नाम दिया जा सकता था। एडवर्ड सईद के शब्दों में यह 'ओरिएंटलिस्ट स्कूल' था। आज यह अपनी इन सारी खूबियों के साथ खुद कारपोरेट संस्थान की तरह आक्रामक होकर शिक्षा संस्थान में सीधा हस्तक्षेप कर एकाधिकार जमा लेने के लिए उतावले हो रहे हैं। यह हमारे ज्ञान और उसके स्रोत पर अधिकार पर एक हमला है जिसका न तो लेखकों के हित से लेना-देना है और न ही शिक्षा को सुव्यवस्थित करने की दावेदारी से। यह किताबों को बाजार व चंद एलीट संस्थानों तक सीमित करना है। निश्चय ही हमें इसका पुरजोर विरोध करना चाहिए और पुस्तकों यानी ज्ञान को प्राप्त करने के अपने आधारभूत अधिकार को नहीं छोडऩा चाहिए चाहे इसके लिए कितना भी संघर्ष क्यों न करना पड़े।

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