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Wednesday, October 24, 2012

Fwd: [New post] अण्णा और रामदेव का आंदोलन राजनीतिक शून्य की देन



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/23
Subject: [New post] अण्णा और रामदेव का आंदोलन राजनीतिक शून्य की देन
To: palashbiswaskl@gmail.com


कृष्ण सिंह posted: "भारत में पिछले डेढ़-दो साल में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष और 'व्यवस्था में बदलाव' के लिए अचानक दो '�¤"

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अण्णा और रामदेव का आंदोलन राजनीतिक शून्य की देन

by कृष्ण सिंह

anna_ramdev_movementभारत में पिछले डेढ़-दो साल में भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष और 'व्यवस्था में बदलाव' के लिए अचानक दो 'नायक' सामने आए हैं। ये दोनों किसी जनांदोलन या राजनीतिक आंदोलन की उपज नहीं हैं, बल्कि दोनों ने राजनीति तथा राजनीतिक आंदोलन का प्रहसन ही ज्यादा किया है। ये हैं अण्णा हजारे और योग कराने वाले बाबा रामदेव (जिनका खुद का कारोबार करीब 11 सौ करोड़ रुपए का है)। खुद को गैर राजनीतिक कहने वाले अण्णा हजारे और बाबा रामदेव इस समय भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में हैं। भ्रष्टाचार और काले धन के मु्द्दे को लेकर भारतीय राजनीति के भविष्य का एजेंडा तय करना चाहते हैं। आखिर इसके पीछे कारण क्या हैं? इसकी जड़ें कहां हैं? इनके आंदोलन का सबसे बड़ा लाभ किसको मिल रहा है? इन सवालों पर गौर करना जरूरी है।

दरअसल, भारत में आर्थिक उदारीकरण के इन दो दशकों (1991 के बाद से) में जो आर्थिक व्यवस्था बनी और बन रही है, उसने एक ऐसी राजनीतिक और सामाजिक संरचना को निर्माण किया जिसमें देश की अस्सी फीसदी आबादी के ज्वलंत और मूलभूत मुद्दे 'विकास' के नाम पर खुद सरकारों ने धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिए। भारतीय लोकतंत्र में सरकारों का जनकल्याण का जो एजेंडा होना चाहिए था उसे आर्थिक तरक्की की राह में सबसे बड़ी बाधा मानते हुए एक तरह से समाप्त कर दिया गया और जो थोड़ा बहुत बचा है उसे भविष्य में पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाएगा। और 2012 आते-आते सरकार का मुखिया एक तरह से किसी कॉरपोरेट समूह के सीईओ के रूप में तब्दील नजर आने लगा है।

इस दरम्यान एक नया इंडिया बना। जिसकी आर्थिक तरक्की, बढ़ती पूंजी और जीडीपी के मायाजाल की गुलाबी तस्वीर के लिए भारत की अधिसंख्य आबादी को कीमत चुकानी पड़ी, पड़ रही है और आगे भी चुकानी पड़ेगी। इसकी सबसे बड़ी कीमत आदिवासियों और उन इलाकों में रहने वाली गरीब जनता को चुकानी पड़ी और पड़ रही है जहां प्राकृतिक संसाधन- खासकर खनिज संपदा- भरपूर मात्रा में हैं। विशेष आर्थिक जोन (सेज) विकास का पसंदीदा मंत्र है। इस समय पूरे देश में निजीकरण और विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की जबरदस्त लूट मची है। जल, जंगल तथा जमीन को कॉरपोरेट घरानों को बड़ी-बड़ी कर रियायतों और अन्य छूटों के साथ बहुत ही कम दामों पर दिया जा रहा है। देश के कई हिस्सों में विकास की राह में 'कुर्बानी' देने के लिए लोगों को विस्थापित किया जा रहा है। बड़े महानगरों और शहरों की बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए हिमालयी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बड़े बांधों का निर्माण किया जा रहा है। हिमालय क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-शनाप दोहन हो रहा है। इस तथाकथित विकास के निशाने पर स्थानीय जनता, नदियां और जंगल हैं।

आर्थिक उदारीकरण के इन वर्षों में कारखानों-फैक्टरियों के मालिकों की आय में तो जबरदस्त इजाफा हुआ, लेकिन मजदूरों के हालात सबसे ज्यादा खराब हुए। नियमित रोजगार की जगह बड़े पैमाने पर ठेकेदारी प्रथा का चलन बढ़ा। कांट्रेक्ट लेबर का यह चलन सिर्फ कारखानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इंडस्ट्री के अन्य क्षेत्रों में इसका भारी इजाफा हुआ है। जबरदस्त आर्थिक असमानता और उथल-पुथल के इस दौर में मजदूरों यूनियनें पूरी तरह से निष्र्किय कर दी गईं और जिन राजनीतिक ताकतों को इन्हें सक्रिय और संघर्षशील बनाए रखना था उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया। यह सब 'विकास' के लिए श्रम कानून के सुधारों के नाम पर किया गया। हाल ही में दिल्ली से सटे हरियाणा के मानेसर में मारुति सुजुकी फैक्ट्री में हुई हिंसा की घटना इसका ताजा उदाहरण है। हालात के इस हद तक पहुंचने के जो कारण बताए जा रहे हैं उसमें मजदूरों का हताशा का लगातार बढऩा है। प्रबंधन ने चुनी हुई यूनियन को स्वीकृति देने से साफ मना कर दिया। प्रबंधन श्रमिकों की मांगों और शिकायतों का लगातार अनदेखा करता रहा। 18 जुलाई की हिंसक घटना के बाद हुई श्रमिकों की हड़ताल के बाद कंपनी ने पांच सौ नियमित श्रमिकों बर्खास्तगी के बाद प्लांट को फिर से शुरू कर दिया।

विकास के इस नए मॉडल ने किसानों की तरक्की की बजाय उनकी आत्महत्या का रास्ता तैयार किया। खेत मजदूरों की फौज बढ़ी। छोटे और मझौले किसान भविष्य में कितना अपने को बचाए रख सकेंगे, यह कहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि सरकारों द्वारा कॉरपोरेट खेती यानी कांट्रेक्ट फार्मिंग के लिए लगातार रास्ता तैयार किया जा रहा है। खेती का पूरा तरीका बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिसाब से बनाया जा रहा है। इन बीस सालों में शहरी गरीबों का एक बहुत बड़ा नया वर्ग भी सामने आया। अधिसंख्य आबादी जो पहले से ही गरीब थी वह और भी ज्यादा गरीब हुई है।

पूरे दौर में राजनीति, राजनीतिक दल और राजनीतिक आंदोलनों की स्थिति क्या रही, उससे मध्यवर्ग के इस तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को समझने में मदद मिल सकती है। अगर हम आर्थिक नीतियों की बात करें तो शासक वर्ग की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर नहीं है। जहां तक क्षेत्रीय दलों की बात है तो उनका आर्थिक एजेंडा भी कमोबेश इन दोनों जैसा ही है, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति के हिसाब से वे इसमें थोड़ा बहुत हेरफेर करते रहते हैं। पर आर्थिक नीतियों का केंद्रीय एजेंडा जस का तस बना हुआ है। जो दल और नेता दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के राजनीतिक आंदोलन से निकले वे भ्रष्टाचार, परिवारवाद और निरंकुश राजनीति के सबसे भ्रष्ट उदाहरण बन गए। दलितों और पिछड़ी जातियों की तरक्की और विकास के जो वास्तविक मुद्दे और राजनीति है उसे इन नेताओं ने 'पहचान की राजनीति' के संकीर्ण दायरे तक सीमित कर दिया। इन नेताओं की आर्थिक दृष्टि और सोच भी कॉरपोरेट घरानों को अधिक से अधिक लाभ पहुंचाने की ही है। राजनीतिक दलों और उनके अन्य संगठनों ने इस दरम्यान दलितों, शोषितों, आदिवासियों, श्रमिकों, खेत मजदूरों, किसानों, मंहगाई तथा भ्रष्टाचार के सवालों और कॉरपोरेट लूट जैसे सबसे बड़े मुद्दे पर कोई बड़ा और सतत् आंदोलन नहीं चलाया। उल्टा जो लूट तंत्र कॉरपोरेट जगत और राजनीतिक दलों की मिलीभगत से विकसित हुआ उसमें उपरोक्त सभी दल और उनके नेता जमकर गोता लगा रहे हैं।

अब रही बात वामपंथी दलों की। किसी भी कम्युनिस्ट आंदोलन का मूल आधार होते हैं मजूदर, किसान, गरीब और शोषित तथा वंचित तबके। दुखद यह है कि उदारीकरण और विकास के नाम पर चल रहे कॉरपोरेट लूट के इस खतरनाक दौर में वामदलों ने अपनी राजनीति के सबसे प्रमुख बिंदुओं को ही छोड़ दिया। इस समय शासक वर्ग की पार्टियों और वामदलों में अंतर करना बहुत ही मुश्किल है। इन बीस सालों में आंदोलन की ताकतों के रूप में वामदलों की सक्रियता लगातार कम होती गई और अब हालात यह हैं कि उन्होंने हाल के वर्षों में कोई बड़ा आंदोलन कब किया था यह याद करना भी मुश्किल है। इसकी परिणति यह हुई कि बंगाल, केरल, त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ गिने चुने इलाकों को छोड़ दिया जाए तो पूरे देश के राजनीति के

धरातल से वामदल लगभग गायब हैं। भारतीय राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले हिंदी पट्टी से तो वामदलों का आधार पूरी तरह से समाप्त हो गया है। इसका वामदलों को कोई मलाल भी नहीं है, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टियां संसदीय लोकतंत्र की राजनीति में जोड़-तोड़ के खेल में ही ज्यादा उलझी रही हैं। उन्होंने ठोस कार्यक्रमों, नीतियों और वाम-लोकतांत्रिक सिद्धांतों के आधार पर आंदोलनकारी ताकतों का कोई व्यापक मोर्चा नहीं बनाया। तीसरे मोर्चे के नाम जो गठबंधन बना भी वह हमेशा अवसरवादी ही साबित हुआ। संसदीय राजनीति के लिहाज से भी अगर देखा जाए तो हिंदी पट्टी में वामदलों को चुनावों में दो-तीन प्रतिशत से अधिक मत नहीं मिलते हैं। पंजाब, उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल, बुंदेलखंड, बांदा के अलावा बिहार-झारखंड और राजस्थान के बहुत सारे इलाके कभी वामदलों के आधार वाले क्षेत्र थे। वामदलों की निष्क्रियता और राजनीतिक दिवालियापन के चलते इन राज्यों का दलित और पिछड़ी जातियों का बड़ा तबका जातिवादी राजनीति के साथ गोलबंद हो गया। गरीब शासक वर्ग की पार्टियों के साथ विभक्त हो गया। खासकर पंजाब में दलित और गरीब आबादी का एक अच्छा खासा हिस्सा डेरों के साथ चला गया। जहां तक मजदूर यूनियनों, किसान सभाओं, खेतिहर मजदूरों के संगठनों, असंगठित मजदूरों के मोर्चे पर देखा जाए तो वामपंथी दलों की स्थिति ज्यादा खराब है। जहां भी औद्योगिक क्षेत्र हैं वहां उनका आधार बढऩे के बजाय कम ही हुआ है। गुजरात के मेहसाणा से लेकर सूरत और उसके आगे तक के औद्योगिक क्षेत्र को देखें तो वहां मजदूरों के बीच वामदलों का कोई जनाधार ही नहीं है। यही हाल देश के अन्य हिस्सों में भी है। असल में वामदलों, खासकर माकपा को यह लगता है कि अगर मजदूरों के हकों की बात की जाएगी तो उन्हें विकास विरोधी करार दे दिया जाएगा। हकीकत तो यह है कि भारत में नई आर्थिक नीतियों और उसके विकास के मॉडल के चैंपियन कभी वामदल नहीं हो सकते। इसके चैंपियन कांग्रेस और भाजपा जैसे दल ही होंगे। वामदलों का राजनीतिक आधार बढ़ेगा तो वह उन प्रमुख बिंदुओं के आधार पर ही बढ़ेगा जिसके लिए वे जाने जाते हैं।

अगर बीते बीस सालों के पूरे परिदृश्य को राजनीतिक संघर्षों और आंदोलनों के लिहाज से देखें तो पूरा शून्य नजर आता है। यह महाशून्य आर्थिक विकास के नए मॉडल के लिए सबसे ज्यादा मुफीद माना गया। इसके वास्तविक शिल्पकार मनमोहन सिंह थे। जिन्होंने वित्त मंत्री के रूप में इसकी शुरुआत की और बाद में प्रधानमंत्री बनने के बाद इसको आगे बढ़ाया। बीच में जो गैर कांग्रेसी सरकारें आई तो उन्होंने भी मनमोहन मार्का आर्थिक नीतियों को ही सफल बनाने की कोशिश की। भाजपा का इंडिया शाइनिंग का नारा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

दरअसल, उदारीकरण के इस दौर ने जो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचा बनाया उसने सबसे पहले जनसंघर्षों को बदनाम किया और उन्हें विकास के लिए सबसे खतरनाक अवरोधक के तौर पर स्थापित किया। साथ ही साथ राजनीतिक आंदोलनों और संघर्षों के व्याकरण में जिन दो बातों को बेमानी बनाया वे थे व्यवस्था परिवर्तन और क्रांतिकारी बदलाव के शब्द। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि जो शहरी मध्यवर्ग आज अण्णा हजारे और रामदेव का जयगान कर रहा है उसके असली नायक और आदर्श मनमोहन सिंह थे। इस शहरी मध्यवर्ग के लिए मनमोहन सिंह वह मसीहा थे जो उनकी हर महत्त्वाकांक्षा को पूरी कर सकते थे। याद कीजिए जब 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो सबसे ज्यादा खुश यही शहरी मध्यवर्ग था। अब उसे यह लगा कि मनमोहन सिंह के राजनीतिक मॉडल ने आर्थिक नीतियों के सहारे विकास की जो गुलाबी तस्वीर उसके सामने पेश की थी वह उसके सपनों को साकार करने में असमर्थ है। आखिर वीपीओ और आउटसोर्सिंग सेक्टर की भी नौकरी सृजित करने की एक सीमा है। शहरी मध्यवर्ग और खासकर नौजवानों को लग रहा है कि वर्तमान व्यवस्था और उसमें ऊपर से लेकर नीचे तक फैला भ्रष्टाचार उसकी प्रगति, महत्त्वाकांक्षा और सपनों का सबसे बड़ा दुश्मन है। पूरे तंत्र में फैले भ्रष्टाचार और रोजगार के लगातार सीमित होते अवसरों से मध्यवर्ग में निराशा लगातार बढ़ी है। मौजूदा व्यवस्था में अपनी हैसियत, पहुंच और ताकत के हिसाब से जो जितना लूट-खसोट कर सकता है वह कर रहा है। इस लूट तंत्र और भ्रष्टाचार ने राजनीति और राजनीतिक दलों की साख को सबसे न्यूनतम स्तर पर ला दिया है। आम आदमी की नजरों में राजनीति का सीधा सा मतलब है अकूत पैसा कमाने का सबसे बढिय़ा जरिया। तो राजनीति और नेताओं की एक बड़ी जमात की जो साख बहुत नीचे चली गई है और राजनीतिक संघर्षों और आंदोलनों का जो एक खालीपन आया है उसके परिप्रेक्ष्य में अण्णा हजारे और रामदेव के आंदोलनों को देखा जाना चाहिए, क्योंकि इनके आंदोलनों की जड़ें उदारीकरण के इसी दलदल में हैं। अण्णा हजारे और उनके साथियों तथा योगगुरु बाबा रामदेव के आंदोलनों के समय पर खासतौर से गौर करना जरूरी है। इससे बहुत सारे उलझे हुए सवालों के जवाब मिल सकते हैं। पिछले दो सालों में बड़े-बड़े घोटाले सामने आए हैं। टू जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला ब्लॉक के आवंटन तक। कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया कांड से कॉरपोरेट घरानों, सरकारों और नेताओं का नापाक गठजोड़ बेपर्दा हुआ है। लेकिन मजेदार बात यह है इन बड़े-बड़े घोटालों से सबसे अधिक फायदा उठाने वाले कॉरपोरेट घराने भ्रष्टाचार विरोधी और काले धन के खिलाफ चल रहे इन तथाकथित सिविल सोसायटी और बाबाओं के आंदोलनों के केंद्र में नहीं हैं। बल्कि इनके आंदोलनों के निशाने पर मनमोहन सरकार, विभिन्न राजनीतिक दल और नेताओं के एक बड़ी जमात पर है, जिनकी साख पहले ही काफी गिर चुकी है। जिनके खिलाफ जनता खासकर शहरी मध्यवर्ग को गोलबंद करना आसान है। तो क्या बड़ी पूंजी के लूट खसोट और नीतियों को अपने पक्ष में करने के लिए ये दोनों आंदोलन कॉरपोरेट घरानों की आपसी वर्चस्व की लड़ाई का मात्र हथियार भर हैं? यह सवाल इसलिए भी पैदा होता है क्योंकि इन दोनों आंदोलनों, खासकर अण्णा हजारे के आंदोलन को लेकर मीडिया खासा मेहरबान है, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया। जबकि बहुत सारे दूसरे आंदोलनों, जो कि सेज, खनिजों के दोहन, बड़े बांधों और विस्थापन के खिलाफ तथा आदिवासियों के जीवन-मरण से जुड़े सवालों पर जो आंदोलन चलते रहते हैं और देश के कई हिस्सों में कई ज्वलंत मुद्दों को लेकर जो आंदोलन चल रहे हैं उनको लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया का पूरा रवैया नकारात्मक रहता है। इन दोनों आंदोलनों को लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया के

प्यार को लेकर इसलिए बार-बार सवाल उठाता है क्योंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया के बडें हिस्से पर कॉरपोरेट घरानों और बिल्डरों का नियंत्रण है और उन्होंने इन समाचार चैनलों पर अपनी बड़ी पूंजी लगा रखी है। तो क्या इन दोनों आंदोलनों की डोर कॉरपोरेट घरानों और उसके द्वारा नियंत्रित मीडिया के हाथों में है? अगर आप टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले से लेकर वर्तमान में कोयला घोटाले को लेकर टीवी में चलने वाली बहसों को देखें तो उसके विमर्श के केंद्र में वे कॉरपोरेट घराने नहीं हैं जिन्हें इन आवंटनों से फायदा हुआ है। अण्णा हजारे द्वारा भंग की जा चुकी टीम अण्णा के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल, उनके साथियों और समर्थकों ने 26 जुलाई को कोयला घोटाले को लेकर प्रधानमंत्री निवास और अन्य नेताओं के घरों के सामने प्रदर्शन किया लेकिन उन बड़े उद्योगपतियों का घेराव नहीं किया जिनका नाम कोयला घोटाले में सामने आ रहा है। कैग ने आरोप लगाया है कि वर्ष 2004 से 2009 के बीच कोयला ब्लॉकों के आवंटन में पारदर्शिता नहीं बरते जाने से सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचा है। कुछ अखबारों की रिपोर्टों के अनुसार जिन कंपनियों को लाभ पहुंचा है उनमें टाटा ग्रुप, रिलायंस पावर, जिंदल पावर एंड स्टील, अभिजीत ग्रुप, भूषण ग्रुप, इलेक्ट्रोस्टील, आधुनिक ग्रुप, एसआर रुंगटा ग्रुप, सज्जन जिंदल, गोदावरी इस्पात, ओपी जिंदल ग्रुप, जयप्रकाश गौड़ और गोयनका ग्रुप शामिल हैं।

दूसरा, हम अण्णा हजारे और उनके साथियों के लगातार बदलते रुख पर गौर करें तो वह एक जनांदोलन को लेकर उनकी दूरदृष्टि, समझ और नजरिए पर सवाल खड़े करता है। अण्णा और उनकी टीम ने पहले कहा कि उनका आंदोलन पूरी तरह से गैर राजनीतिक है। उन्होंने नेताओं की जमकर खिल्ली उड़ाई। अगले चरण में वह नेताओं से मिले और लोकपाल विधेयक पास कराने के लिए उनका समर्थन मांगा। अंत में उन्होंने कहा कि वह राजनीति के मैदान में उतरेंगे और चुनाव भी लड़ेंगे। हालांकि अण्णा हजारे ने कहा कि वह राजनीति और चुनाव से दूर रहेंगे, पर उनके साथी चुनाव लडऩे तथा राजनीति करने के लिए स्वतंत्र हैं। आंदोलन के दौरान उन्होंने राजनीति और राजनीतिक आंदोलन को एक संकीर्ण दायरे में परिभाषित किया। जबकि वास्तविक अर्थों में अण्णा हजारे और उनके साथियों तथा बाबा रामदेव का आंदोलन भी पूरी तरह से राजनीतिक आंदोलन ही है। उनके आंदोलन में भी राजनीति के मूल तत्व मौजूद हैं। असल में अण्णा आंदोलन के मुख्य शिल्पकार अरविंद केजरीवाल (जो मूलत: एनजीओ चलाते हैं और उनके संगठन कबीर को फोर्ड फाउंडेशन

से काफी बड़ी रकम भी मिली है। दुनियाभर में एनजीओ किसी व्यवस्था परिवर्तन के लिए नहीं बल्कि जनांदोलनों को रोकने के लिए एक सेप्टी बॉल्व के रूप में काम करते हैं और पूंजीवादी व्यवस्था के मॉडल को किसी भी तरह से बनाए रखने का काम ही करते हैं) यह जानते थे कि शहरी मध्यवर्ग की नजरों में राजनीतिक दलों और नेताओं की साख काफी गिर चुकी है इसलिए उन्होंने शुरू में इसे गैर राजनीतिक आंदोलन कहकर लोगों की भीड़ जुटाने में कामयाबी हासिल की। इसके लिए अण्णा हजारे से अच्छा व्यक्ति उन्हें कोई नहीं मिलता। बुजुर्ग होने के साथ उनकी साफ छवि ने काफी काम किया। केजरीवाल, मनीष सिसौदिया और उनके साथियों (इन सभी का रिमोट कंट्रोल कहीं दूसरी जगह नजर आता प्रतीत होता है) ने आंदोलन का एक बॉलीवुडीय प्लॉट तैयार किया, जिसकी परिणति क्या होगी अभी दिखना बाकी है।

जहां तक बात अण्णा हजारे की है तो उनके बारे यही पता था कि उन्होंने कुछ-कुछ अंतराल पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ लड़ाइयां लड़ी हैं। उन्होंने अपने गांव रालेगणसिद्धि में सामुदायिक कार्यों के जरिए कुछ बदलाव किए। जिसकी खासी चर्चा इस दरम्यान मीडिया ने की। हालांकि हजारे की तरह ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिन्होंने अपने गांवों और क्षेत्रों में बदलाव का काम किया। लेकिन राजनीतिक और सामाजिक तौर पर बहुत ही नाजुक और संवेदनशील मसलों पर मध्यवर्ग के इस नायक का रुख मौन या तटस्थता की राजनीति के पक्ष में ही खड़ा दिखाई देता है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस, उसके बाद मुंबई और देश के कई शहरों में हुए दंगों और खासकर 2002 में गुजरात में भाजपा के हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र मोदी के राज में हुए नरसंहार पर गांधीवादी अण्णा हजारे की उस समय क्या राय थी इस बारे में कुछ मालूम नहीं पड़ता है। न ही यह महान गांधीवादी नेता उस समय गुजरात में सांप्रदायिक सौहार्द के लिए रैली करने या धरने पर बैठने के लिए क्यों नहीं गया यह विचारणीय सवाल है। इतना जरूर दिखा कि पहले अण्णा हजारे ने नरेंद्र मोदी की तारीफ की, लेकिन बाद में आलोचना होने पर नेताओं की तरह उसका कुछ खंडन-मंडन जैसा किया। राष्ट्रीयताओं, उपराष्ट्रीयताओं, जातियों, धर्मों वाले विविधतापूर्ण इस देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मसलों पर अण्णा हजारे का एक प्रगतिशील व्यक्ति के बतौर नजरिया दिखाई नहीं पड़ता है।

अब बात योग गुरु बाबा रामदेव और उनके काले धन के खिलाफ आंदोलन की। वह विदेशों में जमा भारतीयों के काले धन की बात तो करते हैं, लेकिन इस देश में काले धन का जो प्रवाह बिना किसी रोकटोक के जारी है उस पर वह मुखर नहीं है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भारत में ब्लैक मनी मार्केट पर महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाले अर्थशास्त्री अरुण कुमार का आकलन है कि भारत ने पिछले साठ सालों में कहीं न कहीं दो से तीन खरब डॉलर काले धन के रूप में गवांया है। इस पैसे का नब्बे प्रतिशत हिस्सा भारत में ही बनाया गया है और वह यही हैं। शेष बचा हुआ दस प्रतिशत पैसा बड़ी सावधानी कपटपूर्ण तरीके से विभिन्न नामों तथा रूपों में दुनिया के टैक्स हेवन स्थानों पर स्थानांतरित किया गया। (तहलका पत्रिका, 25 अगस्त, 2012 का अंक)। असल में भारत में काले धन का एक बड़ा हिस्सा रियल स्टेट के कारोबार में लगा है। पिछले पंद्रह सालों में आप यदि एनसीआर के क्षेत्र में बिल्डरों की बढ़ती पूंजी पर गौर करें तो आपको सारी तस्वीर साफ हो जाएगी। इनमें अधिसंख्य वे बिल्डर और रियल एस्टेट डेवलेपर हैं जो दस-पंद्रह साल छोटे-छोट बिल्डर फ्लैट बनाते थे, न कि अपार्टमेंट। इसके अलावा इन दस-बारह सालों में खुद बाबा रामदेव का जो आर्थिक साम्राज्य अरबों में पहुंचा है उसको लेकर लगातार सवाल बने हुए हैं। '' रामदेव के शुरुआती ऐश्वर्य (धन-संपदा) का अधिकतर हिस्सा आयुर्वेद की दवाइयों की बिक्री के कारण बना। वर्ष 2004 में, जब वह चर्चा में आ रहे थे, उत्तराखंड सरकार ने रामदेव की दिव्य फार्मेसी पर पांच करोड़ रुपए तक की बिक्री कर की चोरी का आरोप लगाया। रामदेव की इस संस्था ने 2500 किलोग्राम से अधिक की दवाइयां बेची, लेकिन 6.5 लाख रुपए की बिक्री ही दिखाई तथा टैक्स के रूप में 53 हजार रुपए ही अदा किए। यह चोरी तो बहुत ही छोटी थी। इसके बाद के वर्षों में धोखाधड़ी, रियल एस्टेट मुनाफाखोरी और टैक्स चोरी के आरोप बड़े पैमाने पर लगे। रामदेव और उनके बहुत ही करीबी साथियों ने सन् 2004 से हरिद्वार, रूड़की और आसपास के जिलों में बड़े पैमाने पर जमीन ली। इनमें से अधिकतर बेनामी लेनदेन के तहत ली गई। व्यापक सुविधाएं तैयार की गई। कृषि भूमि का इस्तेमाल गैर कृषि के उद्देश्यों के लिए किया गया। रूड़की और हरिद्वार के बीच रामदेव की जो ज्यादातर जमीन है वह आचार्य बालकृष्ण (रामदेव का खास सहयोगी, जिसे सीबीआई ने पासपोर्ट के फर्जीवाड़े के मामले में गिरफ्तार किया था), दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट और पतंजलि ट्रस्ट के नाम से खरीदी गई। शनतारशाह गांव (खाता नंबर 87, 103, 120 और 150) के राजस्व रिकार्डों के अनुसार इस भूमि का स्वामित्व ट्रस्टों के पास है और इस पर पतंजलि-1, पतंजलि-2 तथा विश्वविद्यालय का निर्माण किया गया है। हालांकि बदेही राजपुतन के पूर्व प्रधान शकील अहमद ने तहलका को बताया कि इस क्षेत्र में रामदेव के पास एक हजार बीघा से अधिक जमीन है और रिकार्डों में 360 बीघा दर्शायी गई है। तहलका ने राजस्व रिकार्डों की छानबीन की और पाया कि रामदेव, उनके रिश्तेदारों और आचार्य बालकृष्ण ने बेनामी जमीन में बड़े पैमाने पर निवेश किया है। उदाहरण के लिए, राजस्व रिकार्ड दर्शाते हैं कि शनतारशाह गांव का खाता नंबर 229 गगन कुमार के नाम पर पंजीकृत है। यह वहीं गगन कुमार हैं जो आचार्य बालकृष्ण के पीए होते हैं। जिनकी तनख्वाह आठ हजार रुपए है और वह आयकर रिटर्न भी दाखिल नहीं करते हैं। हालांकि यह गगन कुमार वो जमीन खरीदते हैं जिसके बारे में इस क्षेत्र के रियल एस्टेट एजेंटों का दावा है कि इस जमीन की कीमत 15 करोड़ रुपए से अधिक है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। कुछ आकलन बताते हैं कि रामदेव की आरोपित

जमीन और टैक्स धोखाधड़ी तीन सौ करोड़ की है। '' (द बाबा, द ब्लैकनेस एंड द शीप- तहलका, 25 अगस्त 2012)।

योग, धर्म, अध्यात्म और राजनीति का घालमेल करके कालेधन के खिलाफ आंदोलन चला रहे बाबा रामदेव ने 'कांग्रेस हटाओ देश बचाओ' का नारा दिया है। वह अपने आंदोलन को गैर राजनीतिक भले ही कह रहे हों, लेकिन उनके आंदोलन से अगर किसी तरह का फायदा किसी को होता है तो वह है संघ परिवार। दक्षिणपंथी ताकतों, खासतौर पर संघ परिवार से उनकी नजदीकी सर्वविदित है। उनकी राजनीति का नजरिया भी दक्षिणपंथी राजनीति का ही एक हिस्सा है। कुछ दिन पहले वह गुजरात गए थे। जहां उनके साथ मंच पर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे। इस मौके पर रामदेव ने मोदी का जमकर प्रशंसा गान किया। तो ऐसी है बाबा की योग राजनीति।

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