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Monday, October 29, 2012

गुलामगिरी: एक बेहद जरूरी किताब




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गुलामगिरी: एक बेहद जरूरी किताब

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Titleगुलामगिरी : दासता / लेखक, ज्योतिराव गोविन्दराव फुले ; अनुवादक, सुशीला भारती
Title romanization (TRVR)Gulāmagirī : dāsatā / lekhaka, Jyotirāva Govindarāva Phule ; anuvādikā, Suśīla Bhāratī
Title alternative (VTD)Gulamgiri (dasta)
Title alternative (VTD)Gulāmagirī
AuthorsPhule, Jyotirāva Govindarāva
AuthorsBhāratī, Suśīla
Publisherविश्वभारति प्रकाशन
Publisher romanizationViśvabhāratī Prakāśana
Issue Date1994
Issue date romanization1994
Pages97 p.
Size18 cm
Title Language Codehin
Text Language Codehin
LCSHCaste -- India
LCSHDalit -- India
NDC362.25
NoteIn Hindi
Type (NII)Book
Type LocalC-DATS図書
Type local81
Classification書誌
URIhttp://hdl.handle.net/10108/3681
NC IDBA64007127
Call NumberHUB/I2/522307
Book ID0000522307
fullTextURLhttp://repository.tufs.ac.jp/bitstream/10108/3681/1/0001H000.djvu
fullTextURLhttp://repository.tufs.ac.jp/bitstream/10108/3681/2/0002H000.djvu
fullTextURLhttp://repository.tufs.ac.jp/bitstream/10108/3681/3/0003M001.djvu
fullTextURLhttp://repository.tufs.ac.jp/bitstream/10108/3681/4/0004M002.djvu

♦ शेष नारायण सिंह

महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हो रही है, जो जायज भी है। महात्मा जी की इसी किताब ने सत्याग्रह और अहिंसा को राजनीतिक विजय के एक हथियार के रूप में विकसित करने की प्रेरणा दी और 1920 से 1947 तक की भारत की राजनीतिक यात्रा के पाथेय के रूप में हिंद स्वराज में बताये गये मंत्र अमर हो गये।

दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।

1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।

महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।

महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।

महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।

स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।

महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।

स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।

फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।

महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

(शेष नारायण सिंह। मूलतः इतिहास के विद्यार्थी। पत्रकार। प्रिंट, रेडियो और टेलिविज़न में काम किया। 1992 से अब तक तेज़ी से बदल रहे राजनीतिक व्यवहार पर अध्ययन करने के साथ साथ विभिन्न मीडिया संस्थानों में नौकरी की। महात्‍मा गांधी पर काम किया। अब स्‍वतंत्र रूप से लिखने-पढ़ने के काम में लगे हैं। उनसे sheshji@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)



समाज सुधारक "महात्मा"

Monday, 09 April 2012 04:59
user1
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मनुष्यों को उनके हक का एहसास कराने वाले समाज सुधारक =महात्मा फुले

++ महात्मा फुले आज भले ही हमारे बीच में ना हो लेकिन अपने कर्तव्य के रूप में वे निश्चित ही हमारे बीच है,क्योकि जो दुसरो के लिए मरते है वे ही सच्चे रूप में जीते हैऔर अपने कर्तव्य के रूप में अमर हो जाते है मतलब हममें ही होते है.अगर ये बात सच है तो महात्मा फुले भी अपनों कार्यो के रूप में हमारे बीच है,क्या ऐसा नही लगता आपको ? मुझे तो लगता है,इसी विषय के माध्यम से ज्ञानज्योति का चरित्र -चरित्र का आचार विचार और उच्चारो को करीब से जानने और हम उनके कार्य को जिद,जोश और निष्ठा से करे ऐसा ही कई लोगो को लगता हो.लौकी कार्यो से आज भले ही महात्मा फुले हमारे बीच नही फिर भी उनका यह अलौकीय कार्य धीरे-धीरे बढ़ते रहेगा और उनका अस्तित्व हमेशा ही हम में रहेगा.ज्ञान ज्योत प्रज्वलित करनेवाले ज्योतिबा फुले को समता,मानवता,विवेक ,विनय और नम्रता पर प्रकाश डालकर राष्ट्र को स्वायत्ता के ध्येय तक पहुचाने के लिए गतिमान बनाया था.समाज को जाग्रत करनेवाले ,स्त्री शिक्षा और स्त्री शक्ति के मंत्र को गुंजायमान रखने वाले और अश्प्रश्यो के दया और बन्धुता जपनेवाले ज्योतिबा आज होते तो !सचमाने तो क्या अच्छा लगा होगा होता उन्हें !सचमुच आज भी समाज में समता बंधुता नही आ पाई है.यह देखकर वे अस्वस्थ हो गये होते जयंती और पुण्यतिथि ये दोनों ही दिन पुतलो को हार चढ़ाकर ,झूठी पाठ -पूजा करके आडम्बर मचाने वाले तथाकथित कार्यकर्ता और नेताओ की देखकर उन्हें चिढ़ आई होगी.
महात्मा फुले,लोकमान्य तिलक ,महत्मा गाँधी ,जवाहर लाल नेहरु आदी के प्रयत्नों से ही हमारा भारत देश स्वतंत्र हुआ .स्वतंत्र प्राप्त कर करीब ६० साल बीत गए लेकिन आज भी सुराज्य का सपना केवल सपना ही है.वह प्रतक्ष में साकार नही हो पाया है,यह देखकर अस्वस्थ हो गये होते.शिक्षा का दालन स्त्री,शुद्र और अस्प्रश्यो को मुक्त करने वे हमेशा लढ़ते रहे,झगड़ते रहे .जी समाज ने उन्हें ध्येय मार्ग में चलते हुए इस  मार्ग में अड़चन पैदा की ,त्रास दिया ,उपेक्षा की ,उपहास किया उसी समाज की प्रगति हो इसलिए जीवन भर हलाहल पचाने वाले शंकर की तरह वे सत्कर्म का अम्रत देते रहे.एकविसवे शतक की ओर नजर लगाकर बैठे हुए भारत में शिक्षा के तल-तक नही पाया .इस वस्तू इस्थ्ती को नकार नही सकते .आज भी समाज में हक  का एहसास है,लेकिन कर्तव्यो को भूल गए है आज भी दिन-दलित अन्याय सह रहे है,पर हित के लिए आठो पहर जूझने वाला,धजने वाला ,किसान ,कामगार,श्रमजीवी आज भी दरिद्र और अन्याय के चटके का अनुभव में ही मार्ग कर्मन कर रहा है.शहरो को छोड़ दे तो आज भी गावं-खेड़ो में,पहाड़ी इलाको में छोटे -छोटे बच्चो को श्रम कार्य में लगाया जा रहा है जिसकी वजह से वे शिक्षा से वंचित रहते है.शांतता वर्ष में भी शांतता नही उल्टा जिधर-उधर द्वेष,विरोध और अशांत वातावरण है.आज भी साक्षरता का प्रमाण कम है.१८५१ में महात्मा फुले ने अस्प्रश्य बच्चो के लिए प्रथम शाला शुरू की और ज्ञान का दालन खुला किया यह बात सच है लेकिन विषमता और जातिभेद को आज भी पूर्णत मिटटी में नही मिलाया जा सका है,यह वास्तविकता है.
स्वतंत्र भारत के तल के जीव आज भी दुःख और अन्याय की बेडियो को फन कर विचरण कर रहे है,आज भी लडकिया स्कुल जाने लगी है,उन्हें मुफ्त शिक्षा मिलने लगी है,लेकिन गाजर-मुली की तरह फैली झोपड़ पट्टीयो के ना जाने कितने बच्चे शालाओ से वंचित है कीचड़ में है .खेलकूद की उम्र में परिश्रम कर रहे है.प्रदूषित वातावरण में विचरण कर रहे है.आज १२५ साल बीत जाने के बाद भी ज्ञान गंगा सामान्य लोगो तक नही पहुच पाई है.ज्योतिबा अगर होते तो क्या यह परिस्थिति होती ?यह सवाल जब मेरे मन में उठा तब एहसास हुआ की किसी के कंधे पर का  बोझ जब तक दुसरो को अपना ना लगे .ज्योत से ज्योत जलाई जाए इस न्याय से ज्योतिबा के जैसे तेजस्वी समाजसेवक जब तक ज्यादा संख्या में तयार नही होते .तब तक यह सपना सच नही हो सकता.शाला भले ही सक्त निकले हो फिर भी इन बच्चो को शाला में दाखिल करना चाहिए! काम से सहूलियत देकर शिक्षा प्राप्त का मौका देना चाहिए.शिक्षा का प्रचार प्रसार अगर सही-सखोल हुआ तो ही क्रांति होगी."विद्या बिना बुध्धि गई,बुध्धि बिना निति गई,निति बिना गति गई,गति बिना सम्पति गई,और सम्पति बिना शुद्र पीछे हो गए-दब गए "सौ साल पहले की स्थिति आज भी वैसी ही है.मनुष्यों के समुंदर में मानवता खो गई है.समाजिक और आर्थिक विषमता आज भी पूरी तरह ख़त्म नही हो पाई है.बंधू भाव केवल होठो पर ही है.इसी स्थति देखने पर महात्मा फुले जैसे मानव भले क्यों ना अस्वस्थ होते.आज अगर महात्मा फुले हमारे बीच होते तो उन्होंने अपने प्रखर विचारो के पवित्रा लेकर द्वेष,भ्रष्टाचार ,अन्याय,दरिद्रता के अंधकार को दूर करने का प्रयत्न किया होता और फिर इस विषय पर बात करने की शायद बारी भी ना आई होती.
ज्योतिबा के पूर्वज सातारा के समीप के कटगुण गावं में रहते थे .तब उनका नाम "गोंहे "कहा(लगाया) जाता था.आगे गोंहे परिवार पुना के उद्यमी बने.वह ज्योतिबा के पिताजी गोविन्दपंत फूलो का व्यवसाय कर अपनी आजीविका चलाते थे.उन्होंने फूलो के व्यवसाय में कौशल्य,कीर्ति और यश हासिल कर लिया था इसलिए गोंहे सरनेम की बजे उन्हें फुले सरनेम दिया गया.आगे चलकर गोविंदराव सब्जी का व्यवसाय करने लगे .इस व्यवसाय में भी उनकी पैठ बैठ गई.उन्होंने धनकवडी के झगडे घराने की चिमनाबाई से विवाह किया.उन्हें दो बच्चे हुए बड़ा राजाराम,छोटा ज्योतिबा .महाराष्ट्र के आद्य समाज सेवक दलितों के उद्धारक ज्योतिबा फुले का जन्म २० फरवरी १८२७ को पुणे में हुआ.
उम्र के सात वे वर्ष में ज्योतिबा स्कुल जाने लगे लेकिन शुद्रो ने स्कुल में शिक्षा लेना महापाप है,ऐसी बात किसी से बिजली की तरंग की तरह गोविंदराव के कान भरे और गोविनराव ने बच्चो को स्कुल से निकालकर बगीचों में काम पर लगा दिया,मगर यहा भी खाली समय में वे किताबे पड़ते है यह घ्यान में आते ही एक मुस्लिम और एक अंग्रेज ने गोविंदराव को शिक्षा का महत्व समझाया ,इस करण गोविंदराव ने पुनह ज्योतिबा को मिशनरियों की अंग्रेजी शाला में दाखिल किया.अंग्रेजी शाला में पढ़ते -पढ़ते वे भाषा ठीक से समझाने लगे वह पर उन्होंने "राइट ऑफ़ मैन"(मानव के हक)यह थामस पेन नामक लेखक की किताब पढ़ी और उन्होंने हिन्दू धर्म की विषमता ईश्वर निर्मित ना होकर मानव निर्मित है यह बात समझ में आई,इतने ने ही उनके मित्र परांजपे की शादी में बारात में जाते हए एक सनातनी व्यक्ति ने उन्हें "शुद्र" कहकर बारात से निकाल जाने को कहा इस अपमान से उनके मन में गुस्सा निर्माण हो गया और उन्होंने विषमता के विरुद्ध संघर्ष करने का निर्णय लिया.हिन्दू समाज की प्रथा-परम्पराओ की उन्हें चिद आने लगी.ज्योतिबा ने शाला की पाठ्यक्रम पूर्ण करते ही लहुजी वसंतदादा से शारीरिक व्यायम के प्रकार और कुछ शस्त्रों का ज्ञान संपादन किया ,इससे भी उन्होंने कीर्ति संपादन की.१८४७ तक ज्योतिबा फुले बुध्धि से प्रखर बन गए.उन्होंने समाज का सूक्षमता से निरिक्षण किया,इससे उन्हें यह बात ध्यान में आई की हमारा हिन्दू समाज जाती भेद से और विशिष्ठ वर्ग  गुलामी में रहने प्रतिगामी बन गया है.स्त्री और शुद्रो की आलोचना हो रही है इन सब के पीछे स्त्री -बहुजनो का शिक्षा से दूर रहना है,यह उनके ध्यान में आया.इसके ही उन्होंने भाषी जीवन के कार्यो की दिशा निश्चित की,उन्होंने सरकारी नौकरी के पीछे ना लगते हुए समाज कार्य करने की शुरुवात की .समाजिक गुलामगिरी को दूर करना और शिक्षा के द्वार सभी के लिए खुले करने के लिए प्रयत्नशील रहना यह उनके जीवन का ध्येय बन गया.
यह कार्य तत्कालीन परम्परावादी समाज पचा नही पाया.लडकियों की स्कुल शुरू करने की पूर्व तयारी के रूप में उन्होंने सर्व प्रथम अपनी पत्नी को शिक्षित किया सावित्रीबाई ने भी अपने पति के जीवनकार्य को पुरे मन से मदद की.१८४८ में पहिली ,१८५१ में दूसरी और १८५८ में तीसरी शाला की शुरुवात की यह शालाए व्यवस्थित चलने लगी,मेजर कैंडी ने सरकार की ओर से ७५ रूपय अनुदान मंजूर किया.फुले के इस महान समाजिक कार्य के लिए उनका गौरव कर सत्कार किया गया.इसके बाद ज्योतिबा ने समाजिक सुधारना के तरफ विशेष ध्यान देने का निश्चय किया.व्यक्ति स्वतन्त्रता और बुध्धि (पामान्य)क्षमता के लिए वे लढ़ने लगे,सति प्रथा,विधवा पुनर्विवाह,भ्रूण हत्या(छोटे बच्चो की हत्या)इन समाज विघटक बातो का उन्होंने विरोध किया.केवल शाब्दिक विरोध ना करते हुए उन्होंने अहर्नि होकर "बाल हत्या प्रतिबंधक ग्रह "यह संस्था शुरू की.समाज में स्पर्श -अस्पर्श ऐसा भेद भाव पलने वालो का गुस्सा सहन कर अपने घर में बने पानी की टंकी सबके लिए (अस्पर्श )खुला किया .किसानो का एक बड़ा वर्ग सालो-साल से अज्ञान ,गुलामी से त्रस्त हो गया था इसलिए उनके हल ऐसे हो रहे है यह देखकर ज्योतिबा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की अज्ञान ही सभी अनर्थो का मूल है,ऐसी उनकी समझ होने की वजह से उन्होंने समाज को शिक्षा का महत्व समझाने का प्रयास किया.उन्होंने समाजिक सवालों पर जो चिंतन किया था,उस पर उन्होंने लेखन भी किया.शेतक्र्याचा आसुड ,ब्राह्मणाचे कसब,गुलामगिरी,तीसरा रत्न(नाटक )शिवाजीचा पोवाडा इसी तरह सार्वजनिक सत्य धर्म किताब यह उनके लेख प्रसिद्ध हुए,उन्होंने अखंड नाम देकर कुछ अभंग भी लिखे.मूलगामी और तर्क शुध्द ऐसे उनके चिंतन से उपरोक्त पंक्तिया निर्माण हुई,गुलामी की पंक्तिया कुछ ऐसी है ."विद्या बिना बुध्धि गई,बुध्धि बिना निति गई,निति बिना गति गई,गति बिना सम्पति गई,और सम्पति बिना शुद्र पीछे हो गए-दब गए "शिक्षा ही समाज परिवर्तन का प्रभावी माध्यम है,यह ध्यान में आते ही अस्पर्शयो और स्त्रियों के लिए उन्होंने शालाए शुरू की,अन्थाल्य बनवाए,अख़बार निकाले, धर्म जन्म से ना मिलते हुए उसे मनुष्य बुध्धि से स्वीकारना चाहिए.उन्होंने किसानो की व्यथा अंग्रेजो तक पहुचाई,किसान समाज का आधार है,आन्दाता है यह विचार कर जन-जाग्रति की.उनके साठवे वर्ष में मुंबई की जनता उनका नेत्र दीपक स्वीकार कर उन्हें "महात्मा"यह पदवी दी समाजिक समता,आर्थिक न्याय ,शोषण मुक्ति के लिए ज्योतिबा आखरी क्षण तक लढ़े.उनके पूर्वगामी विचारो को कार्य का साथ मिला जैसे की वो मानवता के आधार की बैठक थी.ज्योतिबा के कार्यो की वजह से,और कर्तव्य से समाज की नई पहर हुई.सावित्रीबाई भारत की प्रथम क्रांतिकारी महान स्त्री थी.ज्योतिबा को सावित्रीबाई का साथ  हमेशा प्राप्त हुआ.समाजिक सुधारना की शुरुवात अपने ही घर से करने वाले ज्योतिबा फुले कीतरह समाज सुधारक इस युग में होना असंभव है.सुधारक अग्रणी,सम्पूर्ण महराष्ट्र का भूषण,सुधारको के सुधारक के विचारो ने और हिम्मत वाली व्रती ने समाज को जागृत किया.काल के भी बहूत सामने जाने का उनमे सामर्थ्य उनमे था.दिन दलित और हीन समझे जाने वाले जीवो के लिए उन्नीसवे शतक में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया. मानवी  सामाजिक सुधारना का अवलोकन किया,परिस्थितियों का अवलोकन किया और प्रकाशमान मानवी स्वतन्त्रता के युग की ओर सामाजिक मनुष्य के नवयुग की गवाही देनेवाले आधुनिक भारत के पहले समाज क्रांतिकारक क्रांतिबा ज्योतिबा फुले नामक धधकता लावा तैयार हुआ.क्योकि देश में जातिभेद की सुनामी उग्र रूप में आ चुकी थी.अगर कोई शुद्र नदी किनारे कपड़े धो रहा हो और वहा पर ब्रह्मण आ जाए तो शुद्र को अपने सारे वस्त्र एकत्रित कर ऐसी जगह जाकर धोने पढ़ते थे जहा से ब्रह्मण के शरीर पर पानी की एक बूंद भी ना उड़े.ब्रह्मण के शरीर पर अगर ना जानते हुए भी एक बूंद पानी की पड़ जाए तो ब्रह्मण अपने पास के जड़े बर्तन को शुद्र के सर पर जोर से वार कर्ता था.ब्रह्मण पर शुद्र की छांव भी ना पड़े इसकी पूरी जिम्मेदारी शुद्र की,शुद्र बस्ती में जाने के मार्ग का धोखा भी उठाए यह कानून,ऐसे कानूनों का राज था.जिस कारण कई राज्यों में छल-कपट होते थे.महिलाओ को तो इन प्रथाओ ने बंदी बना दिया था.पुरुष प्रधान देश -समाज के दकियानुसी विचार में फुले कहते है की स्त्री की जात अबला होने की वजह से उसके आगे लोभी और हिम्मतवाले पुरुषो ने स्वय के विचारो को ही सच साबित किया,महिलाए अपना मानवीय हक ना समझ सके इसलिए उन्हें अँधेरे में रखा.
ज्योतिबा को सावित्रीबाई का साथ मिलने पर उन्होंने सोचा की,अब शुद्र -अतिशुद्रो के छल को बंद किया जाना चाहिए,तभी से स्त्री मुहीम का जन्म हुआ.उस समय लोकहितवादी ,न्यायमूर्ति रानडे,प्रो.आगरकर आदी ने प्रचार में आघाडी की थी.फिर भी प्रथा-परम्पराओ को जड़ से खत्म करने तक,इस रूडी परम्परा ने बहुत ही रोड़े दाल रखे थे,इसलिए समाज सुझारने-परिवर्तन की आवश्कता थी.यह फुले जान लिया था,पिछड़ा हुआ ,उपेक्षित,दबा हुआ ,तिरस्क्रत समाज का जीवन समाज सहज नही है,इसे सहज बनाना उनका उदेश्य था इसलिए स्त्री शिक्षा को उन्होंने अपना शास्त्र बनाया,शिक्षा के बिना स्त्रियों का विकास असंभव है,स्त्रियों का समाजिक दर्जा शुद्रो से भी ज्यादा शुद्र है,यह उन्होंने जाना उस समय पुणे के मंगलवारी पेठ में एक क्रिशचन शाला थी वह क्रिश्चनो ने लडकियों के लिए बनवाई थी,लेकिन उच्चवर्णीय लडकिया इस स्कुल में नही जाती थी.ज्योतिबा ने पुणे के भिड़े के बाड़े में लडकियों की स्वतंत्र शाला शुरू की ,जिससे खलबली मच गई.सावित्रीबाई ने स्त्री शिक्षा के विषय में मन से सहभाग लिया,रात्री शाला,स्त्रियों के लिए वस्तीग्रह  बनाए.अपने घर में अभ्र काल्य की स्थापना कर लडकियों का पालन-पोषण किया.बालको का पालनपोषण घर,कौमारी मात्रत्व,पौड कुमारी विवाह ,विधवा प्रथा पुन्र विवाह ऐसे कई मार्गो से ज्योतिबा ने इन प्रश्नों को अपनेपन से सुलझाया उन्होंने कहा "सांप की कुंडली मारकर बैठने की तरह गुलामगिरी का जाल ब्राह्मणों ने हमारे बंधवो के गले में गुन्देलकर कर रखा है"इससे उनकी मुक्तता करने का क्ष्रेय सरकार ने अपने आप ही खत्म कर देना चाहिए.आधुनिक महाराष्ट्र को बनाने के लिए उन्होंने अपने आचरण,विचार,उच्चार और सक्रिय प्रेरणा देकर समाजिक समता की गुडी लगाई.            
वे ६३ वर्ष चंदन की तरह घिसे,प्रवास किया व्याख्यान दिया,लेख लिखे .स्वतंत्र ,समता.लोकशाही,विज्ञान,इह्वाद इन आधुनिक मूल्यों पर भर देकर समाजिक क्रांति की प्रेरणा दी.डा बाबासाहेब आंबेडकर ने उन्हें गुरु माना.सहज सरल भाषा में स्पशटता लाना उन्हें अच्छी तरह आता था.विचारो को क्रतिशिलता का साथ दिया."जैसे बालने बोलावे-तैसे चालने चलावे मंग महंतलीला स्वभावे अंगी बाड़े"इस समर्थ वचन की समर्थता को सिध्द करने वाला महात्मा सभी सुख का दाता,नितित्त्वो का माहिर ऐसे इस महात्मा कठोर कस्टो को सहन करने वाले २८ नवम्बर १९८० में अन्तकाल में विलीन हो गए.उनके स्मृति में विनम्र अभिवादन.तिच्याशी जगाची नाती,म्हंटल तर कण-कण मोती,नाही तर हाती फक्त माटी,मातीतून उगवतो माणूस,मातीतून उगवतो कणीस,मातीची कुस सोन्याची खाण,येता जाताना मातीलाच मान,माती माती पीक रे,जगण्याची भिक दे.=+=विचारक श्री प्रवीण मोरेश्वर बागडे (स्विय सहायक,महारष्ट्र पशु व मत्स्य विज्ञान विध्यापीठ नागपुर )    

Jyotirao Phule

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Jyotirao Govindrao Phule
Other names Mahatma Phule
Born April 11, 1827
Katgun, Satara, British India (present-day Maharashtra, India)
Died November 28, 1890 (aged 63)
Pune, British India (present-day Maharashtra, India)
Era 19th century philosophy
Main interests Ethics, religion, humanism
Influenced by[show]
Influenced[show]
Website http://www.mahatmaphule.com/

Mahatma Jyotirao Govindrao Phule (Marathi: जोतिराव गोविंदराव फुले) (April 11, 1827 – November 28, 1890), also known as Mahatma Jyotiba Phule was an activist, thinker, social reformer, writer, philosopher, theologist, scholar, editor and revolutionary from Maharashtra, India in the nineteenth century. Jotiba Phule and his wife Savitribai Phule were pioneers of women's education in India. His remarkable influence was apparent in fields like education, agriculture, caste system, women and widow upliftment and removal of untouchability. He is most known for his efforts to educate women and the lower castes as well as the masses. He, after educating his wife, opened first a school for girls in India in August 1848. In September, 1873, Jotirao, along with his followers, formed the Satya Shodhak Samaj (Society of Seekers of Truth) with the main objective of liberating the Bahujans, Shudras and Ati-Shudras and protecting them from exploitation and atrocities. For his fight to attain equal rights for peasants and the lower caste and his contributions to the field of education, he is regarded as one of the most important figures of the Social Reform Movement in Maharashtra. Dhananjay Keer, his biographer, notes him as "the father of Indian social revolution".[1]

Contents

Early life

Thomas Paine's book

Jotirao Govindrao Phule was born in Satara district of Maharastra in a family belonging to Mali (Fulmali) caste, caste perceived to be inferior caste by certain sections of the society. His father, Govindrao, was a vegetable vendor. Originally Jotirao's family, known as Gorhays, came from Katgun, a village in Taluka- Khatav, District- Satara. His grandfather Shetiba Gorhay settled down in Poona. Since Jotirao's father and two uncles served as florists under the last of the Peshwas, they came to be known as 'Phules'. (Reference- P.G. Patil, Collected Works of Mahatma Jotirao Phule, Vol-II, published by Education department, Govt. of Maharashtra). His mother died when he was 9 months old. After completing his primary education Jotirao had to leave school and help his father by working on the family's farm. He was married at the age of 12. His intelligence was recognised by a Muslim and a Christian neighbor, who persuaded his father to allow Jotirao to attend the local Scottish Mission's High School, which he completed in 1847. The turning point in Jotiba's life was in year 1848, when he was insulted by family members of his Brahmin friend, a bridegroom for his participation in the marriage procession, an auspicious occasion. Jotiba was suddenly facing the divide created by the caste system.[2] Influenced by Thomas Paine books Rights of Man (1791), Phule developed a keen sense of social justice. He argued that education of women and the 'lower castes' was a vital priority in addressing social inequalities.

Satyashodhak Samaj

On 24 September 1873, Jotirao formed 'Satya Shodhak Samaj' (Society of Seekers of Truth) with himself as its first president and treasurer. The main objectives of the organisation were to liberate the Shudras and Ati Shudras and to prevent their 'exploitation' by the upper caste like Brahmans. Through this Satya Shodhak Samaj, Jotirao refused to regard the Vedas as sacrosanct. He opposed idolatry and denounced the chaturvarnya system (the caste system). Satya Shodhak Samaj propounded the spread of rational thinking and rejected the need for a Brahman priestly class as educational and religious leaders. He was an aboriginal of India and established Satyadharma and never renounced his faith. He was against those Brahmins who were using religion and blind faith of masses for their own monetary gains. But Jyotiba had many Brahmin personal friends and he even adopted a Brahmin boy as his heir. He made a will giving his large property after his death to this Brahmin boy.[citation needed]

Beliefs

When Phule established the Satya Shodhak Samaj, Savitribai became the head of the women's section which included ninety female members[citation needed]. Moreover, she worked tirelessly as a school teacher for girls. Deenbandhu publication, the mouthpiece of the Satya Shodhak Samaj, played an important role in SatyaShodhak Samaj's movement. After Jyotirao's death in 1890 his spirited followers went on spreading the movement to the remotest parts of Maharashtra. Shahu Maharaj, the ruler of Kolhapur moral support to Satya Shodhak Samaj. In its new incarnation party carried on the work of superstition removal vigorously.Many times it degenerated in hate sprouting against Brahmins as a caste.

Jyotirao firmly believed that if you want to create a new social system based on freedom, equality, brotherhood, human dignity, economic justice and value devoid of exploitation, you will have to overthrow the old, unequal and exploitative social system and the values on which it is based. Knowing this well, Jyotirao attacked blind faith and faith in what is given in religious books and the so-called god's words. He tore to pieces the misleading myths that were ruling over the minds of women, shudras and ati-shudras. Yielding to god or fate, astrology and other such rituals, sacredness, god-men, etc. was deemed irrational and absurd.[citation needed]

He also led campaigns to remove the economic and social handicaps that breed blind faith among women, shudras and ati-shudras. Jyotirao subjected religious texts and religious behavior to the tests of rationalism. He characterised this faith as outwardly religious but in essence politically motivated movements. He accused them of upholding the teachings of religion and refusing to rationally analyse religious teachings. He maintained that at the root of all calamities was the blind faith that religious books were created or inspired by god. Therefore, Phule wanted to abolish this blind faith in the first instance. All established religious and priestly classes find this blind faith useful for their purposes and they try their best to defend it. He questions " if there is only one God, who created the whole mankind, why did he write the Vedas only in Sanskrit language despite his anxiety for the welfare of the whole mankind? What about the welfare of those who do not understand this language?" Phule concludes that it is untenable to say that religious texts were God-created. To believe so is only ignorance and prejudice. All religions and their religious texts are man-made and they represent the selfish interest of the classes, which are trying to pursue and protect their selfish ends by constructing such books. Phule was the only sociologist and humanist in his time that could put forth such bold ideas. In his view, every religious book is a product of its time and the truths it contains have no permanent and universal validity. Again these texts can never be free from the prejudices and the selfishness of the authors of such books.[citation needed]

Phule believed in overthrowing the social system in which man has been deliberately made dependent on others, illiterate, ignorant and poor, with a view to exploiting him. To him blind faith eradication formed part of a broad socioeconomic transformation. This was his strategy for ending exploitation of human beings. Mere advice, education and alternative ways of living are not enough, unless the economic framework of exploitation comes to an end.[citation needed]

Religion

Jotirao Phule was an Indian aboriginal. His akhandas were based on the abhangs of Indian aboriginal saint Tukaram[3] (a Moray Shudra.)[4]

His own hero was Chhatrapati Shivaji. He called Shivaji a "...destroyer of the Muslims".[5] He believed that they were a degenerative force like the wild animals.[6]

He was a subscriber to Maharishi Vitthal Ramji Shinde's magazine, Dnyanodaya.[6] (Maharishi Shinde was a Harijan or "untouchable" and a member of the reformist Prarthana Samaj.)

He did not like the casteist of Tamil Nadu using Lord Rama as a symbol of oppression of Aryan conquest.[7]

In year 1873, Jotirao Gavondraw Fule (name as spelled then)- dedicated his book "Slavery" thus:

DEDICATED TO THE GOOD PEOPLE OF THE UNITED STATES as a token of admiration for their sublime, disinterested and self-sacrificing devotion in the cause of Negro Slavery; and with an earnest desire, that my countrymen may take their noble example as their guide in the emancipation of their Sudra Brethren from the trammels of Brahmin thraldom.

Attack on the sanctity of Vedas

Jyotirao Phule's critique of the caste system began with his attack on the Vedas, the most fundamental texts of forward-caste Hindus. He considered Vedas as 'idle fantasies' as 'palpably absurd legends'. He considered Vedas a 'form of false consciousness'.[8]

He believed that the true inhabitants of Bharat are the Astik.[9] He also believed that the Brahmins were outsiders to Hinduism. This was also the view spoken by Keshavarao Jehde.[10]

Merger into Congress party

After Jotiba's death in 1890, there was a period of lull, when the flame lit by Jotiba waned. The Satya Shodhak Samaj movement was totally a social movement and nothing to do with the politics, but the members of Satya Shodhak Samaj dissolved Satya Shodhak Samaj. Phule had a favourable opinion about the British Rule in India at least from the point of view of introducing modern notions of justice and equality in Indian society and taking India into the future. Phule admired British and never spoke of freedom and independence from British rule. His famous quote about the first freedom struggle of 1857 shows his loyalty towards British. He said "Thank god, the mai-bap (father-and-mother-like) British Govt won the war. This [1857 freedom struggle] is a mutiny by brahmin priests and bhikkus."[this quote needs a citation] [bhat bhikshuks].Because at that time Indiam people excepts Brahmins were far from education and not getting any Social benefit but after British rules the situation was better for them.

Social activism

He was assisted in his work by his wife, Savitribai Phule, and together they started the second school for girls in India in 1848, for which he was forced to leave his home. He initiated widow-remarriage and started a home for upper caste widows in 1854, as well as a home for new-born infants to prevent female infanticide. Phule tried to eliminate the stigma of social Untouchability surrounding the lower castes by opening his house and the use of his water-well to the members of the lower castes.

He formed the Satya Shodhak Samaj (Society of Seekers of Truth) on September 24, 1873, a group whose main aim was to liberate the social Shudra and Untouchables castes from exploitation and oppression.

Phule was a member of the Pune municipality from 1876 to 1882.

Connection with women activists

Some of India's first modern feminists were closely associated with Phule, including his wife Savitribai Phule; Pandita Ramabai, a Brahmin woman. Panditia Ramabai who was leading advocate for the rights and welfare for the women in India; Tarabai Shinde, the non-Brahmin author of a fiery tract on gender inequality which was largely ignored at the time but has recently become well-known; and Muktabai, a fourteen-year-old pupil in Phule's school, whose essay on the social oppression of the Mang and Mahar castes is also now famous.

he started "Shiv Jayanti"(Birth day of Chhatrapati Shivaji Maharaj)first time in India. He also discovered the "Samadhi" of Chhatrapati Shivaji Maharaj on Raigad Fort which had disappeared in creepers and climbers. He wrote "Shivajicha powada" an epic poem.

Title of 'Mahatma'

The great social reformer Jotirao Phule was bestowed with the unique title of 'Mahatma' on 11 May 1888 by another great social reformer from Mumbai, Rao Bahadur Vithalrao Krishnaji Vandekar. As the history goes, Jotirao Phule had completed 60 years of his age and 40 years of social service fighting for the rights of the 'bahujans'. To mark this achievement, it was decided by the bahujans and satyashodhak leaders and workers to felicitate Jotirao Phule. Rao Bahadur Vithalrao Krishnaji Vandekar, Narayan Meghaji Lokhande were in the forefront for arranging this function. Rao Bahadur Vandekar and his fellow workers decided to bestow the title of 'Mahatma' on Jotirao Phule for his dedicated service in the cause of humanity. Hon. Sayajirao Maharaj of Baroda, who also was invited for this function, could not attend the function. He had sent a message that Jotirao Phule be bestowed with the title of 'Hindustan's Booker T. Washington'. However, Rao Bahadur Vithalrao Vandekar explained the reasons for bestowing the title of 'Mahatma' on Jotirao Phule justifying it to be apt for the great work and sacrifice of Jotirao Phule for the downtrodden. On 11 May 1888, a function was arranged in the meeting hall of 'Mumbai Deshastha Maratha Dnyati-Dharma Sanstha' at Mandvi, Koliwada, Mumbai for felicitating Jotirao Phule. As the function began, Rao Bahadur Vithalrao Krishnaji Vandekar explained in detail about the work and sacrifice of Jotirao Phule and his struggle for the rights of the downtrodden bahujans. He then garlanded Jotirao Phule and declared that 'we people present here, with swasphurti, are bestowing the title of Mahatma upon Jotirao Phule!'. Thus Jotirao Phule came to be known as Mahatma Jotirao Phule thereafter. Information of the above historic event has been given in detail in the Hindi book 'Yugpurush Mahatma Phule' published by the Government of Maharashtra on 11 May 1993 to mark the 105th anniversary of the above historic function. This book has been written by Murlidhar Jagtap and published by Mahatma Phule Charitra Sadhaney Prakashan Samiti, c/o Higher & Technical Education Dept., Government of Maharashtra, Mantralaya, Mumbai-400032. The then Hon. Chief Minister, Govt. of Maharashtra Shri Sharad Pawar & Co-ordinator, Mahatma Phule Charitra Sadhaney Prakashan Samiti, Govt. of Maharashtra Shri Hari Narke etc. have written foreword/introduction for this book.

Legacy

  • The full length statue inaugurated at the premises of Vidhan Bhavan (Assembly Building of Maharasthra State), by the auspicious hands of then the Chief Minister and other dignitaries.
  • The Crawford Market in Mumbai is officially named after him.
  • Mahatma Phule Krishi Vidyapeeth in Rahuri, Ahmednagar District, Maharastra.

The wholesale vegetable market in Nagpur, Maharashtra (India) is also named after him. Noted playwright G.P. Deshpande's biographical play Satyashodhak (The Truth Seeker)was first performed by Jan Natya Manch in 1992.[11]

Quotes

  • Vidyevina mati geli; mativina neeti geli; neetivina gati geli; gativina vitta gele;

vittavina shudra khachale; itke anartha eka avidyene kele.

विद्येविना मती गेली | मतीविना नीति गेली | नीतीविना गती गेली | गतीविना वित्त गेले | वित्ताविना शुद्र खचले | इतके अनर्थ एका अविद्येने केले!

(Lack of education leads to lack of wisdom, which leads to lack of morals, which leads to lack of progress, which leads to lack of money, which leads to the oppression of the lower classes. See what state of the society one lack of education can cause!)

Followers

Krantisurya Phule has many followers. Dr. Babasaheb Ambedkar, the first minister of law of Republic India and the architect of Indian Constitution was inspired by his noble work towards humanity. Noted freedom fighter and Gandhian Leader like Mukundrao Bhujbal Patil who is Ex. President of Bombay Pradesh Congress Committee was the one who tried to bring the work done by Jyotirao Phule, into a limelight. There are many followers of the work done by him, one among those is Hon. Minister Of Maharashtra Chhagan Bhujbal founder of Mahatma Phule Samata Parishad, an organisation works for social upliftment of dalits and OBCs and Telugu actor Chiranjeevi, who started a political party and stated that he is very much inspired by the work done by Phule especially creating social harmony.M.S.Chandramohan,writer,he is very much inspired by the work done by Phule especially creating social education system. V.G.R Naragoni is an OBC leader in andhra pradesh got inspired by Phule and followed him and conduct deep research on Phule movements and wrote several books on Phule like "Bahujana Vudhyama Radha Saradhulu.

Published works

His famous published works are[12]

  • Tritiya Ratna, 1855
  • Brahmananche Kasab,1869
  • Powada : Chatrapati Shivajiraje Bhosle Yancha, [English: Life Of Shivaji, In Poetical Metre],June 1869
  • Powada: Vidyakhatyatil Brahman Pantoji, June 1869
  • Manav Mahammand (Muhammad) (Abhang)
  • Gulamgiri [full name in English: Slavery: In The Civilized British Government Under The Clock Of Brahmanism],1873
  • Shetkarayacha Aasud (Cultivator's Whipcord), July 1881
  • Satsar Ank 1, June 1885
  • Satsar Ank 2, October 1885
  • Ishara, October 1885
  • Gramjoshya sambhandi jahir kabhar, (1886)
  • Satyashodhak Samajokt Mangalashtakasah Sarva Puja-vidhi, 1887
  • Sarvajanik Satya Dharma Poostak, April 1889
  • Sarvajanic Satya Dharmapustak, 1891
  • Akhandadi Kavyarachana
  • Asprashyanchi Kaifiyat

See also

References

  1. ^ Keer, Dhananjay (1997). Mahatma Jotirao Phooley: father of the Indian social revolution. Popular Prakashan. ISBN 978-81-7154-066-2.
  2. ^ Savitri Bai Phule
  3. ^ Culture And The Making Of Identity In Contemporary India By Kamala Ganesh, Usha Thakkar
  4. ^ "MALI / SAINI COMMUNITY AND BHAKTI(DEVOTION) MOVEMENT IN INDIA". Archived from the original on 2008-04-14.
  5. ^ Caste, Conflict and Ideology: Mahatma Jotirao Phule and Low Caste Protest in By Rosalind O'Hanlon
  6. ^ a b P. 113 Political Ideas in Modern India: Thematic Explorations By Vrajendra Raj Mehta, Thomas Pantham
  7. ^ Sharad Pawar, the Making of a Modern Maratha By P. K. Ravindranath
  8. ^ Aryans, Jews, Brahmins: Theorizing Authority Through Myths of Identity, pp 149, By Dorothy Matilda Figueira, Published by SUNY Press, 2002
  9. ^ P. 13 "Positive discrimination and the transformation of caste in India" By Christophe Jaffrelot
  10. ^ P. 16 "Positive discrimination and the transformation of caste in India" By Christophe Jaffrelot
  11. ^ "Life As Message". Tehelka Magazine, Vol 9, Issue 24. 16 June 2012.
  12. ^ Mahatma Phule

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