भारतीय नीति निर्धारक खुले बाजार के यथार्थ और व्याकरण का अनुकरण करते हुए १९६२ में खत्म एक हारा हुआ युद्ध आज भी जारी रखते हुए क्या साबित करना चाहते हैं?
माना जाता है कि १९६२ के बारत चीन युद्ध के बाद भारतीय राजनय बालिग हो गयी। बालिग होने के बाद उसने दुनिया के बदलते समीकरण के मद्देनजर अपनी दिशा बदलते रहने में कोई कोताही नहीं की। सोवियत संघ के अवसान के बाद यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए न केवल अमेरिकी इजराइली सैन्य गठबंधन में भारत शामिल हो गया बल्कि विकास के समाजवादी माडल छोड़कर खुले बाजार का नवउदारवाद का आलिंगन कर लिया। खुशी खुशी आतंक के विरुद्ध अमेरिकी युद्ध में पार्टनर भी बन गया। इसीतरह तेल युद्ध से काफी पहले से निर्गुट आंदोलन की परंपरा को तिलांजलि देकर मध्यपूर्व और अरब दुनिया से रिश्ते साधते हुए इजराइल से प्रीत की पींगें बढ़ाने की शुरुआत की। रक्षा क्षेत्र में आज भी रूस भारत का सबसे बड़ा सहयोगी है तो बहुत जल्द इजराइल के आगे निकल जाने की संभावना है।भारत में आंतरिक सुरक्षा के मामले में तो न केवल केंद्र सरकार, बल्कि राज्य सरकारें तक इजराइल के प्रति निर्भर होती जा रही है। दलील यह है कि नई विश्व व्यवस्था और वैश्विक अर्थ व्यवस्था के मुताबिक भारत की राजनय तय होती है।इस लिहाज से तो चीनी अर्थ व्यवस्था को नजरअंदाज करने की गुंजाइश ही नहीं बनती।
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
बीजिंग के साथ पिछले दो दशकों से जारी द्विपक्षीय वार्ता को मजबूत करने के बीच भारत, चीन की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति को लेकर सतर्क है। दूसरी ओर, चीन ने भारत को बीजिंग के साथ सैन्य होड़ करने के बजाय आर्थिक संबंध बढ़ाने पर ध्यान देने की नसीहत दी है। भारत-चीन युद्ध की 50वीं सालगिरह के पहले चीनी मीडिया ने कहा है कि भारत को चीन की बढ़ती सैन्य ताकत को नहीं बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था को देखना चाहिए।माना जाता है कि १९६२ के बारत चीन युद्ध के बाद भारतीय राजनय बालिग हो गयी। बालिग होने के बाद उसने दुनिया के बदलते समीकरण के मद्देनजर अपनी दिशा बदलते रहने में कोई कोताही नहीं की। सोवियत संघ के अवसान के बाद यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाते हुए न केवल अमेरिकी इजराइली सैन्य गठबंधन में भारत शामिल हो गया बल्कि विकास के समाजवादी माडल छोड़कर खुले बाजार का नवउदारवाद का आलिंगन कर लिया। खुशी खुशी आतंक के विरुद्ध अमेरिकी युद्ध में पार्टनर भी बन गया। इसीतरह तेल युद्ध से काफी पहले से निर्गुट आंदोलन की परंपरा को तिलांजलि देकर मध्यपूर्व और अरब दुनिया से रिश्ते साधते हुए इजराइल से प्रीत की पींगें बढ़ाने की शुरुआत की। रक्षा क्षेत्र में आज भी रूस भारत का सबसे बड़ा सहयोगी है तो बहुत जल्द इजराइल के आगे निकल जाने की संभावना है।भारत में आंतरिक सुरक्षा के मामले में तो न केवल केंद्र सरकार, बल्कि राज्य सरकारें तक इजराइल के प्रति निर्भर होती जा रही है। दलील यह है कि नई विश्व व्यवस्था और वैश्विक अर्थ व्यवस्था के मुताबिक भारत की राजनय तय होती है।इस लिहाज से तो चीनी अर्थ व्यवस्था को नजरअंदाज करने की गुंजाइ श ही नहीं बनती। पर भारतीय नीति निर्धारक खुले बाजार के यथार्थ और व्याकरण का अनुकरण करते हुए १९६२ में खत्म एक हारा हुआ युद्ध आज भी जारी रखते हुए क्या साबित करना चाहते हैं?चीन अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखता है और भारत की इस कमजोरी को शायद समझता भी है, जिसका कई बार उसे लाभ मिलता है।वह बेमतलब किसी की फटी में टांग नहीं अड़ाता और न ही अपनी संप्रभुता को कोई चुनौती खुले बाजार या वैश्विक अर्थ व्यवस्था की दुहाई देकर स्वीकीर करता है। रेटिंग एजंसियां या अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थान मसलन विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन अपने डंडे से हांककर चीन की वित्तीय या मौद्रिक नीतियों में हेरफेर कर सकते हैं। चीनी बाजार में चीनी शर्तों पर ही कोई पांव पसार सकता है। और हम? बताये कि चीन के नीति निर्धारकों में विश्व बैंक के कितने कारिंदे हैं और चीनी सत्ता में कितने अमेरिकी एजंट हैं? बहरहाल,भारत और चीन दोनों प्राचीन सास्कृतिक देश हैं। दोनों का लंबा इतिहास और संस्कृति है। भारत और चीन दोनों नई उभरती अर्थव्यवस्था हैं और सार्विक विकास दोनों की सामान अभिलाषा है। 21वीं सदी में प्रवेश के बाद दोनों का तेज विकास हुआ।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता होंग लेइ ने 18 अक्टूबर को पेइचिंग में कहा कि इतिहास से छोडे़ गये चीन भारत सीमा मु्द्दे के समाधान के लिए चीन भारत के साथ मैत्रीपूर्ण सलाह मशविरे के जरिये दोनों पक्षों के लिए स्वीकार्य उपाय खोजने की कोशिश करना चाहता है। सीमा मुद्दे के समाधान से पहले दोनों पक्षों को सीमांत क्षेत्र में शांति बनाए रखना चाहिए।अब तक चीन भारत सीमा मु्द्दे का समाधान नहीं हुआ है। इस प्रश्न पर होंग लेइ ने ये बात कही। उन्होंने कहा कि चालू साल में चीनी राष्ट्राध्यक्ष हू चिन थाओ और भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साथ साथ चीन भारत मैत्री और सहयोग वर्ष की घोषणा की। दोनों देशों के संबंधों में स्वस्थ और स्थिर विकास जारी रहा। वरिष्ठ स्तर पर आवाजाही जारी रही है ,विभिन्न क्षेत्रों की आवाजाही और सहयोग मजबूत हो रहा है और महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मुद्दों पर अच्छा संपर्क और समंव्य है। चीन भारत के साथ दोनों देशों के नेताओं के बीच संपन्न समानता लागू कर पारस्परिक रणनीतिक विश्वास बढ़ाने और पारस्परिक लाभ वाला सहयोग गहराने को तैयार है ताकि इस क्षेत्र में विकास को बढ़ावा मिले।
भारत और चीन के बीच हुए युद्ध को 20 अक्तूबर को 50 साल पूरे हो रहे हैं। भारत और चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध को आजतक कोई नहीं भुला पाया है। यह एक ऐसी टीस है जो हर बार उभर कर सामने आ ही जाती है। इसकी कसक आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। इस युद्ध में भारत को जबरदस्त हानि उठानी पड़ी थी। इस युद्ध का असर आज भी दोनों देशों के रिश्तों पर साफतौर से दिखाई देता है।अंग्रेजों से मिली आजादी के बाद भारत का यह पहला युद्ध था। एक माह तक चले इस युद्ध में भारत के 1383 सैनिक मारे गए थे जबकि 1047 घायल हुए थे। 1696 सैनिक लापता हो गए थे और 3968 सैनिकों को चीन ने गिरफ्तार कर लिया था। वहीं चीन के कुल 722 सैनिक मारे गए थे और 1697 घायल हुए थे। 14 हजार फीट की ऊंचाई पर लड़े गए इस युद्ध में भारत की तरफ से महज बारह हजार सैनिक चीन के 80 हजार सैनिकों के सामने थे। इस युद्ध में भारत ने अपनी वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जिसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कड़ी आलोचना भी हुई।
इसके विपरीत चीन की सैन्य शक्ति लगातार बढ़ाने से अमेरिका की बेचैनी भी लगातार बढ़ती जा रही है। वाशिंगटन ने कहा कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में उसकी रूचि किसी खास देश को लक्ष्य बनाना नहीं बल्कि क्षेत्र में शांति और सुरक्षा कायम रखना है।चीन से हेनरी किसींजर की चीन यात्र से पहले अमेरिकी संबंधों का इतिहास हमें मालूम न हो , ऐसा नहीं है। अमेरिकी राजनय ने साम्यवाद के खिलाफ अपनी विश्वव्यापी मुहिम के बावजूद चीनी अर्थव्यवस्था की ताकत को नजरअंदाज करने की भूल नहीं की। अमेरिकी रणनीति और राजनय का ही कमाल है कि चीन ने अपनी महान दीवारें बाजार के लिए खोल दीं। ङम हर मामले में अमेरिका का अनुकरण करने से कोई कोताही नहीं करते, पर चीन अमेरिकी संबंधों की विकास यात्रा के परिप्रेक्षय में चीन से भारत को लड़ाने, और एशिया में चीनी वर्चस्व की काट के लिए भारत के इस्तेमाल करने की अमेरिकी विदेशनीति की काट खोज नहीं पाये।पेंटागन एशिया प्रशांत क्षेत्र को शीर्ष प्राथमिकता के तौर पर देखता है। हमारी नीति इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना है, किसी खास देश को लेकर नहीं। पेंटागन को आशंका है कि चीन की योजना सैन्य क्षेत्र में अमेरिका की तरह क्षमताएं विकसित करने का है।
चीनी मीडिया जो कहें, हम आसानी से उसे नजरअंदाज या खारिज कर सकते हैं। पर सच तो यह है कि १९६२ की लड़ाई के बावजूद, पाकिस्तान , मध्य पूर्व,दक्षिण पूर्व , मध्य एशिया और अरब दुनिया से लगातार मजबूत होते संबंधों के बावजूद पुराने सीमाविवाद के मुद्दे पर अपनी नीति दुहराने के अलावा भारत के आंतरिक मामले में चीनी हस्तक्षेप के सबूत नहीं मिलते। वसंत के वज्रनिर्घोष का स्वागत करने के बावजूद न नक्सल विद्रोह और न ही माओवादी आंदोलन को चीनी मदद मिली। चीन से लगे पूर्वोत्तर के अशांत क्षेत्र में अगर चीनी हस्तक्षेप हुआ होता, तो हालत १९६२ से कितनी बेहतर होती, कहना मुश्किल है। लेकिन अमेरिका की इच्छा मुताबिक अमेरिकी मीडिया की खबरों के जरिये हम छीन के साथ एक छाया युद्ध लड़ रहे हैं। भारतीय बालिग राजनय बाकी दुनिया के लिए चाहे जितनी लचीली हो गयी, भारत चीन संबंधों को बेहतर बनाने के मामले में उसकी कोई भूमिका फिलहाल नजर नहीं आती।अर्थ व्यवस्था बतौर अगर हम अमेरिका. यूरोपीय समुदाय और इजराइल की उपेक्षा नहीं कर सकते, तो चीन की ओर हमारी नजर क्यों नहीं जाती?
भारतीय मीडिया में इन दिनों प्रकाशित हो रहे लेखों पर ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि भारत में कुछ लोग हमारी बढ़ती सैन्य ताकत से चिंतित हैं। उन्हें लगता है कि चीन फिर से हमले जैसी कोई कार्रवाई कर सकता है। लेख में चीनी सेना की ताकत की तारीफ की गई है। इसमें लिखा गया है कि चीन की सेना आधुनिक हथियारों और साजो-सामान से लैस है। ये भारतीय सेना से कहीं बेहतर हैं। चीन ने सीमा की सुरक्षा पर खर्च बढ़ाया है।
अखबार का मानना है कि भारत और चीन के बीच असली खाई अर्थव्यवस्था में है। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। टाइम्स ने लिखा कि भारत को इस खाई को पाटने की ओर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। सैन्य होड़ से कुछ नहीं मिलने वाला। भारत के पूर्व में भी बदलाव आ रहे हैं। म्यांमार आर्थिक सुधार के रास्ते पर निकल चुका है। पूर्वी एशिया में बढ़ रहा आर्थिक समृद्धि का बुखार जल्द भारत पहुंचेगा। भारत की सैन्य ताकत भले ही चीन से उसे सुरक्षित रखे, लेकिन आर्थिक दबाव का सामना उसे करना ही होगा।
चीन द्वारा 1962 को दोहराने की संभावनाओं को नकारते हुये रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने आज कहा कि भारत अब अपनी रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है। नौसेना के एक सम्मेलन से इतर संवाददाताओं से बातचीत में एंटनी ने कहा, 'पूर्वोत्तर में बुनियादी ढांचा हमारी संतुष्टि के मुताबिक नहीं है लेकिन अतीत की तुलना में इसमें काफी सुधार आया है। साल 2012 का भारत उस वक्त का भारत नहीं है। हम अब अपने देश की एक-एक इंच की हिफाजत करने में सक्षम हैं।' एंटनी 1962 युद्ध के 50 साल पूरे होने के मौके पर संवाददाताओं से बातचीत कर रहे थे।
साल 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत को करारी हार का सामना करना पड़ा था। रक्षा मंत्री ने कहा कि भारत ने पूर्वोत्तर राज्यों में बुनियादी ढांचे के विस्तार पर ध्यान केंद्रित नहीं किया था लेकिन, 'अब हम काफी तेजी से आगे बढ़े हैं। अब हमारे आधारभूत ढांचे, संपत्तियों और मानव शक्ति में अतीत की तुलना में काफी गुणात्मक सुधार आया है।' एंटनी ने कहा कि भारत अपने आधारभूत ढांचों का निर्माण जारी रखेगा और सशस्त्र बलों को बेहतरीन उपकरण मुहैया कराएगा और साथ ही साथ सीमा मुद्दे पर चीन के साथ वार्ता जारी रखेगा एवं उसके साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध भी बरकरार रखेगा।
एंटनी ने कहा, 'एक तरफ हम सीमा पर अपनी क्षमता को मजूबत कर रहे हैं जबकि दूसरी तरफ हमने चीन के साथ एक सीमा प्रबंधन तंत्र की स्थापना की है जो अब संतोषजनक तरीके से काम कर रहा है।' साइबर सुरक्षा के मुद्दे पर एंटनी ने कहा कि इस बाबत किसी तंत्र की स्थापना करने की ओर भारत ने काफी देर से रुख किया है लेकिन सरकार के अंदर बेहतर समन्वय कायम है और 'हम अपनी साइबर संपत्तियों की रक्षा के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं।'
अमेरिका में भारत की राजदूत निरूपमा राव ने कैलिफोर्निया-बर्कले विश्वविद्यालय में 07 दिसंबर 2011 को कहा 'चीन हमारा सबसे बड़ा पड़ोसी देश है और पूरी दुनिया में इसकी बढ़ती शक्ति एक वास्तविकता है'। उन्होंने कहा कि मुझसे अक्सर सवाल किया जाता है कि क्या चीन के साथ हमारे रिश्ते प्रभाव या संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा से परिचालित होंगे।
भारतीय दूतावास द्वारा जारी राव के भाषण में कहा गया है कि पिछले दो दशकों से हमने अपने द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने और द्विपक्षीय वार्ता को तेज किया है। इस समय चीन हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। भारत-चीन सीमावर्ती इलाकों में शाति और सौहार्द बना हुआ है। उन्होंने कहा कि हम चीन की बढ़ती हुई सैन्य क्षमता, तेजी से होते सैन्य आधुनिकीकरण और उसकी बढ़ती पहुंच को लेकर भी सतर्क हैं।
एशिया-प्रशांत क्षेत्र वैश्विक सुअवसरों का केंद्र -भारत की राजदूत निरूपमा राव ने एशिया-प्रशात क्षेत्र को वैश्विक सुअवसरों का केंद्र बताते हुए कहा है कि भारत इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों को मजबूत बनाएगा। राव ने भारत, जापान और अमेरिका के बीच होने वाली त्रिपक्षीय बैठक से पहले यह टिप्पणी की है। यह बैठक 19 दिसंबर को वाशिगटन में होगी।
उन्होंने कहा कि अब जबकि हम एशिया-प्रशात सदी में प्रवेश कर रहे हैं, भारत इस क्षेत्र के साथ अपने संबंधों को मजबूत करेगा और क्षेत्र की समृद्धि, स्थायित्व और सुरक्षा में सहयोग करेगा। उन्होंने कहा कि सभी यह स्वीकार कर चुके हैं कि अपने सतत आर्थिक विकास के साथ आज एशिया-प्रशात क्षेत्र वैश्विक सुअवसरों का केंद्र बन गया है। इस समय जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में दबाव दिखाई दे रहे हैं, एशिया के उभरते हुए देश विकास कर रहे हैं और उन्होंने अपने लचीलेपन का उदाहरण दिया है।
राव ने कहा कि भारत, अमेरिका के साथ अपने हितों को बढ़ा रहा है। भारत और अमेरिका दोनों देशों के आर्थिक विकास और समृद्धि को एशिया-प्रशात क्षेत्र से जोड़ा जा सकता है। इस संदर्भ में यह जरूरी है कि आतंकवाद, सुरक्षा और शाति के लिए घातक चुनौतियों का सामना करने के लिए हम मिलकर काम करें।
उन्होंने कहा कि हम अमेरिका और एशिया-प्रशात क्षेत्र के अन्य देशों के साथ मिलकर काम करेंगे। इसके लिए पूर्वी एशिया सम्मेलन [ईस्ट एशिया समिट] जैसे मंचों का सहारा लिया जाएगा, ताकि क्षेत्रीय सुरक्षा में सभी साझीदार अपना सहयोग दे सकें। उन्होंने कहा कि जल्द ही भारत, जापान और अमेरिका के बीच त्रिपक्षीय स्तर की बातचीत होगी।
भारत-चीन युद्ध के 20 अक्टूबर को 50 साल पूरे हो रहे हैं। आठ दिन चले इस युद्ध में भारत के 1383 सैनिक मारे गए थे जबकि 1047 घायल हुए थे। 1696 सैनिक लापता हो गए थे और 3968 सैनिकों को चीन ने गिरफ्तार कर लिया था। वहीं चीन के कुल 722 सैनिक मारे गए थे और 1697 घायल हुए थे। एशिया की इन दो ताकतों के बीच जंग के हालात क्यों बने, रणनीति तौर पर इसके क्या नतीजे हुए, ऐसे तमाम मसलों पर बहस जारी है। लेकिन चीन के ही एक रणनीतिकार ने इस जंग की वजह के बारे में बड़ा खुलासा किया है। भारत का इकलौता गांव जो चीन को आज भी चुनौती देता है।
अमेरिकी अखबार की तरफ से भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मजाक उड़ाये जाने की चर्चा अभी शांत भी नहीं हुई है कि इस बार चीनी अखबार ने भारत के मान मर्यादा पर अंगुली उठा दिया है। चीन के एक सरकारी समाचार पत्र ने कहा है कि भारत का पब्लिक सेक्टर निष्प्रभावी व नपुंसक है। हालांकि चीनी अखबार ने भारत के प्राइवेट सेक्टर की तारीफ की है। प्राइवेट सेक्टर की तारीफ करते हुए चीनी अखबार ने उनके कारोबारी जज्बे की सराहना की है। चीन की सत्तारूढ़ कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित ग्लोबल टाइम्स ने अपने एक लेख में कहा है कि भारत अपने निष्प्रभावी व नपुंसक पब्लिक सेक्टर के चलते आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहा है।
अखबार ने पिछले दो दशक के दौरान एशिया की इन दो बड़ी शक्तियों के प्रगति की तुलना करते हुए कहा है कि पब्लिक सेक्टर की अक्षमता के चलते भारत में उद्यमशीलता की भावना में गिरावट आई है। हालांकि, चीनी दैनिक ने अपने लेख में भारत के प्राइवेट सेक्टर की सराहना करते हुए कहा कि चीन उनसे कुछ सीख सकता है। हालांकि चीनी अखबार के इस लेख पर भारत की तरफ से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं की गई है, लेकिन पब्लिक सेक्टर में इस बयान पर काफी रोष है।
कूटनीतिक जानकार यह बता रहे हैं कि चीनी अखबार का यह बयान भारत के खिलाफ प्रॉक्सी वार का एक हिस्सा है। इससे पहले भी चीनी दैनिक भारत के संबंध में कई आपत्तिजनक लेख छाप चुके हैं। आपको बताते चलें कि भारत की आर्थिक मुश्किलों के मद्दे नजर कई विदेशी अखबारों ने मजाक उड़ाया है। इससे पहले अमेरिका के एक अखबार ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अंडर अचीवर कहा था।
एशिया की इन दो ताकतों के बीच जंग के हालात क्यों बने, रणनीति तौर पर इसके क्या नतीजे हुए, ऐसे तमाम मुद्दों पर आज भी चर्चा जोरों पर है। लेकिन चीन के ही एक रणनीतिकार इसके पीछे माओ का हाथ मानते हैं। चीन के सीसीपी नेता माओ त्से तुंग ने 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध का आदेश दिया था ताकि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी पर उनकी पकड़ बनी रहे।
चीन और भारत के बीच एक लंबी सीमा है जो नेपाल और भूटान द्वारा तीन अनुभागो में फैला हुआ है। यह सीमा हिमालय पर्वतों से लगी हुई है जो बर्मा एवं तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान (आधुनिक पाकिस्तान) तक फैली है। इस सीमा पर कई विवादित क्षेत्र अवस्थित हैं। ज्यादातर लड़ाई ऊंचाई पर हुई थी। अरुणाचल प्रदेश एक पहाड़ी क्षेत्र है जिसकी कई चोटियां 7000 मीटर से अधिक ऊंची है। चीन इन पहाड़ी इलाकों का लाभ उठाने में सक्षम था और चीनी सेना का उच्चतम चोटी क्षेत्रों का कब्जा था। दोनों पक्षों को ऊंचाई और ठंड की स्थिति से सैन्य और अन्य लोजिस्टिक कायरें में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और दोनों के कई सैनिक जमा देने वाली ठंड से मर गए।
पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका, को पहले से ही चीनी नजरिए, इरादों और कायरें पर शक हुआ करता था। इन देशों ने चीन के लक्ष्यों को विश्व विजय के रूप में देखा और स्पष्ट रूप से यह माना की सीमा युद्ध में चीन हमलावर के रूप में था। चीन की अक्तूबर 1964 में प्रथम परमाणु हथियार परीक्षण करने और 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान को समर्थन करने से कम्युनिस्टों के लक्ष्य तथा उद्देश्यों एवं पूरे पाकिस्तान में चीनी प्रभाव के अमेरिकी राय की पुष्टि हो जाती है।
इस बीच, चीन के एक अखबार ने कहा है कि भारत-चीन युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना के उपकरणों की हालत अच्छी नहीं थी और चीन के साजो-सामान से उनकी तुलना नहीं की जा सकती थी। चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना अपने सैनिकों तक रसद पहुंचाने में पूरी तरह विफल रही थी।
अभी हाल ही में वायु सेना प्रमुख एनएके ब्राउन ने कहा था कि 1962 में वायु सेना आक्रामक भूमिका में होती तो परिणाम कुछ और ही होता। ज्ञात हो कि युद्ध के दौरान नेहरू सरकार ने वायु सेना की भूमिका को भारतीय सेना को परिवहन सहायता पहुंचाने तक सीमित कर दिया था। वायु सेना के आक्रामक इस्तेमाल के बारे में नेहरू का मानना था कि यह लड़ाई 'तेज' करने वाला कदम होगा, जो चीन को भारतीय शहरों पर बमबारी के लिए उकसा देगा।
ग्लोबल टाइम्स में छपे एक हालिया लेख में चाइनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज के एक शोधकर्ता ने लिखा है, 'माओ एक जोरदार प्रहार के जरिए नेहरू को महाशक्तियों के प्रभाव के प्रति सचेत करना चाहते थे, ताकि वह होश में आएं और युद्ध खत्म करें। युद्ध सभ्यताओं के बीच के संवाद का सबसे अतिवादी तरीका है।' इस एक उक्ति से युद्ध के बारे में चीनी रुख को समझा जा सकता है : 1962 का संघर्ष पहले किया गया दंडात्मक प्रहार था, जिसका उद्देश्य माओ के शब्दों में भारत से 'कम से कम तीस साल की शांति की गारंटी' था।
1962 भारत के राष्ट्रीय मानस में बसा है। कई दशकों तक यह असंभव था कि बिना आवेश के युद्ध और इस विवाद के पीछे के गहरे मुद्दों की पड़ताल की जा सके। भारत के लिए 1962 एक स्पष्ट राजनीतिक और सैन्य असफलता थी। नेविल मैक्सवेल का आकलन (जो भले ही पूर्वाग्रह-ग्रस्त है) अक्टूबर युद्ध के बारे में सबसे सटीक जानकारी देता है क्योंकि यह युद्ध में सेना के प्रदर्शन के आकलन के लिए बनी गोपनीय सरकारी हेंडरसन- ब्रूक्स रिपोर्ट पर आधारित है।
चीन की पेंकिंग यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के डीन वांग जिसि ने कहा है कि चीन के नेता माओ त्से तुंग ने 1962 में भारत के खिलाफ युद्ध का आदेश दिया था ताकि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी पर उनकी पकड़ बनी रहे। वांग चीनी विदेश मंत्रालय की नीति सलाहकार समिति के भी सदस्य हैं। वांग ने कहा कि खेती आधारित से आधुनिक समाज बनाने का माओ का अभियान 'ग्रेट लीप फारवर्ड' संकट में तब्दील हो गया। हिंसा में लाखों लोगों की जान गई।
बालेन्दु शर्मा "दाधीच" लिखते हैःसन 1962 की शर्मनाक हार की पचासवीं बरसी पर भारत में छिद्रान्वेषण, बहस-मुबाहिसों और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया है। इस शर्मनाक पराजय से कैसे बचा जा सकता था और भविष्य में टकराव की स्थिति में चीन की तुलना में हमारी ताकत कहाँ ठहरती है, यह गहन विश्लेषण का विषय है और व्यावहारिकता की सीमा में रहते हुए ऐसा करना भी चाहिए। बासठ की पराजय 'ऐतिहासिक अपमान' के रूप में हर भारतीय की दुखती हुई रग बन चुकी है। उन पीढ़ियों की भी, जो सन बासठ के बहुत बाद इस दुनिया में आईं। हमने आज तक उन यादों को विस्मृत नहीं होने दिया। यही कारण है कि अब तक हम मन ही मन छत्तीस का रिश्ता रखते हैं।
आज भी भारतीयों की नजर में चीन सबसे बड़ा शत्रु है और ईमानदारी से कहा जाए तो अधिकांश भारतीय उस अपमान का हिसाब-किताब साफ करने की आकांक्षा रखते हैं। यह अकारण नहीं है। चीन ने हमारे गौरवबोध और श्रेष्ठताभाव को निर्णायक चोट पहुँचाई थी। आाम भारतीय नागरिक की दृष्टि में उसने भारत की सदाशयता और मैत्रीभाव को भी चोट पहुँचाई थी और ऐसा विश्वासघात किया था, जिसकी 'हिंदी चीनी भाई-भाई' की रट लगाने वाले भारत को सपने में भी उम्मीद नहीं रही होगी। वह विश्वास ऐसा टूटा कि आज तक वापस बहाल नहीं हो पाया।
दूसरी तरफ चीन से खबर है कि वहाँ बासठ की लड़ाई का कोई जिक्र नहीं हो रहा। पचास साल पूरे होने के मौके पर चीन में अपनी पीठ थपथपाते हुए कोई बड़े भारी समारोह नहीं हो रहे, अपने वीरों की याद में कार्यक्रम आयोजित नहीं किए जा रहे। शायद चीन भारत के घाव में नमक छिड़कने से बच रहा है। या फिर शायद उसके लिए पचास साल पहले की उस घटना का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है। यह भी हो सकता है कि चीन हमें अपनी सदाशयता का संदेश देना चाहता हो। या फिर शायद वह 1962 के युद्ध की छाया से आगे बढ़ गया है? कुछ भी संभव है। क्या यह सब सुनियोजित है? पेईचिंग से आने वाली खबरों के मुताबिक ऐसा नहीं लगता क्योंकि सिर्फ सरकारी तौर पर ही नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टी के स्तर पर भी और गैर-सरकारी स्तर पर भी वहाँ सन बासठ की लड़ाई पर कोई उल्लेखनीय चर्चा नहीं हो रही। मीडिया में भी यह प्रसंग लगभग अनुपस्थित है, हालाँकि किसी युद्ध में विजय के पचास साल का मौका ऐतिहासिक, सैनिक और राजनैतिक महत्व की घटना है, इसमें क्या संदेह है? किसी भी राष्ट्र के लिए, विशेषकर एक बंद समाज के लिए, ऐसी विजय की स्वर्ण जयंती अपनी पीठ ठोंकने का उत्तम अवसर होती है। फिर चीन की चुप्पी का क्या रहस्य है? या फिर यह नए चीन के नए नजरिए का संकेत देती है?
चीन में बासठ की लड़ाई को एक 'छोटे युद्ध' के रूप में देखा जा रहा है जिसकी परिणति उनकी शर्तों पर हुई। बस। कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि चीन भारत के साथ दुश्मनी नहीं चाहता था और भारत-चीन युद्ध दोतरफा इतिहास का दुखद अध्याय है। अब तक चीन सरकार की तरफ से सिर्फ एक बयान सामने आया है- चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता होंग ली का, जिन्होंने कहा है कि चीन शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ रहा है और वह भारत के साथ पूरे दिल के साथ दोस्ताना और सहयोगी संबंध विकसित करना चाहता है। वह सीमा विवाद का समाधान बातचीत के जरिए करना चाहता है। चीन का यह रुख पिछले चार-पाँच साल के उसके नजरिए की तुलना में आश्चर्यजनक लगता है।वांग ने कहा कि इस स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी में माओ की स्थिति कमजोर हो गई। तब सेना पर अपनी पकड़ मजबूत दिखाने के लिए उन्होंने तिब्बत रेजीमेंट के सेना के कमांडर को बुलाया। उससे पूछा कि क्या भारत से युद्ध जीत सकते हो। उसने कहा निश्चित तौर पर। इस पर माओ ने हरी झंडी दे दी।वांग के मुताबिक युद्ध का सीमा विवाद से कोई संबंध नहीं था। दोनों देशों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए उन्होंने यथास्थिति पर समझौता करने की सलाह दी। हथियारों का जबरदस्त होड़ का दौर चल रहा है।
http://visfot.com/index.php/current-affairs/7495-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%A0-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%A0-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BE.html
भारतीय सेना में बदलाव
युद्ध के बाद भारतीय सेना में व्यापक बदलाव आए और भविष्य में भारत को इसी तरह के संघर्ष के लिए तैयार रहने की जरुरत है। युद्ध के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर दबाव आया जिन्हें भारत पर चीनी हमले की आशका में असफल रहने का जिम्मेदार ठहराया गया। भारतीयों देशभक्ति में भारी लहर उठनी शुरू हो गई और युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए कई स्मारक बनाए। भारत पर चीनी आक्रमण की आशका की अक्षमता के कारण, प्रधानमंत्री नेहरू को चीन के साथ होने शातिवादी संबंधों को बढ़ावा के लिए सरकारी अधिकारियों से कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा।
भारतीय राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा कि नेहरू की सरकार अपरिष्कृत और तैयारी के बारे में लापरवाह थी। नेहरू ने स्वीकार किया था कि उस वक्त भारतीय अपनी समझ की दुनिया में ही रहते थे। भारतीय नेताओं ने आक्रमण कारियों को वापस खदेड़ने पर पूरा ध्यान केंद्रित करने की बजाय रक्षा मंत्रालय से कृष्ण मेनन को हटाने पर काफी प्रयास बिताया। भारतीय सेना कृष्ण मेनन के कृपापात्र को अच्छी नियुक्ति की नीतियों की वजह से विभाजित हो गई थी, और कुल मिलाकर 1962 का युद्ध भारतीयों द्वारा एक सैन्य पराजय और एक राजनीतिक आपदा के संयोजन के रूप में देखा गया।
सेना के पूर्ण रूप से तैयार नहीं होने का सारा दोष रक्षा मंत्री मेनन पर आ गया, जिन्होंने अपने सरकारी पद से इस्तीफा दे दिया ताकि नए मंत्री भारत के सैन्य आधुनिकीकरण को बढ़ाबा दे सकें। स्वदेशी स्त्रोतों और आत्मनिर्भरता के माध्यम से हथियारों की भारत की नीति इस युद्ध ने पुख्ता किया गया। भारतीय सैन्य कमजोरी को महसूस करके पाकिस्तान ने जम्मू और कश्मीर में घुसपैठ शुरू कर दी जिसकी परिणिति अंतत: 1965 में भारत के साथ दूसरा युद्ध से हुआ। कुछ सूत्रों का तर्क है कि चूंकि भारत ने पाकिस्तान से अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था इसलिए भारत स्पष्ट रूप से जीता था। लेकिन, दूसरों का तर्क था कि भारत को महत्वपूर्ण नुकसान उठाना पड़ा था।
मौजूदा हालात
चीन ने एक बार फिर भारत को नसीहत देते हुए कहा है कि भारत को 1962 के युद्ध से सबक लेना चाहिए। चीन भले ही शाति चाहता है, लेकिन वह अपनी जमीन की सुरक्षा पूरी दृढ़ता के साथ अमल करेगा। चीन के हाव भाव से यी लगता है। 1962 के युद्ध का मकसद भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अमेरिका और सोवियत संघ के प्रभाव से जगाने के लिए गहरा धक्का पहुंचाना था। चीन के नेता माओत्से तुंग के गुस्से का असली निशाना वाशिगटन और मॉस्को था। 'चाइना वॉन, बट नेवर वाटेड सिनो-इंडियन वार (चीन जीता, लेकिन वह भारत-चीन युद्ध नहीं चाहता)' शीर्षक से छपे इस लेख के लेखक हाग युआन चीन की समाज विज्ञान अकादमी के सेंटर ऑफ वर्ल्ड पॉलिटिक्स के उप महासचिव हैं।
युआन ने लेख में कहा है कि पाच दशक पहले जब चीन कई तरह की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से जूझ रहा था तब 1959 से 1962 के बीच नेहरू ने भारत-चीन सीमा पर और मुश्किलें पैदा कीं। लेखक के मुताबिक चीन ने यह युद्ध भारत से शाति बनाने के लिए छेड़ा था। इसके मुताबिक, 'युद्ध समझौते की एक रणनीति थी न कि लक्ष्य। 50 साल पहले भारतीय सरकार स्वार्थ में अंधी हो गई थी और चाहती थी कि चीन कॉलोनियल शक्तियों की तय की गई सीमा को स्वीकार ले। लेकिन उसे नामंजूर कर दिया गया। लेख में आगे कहा गया है कि आज दोनों देशों को इस युद्ध के सबक और अपने प्राचीन संबंधों से सीखना चाहिए। वे अपनी जमीन की रक्षा भी करेंगे। लेख से यह बात तो साफ हो गई थी कि सीसीपी के माओ नेता सत्ता पर पकड़ बनाने के लिए ही यह युद्ध कराया था।
1962 की लड़ाई के बाद, चीन ने भारत के साथ कूटनीतिक संपर्क सामान्य करने के लिए कुछ शतर्ें थोप दीं थी। पहली यह कि वह आधिकारिक तौर पर इस जुमले का इस्तेमाल नहीं करेगा कि भारत को चीन से खतरा है। दूसरी यह कि ताइवान के साथ भारत किसी भी तरह का संबंध विकसित नहीं करेगा। दोनों के बीचसंबंधों की बेहतरी के लिए शाति को मौका दिया जाना चाहिए।
लड़ाई की कहानी
एशिया के दो सबसे बड़े देशों के बीच हमेशा के लिए एक अविश्वास की खाई पैदा करने वाले 1962 के भारत-चीन युद्ध को 50 साल पूरे हो रहे हैं. इस युद्ध की पृष्ठभूमि में घटी वे घटनाएं जिन्होंने इसका नतीजा तय किया. बीजी वर्गीज की रिपोर्ट.
भारत-चीन युद्ध को पूरी तरह से समझने के लिए भारत की आजादी, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) के निर्माण और उसके तिब्बत पर नियंत्रण की घटनाओं तक जाना होगा. या शायद इनके पहले हुई शिमला बैठक तक- जब भारत सरकार, चीन और तिब्बत, इन तीन पक्षों के बीच बैठक हुई थी जिसमें मैकमेहॉन लाइन का निर्धारण किया गया था. चीन ने ही इस समझौते की पहल की थी, लेकिन बाद में उसने ही यह कहते हुए इस पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था कि वह आंतरिक तिब्बत और बाहरी तिब्बत के लिए निर्धारित की गई परिभाषा से असहमत है. मार्च, 1947 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार ने एशियाई देशों के बीच संबंध बेहतर करने के लिए दिल्ली में एक बैठक आयोजित की. इसमें तिब्बत और चीन दोनों को आमंत्रित किया
गया था. 1949 में जब चीन या पीआरसी अस्तित्व में आया तब भारत शुरुआती देशों में था जिसने उसे तुरंत मान्यता दी और उसके बाद 'एक चीन' की नीति को अपना लिया.
1951 में चीन ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया. तिब्बत को स्वायत्तता देते हुए 17 बिंदुओं का समझौता तैयार किया गया जिसके मुताबिक उसे चीन की संप्रभुता में रहना था. इसके बाद समस्याविहीन भारत-तिब्बत सीमा समस्याग्रस्त चीन-भारत सीमा में बदल गई क्योंकि इसके बाद तिब्बत के क्षेत्र को लेकर चीनी दावों की छाया भारत के अधिकार के तहत आने वाले कुछ हिस्सों तक भी पहुंच गई थी. भारत और चीन अधिगृहीत तिब्बत के बीच संबंधों से जुड़ी संधि भारत और चीन के बीच 1954 में हुई. भारत ने तिब्बत पर अपने सभी अधिकार छोड़ दिए, लेकिन इसके बदले में कोई मांग या शर्त नहीं रखी. 'हिंदी-चीनी, भाई-भाई' के इसी दौर में नेहरू ने पंचशील सिद्धांतों की नींव रखी. उनकी सोच थी इस तरह से सीमा को सुरक्षित रखा जा सकता है.
दो साल बाद 1956 में दलाई लामा का भारत आगमन हुआ. वे गौतम बुद्ध के प्रबोधन की 2,500वीं वर्षगांठ समारोह में भाग लेने भारत आए थे. दलाई लामा ने उस समय यह कहते हुए वापस तिब्बत लौटने से मना कर दिया था कि चीन स्वायत्तता संबंधी अपने वादे पर अमल नहीं कर रहा है. उसी साल चीन के राष्ट्र प्रमुख चाऊ एन लाऊ भारत यात्रा पर आए और उन्होंने नेहरू से अपने अच्छे संबंधों के आधार पर दलाई लामा को सहमत किया कि वे वापस ल्हासा चलें. लाऊ ने दलाई लामा को आश्वस्त किया कि चीन 17 बिंदुओं वाला समझौता ईमानदारी से लागू करेगा.
1954 में जब नेहरू चीन यात्रा पर थे तो उन्होंने चाऊ एन लाई का ध्यान कुछ गलत नक्शों की तरफ दिलाया जिनमें मैकमेहॉन लाइन और जम्मू-कश्मीर की जॉन्सन लाइन स्थायी सीमा की तरह दर्शाई गई थी (जबकि पहले के नक्शोंं में इसे बिंदुवार लाइन या अस्पष्ट लाइन की तरह दिखाया जाता था). चाऊ एन लाई ने सफाई दी कि चीन को पुराने नक्शे सुधारने का अभी समय नहीं मिला लेकिन जैसे ही उचित समय आएगा यह काम पूरा कर लिया जाएगा. नेहरू को लगा कि चीन का यह रवैया नक्शों को लेकर भारतीय सोच पर सहमति की मोहर है. हालांकि उन्होंने 1956 में चाऊ एन लाई की भारत यात्रा के दौरान एक बार फिर उनका ध्यान इस तरफ दिलाया लेकिन इस पर ज्यादा जोर नहीं दिया. नेहरू ने उस समय अपने एक बयान में स्वीडन के एक बेहद काबिल राजनयिक के शब्दों का उल्लेख किया था जिसके मुताबिक क्रांति का रास्ता अपनाने के बावजूद चीन को अभी 20-30 साल गरीबी दूर करने और अपना दबदबा हासिल करने में लगेंगे इसलिए इन सालों में चीन को अलग-थलग करने के बजाय उसके साथ मैत्री संबंध विकसित किए जाएं. हालांकि 1960-62 में नेहरू ने उसी राजनयिक के शब्दों की व्याख्या कुछ इस तरह की कि अपने शुरुआती 20-30 साल चीन के लिए सबसे खतरनाक और उथल-पुथल भरे रहेंगे और फिर उसके रुख में परिपक्वता और नरमी आएगी. नेहरू के ये दो विचार कुछ हद तक चीन पर उनकी समझ की अस्पष्टता दिखाते हैं.
1956-57 में चीन ने अक्साई चिन में सड़क का निर्माण किया, लेकिन 1958 में यह बात तब उजागर हुई जब चीन की एक पत्रिका में छपे एक नक्शे में इसे चिह्नित किया गया. भारत ने इस पर अपना विरोध दर्ज कराया. बाद में भारत-चीन सबंधों पर जारी हुए श्वतेपत्रों में यह घोषणा की गई कि अक्साई चिन 'अविवादित भारतीय क्षेत्र' है. लेकिन भारत इस पर भी चिंता जता रहा था कि चीन के सैनिक बिना 'उचित वीजा और दस्तावेजों' के इस इलाके में आते-जाते रहते हैं. इससे कहा जा सकता है कि नेहरू उस समय भी लचीली नीति अपनाकर मोलभाव करते हुए शांतिपूर्ण समाधान के लिए तैयार थे. हां, लेकिन संसद और जनता को इस बारे में कुछ नहीं पता था.
बाहर से कोई संकेत नहीं दिख रहा था लेकिन नेहरू अपने रुख में बदलाव कर रहे थे. अशोक पार्थसारथी के मुताबिक उनके पिता दिवंगत जी पार्थसारथी (जीपी) को 1958 में बीजिंग में भारतीय उच्चायुक्त नियुक्त किया जा रहा था. मार्च में बीजिंग जाने से ठीक पहले वे नेहरू से मिलने पहुंचे. जीपी से नेहरू ने तब कहा था, 'जीपी, विदेश मंत्रालय ने तुमसे क्या कहा है? हिंदी-चीनी भाई-भाई? तुम इस पर भरोसा करते हो? मुझे चीनियों पर रत्ती भर भरोसा नहीं है. वे धोखेबाज, पूर्वाग्रही, अहंकारी और अड़ियल हैं. तुम्हें वहां लगातार सतर्क रहना होगा. विदेश मंत्रालय के बजाय वहां से सभी टेलीग्राम सिर्फ मुझे भेजना. मेरे इस निर्देश का जरा भी जिक्र कृष्ण (तत्कालीन विदेश मंत्री- वीके कृष्ण मेनन) से मत करना. मुझे पता है कि हम तीनों एक ही तरह के विचार रखते हैं फिर भी कृष्ण को लगता है और जो गलत है कि कोई भी कम्युनिस्ट देश हमारे जैसे गुटनिरपेक्ष देश के साथ खराब संबंध नहीं रख सकता.'
15,000 फुट जैसी ऊंचाइयों पर तैनात जवान वहां हल्के स्वेटर और किरमिच के जूते पहने हुए थे, जबकि ऐसी ऊंचाई पर तो भयानक ठंड भी एक दुश्मन होती है
यह इस बात का एक और सटीक उदाहरण है कि किस तरह नेहरू की सोच चीन को लेकर विपरीत ध्रुवों पर चलती थी. इसी साल चीन ने अरुणाचल प्रदेश के लॉन्गजू और खिजेमाने में घुसपैठ कर दी. इसके बाद लद्दाख के कोंग्का पास, गैलवान और चिप चाप घाटी में चीन की सेनाएं आ गईं. टाइम्स ऑफ इंडिया में ये खबरंे काफी पहले से आ रही थीं. पूरे देश में यह मुद्दा काफी गर्म था. मैं सेना के जनसंपर्क अधिकारी राम मोहन राव के साथ लद्दाख में बन रही सड़कों के मुआयने के लिए आयोजित दौरे में शामिल था और तब ही मुझे उड़ती-उड़ती खबरें मिलीं कि पूर्वी सीमा पर कुछ उथल-पुथल चल रही है. आखिर में हम चुशूल पहुंचे. यहां हवाई पट्टी सुरक्षित थी और पैंगांग झील भी.
तिब्बत में 1959 में खंपा विद्रोह भड़कने के बाद दलाई लामा तवांग के रास्ते भारत आ गए. सरकार ने उन्हें और उनके साथ आए तकरीबन एक लाख लोगों को शरणार्थी का दर्जा दे दिया. भारत-चीन संबंधों को एक नया मोड़ देने वाली इस घटना से चीन हतप्रभ और आक्रोशित था. इसके अलावा भारत पर चीन का संदेह बढ़ने की कुछ और वजहें भी थीं. भारत ने नंदा देवी पर्वत पर अमेरिका को एक जासूसी उपकरण लगाने की इजाजत भी दे दी थी ताकि तिब्बत में चीन की हरकतों पर नजर रखी जा सके.
चीन ने अब अपनी सेना और नक्शानवीसों को लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश की ओर आगे बढ़ने का आदेश दे दिया था.
उस समय सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया चीन की रणनीतिक योजना के हिसाब से अपनी योजनाएं बना रहे थे. लेकिन कृष्णा मेनन और उनके सहयोगी बीएन मलिक, जो कि आईबी के मुखिया थे और चतुर अधिकारी माने जाते थे, का मानना था कि भारत की सुरक्षा को असली खतरा पाकिस्तान से है. कृष्ण सेना अधिकारियों के प्रोमोशन, पोस्टिंग और सैन्य रणनीति में लगातार बढ़ते हस्तक्षेप से व्यथित थिमैया ने 1959 में नेहरू को अपना इस्तीफा दे दिया था. गंभीर संकट की आशंका भांपते हुए नेहरू ने थिमैया को इस्तीफा वापस लेने के लिए सहमत कर लिया. और दुर्भाग्य से उन्होंने अपने अधिकारों से समझौता होने के बावजूद इस्तीफा वापस ले लिया. मलिक और मेनन ने नेहरू के दिमाग में यह बात बिठा दी थी कि एक ताकतवर सेना प्रमुख कभी भी तख्तापलट कर सकता है (जैसा कि अयूब खान ने पाकिस्तान में किया था). नेहरू भी तब तक गंभीरता से यह नहीं मान रहे थे कि उत्तर की तरफ से भारत की सुरक्षा को कोई खतरा हो सकता है. हालांकि 1960 के दशक में उन्होंने संसद में कई बार उत्तरी सीमा को लेकर चिंता जाहिर की, लेकिन फिर भी उन्होंने इसे सुरक्षित करने के लिए जरूरी सैन्य तैयारियों पर उतना ध्यान नहीं दिया.
एक दशक बाद सीमा सड़क संगठन के तहत सीमावर्ती इलाकों में सड़कें बनाने का काम शुरू किया गया. इन इलाकों में सैन्य चौकियां भी बनाई गईं. लेकिन इनका कोई खास सैन्य महत्व नहीं था. लद्दाख में बनी 43 सैन्य चौकियों में से ज्यादातर ऐसी थीं कि किसी युद्ध के समय इनको वक्त पर सैन्य मदद भी उपलब्ध नहीं करवाई जा सकती थी. खानापूरी जैसी इन चौकियों की स्थापना का महत्व केवल राजनीतिक था. दरअसल नेहरू तब संसद में यह दावा करते थे कि भारत की एक इंच जमीन भी असुरक्षित नहीं छोड़ी जाएगी. लेकिन उन्होंने ही अक्साई चिन में चीनी कब्जे को ज्यादा तूल न देते हुए कहा था कि आबादी विहीन यह क्षेत्र बंजर है जहां 'घास का एक तिनका भी नहीं उगता.' अगस्त में नेहरू ने दावा किया कि भारतीय सैन्य बलों ने लद्दाख में चीनी कब्जे के कुल 12,000 वर्ग मील इलाके में से 2,500 वर्ग मील हिस्सा वापस ले लिया है. 15 अगस्त, 1962 को अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया की टिप्पणी थी कि चीन को लेकर सरकार की नीति चीनी व्यंजन चौप्सी जैसी है जिसमें थोड़ा-थोड़ा सब कुछ है. सख्ती भी, नरमी भी. अखबार के शब्द थे, 'हमें बताया जाता है कि सीमा पर स्थिति गंभीर है और नहीं भी. हम उन पर भारी पड़ रहे हैं और वे भी हम पर भारी पड़ रहे हैं. कभी कहा जाता है कि चीनी पीछे हट रहे हैं और फिर कहा जाता है कि वे आगे बढ़ रहे हैं.'
थिमैया का कार्यकाल खत्म हो रहा था, लेकिन इसके बाद भी पर्दे के पीछे से रक्षा नीति का संचालन जारी था. सेना प्रमुख के लिए थिमैया की पसंद पूर्वी कमान के कमांडर लैफ्टिनेंट जनरल एसपीपी थोराट थे लेकिन इस पद पर पीएन थापर को नियुक्त कर दिया गया. थोराट सरकार के सामने एक दस्तावेज प्रस्तुत कर चुके थे जिसमें कहा गया था कि नॉर्थ ईस्ट फ्रंन्टियर एजेंसी (नेफा यानी अरुणाचल प्रदेश) के लिए हिमालय पर्वत श्रेणी पर प्रथम सुरक्षा पंक्ति बनाने के अलावा भारत को असम तक सुरक्षा व्यवस्था तगड़ी करनी चाहिए ताकि किसी हमले की स्थिति में बेहतर तरीके से तैयार रहे.
हमारा1960 में गोवा को मुक्त कराने के अभियान के दौरान एक विचित्र बात हुई. उस समय जनरल केपी कैंडिथ के नेतृत्व में सेना की 17वीं इन्फैंट्री डिवीजन को गोवा में घुसने का काम सौंपा गया था. सेना के नए चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल भी इस डिवीजन के साथ थे. कौल और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने दो अलग-अलग समयों पर अभियान शुरू करने का एलान किया. किसी भी दूसरी परिस्थिति में इसके परिणाम विनाशकारी होते लेकिन गोवा को भारतीय सेना ने आसानी से फतह कर लिया. इससे शीर्ष नेतृत्व को यह भ्रम हो गया कि बिना किसी खास तैयारी के भी सेना चीन से लोहा ले सकती है. कौल को प्रमोशन देकर जब लेफ्टिनेंट जनरल और उसके बाद चीफ ऑफ जनरल स्टाफ बनाया गया था तो इस पर काफी विवाद हुआ था. दरअसल वे राजनीतिक रूप से प्रभावशाली लोगों के करीब माने जाते थे और कहा जाता था कि उन्हें शीर्ष नेतृत्व के लायक अनुभव नहीं था.
इन सब घटनाक्रमों के बीच नेहरू ने 12 अक्टूबर, 1962 को बयान दिया कि उन्होंने भारतीय सेना को 'चीनियों को बाहर निकाल फेंकने' का आदेश दे दिया है. दिलचस्प है कि दिल्ली के पालम एयरपोर्ट पर यह बयान देते समय वे कोलंबो की यात्रा पर रवाना हो रहे थे.
इससे पहले आठ अक्टूबर को एक नई फोर्थ कोर का गठन किया गया था जिसका मुख्यालय असम के तेजपुर में था. इसका उद्देश्य था पूर्वोत्तर में सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करना. पहले ले. जनरल हरबख्श सिंह को इसका मुखिया बनाया गया मगर जल्द ही उन्हें 33 कोर की जिम्मेदारी देते हुए सिलीगुड़ी भेज दिया गया और इसके बाद उन्हें फिर वेस्टर्न कमांड का जिम्मा दे दिया गया. फोर्थ कोर की जिम्मेदारी कौल को दी गई. लेकिन ऐसा लगता था कि नई दिल्ली में अपने राजनीतिक संपर्कों की वजह से वे खुद का अधिकार क्षेत्र इस जिम्मेदारी से भी ऊपर समझते थे. इससे नेतृत्व से जुड़े विवाद और गहरा गए. कई बार ऐसा लगता था कि सब मुखिया हैं और कई बार ऐसा लगता था कि नेतृत्व गायब है.
इस बीच सैन्य सलाह के खिलाफ और जमीनी हकीकतों के प्रतिकूल नेहरू के आदेश का पालन करते हुए जॉन दलवी के नेतृत्व में एक ब्रिगेड को थाल्गा चोटी (जिसे चीन मैकमेहॉन रेखा से काफी आगे आकर अपना बता रहा था) के नीचे नमका चू नदी के पास तैनात कर दिया गया. एक बार कड़ा मुकाबला करने के बाद ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा और चीनी सेना 25 अक्टूबर को नीचे तवांग तक आ गई. नमका चू युद्ध के दौरान मैं भारत में नहीं था लेकिन उसके तुरंत बाद ही लौट आया था और आते ही मुझे युद्ध पर खबर करने के लिए बंबई से तेजपुर जाने को कहा गया. अब तक नेहरू इस बात से सहमत हो चुके थे कि चीनी मैदानों तक कब्जा करने के लिए दृढ़संकल्प हैं. सारा राष्ट्र उस वक्त उदासी और गुस्से में पूर्वानुमान लगा रहा था. लेकिन सिर्फ एक आदमी ने सही अनुमान लगाए और वे थे टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक स्वर्गीय एनजे नान्पोरिया. अपने एक संपादकीय में उन्होंने बारीकी से समझाते हुए यह तर्क दिया कि चीन आक्रमण के नहीं बल्कि शांतिपूर्ण समझौते और बातचीत के पक्ष में है और भारत को वार्ता करनी चाहिए. सबसे बुरा यही हो सकता है कि चीन भारत को सबक सिखाए और वापस लौट जाए. आलोचकों ने इस बात पर नान्पोरिया की हंसी उड़ाई. मुझे भी यही लगा कि वे कुछ ज्यादा ही सरल हो रहे हैं. लेकिन घटनाओं ने उन्हें बिल्कुल सही साबित किया.
24 अक्टूबर को चौएनली ने प्रस्ताव रखा कि दोनों पक्षों की सीमाएं 20-20 किलोमीटर पीछे हट जाएं. तीन दिन बाद नेहरू ने इस प्रस्ताव को और विस्तृत करके 40-60 किलोमीटर करने की मांग की. चार नवंबर को चो ने यह प्रस्ताव रखा कि चीन मैकमेहॉन रेखा को मानने को तैयार है यदि भारत लद्दाख में मैक डोनाल्ड रेखा को मान ले तो (और दिल्ली समर्थित जोहन्सन रेखा की मांग त्याग दे जो कि और ज्यादा उत्तर की ओर स्थित थी). तब तक मैं असम के तेजपुर पहुंच गया था. मैं प्लांटर्स क्लब में रह रहा था जो अब तक मीडिया का ठिकाना बन चुका था. सेना ने नेफा स्थित मोर्चों पर प्रेस के दौरे का प्रबंध कर दिया था. कई भारतीय और विदेशी पत्रकार और कैमरामैन वहां मौजूद थे. लेकिन इन मोर्चों पर हमने जो देखा उससे हम हैरत में पड़ गए. 15,000 फुट जैसी ऊंचाइयों पर तैनात जवान वहां हल््के स्वेटर और किरमिच के जूते पहने हुए थे, जबकि ऐसी ऊंचाई पर तो भयानक ठंड भी एक दुश्मन होती है. उनकी तैयारियां भी पर्याप्त नहीं थीं.
17 नवंबर को हम तेजपुर लौटे तो खबर मिली कि चीनी आगे बढ़ते ही जा रहे हैं. कई संवाददाता दिल्ली और कलकत्ता लौट गए ताकि अपने लेख और तस्वीरें ज्यादा सरलता से प्रकाशन के लिए भेज सकें. दरअसल खबरों को सेना द्वारा सेंसर किया जा रहा था और इसलिए उनके अखबार के दफ्तर पहुंचने में देर हो जाती थी. मुझे भी बाद में पता चला कि तेजपुर में तैनात प्रेस अधिकारी अपने पास आने वाली ढेर सारी खबरों को संभालने में अक्षम था और इसलिए मेरे द्वारा भेजी गई खबरों में से कुछ ही मेरे कार्यालय पहुंच सकीं और वह भी बुरी तरह से कटी हुईं.
18 नवंबर को खबर आई चीन ने 'से ला' को अपने कब्जे में ले लिया है. एक दिन बाद ही दुश्मन सेना अरुणाचल के कमेंग इलाके के पास हिमालय के निचले हिस्से में आ पहुंची. हमारे पक्ष में तब भी भ्रम की स्थिति बनी हुई थी.
19 नवंबर को कौल या किसी और ने फोर्थ कोर को वापस गुवाहटी लौटने के आदेश दे दिए. कहीं और से आदेश आ गया कि ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे तेजपुर को खाली कर दिया जाए. नुनमती रिफाइनरी को उड़ा दिया गया. जिला मजिस्ट्रेट ने अपनी पोस्ट छोड़ दी. छात्र जीवन के मेरे एक मित्र राणा केडीएन सिंह को तार-तार हो रही व्यवस्था का जिम्मा संभालने को कहा गया. उन्होंने शहर की घबराई हुई आबादी को किसी तरह स्टीमरों की सहायता से नदी के दक्षिणी किनारे पर शिफ्ट किया. जो लोग छूट गए या घाट पर देरी से पहुंचे, उन्हें जंगलों और चाय बागानों में ही छिपना पड़ा.
इससे एक दिन पहले भारतीय पत्रकार कस्बा छोड़ चुके थे. उन्होंने समाचार कवरेज से ज्यादा सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी. नौ अमेरिकी और ब्रिटिश पत्रकारों के साथ तेजपुर में हम दो ही भारतीय पत्रकार बचे थे. एक मैं और दूसरे समाचार एजेंसी रॉयटर्स से जुड़े प्रेम प्रकाश. हमारे साथ वे 10-14 मनोरोगी भी भटक रहे थे जिन्हें स्थानीय मानसिक अस्पताल के कर्मचारियों ने वहीं छोड़ दिया था. वह मेरे जीवन की सबसे भयानक रात थी. तेजपुर एक भुतहा कस्बा लग रहा था. हम चांद की मध्यम रोशनी में किसी भी संकेत या आवाज की तलाश में चौकन्ने होकर गश्त कर रहे थे. भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी करेंसी चेस्ट (जिसमें बैंक की रकम रखी जाती है) जला दी थी. जले हुए नोट हवा में उड़ रहे थे और हमारे साथ घूमते मनोरोगी उनमें से कुछ में सुलगती चिंगारियों की पड़ताल कर रहे थे. कुछ आवारा कुत्ते और बिल्लियां वहां हमारे इकलौते साथी थे.
आधी रात का वक्त रहा होगा. हमारे साथियों में से एक के पास ट्रांजिस्टर भी था जो चल रहा था. अचानक पेकिंग (बीजिंग का तत्कालीन नाम) रेडियो से एक घोषणा हुई. इसमें चीनी सरकार ने युद्धविराम का एलान करते हुए कहा कि अगर भारतीय सेना आगे नहीं बढ़ी तो उसकी सेना 'वास्तविक नियंत्रण रेखा' वाली पुरानी स्थिति में चली जाएगी जहां वह अक्टूबर से पहले थी. इस खबर ने थके हुए हम लोगों को काफी राहत दी. हम पुराने वीरान से प्लांटर्स क्लब में आराम करने चले गए. खुशकिस्मती से वहां टूना फिश और बीयर जैसी खाने-पीने की सामग्री मौजूद थी जिससे हमारा काम चल गया.
अगली सुबह, सारी दुनिया में यह खबर थी. लेकिन आकाशवाणी (एआईआर) की खबरों के मुताबिक हमारे बहादुर जवान अब भी दुश्मन से लड़ रहे थे, शायद किसी में इतना साहस ही नहीं हो पा रहा था कि वह नेहरू को जगाकर इस संबंध में उनसे आदेश ले पाता. यह खबर इतनी बड़ी थी कि इसे उनकी इजाजत के बिना नहीं लिखा जा सकता था. उन दिनों जनरल से लेकर जवानों तक और अधिकारियों से लेकर मीडिया तक हर कोई यह जानने के लिए रेडियो पेकिंग ही सुना करता था कि हमारे देश में क्या हो रहा है.
1962 में हुई उस किरकिरी की वजह और कुछ नहीं, राजनीति ही थी. राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने जब सरकार पर भोलेपन और लापरवाही का आरोप लगाया तो उन्होंने एक तरह से यही कहा. खुद नेहरू ने भी यह स्वीकार किया. उनका कहना था, 'हम हकीकत से दूर हो गए थे. . . हम एक कृत्रिम दुनिया में जी रहे थे जो हमने ही बनाई थी.' यह अलग बात है कि इसके बावजूद उन्होंने कृष्ण मेनन को मंत्रिमंडल में बनाए रखा. मेनन तभी हटाए गए जब जनता के भारी गुस्से के चलते नेहरू को लगा कि खुद उनकी कुर्सी खतरे में आ गई है.नेहरू टूट चुके थे. उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. अरुणाचल के कस्बे बोमडीला में पराजय के बाद उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी को सैन्य सहायता के लिए जो खत लिखा था वह उनकी दयनीय दशा दिखाता है. उनको डर था कि अगर चीनियों को रोका नहीं गया तो वे समूचे पूर्वोत्तर पर कब्जा कर लेंगे. नेहरू का कहना था कि चीन सिक्किम से लगी चुंबी घाटी में सेना का जमाव कर रहा है. उन्हें वहां से भी भारत में घुसपैठ की आशंका थी. उधर, लद्दाख के चुशुल पर चीनियों का कब्जा हो जाता तो उन्हें लेह के पहले रोका नहीं जा सकता था. भारतीय वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था क्योंकि भारत के पास अपने आबादी वाले इलाकों की रक्षा के लिए पर्याप्त हवाई सुरक्षा नहीं थी. इसिलए नेहरू ने अपने पत्र में अमेरिका से अनुरोध किया था कि वह उनको हर मौसम में काम करने वाले सुपरसोनिक लड़ाकू विमानों के 12 स्क्वैड्रन और रडार कवर की सुविधा तुरंत मुहैया कराए. उनका कहना था कि इन सबकी कमान अमेरिकी जवानों के हाथ में हो. कोई नहीं जानता कि नेहरू ने किन सूचनाओं के आधार पर कैनेडी को पत्र लिखा. निश्चित रूप से वह गुटनिरपेक्षता तार-तार हो गई थी जिसके वे सबसे बड़े पैरोकार थे.
तेजपुर में धीरे-धीरे जिंदगी पटरी पर लौट रही थी. 21 नवंबर को तत्कालीन गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इलाके के लोगों को आश्वस्त करने के लिए वहां की हवाई यात्रा की. अगले दिन इंदिरा गांधी भी वहां की यात्रा पर आईं. इस बीच नेहरू ने राष्ट्र के नाम संबोधन भी दिया. उन्होने खास तौर पर असम के लोगों को संबोधित किया. उन्होंने कहा कि परीक्षा की इस भयंकर घड़ी में असम के लोगों से उनको गहरी सहानुभूति है. उन्होंने वादा किया कि संघर्ष जारी रहेगा. यह अलग बात है कि असम के लोगों में यह भाषण कोई उत्साह नहीं जगा पाया. कई तो आज भी कहते हैं कि नेहरू ने तो उन्हें विदाई ही दे दी थी.
मैं एक महीने तक तेजपुर में रहा और प्रतीक्षा करता रहा कि प्रशासन बोमडीला लौटेगा. ऐसा क्रिसमस के ठीक पहले एक राजनीतिक अधिकारी (डीएम) मेजर केसी जौहरी के नेतृत्व में हुआ. मैं उनके साथ हो लिया. नेफा के लोग एकजुट होकर भारत के साथ खड़े रहे थे और जौहरी का उन्होंने जोश के साथ स्वागत किया. इस दौरान कई चीजें भारत के पक्ष में रही थीं. भूमिगत नगा विद्रोहियों ने भारत की इस पस्त स्थिति का फायदा नहीं उठाया था. उधर, पाकिस्तान को ईरान और अमेरिका ने कहा था कि वह भारत की इस हालत को अपने फायदे के लिए न इस्तेमाल करे और उसने अपनी बात रखी. हालांकि उसने बाद में चीन के साथ नया रिश्ता कायम कर लिया. पश्चिमी जगत और अमेरिका को भारत के साथ सहानुभूति थी, लेकिन उस दौरान अमेरिका पहले से ही चीन और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच बढ़ते मतभेद और क्यूबाई मिसाइल संकट में उलझा हुआ था.
सीओएएस जनरल चौधरी ने इस हार की आंतरिक जांच के आदेश मेजर जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और ब्रिगेडियर पीएस भगत को दिए. हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट आज भी एक अत्यंत गोपनीय क्लासिफाइड दस्तावेज है, हालांकि उसके कुछ हिस्से नेविल्ले मैक्सवेल ने प्रकाशित किए थे जो 1960 के दशक में भारत में लंदन के अखबार द टाइम के संवाददाता थे. उनकी रिपोर्ट का लब्बोलुआब यही था कि राजनीतिक नौसिखिएपन और अंदरूनी गुटबाजियों की वजह से भारत को योजना और कमान के मोर्चे पर असफलताएं हाथ लगीं. मेरा मानना है कि हेंडरसन-ब्रुक्स रिपोर्ट में ऐसी कोई बात नहीं है जिसे गोपनीय रखे जाने की जरूरत हो. राजनीतिक और सैन्य स्तर पर हुई गलतियों को छिपाकर कौन-सा मकसद हल होने वाला है? जब तक देश उसके बारे में जानेगा नहीं तब तक वह सही सबक नहीं सीख पाएगा.
जैसे भारत ने अब तक यह सबक नहीं सीखा कि सीमा रेखा से ज्यादा सीमा पर बसा इलाका महत्वपूर्ण होता है. इसका नतीजा यह है कि अरुणाचल प्रदेश और उत्तरी असम में अभी तक विकास कार्यों की अनदेखी जारी है. दरअसल भारत को यह डर है कि कहीं इससे भड़ककर चीन एक बार फिर चढ़ाई न कर दे. हालांकि अब जो वैश्विक समीकरण हैं उनको देखते हुए यह मुमकिन नहीं लगता कि 1962 की स्थिति फिर आ सकती है. तब से कई लोग 1962 में क्या हुआ था, इसके बारे में अपनी-अपनी तरह से बता चुके हैं. हरेक की अपनी कहानी है. लेकिन 1962 की लड़ाई में हमने जो कुछ भी खोया उसमें सच्चाई सबसे महत्वपूर्ण चीज थी.
(बीजी वर्गीज द टाइम्स ऑफ इंडिया के सहायक संपादक और युद्ध संवाददाता रहे हैं)
http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/1459.html
महासागर में मोर्चेबंदी
कुछ दिन पहले भारत के रक्षा मंत्री एके एंटनी भारत-मालदीव रक्षा समझौते को मजबूती प्रदान करने के लिए मालदीव के दौरे पर थे। कहने को तो वह वहा भारतीय सेना के सहयोग से निर्मित एक सैन्य अस्पताल का उद्घाटन करने गए थे, किंतु उनके दौरे का असल मंतव्य यह सुनिश्चित करना था कि माले में नई सरकार के आने से दोनों देशों के बीच संबंध प्रभावित न हों। एंटनी ने कहा कि मालदीव के साथ संबंधों को भारत बेहद खास मानता है। मालदीव या भारत में सरकारों के बदलने से दोनों देशों के बीच अटूट दोस्ती पर आच नहीं आएगी और द्विपक्षीय संबंधों में लगातार सुधार आता जाएगा। इस साल फरवरी में जब मालदीव के पहले निर्वाचित राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद सरकार को सेना ने तख्तापलट कर बेदखल कर दिया था तो भारत ने किसी भी पक्ष की तरफदारी नहीं की थी। इसके बाद से भारत नए राष्ट्रपति मोहम्मद वहीद को आश्वस्त करता आ रहा है कि उन्हें भारत का सहयोग मिलता रहेगा। इसका कारण बिल्कुल साफ है। चीन के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत माले में सरकार से दूर होने की स्थिति में नहीं है।
पिछले दिनों मालदीव के राष्ट्रपति चीन में थे। इस मौके पर बीजिंग ने माले को आर्थिक सहायता के तौर पर 50 करोड़ डॉलर देने की घोषणा की। हिंद महासागर में उभरते सामरिक परिदृश्य में नई दिल्ली मालदीव को केंद्रीय भूमिका में देख रही है, क्योंकि मालदीव के क्षेत्र से पूर्वी एशिया को मध्य एशिया से मिलाने वाली संचार लाइनें गुजरती हैं। भारतीय रक्षा मंत्री की हालिया यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने रक्षा सहयोग बढ़ाने के लिए कई समझौते किए। इनमें भारतीय रक्षा अधिकारी की माले में तैनाती, एएलएच ध्रुव हेलीकॉप्टर की लीज दो और साल के लिए बढ़ाना, मालदीव की वायु सेना और नौसेना को प्रशिक्षण देना तथा इकोनामिक जोन की निगरानी के लिए सहायता प्रदान करना शामिल हैं। नई दिल्ली और माले ने आतंकवाद तथा राष्ट्र विरोधी तत्वों के खिलाफ संयुक्त मोर्चे के रूप में इन उपायों की महत्ता रेखाकित की।
यह छोटा सा द्वीप अचानक ही दो उभरती हुई शक्तियों-चीन और भारत के बीच अखाड़ा बन गया है। हिंद महासागर में सुरक्षा के मद्देनजर भारत हमेशा से मालदीव की अहमियत समझता रहा है, लेकिन हाल ही में चीन द्वारा मालदीव में पैर फैलाने से इस क्षेत्र में भारत का बहुत कुछ दाव पर लग गया है। चीन भारत के करीबी अनेक द्वीपीय देशों के साथ विशेष संबंध स्थापित कर रहा है, इनमें श्रीलंका, मालदीव, सेशल्स और मॉरीशस आदि शामिल हैं। हिंद महासागर में पैर जमाने के चीन के प्रयास तब रंग लाए जब पिछले साल खबर आई कि हिंद महासागर में स्थित एक और राष्ट्र सेशल्स ने चीन की नौसेना को पुर्नआपूर्ति की सुविधा प्रदान करके बड़ी राहत दी। यद्यपि इस खबर का चीन ने तुरंत ही खंडन कर दिया, फिर भी यह हिंद महासागर में बदलते शक्ति संतुलन को रेखाकित करती है। परंपरागत रूप से भारत सेशल्स का मुख्य रक्षा आपूर्तिकर्ता है। भारत हथियारों की आपूर्ति के साथ-साथ सेशल्स पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज को प्रशिक्षण भी देता है। इस साल के शुरू में सामरिक संबंधों को मजबूती प्रदान करने के लिए भारत ने मालदीव को पाच करोड़ डॉलर का ऋण तथा ढाई करोड़ डॉलर की सहायता प्रदान की, किंतु चीन तब से सेशल्स को लुभाने की कोशिशों में लगा है, जब से (2007 में) चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ ने इस द्वीप का दौरा किया था। भारत की चिंता इस बात से और बढ़ गई है कि अब बीजिंग एसपीडीएफ को प्रशिक्षण दे रहा है तथा सैन्य साजोसामान मुहैया करा रहा है। इसके अलावा चीन ने सेशल्स के साथ सैन्य सहयोग में विस्तार किया है। बीजिंग आर्थिक जोन को नौसैनिक निगरानी प्रदान करने के साथ-साथ इस द्वीप को दो हवाई जहाज भी उपलब्ध करा रहा है। पिछले दिनों चीनी रक्षा मंत्री ने श्रीलंका का भी दौरा किया तथा इसके उत्तरी व पूर्वी क्षेत्रों में विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के लिए 10 करोड़ डॉलर की सहायता की पेशकश की। एक ऐसे समय में जब घरेलू राजनीतिक मजबूरियों के चलते नई दिल्ली को कोलंबो के करीब आने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है, बीजिंग इस शून्य को बड़ी तत्परता से भरने का प्रयास कर रहा है। यहा तक कि मॉरिशस भी (जिसकी सुरक्षा भारतीय नौसेना की मौजूदगी के कारण सुनिश्चित है) बीजिंग के प्रलोभनों से बच नहीं पा रहा है।
भारत और चीन की सैन्य क्षमताओं में उभार के साथ-साथ दोनों देश एक-दूसरे के खिलाफ मोर्चेबंदी का मौका नहीं चूक रहे हैं। जहा चीन हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है, वहीं भारत पूर्वी और दक्षिणपूर्वी एशिया में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। हाल ही में अमेरिका में भारतीय राजदूत ने कहा था कि दक्षिण चीन सागर हिंद महासागर का प्रवेश द्वार हो सकता है। भारत इस क्षेत्र में मुक्त व्यापार, निर्बाध परिवहन और मानवीय आपदा राहत में सहयोग के लिए प्रतिबद्ध है।
चीन और भारत के बीच सुरक्षा दुविधा वास्तविक है और लगातार बढ़ रही है। ऐसे में सवाल यह उभरता है कि क्या इस प्रतिस्पर्धी गति को दोनों देश ऐसी दिशा में मोड़ सकते हैं कि खुले टकराव की नौबत न आए। नई दिल्ली की इस घोषणा के बावजूद कि वह किसी गुट में शामिल नहीं है, हिंद महासागर में चीन की बढ़ती सामरिक शक्ति से निपटने के लिए अमेरिका-भारत नौसैनिक सहयोग के अलावा कोई और उपाय नहीं है। हिंद महासागर क्षेत्र में तेजी से बदलते शक्ति संतुलन को देखते हुए नई दिल्ली और वाशिगटन को सहयोग के लिए कदम बढ़ाने होंगे।
(हर्ष वी. पंत: लेखक किंग्स कॉलेज, लंदन में प्रोफेसर हैं)
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-9729247.html
Thursday, October 18, 2012
भारतीय नीति निर्धारक खुले बाजार के यथार्थ और व्याकरण का अनुकरण करते हुए १९६२ में खत्म एक हारा हुआ युद्ध आज भी जारी रखते हुए क्या साबित करना चाहते हैं?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Followers
Blog Archive
-
▼
2012
(6784)
-
▼
October
(291)
- कारपोरेट राज के भंडाफोड़ से कांग्रेस और भाजपा दोनो...
- Who would cancel all those contracts of natural re...
- जेएनयू में मनाया गया महिषासुर का शहादत दिवस
- Fwd: [New post] विचार : लूट-तंत्र में बदलता लोकतंत्र
- Fwd: [initiative-india] NAPM's Letter to Shri Shar...
- Fwd: [New post] विशालतम लोकतंत्र का संकीर्णतम इतिहास
- Fwd: [New post] साक्षात्कार : ‘ मेरे लिए कला का सच...
- Fwd: (हस्तक्षेप.कॉम) शेखर जोशी को मिले श्रीलाल शुक...
- Fwd: Paul Craig Roberts: The Virtual Economic Reco...
- संसद भंग करने या मध्यावधि चुनीव से क्या बदल जायेगी...
- अछूत समस्या से छूटने के लिए धर्म खोज रहे थे अंबेडकर
- Who killed Indian railway?Indian Railway is on fas...
- गुलामगिरी: एक बेहद जरूरी किताब
- Fwd: [New post] पाठयक्रम का व्यापार
- Fwd: Invitation: International Conference on Pales...
- Fwd: Chossudovsky: "Romnography" - Where's the Per...
- press note on fact finding on Faizabad riots UP- b...
- नितिन गडकरी के फंसने पर विपक्ष के जो दांत टूटे तो ...
- वैश्विक युद्धक अर्थ व्यवस्था और धार्मिक राष्ट्रवाद...
- Fwd: [New post] साक्षात्कार : अचानक आनेवाली बाढ़ें ...
- Fwd: Help for Contacting General V. K. Singh
- Fwd: [New post] पुलिस की नजर में अल्पसंख्यक का मतलब
- Fwd: [initiative-india] Press Release 28th October...
- सत्ता की दोनों धुरियां मुखौटा बदलने की कवायद में ल...
- Rape: Patriarchy-Selective Historiography ISP Oct ...
- नहीं रहीं इजा चंद्रकला जोशी!
- नहीं रहीं इजा चंद्रकला जोशी!
- What is the Truth?Fwd: Fw: Resignation of Mr. Wama...
- Fwd: John Pilger: Australia's Uranium Bonanza - Ma...
- निवेशकों की पहली पसंद उग्र हिंदुत्व, बाजार के लिए ...
- By default hardcore hindutva has to replace soft h...
- Fwd: [New post] प्राकृति आपदाएं : क्या हम अब भी कु...
- Fwd: सहारनपुर में बालिकाओं पर हो रहे संगठित हमलों ...
- Fwd: [Budhha dhamma prachar samiti] सावधान बहुजनों...
- Fwd: Arabs, Turks, Iranians saved Jews from the Nazis
- Fwd: Paul Craig Roberts: Police State USA - In Ame...
- Fwd: [अपना मोर्चा] Story of IT and Dalit in genera...
- I lay all evening...
- The discovery of utility in death - Scramble to pa...
- অন্ত্যেষ্টির দখল নিলেন মমতা
- অ-মানুষ নামে এক প্রজাতি সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
- বার কবিতা লিখে / সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
- সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়ের নীরা বিষয়ক কবিতা
- Harsh Mander on Assam Conflicts
- Dalit family forced to leave village
- The U.S. Is A Slave To Israel America: From Colony...
- सत्ता का चेहरा बदलकर विध्वंस का नया खेल!
- Biometric digital citizenship is meant for exclusi...
- शरद पूर्णिमा की शाम महिषासुर की शहादत का शोक मनेगा
- Fwd: [New post] दिल्ली मेल : राजेंद्र यादव, गोपीचं...
- Fwd: [New post] घटनाक्रम– सितंबर 2012
- Fwd: [New post] संपादकीय : सांप्रदायिकता का अप्रत्...
- Fwd: Rihai manch press release on state sponsored ...
- Fwd: Dirk Adriaensens: Crimes against Humanity - I...
- Fwd: Rihai manch- SR darapuri & Sandeep pandey sta...
- Borderline Chaos? Securing Libya's Periphery
- Who is Dr Khemka?
- Tagore and Victoria Ocampo
- Is Mitt Romney Mentally Ill?
- সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়ের ৩০ টি বই ডাউনলোড করুন
- সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়: কেউ কথা রাখে নি
- বিদায়, সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়!
- চলে গেলেন সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
- সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
- Fwd: (हस्तक्षेप.कॉम) जिसकी जनता सोती है उस राज्य क...
- Fwd: [New post] विरोध का नया हथियार कार्टून
- Fwd: [New post] सोनी सोढी की प्रताड़ना
- Fwd: [New post] हिग्स-बोसॉन फील्ड अर्थात विज्ञान क...
- Fwd: [New post] अण्णा और रामदेव का आंदोलन राजनीतिक...
- Fwd: Time has come to India become:The Hindu Rasht...
- Fwd: [New post] ओलंपिक : खेल और समाज का रिश्ता
- Fwd: [New post] दवा परिक्षण : निशाने पर छोटे शहर
- Fwd: press not on rihai manch metting on Fshih mah...
- Fwd: [New post] मेडिकल हब में डॉक्टरों का अकाल
- Fwd: [bangla-vision] Obama, Romney, and the Foreig...
- Fwd: [New post] लूट-शोषण के खिलाफ बोलोगे तो मारे ज...
- Fwd: Invitation :Screening of A Documentary
- শুরু হোক অসুর পূজা
- http://saradindu-uddipan.blogspot.in/2012/10/blog-...
- दशहरा दिवाली के जश्न के बीच किंग फिशर एअरलाइंस का ...
- असुरों के वंशज ही अपने पूर्वजों के नरसंहार का उत्स...
- Fwd: [initiative-india] please use this one. LAVAS...
- UID - Aadhaar Number Linked Cash Transfer A Surrep...
- Obama's Destructive Foreign Policy and Black Disil...
- Fwd: [Nagvanshi Brotherhood] १) मा. वामन मेश्रामजी...
- Fwd: [आम्ही स्वाभिमानी लिंगायतधर्मीय] हमारे बुद्धि...
- Fwd: [Interesting political blogs and articles] Pl...
- नीति निर्धारण के मामले में जब प्रधानमंत्री तक कारप...
- Nuclear safety questioned as India's auditor-gener...
- पूंजीवादी संस्कृति में विज्ञान
- THE COMPRADOR HOUR - India’s swift transition to a...
- जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस 29 अक्टूबर आश्विन ...
- Fwd: CONVENTION AGAINST ATROCITIES ON YOUNG WOMEN ...
- Fwd: John Kozy: Fraudulent Educational Reform in A...
- Peace drive splits Myanmar's Karen
- Shiite protests pose major challenge for Saudi Arabia
- Post-Revolution Tunisia: Still Fighting for Rights...
- Protest against Caste Discrimination in Educationa...
- Fwd: (हस्तक्षेप.कॉम) राजनीति, समाज, ईश्वरों, अवतार...
- भारतीय नीति निर्धारक खुले बाजार के यथार्थ और व्याक...
-
▼
October
(291)
No comments:
Post a Comment