नहीं रहीं इजा चंद्रकला जोशी!
पलाश विश्वास
लखनऊ से इस बार खबर आई कि प्रसिद्ध साहित्यकार शेखर जोशी की पत्नी चंद्रकला जोशी का सोमवार की रात एक बजे एसजीपीजीआइ में इलाज के दौरान निधन हो गया। दुबारा मातृशोक जैसा अहसास हुआ। मेरी मां बसंतीदेवी का निधन मधुमेह की वजह से पांव के जखम के गेंगरीन में बदल जाने से २००६ के जून महीने में हुआ। पिताजी के निधन के ठीक एक साल बाद।१९९० में अपने छह साल के भतीजे विप्लव के आकस्मिक निधन के बाद से कोई भी मौत मुझे स्पर्श नहीं करती। अपने प्रिय चाचा , चाची, ताई, पिताजी और मां के निधन के बाद लगता था कि शोक ताप से ऊपर उठ गया हूं।
गिरदा जैसे अप्रतिम मित्र और साहित्य पत्रकारिता के अनेक अग्रज साथी एक एक करके चलते बने। हमने मान लिया कि यह जीवन का व्याकरण है, इसे मानना ही होगा।
इजा से मेरी मां का स्वभाव बहुत मिलता है। मेरी मां भी इजा की तरह अड़ोस पड़ोस के लोगों के सुख दुःख में हमेशा शामिल रहती थी। इसके विपरीत पिता एकदम यायावर थे। उन्हें अपने मिशन के आगे रोग सोक ताप स्पर्श ही नहीं करता था। शेखरजी के व्यक्तित्व कृतित्व के वैज्ञानिक वस्तुवादी पक्ष से परिचित लोगों के लिए इजा का विशुद्ध कुंमायूंनी आत्मीय चेहरा कभी भुलाने लायक नहीं है।
77 वर्षीया श्रीमती जोशी ने 1984 में अपने भाई को अपनी एक किडनी दान कर दी थी। वह इलाहाबाद में रह रही थीं। उनके दो पुत्र व एक पुत्री हैं। एक पुत्र संजय फिल्म निर्माण से जुड़े हैं तो दूसरे प्रतुल आकाशवाणी में कार्यरत हैं। अजमेर में पैदा हुई श्रीमती जोशी परास्नातक थीं और गरीबों की मदद में सदैव आगे रहती थीं। पति के साथ जबलपुर में आयोजित सम्मान समारोह से लौटकर आने के बाद वह बीमार हो गई थीं और पिछले कई दिनों से उनका इलाज चल रहा था। मंगलवार को दोपहर में भैसाकुंड में उनका अंतिम संस्कार किया गया। इस अवसर पर साहित्यजगत से जुड़े कई गणमान्य लोग मौजूद थे।
दुबारा मातृशोक जैसा अहसास हुआ। मेरी मां बसंतीदेवी का निधन मधुमेह की वजह से पांव के जखम के गेंगरीन में बदल जाने से २००६ के जून महीने में हुआ। पिताजी के निधन के ठीक एक साल बाद।१९९० में अपने छह साल के भतीजे विप्लव के आकस्मिक निधन के बाद से कोई भी मौत मुझे स्पर्श नहीं करती। अपने प्रिय चाचा , चाची, ताई, पिताजी और मां के निधन के बाद लगता था कि शोक ताप से ऊपर उठ गया हूं। गिरदा जैसे अप्रतिम मित्र और साहित्य पत्रकारिता के अनेक अग्रज साथी एक एक करके चलते बने। हमने मान लिया कि यह जीवन का व्याकरण है, इसे मानना ही होगा।
इजा से मेरी मां का स्वभाव बहुत मिलता है। मेरी मां भी इजा की तरह अड़ोस पड़ोस के लोगों के सुख दुःख में हमेशा शामिल रहती थी। इसके विपरीत पिता एकदम यायावर थे। उन्हें अपने मिशन के आगे रोग सोक ताप स्पर्श ही नहीं करता था। शेखरजी के व्यक्तित्व कृतित्व के वैज्ञानिक वस्तुवादी पक्ष से परिचित लोगों के लिए इजा का विशुद्ध कुंमायूंनी आत्मीय चेहरा कभी भुलाने लायक नहीं है।
दुबारा मातृशोक जैसा अहसास हुआ। मेरी मां बसंतीदेवी का निधन मधुमेह की वजह से पांव के जखम के गेंगरीन में बदल जाने से २००६ के जून महीने में हुआ। पिताजी के निधन के ठीक एक साल बाद।१९९० में अपने छह साल के भतीजे विप्लव के आकस्मिक निधन के बाद से कोई भी मौत मुझे स्पर्श नहीं करती। अपने प्रिय चाचा , चाची, ताई, पिताजी और मां के निधन के बाद लगता था कि शोक ताप से ऊपर उठ गया हूं। गिरदा जैसे अप्रतिम मित्र और साहित्य पत्रकारिता के अनेक अग्रज साथी एक एक करके चलते बने। हमने मान लिया कि यह जीवन का व्याकरण है, इसे मानना ही होगा।
१९७९ में डीएसबी नैनीताल से एमए पास करते ही मैं हिमालय की गोद छोड़कर इलाहाबाद के लिए निकल पड़ा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध करना उद्देश्य था। बटरोही का सुझाव था। जेब में शेखर पाछक के दिये सौ रुपये थे।मैंने घर में खबर तक नहीं दी और बरेली से सहारनपुर इलाहाबाद पैसेंजर ट्रेन पकड़कर एक सुबह इलाहाबाद पहुंच गया। सितंबर का महीना था। बटरोही ने कहा था कि शेलेश मटियानी के वहां रहना है।सुबह सुबह हम मटियानी जी के वहां पहुंचे तो पता चला कि जिस कमरे में बटरोही रहा करते थे, वह खाली नहीं है। सीधे हम शेखर जी के घर १०० लूकरगंज पहुंच गये और इजा के परिवार में शामिल हो गये।
शेकर जी तब कथा साहित्य में हमारे आदर्श थे और मैं उन दिनों कहानियां भी लिखा करता था। पर उनसे सीधे परिचय नहीं था।नैनीताल समाचार और लघुभारत के मार्फत पत्र व्यवहार जरूर था। तब नैनी के फैक्ट्री में नौकरी करते थे शेखरजी। पर उस किराये के मकान में मुझे खपाने में कोई हिचक नहीं हुई उन्हें।बंटी छठीं में और संजू आठवीं में पढ़ते थे। प्रतुल थोड़ा बड़ा था। शेखरजी का ल्यूना चला लेता था। हमारे वहां रहते हुए तो एकबार उसकी ल्यूना किसी पुलिसवाले से टकरा गयी थी। इजा के भाई सेना में बहुत बड़े अधिकारी थे। पर वे विशुद्ध कुमांयूनी इजा थीं। उनके परिवार में सारा इलाहाबाद था। तब उपेंद्र नाथ अश्क जीवित थे। नीलाभ, मंगलेस डबराल, रामजीराय और वीरेन डंगवाल की चौकड़ी के साथ था मैं। इधर लूकर गंज में रवींद्र कालिया, ममता कालिया से लेकर नरेश मेहतातक का आना जाना था। शेखरजी को अमरकांत. भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कंडेय और दूधनाथ सिंह से ्लग देखना मुश्किल था। इजा की बदौलत मैं इस विशाल परिवार में शामिल हो गया।
दिसंबर १९८० में जेएनयू के मोह में उर्मिलेश के साथ मैंने इलाहाबाद छोड़ा और दिल्ली चला गया। आगे पढ़ाई तो हो नहीं सकी, १९८० में पत्रकारिता की अंधेरी सुरंग में फंस गये। धनबाद से इलाहाबाद जाना हुआ तो विवाह के बाद जब मेरठ में ता मैं तब शेखर जी वहां आकर सविता और नन्हे से टुसु से मिलकर गये। कोलकाता आने के बाद हम उत्तराखंड होकर लूकरगंज पहुंचे तो सविता और टुसु से इजा की पहली और आखिरी मुलाकात हो गयी। तब बंटी वाराणसी में थी। संजू दिल्ली में। प्रतुल लखनऊ में जम गया था और इस परिवार में लक्ष्मी का पदार्पण हो गया था। लक्ष्मी को इजा बहुत चाहती थीं। यह संयोग ही है कि लक्ष्मी के सान्निध्य में ही उन्होंने आखिरी सांसें लीं।
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