Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Thursday, October 25, 2012

Fwd: [New post] संपादकीय : सांप्रदायिकता का अप्रत्यक्ष निवेश



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/25
Subject: [New post] संपादकीय : सांप्रदायिकता का अप्रत्यक्ष निवेश
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "खुदरा बहु ब्रांड के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को लेकर भारतीय राजनीति में जो घटा"

New post on Samyantar

संपादकीय : सांप्रदायिकता का अप्रत्यक्ष निवेश

by समयांतर डैस्क

खुदरा बहु ब्रांड के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को लेकर भारतीय राजनीति में जो घटाटोप चल रहा है और उसके कारण संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए -दो)के भविष्य को लेकर जिन चिंताओं पर सर धुना जा रहा है उसने एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे से लोगों का ध्यान हटा दिया है। वह है इसके पक्ष में सीधे खड़े कारपोरेट जगत का होना।

kanto-me-kingfisher-photo-hinduइसे समझने के लिए समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख मुलायम सिंह के व्यवहार को परखना जरूरी है जो अंग्रेजी कहावत 'हंटिंग विद द हाउंड्स एंड रनिंग विद द हेयर्स' (शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करना और खरगोशों के साथ दौडऩा) को शब्दश: चरित्रार्थ करता है। वह एक ओर एफडीआई का विरोध करने में विरोधी दलों के साथ हैं तो एफडीआई के विरोध के चलते कांग्रेसी नेतृत्ववाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए -दो)को छोडऩेवाली तृणमूल कांग्रेस की जगह यूपीए सरकार को बचाने की घोषणा कर चुके हैं। भाजपा से लेकर बसपा तक सभी विपक्षी दलों के यू.पी.ए-दो को तत्काल न गिरने के तात्कालिक कारण हो सकते हैं पर सपा जिसे यह समय सबसे ज्यादा माफिक हो, वह इस सरकार को बचाने में क्यों लगी है? उसका तर्क भारतीय राजनीति में कम से कम अपने को धर्मनिरपेक्ष कहनेवाले दलों का सबसे आजमाया हुआ हथियार है और वह है सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने का। मुलायम सिंह यादव ने उसी सदाबहार हथियार की इस बार भी आड़ ली है।

एफडीआई के आते ही जिस तरह से सीआईआई (कांफिडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्रीज) व अन्य वाणिज्यिक संगठनों और इनके आदि गोदरेज से लेकर अन्य सभी नेताओं ने स्वागत किया है वह विशेष तौर पर ध्यान आकर्षित करता है। बल्कि अगर इस बीच की राष्ट्रीय प्रेस की सुर्खियों को देखें तो उनका तो स्पष्ट ही कहना है कि पूरी भारतीय कारपोरेट दुनिया इसका स्वागत कर रही है। यह गलत भी नहीं है। अगर 22 तारीख के शेयर बाजार को देखें तो सेंसक्स ने चार सौ अंकों की 14 महीने की सबसे ऊंची छलांग लगाई थी। हद यह थी कि किंग फिशर जैसी डूबती हवाई यात्रा करवानेवाली कंपनी तक के शेयरों में उस दिन उछाल आया। पर मसला और भी पेचीदा है। भारतीय शेयर बाजार के साथ अमेरिका सहित सभी पूंजीवादी दुनिया के बाजारों में - निक्की, सेंसेक्स, नेसडेक और डाउ जोन्स आदि - तेजी आई मानो सारी दुनिया में 'सुधार' और 'रेडिकल' आर्थिक कदम कहीं एक ही केंद्र से प्रेरित और सिंक्रोनाइज्ड हों।

किंगफिशर एयर लाइंस और इसके मालिक विजय माल्या की हाल की गतिविधि को अगर देखा जाए तो वह पूरे भारतीय आर्थिक परिदृश्य को समझने का एक दूसरा ही नजरिया देती है। गोकि यह उससे बहुत दूर नहीं है जिसे हम मुलायम सिंह यादव के संदर्भ में स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे।

माल्या पिछले एक वर्ष से मांग करते रहे हैं कि हवाई यातायात के क्षेत्र में एफडीआई को खोला जाए। इसी उम्मीद में उन्होंने अपनी कंपनी को, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों तथा कई वित्तीय संस्थाओं का हजारों करोड़ रुपया फंसा हुआ है और जिसके वसूल होने की संभावना नहीं के बराबर है,बंद नहीं होने दिया। यहां यह याद करना जरूरी नहीं है कि यूपीए सरकार के दौरान ही उसके एक सहयोगी दल के सदस्य प्रफुल्ल पटेल के मंत्रित्व के समय में सार्वजनिक क्षेत्र की राष्ट्रीय हवाई यातायात कंपनी एयर इंडिया को नियोजित तरीके से दिवालिया किया गया और निजी कंपनियों को हर तरह का बढ़ावा दिया गया। माल्या की विशेषता यह है कि वह देश के सबसे बड़े शराब निर्माता हैं और अपनी अयाश जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध हैं। पर सबसे बड़ी बात यह है कि वह दो बार से राज्य सभा के सदस्य हैं और 2010 से नागरिक उड्डयन की सलाहकार समिति के सदस्य हैं। उन्हें यह सदस्यता क्यों दी गई है, इसका कोई तर्क नहीं है। चूंकि वह खुद एक हवाई कंपनी के मालिक हैं, इसे देखते हुए कम से कम उन्हें नागरिक उड्डयन की सलाहकार समिति का सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिए था। उनके स्पष्ट व्यापारिक हितों (कांफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट) को देखते हुए यह नैतिकता ही नहीं व्यावहारिकता की दृष्टि से भी गलत था। पर लगता है उदारीकरण की आंधी में नैतिकता, ईमानदारी, नियम-कानून जैसी बातों पर ध्यान देना जरूरी नहीं रहा है। सब देखते रहे और वह कमेटी में होते हुए अपनी उड्डयन कंपनी के हितों को बढ़ाते रहे। अंतत: एक मायने में उनकी जीत हुई, या उन्हें सरकार का पहले से ही आश्वासन रहा होगा, कि अंतत: नागरिक उड्डयन में भी विदेशी पूंजी का सीधा निवेश होगा है, हिम्मत न हारो हम पर भरोसा रखो।

महत्त्वपूर्ण यह है कि माल्या अकेले पूंजीपति नहीं हैं जो कि संसद या विधान सभा में हों और उन्हीं मंत्रालयों की सहलाकार समिति में हों जिन से उनके हित सीधे जुड़े हैं। आज भी संसद में सौ से अधिक पूंजीपति हैं इनमें राहुल बजाज, नवीन जिंदल, विजय दर्डा, भरतिया, आंध्र के रेड्डी बंधु आदि कई बड़े पूंजीपति शामिल हैं। इस कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट के बारे में हाल के कोयलागेट कांड से भी कुछ सीखा जा सकता है। कांग्रेस के नवीन जिंदल और विजय दर्डा ने जिस तरह से कोयला खानों को मुफ्त हथियाया वह सब के सामने है। जिंदल, जिन्हें इस शर्त पर मुफ्त में खानें दी गईं थीं कि वे सस्ती बिजली देंगे, उनकी कंपनियों ने उल्टा और मंहगी बिजली राज्य सरकारों को बेची।

कुछ वर्ष पहले तो स्वयं अनिल अंबानी भी राज्यसभा में थे। उन्होंने बीच में ही अपनी सदस्यता छोड़ दी थी। जो उद्योगपति स्वयं संसद में नहीं हैं उन्हें संसद में अपना समय खराब करने की जरूरत नहीं रही है। इसके अलावा किसी एक दल से जुडऩा या स्पष्ट अपने हितों को प्रमोट करने में ज्यादा खतरे हैं। जबकि बिना एक्सपोज हुए ये काम ज्यादा आसानी से बाहर से ही करवाये जा सकते हैं। हर बड़े पूंजीपति के प्रतिनिधि तो संसद में हैं ही स्वयं उन्होंने राजनीतिक तंत्र में इतनी पकड़ बनाई हुई है अब उनके लिए कोई भी काम कहीं से भी करवाना कठिन नहीं रहा है।

इत्तफाक से सितंबर के मध्य में एक और बात हुई। एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट नाम की एक स्वयंसेवी संस्था की एक सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के अनुसार सन 2004 और 2009 के दो चुनावों के बीच कंपनियों द्वारा सबसे बड़ी दो राजनीतिक पार्टियों - कांग्रेस और भाजपा - को दिए जानेवाले पैसे में दो गुना से ज्यादा की वृद्धि हुई है। इनके बाद बीएसपी और सीपीएम ऐसी पार्टियां हैं जिनकी कुल आय तीसरे व चौथे नंबर पर है। समाजवादी पार्टी इसमें आठवें नंबर पर है। मजे की बात यह है कि पार्टियां उन्हें पैसा देनेवालों का नाम बतलाने से इंकार कर रही हैं। इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण यह है कि पार्टी फंड में ज्यादा से ज्यादा पैसा देने वाली कंपनियां मूलत: वे थीं जो खनन, ऊर्जा तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करनेवाले क्षेत्रों में सक्रिय थीं और जिनके लिए सरकारी अनुमति की जरूरत थी। यह पूंजी और राजनीति के अनैतिक संबंधों का सबसे बड़ा प्रमाण है और कोलगेट इसी अवैध संबंध की संतान है।

मुलायम सिंह यादव के व्यवहार को या कहना चाहिए उनकी राजनीति को, जिसके चलते कुछ अखबार उन्हें चतुर राजनीतिक कह रहे हैं, इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। अभी दो माह पूर्व ही उन्होंने यूपीए के राष्ट्रपति उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को जिताने में अहम् भूमिका निभाई थी। यहां यह याद किया जा सकता है कि प्रणब मुखर्जी का अंबानियों से निकट का संबंध रहा है। मुलायम का इस निर्णय पर पहुंचने में उनकी लोहियावादी -समाजवाद की विचारधारा व समझ के अलावा अनिल अंबानी की सलाह भी महत्त्वपूर्ण साबित हुई थी। अब अगर यूपीए के समर्थन के निर्णय को कार्पोरेट जगत के हितों से जोड़कर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मुलायम के सेक्युलरिज्म के मुलम्मे के नीचे क्या है। वह जो इधर-उधर की बातें कर रहे हैं या फिर पिता-पुत्र की बातों में विरोधाभास जैसा नजर आ रहा है उसे ज्यादा गंभीरता से न लें। वैसे राजधानी के राजनीतिक गलियारों में यह बात आम सुनी जा रही है कि मनमोहन सिंह अपनी सरकार को बचाने के लिए उद्योगपतियों की मदद कर रहे हैं और इन में जो नाम प्रमुख हैं वे मुकेश अंबानी और सुनील मित्तल के हैं। कहा जा रहा है कि निशाने पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी हैं जो अपने वक्तव्यों से एनडीए के नेताओं के रक्तचाप को बढ़ाते नजर आ रहे हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि यूपीए की सरकार तब तक चलेगी जब तक कारपोरेट सेक्टर चाहेगा। हां, इससे यह जरूर समझा जा सकता है कि उदारीकरण ने पूंजीपतियों को देश की अर्थव्यवस्था और प्राकृतिक संसाधन की कब्जाने में मदद नहीं की है बल्कि राजनीति के नियंत्रण को भी आसान कर दिया है।

Comment    See all comments

Unsubscribe or change your email settings at Manage Subscriptions.

Trouble clicking? Copy and paste this URL into your browser:
http://www.samayantar.com/editorial-fdi-politics-and-corporates/



No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors