Uday Prakash added 2 new photos — with Ahmer Khan.
3 hrs ·
संघ लोक सेवा आयोग, जो देश के उच्च प्रशासनिक अफ़सरों का निर्माण करता है, उसकी परीक्षाओं में इस देश की कितनी भाषाओं की कितनी प्रतिभाएं अपने ही देश में प्रशासन और प्रबंधन का सौभाग्य पाती हैं, इसके आंकड़े चिंताजनक हैं. बहुत पहले, सन १९५२ में, जब देश में सबसे पहली बार संसदीय चुनाव हुए थे, यानी जनता के प्रतिनिधियों के हाथ में वह संस्था आई थी, जिसे संसद कहते हैं और जिसके होने से यह सबूत मिलता है कि यहां लोकतंत्र है, तब उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि नौकरशाही का यह 'लौह-ढांचा' पुराना हो चुका है. इसमें जंग लग चुकी है. यह औपनिवेशिक शासन के हितों के लिए बनाया गया था. अब इसे भंग कर देना चाहिए. महात्मा गांधी भी राजनीति और प्रशासन की सभी सत्ताओं को राज्य के केंद्र में सिमट जाने के विरुद्ध, इसके विकेंद्रीकरण के पक्ष में थे. वे सत्ता को समाज के सबसे निचले स्तर तक, गांवों तक ले जाना चाहते थे.
लेकिन ऐसा होता कैसे ? उस समय से लेकर आज तक हमारी केंद्रीय सत्ता अपनी जनता या नागरिकों को, जिनके अनुमोदन से वह हर पांच साल में लोकतंत्र के सर्वोच्च केंद्रीय शिखर तक पहुंचती है, वह उन्हें ठीक उसी तरह देखती और व्यवहार करती है, जैसा औपनिवेशिक काल में होता था. यानी सारी जनता 'नेटिव' है, गुलाम है और जो भाषाएं वह बोलती, लिखती, समझती और व्यवहार करती है, वे भाषाएं 'नेटिव' और 'वर्नाक्युलर' भाषाएं हैं. इनसे जुड़े देश के हर सौ में से लगभग ९६ लोग अभी तक उस 'लौह ढांचे' का पुर्जा बन पाने के लायक प्रतिभा, योग्यता और समझ नहीं रखते. इसीलिए तब से लेकर अभी तक उसी भाषा के अफ़सर इस देश को चलाते रहेंगे, जिस भाषा के ज़रिये अंग्रेज़ी राज के शासक-प्रशासक चलाते थे.
दरअसल, यही अफ़सर-अफ़सरान चलाते भी हैं. पुलिस, फ़ौज़, कानून, न्याय, विशेषाधिकार, बंगले, बत्तियां, नौकर, दरबान, गाड़ी-बग्घी, महल-चौबारे, रास-रंग, दरबार -ए-आम और खास ...सब कुछ वही. बदला क्या? तो भाषा क्यों बदले ?
जो हिंदी को राष्ट्रभाषा और देश को 'राष्ट्र' मानते हैं, वे भी क्या अपनी संस्कृत-निष्ठ ब्राह्मणी भाषा के पारे में कभी शंका प्रगट करते हैं? अगर अंग्रेज़ी देश की विशाल जनता से कटी हुई भाषा है, तो वह 'राजभाषा हिंदी' क्या देश की जनता से जुड़ी हुई भाषा है? अभी ही मैंने डाक्टर विजय अग्रवाल, जो पूर्व राष्ट्रपति के सचिव रह चुके उच्चाधिकारी हैं, उनका 'जागरण' में प्रकाशित आलेख देख रहा था. उसमें उन्होंने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में 'हिंदी' में पूछे गये प्रश्नों को उद्दृत किया है. एक नमूना आप भी देखें : '' 'अंतरराष्ट्रीय वित्ताीय बाजारों में दुर्बल विश्व आर्थिक प्रत्याशाओं और अनवरत विद्यमान अनिश्चितताओं ने उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं पर स्पष्ट प्रभाव डाला है। सार्वभौम जोखिम से जुड़े सरोकारों ने विशेषकर यूरो क्षेत्र में, ग्रीस की घोर ऋ ण समस्या की संक्रामकता से प्रभावित होकर, जो अस्थिरता के सामान्य से अधिक ऊंचे स्तर के रूप में भारत और अन्य अर्थव्यवस्थाओं में फैल रही है, पूरे वर्ष के बृहत्तार हिस्से में वित्ताीय बाजारों को प्रभावित किया है।'
और यह भी : ' 'संगठनात्मक प्रबंधन और प्रतिकार के माध्यम से और कर्मचारियों द्वारा ऊपरिमुखी प्रभाव प्रयास के माध्यम से अनुसरण किए जा रहे मनोवैज्ञानिक संविदा की क्या प्रकृति होती है।'
क्या आप यह 'हिंदी' समझ सकते हैं? यदि हम हिंदी खड़ी बोली के निकट की भाषाओं से जुड़े लोग इसे नहीं समझ सकते तो क्या तमिल, मलयालम, उड़िया, कन्नड़ आदि भाषा-भाषी इसका अर्थ समझ पायेंगे ? इसीलिए, इस जाति की हिंदी ने, हिंदी भाषा-भाषी जनता के हितों और उसके भविष्य को नष्ट नहीं किया है बल्कि इसने अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य को भी अंधकार में धकेला है. यही शायद वजह भी है कि जहां पहले अंग्रेज़ी से इतर भारतीय भाषाओं के प्रशसानिक परीक्षाओं में चुने जाने का प्रतिशत ४० था, अब वह घट कर ९-१० प्रतिशत रह गया है.
आपको याह होगा, १८ जून को भारतीय भाषाओं को लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में न्यायिक आनुपातिक अधिकार और हिस्सेदारी की मांग को लेकर युवाओं ने प्रदर्शन किया था और अपनी मांगों को लेकर प्रधानमंत्री के आवास तक जाने का प्रयास किया था और तब उनकी बात सुनने व्यंकटैया नायडू आये थे क्योंकि प्रधानमंत्री किसी कैबिनेट मीटिंग में व्यस्त थे. नायडू जी ने युवाओं से कहा था :"आप लोग दो-तीन दिन रुक जाईए,आपकी माँगें जायज हैं. हमारे तमिलनाडू से भी ऐसी ही शिकायतें आई हैं. हम इस मुद्दे को लेकर सीरियस हैं" और वह 'सीरियस्नेस' ज़ाहिर हुआ नौ दिन के बाद, २७ मई को, जो संयोग से देश के सर्वप्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बरखी की तारीख भी है, उसी दिन को चुन कर नये, मौज़ूदा प्रधानमंत्री ने एक ट्वीट के किया, जिसके बाद सारे देश में भाषा को लेकर उसी तरह का बवाल हो गया, जैसा अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में दिखाई दिया था.
बहरहाल, कल से दिल्ली के दूर दराज़ के इलाकों से ४५ डिग्री की झुलसती दोपहर में पैदल चल कर, भारतीय भाषाओं को सिविल परीक्षा में थोड़ी बहुत 'उचित' जगह दिलाने की मांग को लेकर, लगभग ५०० छात्र-छात्राएं पूरे दिन और सारी रात इस उम्मीद में बैठे रहे कि प्रधानमंत्री उनकी बात सुनेंगे. लेकिन आज सुबह सुबह उनमें से कुछ के फोन और एस एम एस पारियामेंट पुलिस थाने से आये. उनसे मिलने प्रधानमंत्री तो दूर, किसी मंत्री का चपरासी या अर्दली तक नहीं आया. बिल्कुल तड़के, साढे चार-पांच बजे उनसे मिलने लाठी-डंडों के साथ वही पुलिस आयी, जिसके नियम, कानून, कायदे अंग्रेज़ों के राज के दौर हैं. बसों में भर कर इन युवाओं को संसद मार्ग के थाने में ले जाया गया.
अभी भी, जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं, वे वही हैं. छात्राएं, छात्र और युवा. उनकी कमज़ोरी यह है, कि उनकी अंग्रेज़ी और 'राजभाषा हिंदी' दोनों कमज़ोर है.
हो सकता है, जब सूरजकुंड में नव निर्वाचित सांसदों और मंत्रियों को प्रधानमंत्री प्रशिक्षण दे रहे हों और उन्हें गुजरात माडल का 'राजधर्म' समझा रहे हओं, उस वक्त ये सारे होनहार बच्चे-बच्चियां तिहाड़ जेल के अंदर बंद हों.
क्या हम सचमुच इतने मासूम या मूर्ख हैं, जो यह समझना ही नहीं चाहते कि भविष्य की मृगमरीचिका दिखाने वाले, किसी नये 'रामराज्य' या किसी 'सम्मोहक यूटोपिया' का जाल फेंकने वाले राजनीतिक खिलाड़ी समाज के किसी भी बदलाव को मुमकिन होने नहीं देंगे ?
'अच्छे दिन' के अब भी इंतज़ार में जो हैं, उनके लिए औलिया से मैं दुआ ही मांग सकता हूं. Nalin Mishra, Shubhankar Dermawala
लेकिन ऐसा होता कैसे ? उस समय से लेकर आज तक हमारी केंद्रीय सत्ता अपनी जनता या नागरिकों को, जिनके अनुमोदन से वह हर पांच साल में लोकतंत्र के सर्वोच्च केंद्रीय शिखर तक पहुंचती है, वह उन्हें ठीक उसी तरह देखती और व्यवहार करती है, जैसा औपनिवेशिक काल में होता था. यानी सारी जनता 'नेटिव' है, गुलाम है और जो भाषाएं वह बोलती, लिखती, समझती और व्यवहार करती है, वे भाषाएं 'नेटिव' और 'वर्नाक्युलर' भाषाएं हैं. इनसे जुड़े देश के हर सौ में से लगभग ९६ लोग अभी तक उस 'लौह ढांचे' का पुर्जा बन पाने के लायक प्रतिभा, योग्यता और समझ नहीं रखते. इसीलिए तब से लेकर अभी तक उसी भाषा के अफ़सर इस देश को चलाते रहेंगे, जिस भाषा के ज़रिये अंग्रेज़ी राज के शासक-प्रशासक चलाते थे.
दरअसल, यही अफ़सर-अफ़सरान चलाते भी हैं. पुलिस, फ़ौज़, कानून, न्याय, विशेषाधिकार, बंगले, बत्तियां, नौकर, दरबान, गाड़ी-बग्घी, महल-चौबारे, रास-रंग, दरबार -ए-आम और खास ...सब कुछ वही. बदला क्या? तो भाषा क्यों बदले ?
जो हिंदी को राष्ट्रभाषा और देश को 'राष्ट्र' मानते हैं, वे भी क्या अपनी संस्कृत-निष्ठ ब्राह्मणी भाषा के पारे में कभी शंका प्रगट करते हैं? अगर अंग्रेज़ी देश की विशाल जनता से कटी हुई भाषा है, तो वह 'राजभाषा हिंदी' क्या देश की जनता से जुड़ी हुई भाषा है? अभी ही मैंने डाक्टर विजय अग्रवाल, जो पूर्व राष्ट्रपति के सचिव रह चुके उच्चाधिकारी हैं, उनका 'जागरण' में प्रकाशित आलेख देख रहा था. उसमें उन्होंने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में 'हिंदी' में पूछे गये प्रश्नों को उद्दृत किया है. एक नमूना आप भी देखें : '' 'अंतरराष्ट्रीय वित्ताीय बाजारों में दुर्बल विश्व आर्थिक प्रत्याशाओं और अनवरत विद्यमान अनिश्चितताओं ने उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं पर स्पष्ट प्रभाव डाला है। सार्वभौम जोखिम से जुड़े सरोकारों ने विशेषकर यूरो क्षेत्र में, ग्रीस की घोर ऋ ण समस्या की संक्रामकता से प्रभावित होकर, जो अस्थिरता के सामान्य से अधिक ऊंचे स्तर के रूप में भारत और अन्य अर्थव्यवस्थाओं में फैल रही है, पूरे वर्ष के बृहत्तार हिस्से में वित्ताीय बाजारों को प्रभावित किया है।'
और यह भी : ' 'संगठनात्मक प्रबंधन और प्रतिकार के माध्यम से और कर्मचारियों द्वारा ऊपरिमुखी प्रभाव प्रयास के माध्यम से अनुसरण किए जा रहे मनोवैज्ञानिक संविदा की क्या प्रकृति होती है।'
क्या आप यह 'हिंदी' समझ सकते हैं? यदि हम हिंदी खड़ी बोली के निकट की भाषाओं से जुड़े लोग इसे नहीं समझ सकते तो क्या तमिल, मलयालम, उड़िया, कन्नड़ आदि भाषा-भाषी इसका अर्थ समझ पायेंगे ? इसीलिए, इस जाति की हिंदी ने, हिंदी भाषा-भाषी जनता के हितों और उसके भविष्य को नष्ट नहीं किया है बल्कि इसने अन्य भारतीय भाषाओं के भविष्य को भी अंधकार में धकेला है. यही शायद वजह भी है कि जहां पहले अंग्रेज़ी से इतर भारतीय भाषाओं के प्रशसानिक परीक्षाओं में चुने जाने का प्रतिशत ४० था, अब वह घट कर ९-१० प्रतिशत रह गया है.
आपको याह होगा, १८ जून को भारतीय भाषाओं को लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में न्यायिक आनुपातिक अधिकार और हिस्सेदारी की मांग को लेकर युवाओं ने प्रदर्शन किया था और अपनी मांगों को लेकर प्रधानमंत्री के आवास तक जाने का प्रयास किया था और तब उनकी बात सुनने व्यंकटैया नायडू आये थे क्योंकि प्रधानमंत्री किसी कैबिनेट मीटिंग में व्यस्त थे. नायडू जी ने युवाओं से कहा था :"आप लोग दो-तीन दिन रुक जाईए,आपकी माँगें जायज हैं. हमारे तमिलनाडू से भी ऐसी ही शिकायतें आई हैं. हम इस मुद्दे को लेकर सीरियस हैं" और वह 'सीरियस्नेस' ज़ाहिर हुआ नौ दिन के बाद, २७ मई को, जो संयोग से देश के सर्वप्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की बरखी की तारीख भी है, उसी दिन को चुन कर नये, मौज़ूदा प्रधानमंत्री ने एक ट्वीट के किया, जिसके बाद सारे देश में भाषा को लेकर उसी तरह का बवाल हो गया, जैसा अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में दिखाई दिया था.
बहरहाल, कल से दिल्ली के दूर दराज़ के इलाकों से ४५ डिग्री की झुलसती दोपहर में पैदल चल कर, भारतीय भाषाओं को सिविल परीक्षा में थोड़ी बहुत 'उचित' जगह दिलाने की मांग को लेकर, लगभग ५०० छात्र-छात्राएं पूरे दिन और सारी रात इस उम्मीद में बैठे रहे कि प्रधानमंत्री उनकी बात सुनेंगे. लेकिन आज सुबह सुबह उनमें से कुछ के फोन और एस एम एस पारियामेंट पुलिस थाने से आये. उनसे मिलने प्रधानमंत्री तो दूर, किसी मंत्री का चपरासी या अर्दली तक नहीं आया. बिल्कुल तड़के, साढे चार-पांच बजे उनसे मिलने लाठी-डंडों के साथ वही पुलिस आयी, जिसके नियम, कानून, कायदे अंग्रेज़ों के राज के दौर हैं. बसों में भर कर इन युवाओं को संसद मार्ग के थाने में ले जाया गया.
अभी भी, जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा हूं, वे वही हैं. छात्राएं, छात्र और युवा. उनकी कमज़ोरी यह है, कि उनकी अंग्रेज़ी और 'राजभाषा हिंदी' दोनों कमज़ोर है.
हो सकता है, जब सूरजकुंड में नव निर्वाचित सांसदों और मंत्रियों को प्रधानमंत्री प्रशिक्षण दे रहे हों और उन्हें गुजरात माडल का 'राजधर्म' समझा रहे हओं, उस वक्त ये सारे होनहार बच्चे-बच्चियां तिहाड़ जेल के अंदर बंद हों.
क्या हम सचमुच इतने मासूम या मूर्ख हैं, जो यह समझना ही नहीं चाहते कि भविष्य की मृगमरीचिका दिखाने वाले, किसी नये 'रामराज्य' या किसी 'सम्मोहक यूटोपिया' का जाल फेंकने वाले राजनीतिक खिलाड़ी समाज के किसी भी बदलाव को मुमकिन होने नहीं देंगे ?
'अच्छे दिन' के अब भी इंतज़ार में जो हैं, उनके लिए औलिया से मैं दुआ ही मांग सकता हूं. Nalin Mishra, Shubhankar Dermawala
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