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Saturday, June 28, 2014

#‎NagarjunSmriti‬ 16


उन्‍माद से भरे राममंदिर आंदोलन का एक अ‍ध्‍याय बाबरी मस्जिद गिरा कर पूरा किया जा चुका था। देश में कई जगह खून-खराबे हुए थे, मगर दरभंगा में न कोई हिंदू मारा गया न मुसलमान। जिस दरभंगी खां के नाम पर शहर का नाम है, वह मुसलमान थे। साझी संस्‍कृति की विरासत के बावजूद '92 के बाद कौमी रिश्‍तों में ठंडापन समझ में आने लगा था। यही वो समय था, जब राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ने अपने सांस्‍कृतिक और शैक्षणिक संगठनों को नये सिरे से सक्रिय होने के लिए कहा। दरभंगा के स्‍कूल-कॉलेजों में संस्‍कार भारती की गतिविधियां सिर उठाने लगीं। जिन दोस्‍तों के साथ हम वक्‍त बेवक्‍त अपनी साइकिलें साझा करते थे, वे समझाने लगे कि संस्‍कार भारती से क्‍यों जुड़ना चाहिए। उन्‍हें मालूम था कि मैं स्‍कूली दिनों में आरएसएस का स्‍वयंसेवक था और एक अप्रिय प्रसंग के चलते वहां से काफी दूर चला आया था। हमारे इलाके के कम्‍युनिस्‍ट नेता उमाधर सिंह आकर्षित करने लगे थे और अंतत: उनके विचारों से प्रभावित होकर मैं उनसे जुड़ गया था। वे सीपीआईएमल की एक धारा (शायद पहल) के संयोजक थे। जब उनकी पार्टी का प्रचार करने के लिए निशांत नाट्य मंच (दिल्‍ली) की टीम दरभंगा आयी थी, तब संस्‍कार भारती की घहराती हुई घटाओं के खिलाफ मुझे उम्‍मीद की बारिश नजर आयी। आसपास जनसरोकार वाले लोगों की अच्‍छी जमात दिखने लगी और मुझमें बाबा नागार्जुन का भरोसा मेरे लिए तो संजीवनी ही था। नये सांस्‍कृतिक मोरचे को लेकर उत्‍साह से भरे उन्‍हीं दिनों में जब एक दिन बाबा के घर गया, तो पता चला कि ऋचा दीदी संस्‍कार भारती के लिए काम करने लगी हैं। वह शोभाकांत जी की बड़ी बेटी हैं। मेरी हमउम्र, लेकिन उनके दबंग बर्ताव के चलते मैं उन्‍हें दीदी कहता था। मैं दुखी और हैरान हो गया। मेरी हैरानी की वजह थी कि शोभा चचा को बेटी के इस पहलू को लेकर कोई आपत्ति नहीं थी। बेटी के समर्थन के लिए उनके पास आसान तर्क था कि सबको अपना विचार चुनने का हक है। मुझसे ऋचा दीदी की काफी बहस (झड़प ज्‍यादा) होती थी और बाबा अपने बिस्‍तर पर लेटे हुए टुकुर टुकुर हमें देखते रहते थे। शायद हमारी बातचीत सुनते भी रहे होंगे। मुझे मालूम नहीं कि इस मसले पर ऋचा दीदी ने उनसे कभी बात की या नहीं, ये जरूर मालूम है कि संस्‍कार भारती के साथियों को वो बाबा से मिलवाने के लिए घर बुलाती रहती थीं। उन लोगों ने बाबा से कई बार अपने कार्यक्रमों में आने के लिए कहा, लेकिन बाबा कभी नहीं गये। अनचाही जगहों पर जाने के बजाय बाबा अप्रत्‍याशित जगहों पर जाना पसंद करते थे। जैसे एक दिन ऋचा दीदी और शोभाकांत जी के बाकी बच्‍चों के साथ मुझे लेकर वो लहेरियासराय के प्रीतम स्‍टूडियो पहुंच गये और सबके साथ एक फैमिली फोटो खिंचवायी।
[वह तस्‍वीर अब मेरे पास नहीं है, लेकिन शोभाकांत जी के अलबम में जरूर होगी। वे चीजों को संभाल कर रखते हैं।]

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