रिलायंस की गैस का गोरखधन्धा
संजय
“अच्छे दिनों” की शुरुआत हो चुकी है। अब ये दीगर बात है कि किसके लिए। पूँजीपतियों के खेमे में जश्न का माहौल है जबकि जनता को अपने सबसे बुरे दिन देखने को तैयार हो जाना चाहिए। तमाम लोकलुभावन जुमलों और विकास-विकास की रट लगाते हुए सत्ता पर काबिज हुई नरेन्द्र मोदी सरकार की असलियत इतनी जल्दी सामने आने लगेगी, इसका अन्दाज़ा नहीं था। सत्ता में आने के साथ ही इसने सबसे पहले रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश को सौ फ़ीसदी मंजूरी देकर अपने कथित विकास का परिचय दे दिया है। अपने चहेते अम्बानी बन्धुओं के हित में अब प्राकृतिक गैस की क़ीमत बढ़ाकर दोगुनी करने का फ़ैसला भी हो गया है जिसका ख़ामियाज़ा आने वाले दिनों में आम जनता को भुगतना पड़ेगा। महँगाई की मार से पहले से ही कराह रही आम जनता को अब खाद, बिजली, गैस, किरासन, अनाज सहित तमाम वस्तुओं की बहुत ज़्यादा क़ीमत अदा करनी पड़ेगी। सरकार किस तरीक़े से सारे नियमों-कायदों को ताक पर रखकर रिलायंस कम्पनी को फ़ायदा पहुँचा रही है, इसकी बानगी अम्बानी को केजी-डी 6 बेसिन में दिये गये गैस के कुओं और उसके मनमाफ़िक गैस की क़ीमतें तय करने की प्रक्रिया में मिलती है।
दरअसल, केजी का तात्पर्य कृष्णा गोदावरी बेसिन से है, जो आन्ध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में कृष्णा और गोदावरी नदी के किनारे करीब 50,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है। इसमें से 7,645 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को धीरूभाई-6 या डी-6 कहते हैं, और यहीं पर देश के सबसे बड़े गैस के भण्डार का पता लगा।
यह कहानी शुरू होती है करीब ढाई दशक पहले देश में नवउदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने के साथ। 1991 में भारत सरकार ने भारत में निजी कम्पनियों और विदेशी कम्पनियों के लिए हाइड्रोकार्बन की खोज और उत्पादन करने का रास्ता खोला। इसके तहत शुरुआत में अलग-अलग कम्पनियों को तेल और गैस के उत्पादन के लिए छोटे और मँझोले ब्लॉक दिये गये। 1999 में भारत सरकार खोज और लाइसेंसिंग की नयी नीति लायी, जिसके तहत अलग-अलग कम्पनियों को दिये गये सारे छोटे-छोटे ब्लॉकों को ख़त्म करके एक बड़ा ब्लॉक, जिसे धीरूभाई-6 (डी-6) कहा गया, रिलायंस कम्पनी को दे दिया गया। रिलायंस के हक़ में सरकारी नीति बदलने का यह कोई पहला मामला नहीं था। इससे पहले भी अनेक बार उसे फ़ायदा पहुँचाने के लिए सरकारी नीतियाँ बदल दी जाती रही हैं।
गैस की खोज और फिर गैस निकालकर बेचने का ठेका तो रिलायंस को दे दिया गया, लेकिन क्या सरकार का उस पर नियन्त्रण रहा? कोई भी प्राकृतिक सम्पदा देश की जनता की होती है। इसीलिए सरकार तेल और गैस की खोज और इसके उत्पादन पर निगरानी रखती है। किसी प्राकृतिक सम्पदा को निजी कम्पनी कैसे निकालती और बेचती है, इसकी निगरानी करने के लिए सरकार उत्पादन में साझेदारी के लिए निजी कम्पनियों के साथ समझौता करती है। इसे प्रोडक्शन शेयरिंग कॉण्ट्रैक्ट (पीएससी) कहते हैं। इस अनुबन्ध में ख़रीदार और बेचने वाली पार्टी के लिए नियम-क़ानून तय किये गये हैं। इसमें यह बताया गया है कि प्राकृतिक सम्पदा की खोज करने से लेकर उस सम्पदा को निकालकर बेचने तक कौन-कौन सी प्रक्रियाओं का पालन करना है और मुनाफ़े का बँटवारा कैसे होगा। सरकार का हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय इस बात की निगरानी करता है कि अनुबन्ध का उल्लंघन न हो। इसी तरह का एक पीएससी भारत सरकार और रिलायंस तथा रिलायंस की ही एक पार्टनर कम्पनी ‘निको रिसोर्सेज़’ (जिसका हेडक्वार्टर कनाडा में है) के बीच किया गया। इसमें निको का हिस्सा 10 प्रतिशत था।
केजी बेसिन से उत्पादन शुरू होने से पहले ही मुकेश अम्बानी और अनिल अम्बानी के बीच रिलायंस कम्पनी का बँटवारा हो गया, जिसमें गैस का सारा व्यापार मुकेश अम्बानी के हिस्से आ गया। इससे पहले जून 2004 में भारत सरकार के उपक्रम एनटीपीसी ने अपने दो पावर प्लाण्ट (कवास और गन्धार) को गैस सप्लाई करने के लिए टेण्डर निकाला था। इसमें रिलायंस ने एनटीपीसी को 17 साल तक प्रति यूनिट 2.34 डॉलर के हिसाब से 132 ट्रिलियन यूनिट गैस देने का ठेका लिया। इसी ठेके के आधार पर 2005 में बँटवारे के समय अनिल अम्बानी ने गैस सम्पदा का एक बड़ा हिस्सा रिलायंस नेचुरल रिसोर्सेज लिमिटेड (आरएनआरएल) के नाम से अपने पास यह कहकर रख लिया कि एनटीपीसी को 17 साल तक गैस देने का ठेका उनके पास है, इसीलिए इस गैस को निकालने के लिए उन्हें भी गैस का कुआँ चाहिए। कहने के लिए पीएससी कॉण्ट्रैक्ट का पहला वाक्य ही है कि भारतीय संविधान के तहत सारी खनिज गैस और तेल भारत की सम्पदा है, मगर दोनों भाइयों ने इसका आपस में बँटवारा कर लिया। इस बात को सालों तक दबा के रखा गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में साफ़ कहा है कि भारत सरकार गैस के उत्पादन से लेकर गैस के उपभोक्ता के पास पहुँचने तक उसकी मालिक है। कम्पनियों को अपने मतभेदों का समाधान और बँटवारा सरकार की नीति के तहत ही करना चाहिए।”
देश की सम्पदा खुलेआम लूटी जा रही थी और किसी भी मन्त्रलय या मन्त्री ने इस गैस के बँटवारे पर कुछ न कहा। सरकार आँख मूँदे रही। तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने बस यह कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया कि दोनों भाई देश के हितों को ध्यान में रखते हुए झगड़ा न करें और सभी मतभेदों को जल्दी सुलझायें।
अनिल अम्बानी ने एनटीपीसी को गैस सप्लाई के ठेके के नाम पर गैस के भण्डार का बहुत बड़ा हिस्सा अपने नाम कर लिया, लेकिन उस पर क़ब्ज़ा होते ही रिलायंस इण्डस्ट्रीज ने एनटीपीसी के उस ठेके पर हस्ताक्षर करने से ही इंकार कर दिया। उसने एनटीपीसी को 2.34 डॉलर की दर से गैस देने से साफ़ मना कर दिया। एनटीपीसी ने रिलायंस के ख़िलाफ़ दिसम्बर 2005 में मुम्बई हाईकोर्ट में याचिका दाखि़ल की, लेकिन 9 साल बाद भी वह मामला लटका हुआ है। सरकार की दिलचस्पी अपने सार्वजनिक उपक्रम एनटीपीसी के हितों से ज़्यादा रिलायंस के हितों की रक्षा करने में रही है।
वर्ष 2007 में सरकार ने इस मामले को मन्त्रियों के समूह के सुपुर्द कर दिया, जिसके अध्यक्ष उस समय के वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी थे। मन्त्री समूह ने 2.34 डॉलर की दर को बढ़ाकर 4.2 डॉलर कर देने का फ़ैसला किया। इस समय तक केजी बेसिन से गैस निकालने का काम अभी बन्द ही था। लेकिन जैसे ही दाम 4.2 डॉलर किया गया, रिलायंस ने तुरन्त बयान दिया कि सरकार द्वारा तय किये गये दाम से कम में किसी को गैस नहीं दी जायेगी। दरअसल 4.2 डॉलर का दाम भी रिलायंस के ही एक फ़ार्मूले से तय किया गया था। जो कम्पनियाँ रिलायंस से गैस लेना चाहती थीं, उनसे रिलायंस ने 4.54 डॉलर और 4.75 डॉलर के बीच एक दाम बताने को कहा। इसके बाद रिलायंस ने सरकार से दाम 4.59 डॉलर करने की माँग की, जिसे बाद में उसने कम करके 4.3 डॉलर कर दिया। प्रणव मुखर्जी ने इसी में मामूली कटौती करके 4.2 डॉलर कर दिया, ताकि लोगों को दिखाया जा सके कि अन्त में सरकार की ही चली!
इन तमाम क़दमों पर भारत सरकार के बिजली एवं ऊर्जा विभाग के प्रमुख सलाहकार सूर्या पी. सेठी ने सवाल उठाया, जिसे नज़रन्दाज़ कर दिया गया। सेठी ने कहा कि जब दुनिया में कहीं भी गैस की उत्पादन लागत 1.43 डॉलर से ज़्यादा नहीं है तो रिलायंस को इतनी ऊँची दर क्यों दी जा रही है। इतना ही नहीं, 2011 में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट के अनुसार रिलायंस बिना कोई कुआँ खोदे ही पेट्रोलियम मिलने के दावे करती रही। रिलायंस को पता ही नहीं था कि उसके पास कितने कुओं में कितनी गैस है। दूसरे, रिलायंस को केजी बेसिन के केवल एक चौथाई हिस्से पर काम करना था, लेकिन पीएसी कॉण्ट्रैक्ट के ख़िलाफ़ जाकर रिलायंस ने समूचे बेसिन में काम शुरू कर दिया और सरकार ने इसमें कोई टोका-टाकी तक नहीं की।
देश की जनता पहले से ही रिलायंस की मुँहमाँगी क़ीमत 4.2 डॉलर चुका रही है, और अब भाजपा सरकार इसे बढ़ाकर 8.4 डॉलर करने की हरी झण्डी दे चुकी है। मज़े की बात यह है कि बांगलादेश को यही गैस करीब 2 डॉलर में दी जाती है। देश की प्राकृतिक सम्पदा को रिलायंस को सौंप देने में मनमोहन सरकार से लेकर नरेन्द्र मोदी सरकार ने सारे नियम-कायदों को ताक पर रख दिया और अब अपने ही सार्वजनिक उपक्रम के लिए दोगुने दाम पर गैस ख़रीदने को भी तैयार हो गयी। इसका ख़ामियाजा आम जनता को बढ़ी हुई क़ीमतों के रूप में भुगतना होगा। यह पूरा सौदा यह दिखाता है कि पूँजीवाद में सरकारें पूरी तरह पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी मात्र होती हैं। इससे साबित होता है कि मोदी सरकार का एजेण्डा भी मनमोहन सरकार के एजेण्डे को ज़्यादा मजबूती से लागू करना ही है। आने वाले दिनों में नवउदारीकरण की नीतियों को पूरी ताक़त के साथ लागू किया जायेगा। जल, जंगल, ज़मीन, खदान पूँजीपतियों को लूट के लिए सौंपे जायेंगे और इसके विरोध को दमन के ज़रिये कुचला जायेगा। मोदी सरकार भारत के कथित विकास के लिए जो दस साल का समय माँग रही है, उसका असली मकसद है जनता की क़ीमत पर पूँजीपतियों का विकास। अब हम मेहनतकशों को सोचना है कि क्या हम अपने शोषण की बेड़ियों के और कसने का इन्तज़ार करेंगे या इसे तोड़ने के उपक्रम में अभी से जुटेंगे।
मज़दूर बिगुल, जून 2014
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