Friday, 21 December 2012 11:16 |
जनसत्ता 21 दिसंबर, 2012: अरविंद मोहन गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनावों के दौर में सिर्फ नरेंद्र मोदी, भाजपा की राजनीति और गुजरात की चर्चा ही छाई रही तो यह अकारण नहीं था। गुजरात चुनाव कहीं न कहीं नरेंद्र मोदी के तिबारा जीतने से बढ़ कर भाजपा या राजग के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उनके दावे पर मुहर लगाने का मामला भी था। और कहना न होगा कि मोदी इन सभी इम्तहानों में सफल होकर निकले हैं और लोग बात को एक दिन के अंदर ही भूल चुके हैं कि कांग्रेस ने हिमाचल में अच्छी जीत हासिल की है। गुजरात में मोदी को इस बार कांग्रेस ने कई तरह से परेशान किया और एक परेशानी केशुभाई को देशद्रोही कह कर नवजोत सिंह सिद्धू ने पैदा कर दी थी। पर किसी कुशल मैनेजर की तरह मोदी ने सभी कमजोरियों को भांपा, विरोधियों की चालों का पूर्वानुमान किया और उनकी काट कर ली। यह तब भी हुआ जब मोदी के अपने चलाए मुद््दे ज्यादा जोर नहीं पकड़ पाए। वे सीधे प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करने की जगह सोनिया, राहुल और मनमोहन को ललकारते रहे और ये लोग और कांग्रेस उनसे उलझने से बचते रहे। पर मोदी ने अपनी अकड़ भी नहीं छोड़ी। वे अहमद मियां पटेल के मुख्यमंत्री बनने का खतरा दिखाने के साथ सर क्रीक का सवाल उठा कर अपने को ज्यादा 'राष्ट्रवादी' जताने से नहीं चूके। सद्भावना उपवास जैसा नाटक कर चुके मोदी ने एक भी मुसलिम उम्मीदवार खड़ा करने की जरूरत महसूस नहीं की। भाजपा के भील मतदाताओं पर अपने से ज्यादा प्रभाव रखने वाले विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया को मनाने के लिए उन्होंने अनंत कुमार की सेवा ली। दलितों में अगर कांग्रेस आगे रही तो ओबीसी में मोदी का पलड़ा भारी रहा। इस बार अर्जुन मोढवाडिया को आगे करके कांग्रेस ने इसकी भी काट करने की कोशिश की, पर अर्जुन की हार से साफ है कि उसका यह दांव नहीं चला। अगड़ों का समर्थन पाने में भाजपा ही आगे रही है। पर जब गुजरात सबसे जातिवादी चुनाव की तरफ बढ़ रहा हो, तब पाटीदार, कोली और ब्राह्मण जैसी तीन बड़ी और मजबूत समर्थक जातियों में हो रही नई हलचल भविष्य में मोदी के लिए खतरे की घंटी बन सकती है। इस बार कांग्रेस ने चुनाव से ठीक पहले 'घर आपनुं घर' के नारे के साथ जो शिगूफा उससे चुनाव का मुद्दा ही बदल गया। चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने 31000 करोड़ के खर्च से पचास लाख नए मकान बनाने का वादा करके यह लगभग स्वीकार कर लिया कि उसके कथित विकास के बावजूद लगभग आधा गुजरात बेघर या खस्ताहाल घर में रहता है। पचास लाख मकान का मतलब ढाई करोड़ से ज्यादा लोगों को मकान देने की सरकारी स्वीकृति है। फिर तो कुपोषण, मानव विकास सूचकांक के पिछड़ेपन, निवेश के मामले में चौथे-पांचवें स्थान पर रहना, सिंचाई में जरा भी वृद्धि न होने, राज्य पर डेढ़ लाख करोड़ के कर्ज जैसी न जाने कितनी ही बातें सामने आ गर्इं और मोदी और भाजपा को जवाब देने में दिक्कत होने लगी। इस सब का असर यह हुआ कि कॉरपोरेट विकास वाली बात को सबने भुला देना ही बेहतर समझा। गुजरात चुनाव में विकास और अरबों के निवेश, उद्योग-धंधे लगने की जगह लोकलुभावन अर्थशास्त्र का बोलबाला हो गया। चुनाव घोषणापत्र इस बात का प्रमाण है कि कॉरपोरेट विकास को कोई भी चुनाव जितवाने में मददगार नहीं मानता। इसके बाद भी मोदी प्रधानमंत्री बनने की अपनी दावेदारी और अपने विकास को मतदाताओं के बीच 'बेच' पाने में सफल रहे। उनके प्रबंधकीय कौशल का लोहा मानना होगा। भाजपा के जले पर नमक छिड़कने वाला तथ्य यह भी था कि पहले दौर की सबसे ज्यादा सीटें उसी सौराष्ट्र की थीं, जो भाजपा को परेशान कर रहा था। उसे किसानों का असंतोष भी परेशान कर रहा था। यहां की हवा बाकी गुजरात को भी अपने प्रभाव में ले सकती थी। यहीं सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। चुनाव प्रचार के बीच में भी कम से कम पांच-छह आत्महत्याएं हो चुकी थीं। हालत यह है कि संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के लोग भी खुल कर मोदी का विरोध कर रहे थे। मोदी ने उन्हें मनाने के लिए संघ के बड़े नेताओं की सेवा भी ली, पर कितना लाभ हुआ कहना मुश्किल है। सिंचाई साधनों के अभाव में खेती भरोसे की नहीं रह गई है और महंगा बीज, खाद, कीटनाशक लगाने के बाद जब फसल मारी जाती है तो किसानों के पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। पिछले साल भर में लगभग तीन सौ किसानों ने आत्महत्या की है। यह पहली बार हो रहा था कि मोदी सपने बेचने की जगह अपने काम और फैसलों की सफाई देते घूम रहे थे। दरअसल, इस बार उन्हें अपने सपने में गुजरातियों को शामिल करना था। और उनकी मुश्किल यह थी कि कॉरपोरेट क्षेत्र को दी गई रियायत और किसानों की जगह उद्योगों को दी गई बिजली की बात वे प्रचारित नहीं कर सकते। इस बार वे गुजरात गौरव और इसे स्वर्ग बनाने का सपना नहीं बेच पा रहे थे। वे विधायकों को बलि का बकरा बना कर भी नहीं बच सकते थे। यही कारण है कि इस बार ज्यादा विधायकों के टिकट नहीं कटे और रातोंरात कांग्रेस से आए लोगों को भी भाजपा का टिकट दिया गया। और यह सब करके, सारी तकनीकी तैयारी के बाद मोदी अगर सत्रह साल के भाजपा शासन के खिलाफ पनपे असंतोष को रोकने और अपनी सीटें बढ़ाने में सफल रहे तो यह उनकी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है। दिक्कत यह है कि भाजपा और राजग ही नहीं, विपक्ष के अधिकतर दलों को अपनी योजना में भागीदार बनाने के लिए अभी मोदी को बहुत कुछ बेलना और झेलना पड़ेगा। |
Friday, December 21, 2012
मोदी की शह और मात
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