Tuesday, 11 December 2012 10:43 |
कुमार प्रशांत याद तो प्रधानमंत्री को भी होगा और देश को तो याद है ही कि तथाकथित विकास के कई प्रतिमान हमारे गुलाम भारत में ही बने थे। रेल भी तभी आई थी और डाक-तार की व्यवस्था ने भी तभी आकार लिया था, सड़कों का जाल भी बिछा था, हवाई जहाजों ने उड़ना शुरू किया था। खेती-किसानी से जुड़ी दूसरी कई पहलें भी तभी की हैं जिन्हें हम आज भी अंधों की तरह दोहरा रहे हैं। इसलिए सुख-सुविधा की एकांगी दृष्टि से देखें तो गुलामी और आजादी में ज्यादा फर्क नहीं नजर आएगा। फर्क नजर आता है जब आप यह आंकने की कोशिश करते हैं कि यह सब कुछ किस कीमत पर हासिल हुआ है! तब यह तीखा अहसास जागता है कि आजादी की कीमत पर अगर यह सब मिलता है तो हमें यह नहीं चाहिए। फिर गांधी के सीने में गोली लगती है, भगत सिंह फांसी का फंदा चूमते हैं। भारत के खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों के प्रवेश से अगर देश का भला-ही-भला है तो कोई बताए कि इनके अपने देशों में भी इनका विरोध क्यों होता आ रहा है? ऐसा क्यों है कि इधर आप अपना खुदरा बाजार विदेशी कंपनियों के लिए खोलते हैं और उधर उनकी सरकारें इस कदम पर खुशी जाहिर करती हैं? क्यों सरकारें इन कंपनियों का सफरमैना बन कर चलती हैं? बाजार को दलालों से मुक्ति मिले, यह आर्थिक न्याय की दिशा में कदम है। अगर वैसा नहीं होता तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह दलाली सरकार करती है या कॉरपोरेट कंपनियां या बहुराष्ट्रीय कंपनियां। यह बारीक फर्क भी समझ लेना चाहिए कि सात समंदर पार से ये कंपनियां कमाई करने आ रही हैं, अपनी जीविका कमाने नहीं। जीविका कमाने की कशमकश में तो वह खुदरा व्यापारी लगा है जो दो-चार पैसों की उलटफेर करता है और घर चलाता है। हमारा खुदरा व्यापार एक पूरी-की-पूरी सामाजिक व्यवस्था का आर्थिक ढांचा खड़ा करता है जिसमें सब कुछ स्वस्थ है, ऐसा नहीं है, लेकिन आप इसे खत्म कर जो ला रहे हैं वह तो कहीं से भी स्वस्थ नहीं है। इस नई व्यवस्था में खेती-किसानी और भी ज्यादा पर-निर्भर होगी; उत्पादों का अधिकाधिक केंद्रीकरण होगा; मूल्य-निर्धारण में सीधी मनमानी चलेगी; उत्पादों के प्रकार, गुणवत्ता आदि सब में पैसे वालों का ही ध्यान रखा जाएगा; जमीन की कीमत बहुत बढ़ेगी और उत्पादक किसानों के हाथ से निकल कर वह तेजी से व्यापारी के हाथ में जाएगी। व्यापारी खेत और जमीन में कोई अंतर नहीं करेगा, जैसे डीएलएफ या रॉबर्ट वडरा जैसों ने नहीं किया। इस तरह जो खेतिहर संस्कृति हमारे समाज का मूलाधार है, वह बिखर जाएगी। इसके एवज में हम जो पाएंगे उसमें पूंजी जोड़ने की चातुरी और क्रूरता है, समाज जोड़ने का इल्म नहीं! हम जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं लेकिन जिसे समझने और पहचानने की जहमत उठाते नहीं हैं, उसकी धुरी यह है कि वह सामाजिक व्यवस्था के टुकड़े करके नहीं चलती है। उसकी कोशिश रही है कि मनुष्यों को और उनसे मिल कर बने समाज को परिपूर्णता में देखे। इसमें इसे पूरी सफलता नहीं मिली है क्योंकि मानवीय कमजोरियां, वासनाएं आदि हमारे हिस्से में भी आई हैं। लेकिन परिपूर्णता की यह दृष्टि बहुत बड़ी उपलब्धि है जिसे बचाने और विकसित करने की जरूरत है। इसे कूड़ा समझ कर हम घर से बाहर फेंकने में लगे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि हमने इसमें से कूड़ा और कंचन अलग-अलग करने की समझ भी पैदा नहीं की है। फिर किस आधार पर यह विवेक हो कि किसे हटाने और किसे रखने की जरूरत है? आधार तो एक ही है- लोगों में इस प्रस्ताव को ले जाइए और खूब बहस होने दीजिए! ग्रामसभाओं और ग्रामपंचायतों में इस पर रायशुमारी कीजिए। समझ बनने में जितना वक्त जाएगा, वह बरबाद नहीं होगा बल्कि यह मानिए कि हमारे सयानेपन में यह निवेश हुआ। ऐसा कुछ किए बिना हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह हमारी व्यवस्था को खोखला बना रहा है। |
Wednesday, December 12, 2012
खुला बाजार और बंद दिमाग
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/34314-2012-12-11-05-14-29
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