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Sunday, October 7, 2012

जब इस कब्रिस्तान में जाग उठेंगे खेत​!

जब इस कब्रिस्तान में जाग उठेंगे खेत​!
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​पलाश विश्वास

चारों तरफ से हम एक बेइंतहा कब्रिस्तान से घिरे हुए हैं, जिसका कोई ओर छोर नहीं। आवाजें मुर्दा हैं और जिंदगी फरेब।हवा पानी जमीन ​​आसमान सबकुछ इस कब्रिस्तान की दीवारों में कैद हैं। कभी तो इस कब्रिस्तान में जाग उठेंगे खेत और फिजां बदल जायेंगी, कितनी सदियों से न जाने रूहें इस इंतजार में भटक रही हैं। देश में 6 दशक बाद भी भूमि सुधार का काम पूरा नहीं हुआ है। अब तो यह सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं से गायब हो चुका है। जीवन जीने के संसाधनों के असमान वितरण के कारण देश में 35 अरबपतियों के चलते अस्सी करोड़ गरीब अपने हक से वंचित हो गए हैं।देश में 24 करोड़ लोग भूमिहीन हैं।सरकार की प्राथमिकता लोगों को भूमि स्वामी बनाने की नहीं बल्कि भूमिहीन करने की है। यही कारण है कि केंद्र सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून के जरिए किसानों की जमीनों के अधिग्रहण की प्रक्रिया आसान की जा रही है। भूमि सुधार के बिना अधिग्रहण कानून में संशोधन का मकसद जल, जंगल जमीन और आजीविका के हक हकूक की लड़ाई को खत्म करना!

जिंदा कौमें वक्त बदलने का इंतजार नहीं करतीं, वक्त बदल देती हैं! हमे अपने हक की लड़ाई खुद ही लड़नी होगी और इसके लिए एकजुट होकर अपनी ताकत का एहसास कराना होगा।

खुले बाजार की जद्दोजहद में शामिल नपुंसक मौकापरस्त कबंधों की पढ़ी लिखी जमात यकीनन हालात बदलना नहीं चाहती। जश्न के ​​मिजाज में खलल न पड़े, इस खातिर हर सूरत में अपने को मौकामाफिक सेट करके मलाई उड़ाने की फिराक में हैं वे। हिंदुस्तान की तकदीर ​​खराब है कि यही जमात हर कहीं रहनुमा है। मेहनतकश कहीं नहीं हैं और न कहीं उनका वजूद है।

बगावत की खुशबू सिरे से गायब है और सौदेबाजी दस्तूर है।

मसलन किसानों की बात करें, जिन्हें जिंदा दफना दिया गया है। जल जंगल जमीन खेत खलिहान गांव बोलियों और धुनों के साथ और उनके सीने पर सजा दिये गये हैं ताबूतों के मानिंद तरक्की के रंग बिरंगे माडल।खुदकशी और कत्ल की वारदातों में खत्म होती इस जमात के साथ हमेशा​ ​ दगा होता रहा। कुदरत के साथ जीने मरने वालों ने ही हमेशा जमाना बदला है। उत्पादक ताकतों ने ही हमेशा वक्त बदला है और हमलावर साम्राज्यवादी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए आजादी के ख्वाबों को हकीकत में तब्दील किया है, इतिहास गवाह है। पर हमारे यहां किसानों मजदूरों ​​और मेहनतकशों, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, शरणार्थियों,विस्थापितों, बस्तीवालों के रहनुमा वे लोग होते हैं, जिनकी जड़ें हूकुमत में गहरी पैठी होती हैं और हुकूमत के कायदे के खिलाफ वे कुछ होने या करने की इजजाजत नहीं देते। सत्तावर्ग के हितों के मुताबिक बदल दिये जाते हैं तमाम ​
​आंदोलन। आजाद भारत के इतिहास में किसानों से दगाबाजी का सिलसिला कभी खत्म ही नहीं हुआ।

राष्ट्रीय स्तर पर भूमि सुधार नीति की मांग को लेकर निकाले गए 'जन सत्याग्रह मार्च' का नेतृत्व कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता पीवी राजगोपाल ने उम्मीद जताई है कि कल (सोमवार) उनके प्रतिनिधियों और सरकार के बीच होने वाले बातचीत में सहमति बनने के आसार हैं। भूमि सुधार कानून लागू करने की मांग को लेकर ग्वालियर से चली सत्याग्रह यात्रा 28 अक्टूबर को जंतर-मंतर पर खत्म होगी। यात्रा की शुरुआत गांधीजी के जन्मदिवस के दिन यानी 2 अक्टूबर को हुई थी।यह यात्रा एकता परिषद के बैनर तले हो रही है और इसमें दो हजार से अधिक संगठनों के लोग जुड़े हुए हैं। सत्याग्रह को शुरू करने से पहले 24 राज्यों के 338 जिलों में राष्ट्रीय भूमि सुधार कानून को लागू करने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिश हुई। यात्रा का नेतृत्व राजगोपाल पी. वी. कर रहे हैं।  उन्होंने बताया कि देश में भूमि सुधार नहीं होने से 24 करोड़ लोग बिना घर और जमीन के हैं। सरकार ने राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद और राष्ट्रीय भूमि सुधार समिति का गठन किया, लेकिन इस दिशा में कुछ ठोस नहीं हो सका। उन्होंने दावा किया कि जन सत्याग्रह की ताकत इस बार सरकार को अपना रुख बदलने के लिए मजबूर करेगी और गरीबों को उनका हक मिल कर रहेगा। बहरहाल, जन सत्याग्रह आंदोलन ने देश के दूर-दूर के क्षेत्रों में भूमि सुधार को नवजीवन का संदेश पंहुचाया है। इसके लिए 350 जिलों में जन संवाद यात्राएं पहुंची हैं। लगभग 2000 जन संगठनों का सहयोग इसके लिए प्राप्त किया गया है।

आदिवासी विद्रोहों, सन्यासी विद्रोह, १८५७ की क्रांति, नील विद्रोह सबका अंजाम इस दगाबाजी के मुताबिक हुआ। जब सांप्रदायिक राजनीति इस देश का बंटवारा कर रही थी, तब सीमा के आर पार हिंदू मुसलमान किसाल कंधे से कंधा मिलाकर तेभागा आंदोलन में अपने हत हकूक की ​​लड़ाई लड़ रहे थे। ऱाजनीतिक हितों की खातिर हुए भारत विबाजन से सबसे ज्यादा नुकसान किसान कौमों को हुआ। बंगाल और पंजाब ​​दोनों सूबों में। शरणार्थी समस्या दरअसल किसानों की समस्या है, जैसे विस्थापन, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की समस्या भी​ ​ दरअसल भूमि सुधार और जल जंगल जमीन के हक हकूक की समस्याओं से जुड़ी हैं। खेती और देहात के सत्यानाश की नींव पर खड़ी ​​बाजारू अर्थ व्यवस्था और राजनीति में इन समस्याओं का हल नहीं है। इन समस्याओं को और संगीन बनाने से ही बाजार का हित है। अर्थ​ ​ व्यवस्था हो या राजनीति, नीति निर्दारम या नेतृत्व में उपभोक्ता समाज का ही वर्चस्व है, जिनका हित उत्पादकों के कत्लेआम में ही है। ​​और इसी मकसद से दुनिया के इस बेशकीमत बेहतरीन हिस्से को उन्होंने कब्रिस्तान में तब्दील किया है। जमींदरों और रियासतों के हित में आजादी से पहले हुए तमाम किसान आंदोलन का दमन करने वाले आजादी के बाद किसान आंदोलन के रहनुमा बन गये और सत्ता पर काबिज हो गये जमींदारों और रियासतों के वारिशन। बंगाल में तेभागा के बाद न्कसबाड़ी आंदोलन का हश्र भी वहीं हुआ तो हाल फिलहाल नंदीग्राम, लालगढ़ और सिंगुर जनविद्रोह का भी वही हाल। ङमारे लोगों की शहादतों और कुर्बानियों को हुकूमत की सीढ़ियों में तब्दील कर दिया गया।​
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​तेलगंना महाविद्रोह से लेकर तेलंगाना आंदोलन तक अफसाना बदला नहीं है। भाषा और तकनीक जरूर बदल गयी है। श्रीकाकुलम हो या​ ​ ढिमरी ब्लाक या फिर नक्सलबाड़ी या दांतेबाड़ा, वहीं कहानी फिर फिर यौटकर आती है। दगाबाजी के शिकार किसान बार बार मारे जाते रहे​ ​ हैं।चौधरी चरण सिंह तो किसान आंदोलन के जरिये प्रधानमंत्री तक बन गये। देवेगौड़ा भी मूलतः किसानी पृष्ठ भूमि से हैं। किसानों को आखिर क्या मिला?

शरद जोशी और महेंद्र सिंह टिकैत के आंदलनों की याद है टिहरी बांध, नर्मदा, सरदार सरोवर, डीवीसी, इस्पात संयंत्रों, परमाणु बिजलीघरों,​​राष्ट्रीय राजमार्ग, एक्सप्रेसवे, सेज, तमाम तरह की खान परियोजनाओं, अभयरण्यों की विकासगाथा में हर बार प्रतिरोध का हश्र आखिर किसानों को क्यों दगा देता रहा?

विदर्भ तो एक बिंब है। हमें बतायें कि कहां किसान बुखमरी के शिकार नहीं हो रहे हैं? कहां किसान खुदकशी नहीं कर रहे हैं? यह भी बताये कि हरित क्रांति के बाद से अब तक कृषि और उससे जुड़ी आजीविकाएं खत्म क्यों होती रही?

अब फिर लाखों किसान दिल्ली की तरफ कूच कर रहे हैं।भूमि सुधार कानून लागू करने की मांग को लेकर ग्वालियर से चली सत्याग्रह यात्रा 28 अक्टूबर को जंतर-मंतर पर खत्म होगी। अब दिल्ली देश के किसी हिस्से से ज्यादा दूर नहीं है। जंतर मंतर हो या फिर रामलीला मैदान या लालकिला या फिर इंडिया गेट, हर मजमे में किसानों को लामबंद किया जाता है। और अंजाम?

केंद्र सरकार ने 'जनसत्याग्रह मार्च' पर निकले सत्याग्रहियों से बातचीत की फिर पेशकश की है। जल, जंगल और जमीन के मुद्द पर आंदोलन कर रहे सत्याग्रहियों के साथ सोमवार को सरकार की बातचीत होगी। सत्याग्रह की अगुआई कर रहे एकता परिषद के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल के मुताबिक केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इस सिलसिले में उनसे बात की है। राजगोपाल ने बताया कि जयराम रमेश ने संभवत: इस सिलसिले में प्रधानमंत्री से बात की है और इसके बाद ही उन्होंने हमें उनका यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा कि अगरा पहुंचने तक अगर बात बन जाती है तो फिर जनसत्याग्रह मार्च बीच में हो रोक दिया जाएगा। राजगोपाल ने बताया कि हम राष्ट्रीय स्तर पर समग्र भूमि नीति पर व्यापक बदलाव चाहते हैं ताकि जमीन का अधिग्रहण कर उद्योगपतियों को नहीं सौंप दी जाए। उन्होंने कहा कि हमारी मांग आदिवासी इलाकों में उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल नहीं किया जाए।

एकता परिषद इसी तरह की और मांगों को लेकर दो अक्तूबर से ग्वालियर से दिल्ली मार्च कर रहा है। देश और विदेश से जमा हुए पचास हजार से ज्यादा लोग इस सत्याग्रह में शामिल है और अब तक करीब अड़तालीस किलोमीटर की यात्रा तय कर चुके हैं। दिल्ली पहुंचने तक यह तादाद एक लाख के करीब पहुंच जाएगी। परिषद ने सरकार से कहा है कि अगरा पहुंचने तक अगर सरकार नो कोई ठोस भरोसा नहीं दिलाया तो फिर मार्च का पड़ाव दिल्ली में ही होगा। केंद्र सरकार ने 'जनसत्याग्रह मार्च' पर निकले सत्याग्रहियों से बातचीत की फिर पेशकश की है। जल, जंगल और जमीन के मुद्द पर आंदोलन कर रहे सत्याग्रहियों के साथ सोमवार को सरकार की बातचीत होगी। सत्याग्रह की अगुआई कर रहे एकता परिषद के अध्यक्ष पीवी राजगोपाल के मुताबिक केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इस सिलसिले में उनसे बात की है। राजगोपाल ने बताया कि जयराम रमेश ने संभवत: इस सिलसिले में प्रधानमंत्री से बात की है और इसके बाद ही उन्होंने हमें उनका यह संदेश भेजा है। उन्होंने कहा कि अगरा पहुंचने तक अगर बात बन जाती है तो फिर जनसत्याग्रह मार्च बीच में हो रोक दिया जाएगा। राजगोपाल ने बताया कि हम राष्ट्रीय स्तर पर समग्र भूमि नीति पर व्यापक बदलाव चाहते हैं ताकि जमीन का अधिग्रहण कर उद्योगपतियों को नहीं सौंप दी जाए। उन्होंने कहा कि हमारी मांग आदिवासी इलाकों में उन्हें उनकी जमीनों से बेदखल नहीं किया जाए। एकता परिषद इसी तरह की और मांगों को लेकर दो अक्तूबर से ग्वालियर से दिल्ली मार्च कर रहा है।

लोगों का यह जनसैलाब सरकार के लिए परेशानी का करण बन गया है। कई तरह के आरोपों को झेल रही यूपीए सरकार के लिए जनसत्याग्रह भी परेशानी का सबब बन गया है। सरकार इस मसले को जल्द निपटाना चाहती है लेकिन एकता परिषद को सरकार के जबानी वादों का भरोसा नहीं है। राजगोपाल ने कहा कि जब तक लिखित में ठोस भरोसा नहीं मिलता उनका दिल्ली कूच स्थगित नहीं होगा।

राजगोपाल ने राजस्थान के धौलपुर से बातचीत में कहा, 'सोमवार को सरकार और हमारे प्रतिनिधियों के बीच बातचीत होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोई सहमति बन जाएगी।' 'एकता परिषद' के प्रमुख ने कहा, 'हम सरकार के साथ एक ऐसा समझौता चाहते हैं जिसका कानूनी स्वरूप हो ताकि वह आगे भी कायम रह सके। हम एक मंत्री के लिखित आश्वासन मात्र से नहीं रुकने वाले हैं।' पिछले दिनों केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की ओर से राजगोपाल को एक पत्र भेजा गया था जिसमें उनकी कुछ प्रमुख मांगों पर कदम उठाने का आश्वासन दिए गए थे, हालांकि सत्याग्रहियों ने उस वक्त कहा था वे सरकार से 'लिखित संकल्प' अथवा कानूनी स्वरूप वाला कोई समझौता चाहते हैं।

सोमवार को राजगोपाल के प्रतिनिधियों और केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश के बीच बैठक होने वाली है। राजगोपाल का कहना है कि सरकार के साथ समझौता होने पर वह और उनके साथी कार्यकर्ता आगरा में ही अपने मार्च का समापन कर सकते हैं। वैसे, जयराम रमेश इस साल की शुरुआत से ही सत्याग्रहियों के साथ बातचीत कर रहे हैं और हाल ही में राजगोपाल एवं उनके साथियों से बातचीत के लिए वह ग्वालियर भी गए थे, हालांकि उस वक्त भी कोई सहमति नहीं बन पाई थी। रमेश के सामने केंद्र के स्तर पर विभिन्न विभागों के बीच तालमेल बैठाने की चुनौती के साथ ही एक मुश्किल यह भी है कि सत्याग्रहियों की कई मांगें सीधे तौर पर राज्य सरकारों से जुड़ी हुई हैं।

सरकार ने जयराम रमेश को ही इस मसले को सुलझाने का जिम्मा सौंपा है लेकिन रमेश के सामने कई तरह की दिक्कते आ रही हैं। एक तो उन्हें केंद्र के स्तर पर विभिन्न विभागों के बीच तालमेल बैठाने में परेशानी हो सकती है तो दूसरी तरफ संगठन की कई ऐसी मांगें हैं जिनका ताल्लुक केंद्र सरकार से नहीं बल्कि राज्य सरकारों से है। ऐसे में वे राज्य सरकार की तरफ से किसी तरह का भरोसा दिला भी नहीं सकते हैं। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय भूमि सुधार परिषद के सदस्य राजगोपाल और उनके साथियों की भूमि सुधार नीति के अलावा दूसरी प्रमुख मांग भूमि संबंधी मामलों को सुलझाने के लिए त्वरित अदालतों की स्थापना की है।

एकता परिषद की कुछ अन्य प्रमुख मांगें भूमिहीनों को खेती की जमीन का अधिकार देने, मनरेगा की तर्ज पर सभी के जिए आवासीय भूमि प्रदान करने, ग्रामीण क्षेत्र के प्रत्येक भूमिहीन एवं आश्रयहीन परिवार को दस डेसिमल भूमि की गारंटी की नीति बनाने की है। इस तरह की सोलह सूत्री मांगे हैं, जिनमें से कई का ताल्लुक सीधे तौर पर राज्यों से है। केंद्र के लिए इन पर सहमति बनाना बड़ी चुनौती है।

ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने आंदोलनकारियों के नेता एकता परिषद के प्रमुख पीवी राजगोपाल को सोमवार को एक पत्र लिखकर अपनी वचनवद्धता जताने का प्रयास किया है। दो पेज के इस पत्र में सात पैरे हैं। इसमें सबसे प्रमुख बात यह कही गई है कि सरकार एक भूमि सुधार नीति की घोषणा कर सकती है। इसके लिए भूमि को राज्य का विषय बताकर राज्यों से बात करने के लिए छह महीने का वक्त लगने की बात कही गई है। दूसरे पैरे में जयराम रमेश ने पूछा है कि ऐसे आवासहीन, जो इंदिरा आवास योजना में आवास पाने से वंचित रह जा रहे हैं, उनके लिए कितने अनुदान की आवश्यकता होगी इसका पता लगाया जाएगा।

तीसरे पैरे में कहा गया है कि जंगल में आदिवासियों को बने रहने में कोई दिक्कत न आए, इसके लिए सरकार पेसा कानून (पीईएसए) के लिए एक आदर्श नियमावली बनाएगी।

चौथे पैरे में कहा गया है कि भूमि विवादों के संबंध में आंध्र प्रदेश का मॉडल अपना कर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के लिए सरकार तैयार है। पांचवे पैरे में ग्रामीण विकास मंत्री ने यह वादा किया है कि वह तीन-चार महीने में राज्यों के राजस्व मंत्रियों से बात करके सरकारी भूमि का सव्रे कराने के लिए पहल कराएंगे।

सरकार के इस बदले रुख पर एकता परिषद के प्रमुख राजगोपाल ने 'राष्ट्रीय सहारा' से कहा कि उन्होंने अभी पत्र नहीं देखा है। उन्होंने कहा कि उन्हें सोमवार को मंत्री जयराम रमेश ने फोन किया था कि वह अपनी गारंटी लोगों के बीच संवाद के दौरान ही देंगे।

राजगोपाल ने कहा कि उन्हें कहा गया है कि मंत्रियों का सार्वजनिक रूप से बोलना सरकार की गारंटी ही समझा जाए। उन्होंने कहा कि वह कोई नया कानून नहीं मांग रहे हैं बल्कि भूमिहीनों को जमीन दिलाने वाला रोडमैप मांग रहे हैं, जो संभव है। राजगोपाल ने कहा कि अगर सरकार ने उनकी मांग नहीं मानी तो भी वह शालीनता से संवाद जारी रखेंगे और अमर्यादित व्यवहार उन्होंने न कभी किया है न करेंगे।

भूमि सुधार

भारत में आजादी के समय एक ऐसी कृषि व्यवस्था मौजूद थी जिसमें भूमि का स्वामित्व कुछ हाथों में केंद्रित था। इस व्यवस्था में किसानों का शोषण हुआ और ग्रामीण जनसंख्या के सामाजिक आर्थिक विकास में यह बड़ी बाधा थी। आजादी के बाद भारत सरकार का ध्यान भूमि के समान वितरण पर भी रहा और देश को समृद्ध बनाने में भूमि सुधार को एक मजबूत स्तंभ के रूप में देखा गया। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन भूमि संसाधन विभाग जप्त अधिशेष भूमि के वितरण (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं), भूमि अभिलेखों का कम्प्यूटरीकरण (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं), और भू-अभिलेखों के नवीनीकरण (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) सहित भूमि सुधार से संबंधित मामलों के लिए नोडल एजेंसी है।

भूमि अभिलेख प्रबंधन की व्यवस्था अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न है। यह राज्य में अपने ऐतिहासिक विकास और स्थानीय परंपराओं पर निर्भर करती है। अधिकांश राज्यों में भूमि रिकॉर्ड प्रबंध में कई विभाग शामिल हैं। लोगों को पूरे भूमि रिकॉर्ड के लिए 3 से 4 या इससे भी अधिक एजेंसियों से संपर्क करना पड़ता है। इसमें मूलपाठ का रिकॉर्ड और परिवर्तन के लिए राजस्व विभाग, नक्शों के लिए सर्वेक्षण और निपटान (या एकीकरण) विभाग, बाधाओं के सत्यापन और स्थानांतरण, बंधन के पंजीयन के लिए पंजीयन विभाग पंचायतों (कुछ राज्यों में, परिवर्तन के लिए) और नगर निगम के अधिकारियों (शहरी भूमि रिकॉर्ड के लिए) के पास जाना पड़ता है और यह समय की बर्बादी, जोखिम और उत्पीड़न भरा होता है।

दो मौजूदा केंद्र प्रायोजित योजनाओं भूमि अभिलेखों का कम्प्यूटरीकरण (सीएलआर) और राजस्व प्रशासन के सुदृढ़ीकरण एवं भूमि रिकार्ड का अद्यतन (एसआरए और यूएलआर) को 2008 में एक साथ मिलाने का निर्णय लिया गया और इसकी जगह देश में गारंटी के साथ एक प्रणाली विकसित करने के लिए केंद्र प्रायोजित योजना आधुनिकीकरण कार्यक्रम (एनएलआरएमपी) (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) को आकार दिया गया।

अपने राज्य में भू-अभिलेखों की जानकारी के लिए यहां क्लिक करें।

स्रोत: राष्‍ट्रीय पोर्टल विषयवस्‍तु प्रबंधन दल, द्वारा समीक्षित: 30-03-2011
http://bharat.gov.in/citizen/graminbharat/graminbharat.php?id=5


2007 में एकता परिषद व उसके सहयोगी संगठनों ने इसी उद्देश्य से विशाल पदयात्रा आयोजित की थी। सरकार ने तब वायदे तो किए थे पर उन्हें पूरा नहीं किया।

आजादी के बाद देश में कृषि भूमि के वितरण की विषमता कम करने व ग्रामीण भूमिहीन वर्ग को कृषि भूमि उपलब्ध कराने के उद्देश्यों को सरकार ने स्वीकार किया।

इस निमित्त सरकार ने भूमि हदबंदी या सीलिंग कानून बना कर कृषि भूमि की उच्चतम सीमा तय कर दी ताकि जिसके पास इससे अतिरिक्त भूमि है, उसे उनसे प्राप्त कर भूमिहीनों या लगभग भूमिहीन परिवारों में बांटा जा सके। यह प्रयास चर्चित तो हुआ पर बड़े भूस्वामी अनेक तिकड़मों से अपनी अधिकांश भूमि बचाने में सफल रहे और बहुत कम भूमि पुनर्वितरण के लिए प्राप्त हो सकी।

भारत सरकार के पूर्व ग्रामीण विकास सचिव एसआर शंकरन इस विषय के जाने-माने विद्वान रहे हैं।अन्य देशों से तुलना करते हुए उन्होंने लिखा है कि चीन में 43, ताइवान में 37, दक्षिण कोरिया में 32 व जापान में 33 प्रतिशत भूमि का पुनर्वितरण हुआ।

इसकी तुलना में भारत में केन्द्रीय व राज्य सरकारों के 35 वर्षो तक हदबंदी या सीलिंग कानून बनाने और कार्यान्वित करने के बाद जोती गई भूमि के मात्र 1.25 प्रतिशत हिस्से का ही पुनर्वितरण हो सका।ग्रामीण निर्धन वर्ग में गांव समाज या अन्य उपलब्ध भूमि का वितरण भी सरकार ने किया पर इस प्रयास में प्राय: बंजर या कम उपजाऊ  भूमि ही बांटी गई। अच्छी जमीन बंटने पर कब्जा मिलने में कई कठिनाइयां उपस्थित की गई।

भू-दान आंदोलन ने जरूर एक समय निर्धन वर्ग में अहिंसक भूमि वितरण की उम्मीद जगायी पर यह भूमि भी जरूरतमंदों तक सही ढंग से वितरित नहीं हुई। सीलिंग कानून के अन्तर्गत प्राप्त कृषि भूमि  के अलावा गांव समाज व भूमि व भूदान भूमि का प्रतिशत जोड़ने पर भी कुल कृषि भूमि के 4 प्रतिशत के आसपास की भूमि ही गरीब लोगों में वितरण के लिए उपलब्ध हो पायी है।

हाल के वर्षो में भूमि-सुधारों की प्रगति निराशाजनक रही है। कुछ स्थानों पर तो भूमिहीनों को  दिए पट्टे भी निरस्त होने लगे।11वीं पंचवर्षीय योजना में भूमि संबंधों के मुद्दों का आधार तैयार करने के लिए योजना आयोग ने एक वर्किग ग्रुप नियुक्त किया था जिसका मानना है कि आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के बाद सरकार की भूमि-सुधार में रुचि खत्म हो गई।

वर्किग ग्रुप ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि भूमि हदबंदी (लैंड सीलिंग) की सीमा बढ़ाने या इस कानून को समाप्त करने के लिए एक मजबूत लॉबी सक्रिय है। रिपोर्ट के मुताबिक 1980 के दशक के मध्य में जब भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण का प्रवेश पहले गुपचुप और 1991 से तूफानी गति से होने लगा तो भारतीय नीति निर्धारण के रडार स्क्रीन से भूमि सुधार गायब हो गए. भूमि सुधार भुला दिया गया एजेंडा बन गया।

अत: आज भूमि-सुधार के अधूरे एजेंडे को पूरा करना बहुत जरूरी है ताकि ग्रामीण भूमिहीन परिवारों को सीलिंग, भूदान या अन्य श्रेणियों के अन्तर्गत कृषि भूमि मिल सके. परती भूमि सुधार व विकास जैसे प्रयासों के अन्तर्गत भी भूमिहीन या लगभग भूमिहीन परिवारों को भूमि उपलब्ध करायी जा सकती है। साथ ही लघु सिंचाई, मेंढ़बंदी, भूमि व जल-संरक्षण व टिकाऊ  खेती के प्रयासों को जोड़ना चाहिए।

इसके साथ अब भूमि सुधारों का नया आयाम जोड़ना भी जरूरी है। जहां एक ओर भूमिहीनों के लिए भूमि-अधिकार प्राप्त करना जरूरी है, वहीं छोटे और मध्यम किसानों के भूमि अधिकारों के लिए बढ़ते संकट को रोकना भी जरूरी है। यदि दूसरा कदम न उठाया गया, तो विस्थापन और किसान संकट के इस दौर में किसान और तेज गति से भूमिहीन बनते जाएंगे और इस तरह भूमि-सुधार का पूरा मकसद ही खतरे में पड़ जाएगा।

हाल के वर्षो में ऐसा हो भी रहा है कि उतने भूमिहीनों को भूमि नहीं दी जा रही है जितने किसान भूमिहीन होते जा रहे हैं।
भूमि-सुधार का दूसरा अहम पक्ष यह है कि किसानों के भूमिहीन बनने की आशंका के मद्देनजर विस्थापन की आशंकाओं को न्यूनतम करते हुए संकट दूर हो। किसानों के भूमिहीन बनने के कारण जैसे उद्योग, बांध, खनन, राष्ट्रीय पार्क व वन-भूमि से विस्थापन आदि- तमाम कारणों को न्यूनतम किया जाए।

सरकार जहां पुनर्वास की बेहतर व्यवस्था का कानून बनाने का वायदा कर रही है, वहां पूर्व में जिन विस्थापितों के साथ गंभीर अन्याय हुआ है उन्हें न्याय देने का कोई प्रयास अभी एजेंडे पर नहीं है। इसकी भी व्यवस्था होनी चाहिए. भूदान की समग्र भूमि का न्यायसंगत वितरण हो सके तो आज भी अनेक जरूरतमंद परिवारों को राहत मिल सकती है। जिन भूमिहीनों को पट्टे दिए गए हैं, उन्हें सफल किसान बनने के लिए जरूरी सहयोग मिलना चाहिए. यदि कुछ महत्वपूर्ण सुधार कर दिये जाएं तो सीलिंग कानूनों से भी काफी भूमि प्राप्त की जा सकती है।

आदिवासियों व अन्य परंपरागत वनवासियों के भूमि-अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रयास जरूरी हैं, जिसका महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि वन अधिकार कानून का क्रियान्वयन उसकी सही भावना के अनुकूल हो। आवास भूमि के कानूनी हक से वंचित सभी गांववासियों को आवास-भूमि सुनिश्चित करने के कार्य को तेजी से पूरा करना आवश्यक है।

विश्व स्तर के अनेक अध्ययनों से यह बात सामने आई है कि अनुकूल स्थितियां और विशेषकर उचित सहयोगी सरकारी नीतियां निर्धन किसानों को विभिन्न स्तरों पर समुचित सहायता प्रदान करें तो छोटे किसान टिकाऊ खेती की दिशा में बेहतर उत्पादकता दे सकते हैं।

न्याय, समता व लोकतंत्र की मजबूती की दृष्टि से भी भूमि-सुधार जरूरी हैं। भूमि की विषमता कम होने से गांव समुदायों की बुनियाद भी मजबूत होती है। भूमि सुधारों के इस बहुपक्षीय महत्व को ध्यान में रखते हुए इन्हें केंद्र व राज्य दोनों सरकारों  के स्तर पर उच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए।


वर्ष 2007 में एकता परिषद तथा सहयोगी संगठनों के द्वारा जनादेश पदयात्रा (2-29 अक्टूबर, 2007) के पश्चात भारत सरकार से निर्णायक बातचीत हुई और राज्य कृषि संबंधों तथा भूमि सुधार में अपूर्ण कार्य संबंधी समिति (भारत सरकार 2008) का गठन किया गया। इस समिति के द्वारा भारत के 18 राज्यों में भ्रमण के पश्चात 'राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति' का एक विस्तृत प्रारूप तैयार किया गया। एकता परिषद की ओर से इसका एक संक्षिप्त संस्करण पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया है। इसी पुस्तक की प्रस्तावना के कुछ अंश यहां पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं:

भारत के अधिकांश भागों में आज भी 'भूमि' एक ऐसा अहम संसाधन है जो जीवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तंत्र का मूल आधार है। गांवों, कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाले लोगों के जीवन का आधार आज भी भूमि व प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित व्यवसाय ही है, जैसे कृषि व बागवानी या भेड़/बकरी पालन। देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि न केवल जीवनयापन का साधन है वरन वहां बसने वाले लोगों के लिए 'आत्मसम्मान' 'नागरिकता' का आधार व प्रमाण भी है। अत: 'भूमि अधिकार' व 'प्राकृतिक संसाधनों' तक आम आदमी की पहुंच केवल आर्थिक मुद्दे नहीं वरन ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाले सभी लोगों के आत्मस्वाभिमान से जुड़े प्रश्न भी हैं।

भोजन, जीवनयापन के साधनों व विकास के नियोजन हेतु भूमि की अहम महत्ता है। 'राष्ट्रीय कृषि, आर्थिक नीति शोध केन्द्र' के अनुसार सन 2003-12 के दौरान खाद्यान्न की आपूर्ति के लिए अन्न उत्पादन क्षमता 2.21 प्रतिशत की दर से बढ़नी चाहिए व 2011-21 की खाद्यान्न आपूर्ति के लिए उत्पादन क्षमता 1.85 प्रतिशत की दर से बढ़नी चाहिए। ग्यारहवीं योजना प्रपत्र के अनुसार कृषि क्षेत्र में 4 प्रतिशत वार्षिक बढ़ोतरी का लक्ष्य है। परन्तु वर्तमान स्थिति में 4 प्रतिशत बढ़ोतरी तभी संभव होगी, जब 'भूमि सुधार' के व्यापक कार्यक्रम लागू होंगे। देश के अनेक क्षेत्रों में 'भूमि सुधार' कार्यक्रम के अभाव में हम आज भी पूर्ण क्षमता के अनुरूप कृषि उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं।

आजादी के 64 वर्ष बाद भी 'भूमि सुधार' एक अहम व अधूरा कार्य है। एक सार्वभौमिक भय है कि नव उदारीकरण के दौर में 'भूमि सुधार' मुद्दे की उपेक्षा की जाएगी और इसी दौरान भूमि संबंधी मुद्दों को प्रभावित करने वाली कुछ नीतियों के चलते आशंका और गहन हुई है। भूमि खातों के विकृत स्वरूप से स्पष्ट संकेत मिलता है कि 'भूमि सुधार' कार्यक्रम की उपलब्धियां पर्याप्त नहीं हैं। राष्ट्रीय प्रतिचयन सर्वेक्षण संस्था की एक रिपोर्ट (2006) के अनुसार 95.65 प्रतिशत छोटे व सीमान्त श्रेणी के किसान 62 प्रतिशत काश्तकारी भूमि के मालिक हैं, जबकि 3.5 प्रतिशत मध्यम व बड़ी श्रेणी के किसान 37.72 प्रतिशत भूमि के मालिक हैं। भूमिहीन परिवारों का एक व्यापक वर्ग ऐसा भी है, जिनके पास निवास/मकान के लिए भी भूमि नहीं है। इन परिवारों का जीवनयापन सरकार द्वारा स्वीकृत न्यूनतम जीवन स्तर से भी कम है। औसतन रुपये 503 मासिक का पारिवारिक खर्चा इन किसानों के जीवन की गरीबी की कहानी स्वयं कहता है।

विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के तहत 'भूमि सुधार' नीति की सीमित सफलताएं, औद्योगीकरण व ढांचागत विकास की व्यापक राष्ट्रीय योजनाएं तथा वर्तमान में निजी व्यवसायों द्वारा भूमि अर्जन हेतु कानून में फेर-बदल के कारण भूमिहीनों व सीमान्त कृषकों की तादात में भारी इजाफा हुआ है। आर्थिक सुधारों के दौर में शीघ्र औद्योगीकरण की चाह ने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को और व्यापक बना दिया है। इस मामले में विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) अधिनियम एक बेहद विवादग्रस्त मुद्दा है।

विकास योजनाओं से विस्थापित हुए लोगों में आदिवासियों की संख्या सबसे अधिक है। जनसंख्या का केवल 9 प्रतिशत भाग ही आदिवासी है, मगर अब तक अधिग्रहित भूमि में इनकी भूमि का भाग 40 प्रतिशत है। संसद ने अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार अधिनियम 1996 पेसा के रूप में एक मौलिक कानून को अंजाम दिया, जो वर्तमान में देश के 9 राज्यों में लागू है। इन सभी राज्यों में आदिवासियों की भूमि की सुरक्षा के लिए कठोर नियम व कानून बनाए गए हैं लेकिन फिर भी उनकी भूमि निरन्तर घटती जा रही है। पेसा क्षेत्रों में स्थानीय समुदायों के अधिकारों की अवहेलना करते हुए खनन, औद्योगिक क्षेत्र निर्माण व सुरक्षित वन क्षेत्र विस्तार जैसी प्रक्रियाओं में तेजी आई है।

केवल असम राज्य में 3,91,772 एकड़ भूमि विकास परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित की गई है। इतने व्यापक हस्तांतरण से जैविक परिवेश, लोगों के जीवन व जीवनयापन के साधनों पर पड़ने वाले कुप्रभावों को पूर्णत: नजरअंदाज कर दिया गया है।
औद्योगीकरण व विकास परियोजनाओं के लिए कृषि योग्य व वन भूमि के व्यापक हस्तांतरण के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में अशान्ति व विस्थापन की स्थिति चिन्ताजनक होने लगी है। पिछले दो दशकों में लगभग 7,50,000 एकड़ भूमि खनन/ खदानों के लिए व 250,000 एकड़ भूमि औद्योगीकरण के लिए हस्तांतरित की जा चुकी है (Center for Science and Environment)। विशेष आर्थिक क्षेत्र के तहत कृषकों के विस्थापन की घटनाओं की खबर निरन्तर आती रहती है। सम्पूर्ण देश में कृषि योग्य भूमि के 'गैर कृषि' उपयोग की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। इतने व्यापक पैमाने पर भूमि के परिवर्तन के कारण लोग कृषि से दूर होने लगे हैं। फलत: औद्योगीकरण व शहरीकरण हेतु दबाव बढ़ता जा रहा है और लोगों की अपेक्षाएं भी तेजी से बदलती जा रही हैं। व्यापक स्तर पर भूमि हस्तांतरण खाद्यान्न उपलब्ध में कमी का एक मुख्य कारण है। 1.1 अरब लोगों की आबादी के लिए पर्याप्त खाद्यान्न जुटाना देश की सरकार के लिए एक मुख्य चुनौती है।

आदिवासी भूमियों के संरक्षण व सुरक्षा के लिए सरकार वचनबध्द है और इसलिए अनेक नियमों व कानूनों का भी प्रावधान किया गया है। फिर भी आदिवासी भूमि कोष निरन्तर घट रहा है। इसके निरन्तर कम होने के अनेक कारण हैं- जैसे ब्याज पर पैसा देने वाले सेठ, साहूकार, जाली व धोखे से बनाए गए भूमि के अधिकार कागजात, भूमि पर जबरन कब्जा, जमीन गिरवी रखना, धोखाधड़ी से किए हस्तांतरण व भू-अभिलेख में गलत नामों पर भूमि का तबादला। इन समस्याओं के और गहन होने के भी बहुत से कारण हैं, जैसे सबूत पर जरूरत से ज्यादा जोर, न्याय प्रणाली व प्रक्रिया के प्रति अज्ञानता, लम्बे मुकदमों में डटे रहने की अक्षमता, सुनवाइयों का कभी न समाप्त होना, वसूली वाला व्यवहार व आदिवासी भूमि की बढ़ती मांग के कारण पनपता काला बाजार। परंपरागत व्यवस्था के तहत भूमि सहित सभी प्राकृतिक संसाधनों पर सदा सामुदायिक नियंत्रण ही रहा है। कानून प्रक्रिया में इस कमी को दूर करने हेतु अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार अधिनियम 1996 संसद द्वारा पारित किया गया।

अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार अधिनियम (पेसा) के तहत भूमि व अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर समुदाय के परंपरागत अधिकार को मान्यता दी गई है व ग्रामसभा को शक्ति दी है कि वह आदिवासियों की भूमि की पहचान कर सके व अलगाव के संदर्भ में उसे पुन: लौटा सके। पेसा के सफल क्रियान्वयन हेतु चार चीजों की आवश्यकता है-(1) उन नियमों व कानूनों में संशोधन जो अधिनियम के विरुध्द हैं। (2) ऐसी प्रक्रियाओं व नियमों को लागू करना जो पेसा के उद्देश्यों की पूर्ति करें। (3) सहयोगी संस्थाओं का निर्माण व (4) स्थानीय समुदायों व सरकारी कर्मचारियों का क्षमता विकास। ऐसा अभी तक किसी भी राज्य में नहीं किया गया है। ऐसी उम्मीद है कि पेसा के सही रूप से लागू किए जाने पर आदिवासी क्षेत्रों में शान्ति की बहाली होगी।

इन सभी मुद्दों पर दोनों, दक्षता व निष्पक्षता से, तुरन्त कार्यवाही की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाले लोगों की न्यायसंगत अपेक्षाओं की नजरअंदाजी भारी आर्थिक व राजनैतिक नुकसान का कारण हो सकती है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के एक अहम उद्देश्य अर्थात समेकित विकास हेतु ये आवश्यक है कि भूमि के उपयोग से संबंधित नीति बनाई जाए। भूमि के अनेक उपयोग हैं। कृषि, खनन व वानिकी जैसे प्राथमिक उपयोगों के अलावा भूमि औद्योगीकरण के लिए भी आवश्यक है, जैसे कि पहले कहा गया है। औद्योगीकरण की तेज रफ्तार के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण से हजारों-लाखों लोग विस्थापित हुए हैं। ये सत्य है कि देश के विकास के लिए औद्योगीकरण आवश्यक है, मगर इसे कृषि व लोगों के जीवनयापन से जुड़े बुनियादी अधिकारों की कीमत पर अंजाम नहीं दिया जा सकता। अत: ये अनिवार्य है कि हर एक राज्य भूमि के विभिन्न उपयोगों के आधार पर उसका आबंटन तय करे। एक स्पष्ट भूमि उपयोग नीति के लिए आवश्यक है कि केन्द्र स्तर पर भूमि सुधार समिति व राज्य स्तर पर भूमि नीति बोर्ड को पुनर्जीवित किया जाए। और साथ ही देश के हर राज्य में भूमि संघ का गठन किया जाए।

भूमि सुधार के लिए गठित राष्ट्रीय समिति के तहत सात उपसमितियां गठित की गईं, जिन्होंने निम्न विषयों पर अपने निष्कर्ष और सिफारिशें दीं। अब जरूरत है कि इन पर व्यापक बहस हो और सरकार इन सिफारिशों के आलोक में अपनी नीतियां और कानून बनाए।

1. भूमि हदबंदी और भूमि का आबंटन। 2. भूदान भूमि। 3. बटाईदारी कानून और भूमि सुधार। 4. आवास व आवासीय भूमि। 5. वन भूमि। 6. आदिवासी भूमि अलगाव। 7. आदिवासी भूमि अलगाव व पंचायत विस्तार अधिनियम (1996)। 8. शासकीय भूमि। 9. घुमंतु जातियों के भू-अधिकार। 10. महिलाओं के भूमि अधिकार। 11. सामुदायिक भूमि संसाधन। 12. कृषि भूमि का गैर कृषि प्रयोजन हेतु परिवर्तन। 13. ऊसर भूमि व सरकारी भूमि। 14. भूमि उपयोग तथा पर्यावरण। 15. अनुसूचित जातियों के अधिकार। 16. भूमि प्रबंधन। 17. उत्तार-पूर्व क्षेत्र में भूमि सुधार। 18. भूमि सुधार हेतु संभावित कार्यक्रम। 19. भूमि सुधार हेतु प्रस्तावित प्रबंधन।

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