रामप्रकाश अनंत
अनजानी चीजों के बारे में जानने की मनुष्य की स्वाभाविक जिज्ञासा रही है। इसी जिज्ञासा के चलते दो मतों का विकास हुआ। पहले मत में वे लोग आते हैं जो समझ में न आने वाले सवालों को एक दिव्य शक्ति के द्वारा हल कर लेते हैं और मानते हैं कि ये चीजें एक दिव्य शक्ति यानी ईश्वर ने बनाई हैं। उनके लिए कोई प्रश्न अनसुलझा नहीं रह जाता। वे एक बार मान लेते हैं कि यह प्रश्न ऐसे हल हुआ है फिर उनकी उसमें दृढ़ आस्था बन जाती है। दूसरे मत को मानने वाले मानते हैं कि किसी भी सवाल की सच्चाई को तर्कों के आधार पर समझा जाए। इस तरह पहले मत को मानने वालों ने मान लिया है कि जीवन की उत्पत्ति, पृथ्वी की उत्पत्ति, ब्रह्मांड की उत्पत्ति ईश्वर ने की है और उनके लिए ये सवाल निरर्थक हैं। राज्य व्यवस्था के लिए यह स्थिति बहुत अच्छी है कि लोग तमाम सवालों को अपने झूठे विश्वास के साथ सुलझा लें ताकि वह अपनी जिम्मेदारी से बच जाए।
इसलिए 4 जुलाई को जब पूरी दुनिया में जेनेवा में हिग्स-बोसॉन कणों पर किए गए प्रयोग की धूम मची थी, हमारा मीडिया भगवान का कण (गॉड पार्टिकल ) के नाम पर धुंआधार भगवान का प्रचार कर रहा था। हिग्स बोसॉन कण का नामकरण पीटर हिग्स और भारतीय वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस के नाम पर किया गया है। सत्येंद्र नाथ बोस ने यह परिकल्पना प्रस्तुत की थी कि परमाणु के अंदर कुछ भारहीन कण होते हैं जो दूसरे कणों के साथ मिल सकते हैं। उस समय किसी ने उनकी परिकल्पना को महत्व नहीं दिया। अंतत: उन्होंने अपना शोध अलबर्ट आइंस्टीन के पास भेज दिया। आइंस्टीन उसके महत्व को समझ गए और उसका जर्मन भाषा में अनुवाद कर एक पत्रिका में छपवा दिया। इस परिकल्पना को बोस-आइंस्टीन स्टैटिक्स के नाम से जाना गया। 1963 में पीटर हिग्स ने यह परिकल्पना दी कि परमाणु के अंदर कुछ विशेष क्षेत्र बन जाते हैं (जिन्हें हिग्स फील्ड कहा गया) जिसमें आकर बोसॉन कण दूसरे कणों से मिल सकते हैं। बोसॉन कणों के साथ मिलकर बने इन कणों को हिग्स- बोसॉन कण कहा गया। अभी तक हिग्स बोसॉन कण सिर्फ परिकल्पना थे। जैसे रदरफोर्ड ने सोने की पन्नी पर अल्फा कणों की बमबारी से प्रोटॉन को प्रयोग द्वारा सिद्ध किया था वैसे हिग्स बोसॉन कणों को प्रयोग द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सका था। 4 जुलाई को जेनेवा में बहुत बड़ा प्रयोग किया गया है, जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने हिग्स बोसॉन कण देख लिए हैं। हालांकि अभी आंकड़े आने बाकी हैं।
क्योंकि हिग्स बोसॉन कणों का संबंध ब्रह्मांड की उत्पत्ति से भी जुड़ा है इसलिए मीडिया को लगा कहीं भगवान के अस्तित्व पर ही बहस न खड़ी हो जाए सो विशेषकर भारतीय मीडिया ने इस प्रयोग को बेहद उल्टे अर्थ में प्रचारित किया है।
जुलाई को दैनिक जागरण ने पहले पेज की सबसे बड़ी खबर लगाई 'भगवान के करीब पहुंचा विज्ञान', हिंदुस्तान ने खबर लगाई 'भगवान के बेहद करीब पहुंचा इंसान'। संपादकीय पेज पर मेरठ संस्करण के संपादक सूर्यकांत द्विवेदी का लेख 'हरि की अनंत कथा में एक और कड़ी' छपा है जिसके नीचे कैप्शन लगाया है—प्रकाश सभी धर्मों के लिए दिव्य है, और उसी में वैज्ञानिकों ने हिग्स बोसॉन जैसे कण भी खोजे हैं। यह लेख आशाराम बापू के प्रवचन जैसा है। इसके बाद 8 जुलाई को प्रधान संपादक शशिशेखर का लेख छपा - हमारी दुनिया में ईश्वर। इस लेख में पुरातनपंथ की सारी हदें तोड़ दी गईं। साथ ही यह लेख मीडिया, विशेषकर भाषाई, की इस मंशा को भी जाहिर करता है कि वह किस कदर जनता की चेतना को अवैज्ञानिक बनाए रखना चाहता है।
शशिशेखर लिखते हैं- ''कहीं ऐसा तो नहीं होने जा रहा है कि कुछ साल बाद हमारी सारी उपमाएं बदल जाएं? लोग हिग्स बोसॉन अथवा ऐसी ही किसी वैज्ञानिक शब्दावली को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना दें? तब क्या हमारी आस्थाओं, आकर्षणों, भय के कारकों और माया मोह के बंधनों की शक्ल सूरत ऐसी ही रह जाएगी? राजनेता शपथ किसके नाम पर लेंगे? गवाह खुद को सच्चा साबित करने के लिए किसकी सौगंध लेंगे? लोग किसको साक्षी मानकर विवाह बंधन में बंधेंगे? बच्चों के नाम किन पर रखे जाएंगे? सब कुछ उलटा पुलटा हो जाएगा।
''आप ध्यान दें। 1969 में चंद्रमा पर मनुष्य के कदम रखने के साथ ही पता चला कि यह उपग्रह अंदर से काफी बदसूरत है। तभी से शायरों ने धीमे-धीमे सौंदर्य के इस सर्वाधिक आकर्षक प्रतिमान को तिलांजलि दे दी। विज्ञान की भले ही यह अद्भुत खोज रही हो, परंतु सामान्य जनों के जीवन में सदियों तक रस घोलने वाला यह उपग्रह और इसकी आभा धुंधला गई है। इंसान का इससे क्या फायदा होगा, यह देखना बाकी है, पर मानवीय भावना का एक हिस्सा यदि इससे रसहीन हो गया, तो फौरी तौर पर इससे किसका नुकसान हुआ? यकीन जानिए मैं वैज्ञानिक शोध के खिलाफ नहीं हूं । आइंस्टीन ने जो खोज की उससे मानवता का बेहद भला हुआ पर परमाणु भय का हौआ भी जुड़वे भाई की तरह पैदा हो गया। सवाल उठता है चांद पर अपोलो 11 की पहुंच ने उसके मिथक को तोड़ दिया । कहीं अब भगवान की बारी तो नहीं? अगर ऐसा होता है तो अगला गांधी ईसा की परंपरा को आगे बढाते हुए अपने विरोधियों की यह कह कर कैसे अनदेखी करेगा कि हे भगवान इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। या दर्द से बेहाल बच्चे का मनोबल बढाने के साथ खुद को तसल्ली देने के लिए कोई मां राम की जगह किसकी गुहार लगाएगी? गॉड का काम उसका पार्टिकल कैसे कर सकता है?''
ऐसा माना जा रहा है कि हिग्स बोसॉन कण का कण भौतिकी की आगे की खोजों में महत्त्वपूर्ण योगदान होगा। जैसे डाल्टन के परमाणु मॉडल के बाद रदरफोर्ड के प्रोटॉन, टॉमसन के इलेक्ट्रोन और चेडविक के न्यूट्रॉन जैसे मूल कणों की खोज ने पदार्थ को समझाने के सारे दरवाजे खोल दिए वैसे ही हिग्स बोसॉन कण भौतिकी की आगे की गुत्थियों को हल करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। साफ है कि शशिशेखर के अज्ञान की कोई सीमा नहीं है। उनके सरोकार भी बचकाने हैं। पर देखने लायक यह है कि पूंजीवादी मीडिया को उनके जैसे ही अज्ञानी रास आते हैं क्योंकि उसका भी हिग्स बोसॉन और उसके महत्त्व से कोई मतलब नहीं है । वे तो जनता को सिर्फ इतना बताना चाहते हैं कि वैज्ञानिकों ने यजुर्वेद के कथन कण-कण में भगवान को सिद्ध करते हुए 'भगवान का कण' खोज लिया है और उनकी चिंता यह है कि भला गॉड का काम उसका पार्टिकल कैसे कर सकता है? उन्हें इस बात का भी दु:ख है कि चांद पर अपोलो के पहुंच जाने से सौंदर्य की उपमाएं नष्ट हो गई हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक लिओन लैडरमैन की पुस्तक द गॉड पार्टिकल (1993) से यह शब्द कैसे प्रचलन में आया यह मजेदार है। उन्होंने अपनी पुस्तक नौ अध्यायों में लिखी। वह अलग-अलग अध्यायों में, यूनानी दार्शनिक डेमोक्रिटस से शुरू कर गैलीलियो, केप्लर, न्यूटन, डाल्टन, से होते हुए आठवें अध्याय में हिग्स बोसॉन और नौवें अध्याय में बिग बैंग थ्योरी का जिक्र करते हैं। क्योंकि अध्यात्मवादी ब्रह्मांड की रचना ईश्वर के द्वारा मानते हैं और उन्होंने ब्रह्मांड की रचना बिग बैंग से मानी है इसलिए उन्होंने व्यंग्य में अपनी पुस्तक का नाम द गॉडडैम पार्टिकल या 'हे ईश्वर' रखा । प्रकाशक इस व्यंग्यात्मक शीर्षक को छापने का साहस नहीं कर सका और उसने किताब का नामद गॉड पार्टिकल रख दिया। लैडरमैन ने यह गलती कर दी कि प्रकाशक के दिए शीर्षक को मान लिया।
बहुत से वैज्ञानिकों को यह शीर्षक बेहद नापसंद है। उनका मानना है कि पुस्तक न तो गॉड यानी ईश्वर के बारे में है और न ऐसे किसी रहस्य के बारे में फिर बिना वजह सनसनी फैलाने को ऐसा शीर्षक क्यों रखा? वैज्ञानिकों की नापसंद के कारण समझ में आते हैं।
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