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Monday, October 8, 2012

Fwd: [New post] ईरान पश्चिमी जगत और तेल की राजनीति



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/10/8
Subject: [New post] ईरान पश्चिमी जगत और तेल की राजनीति
To: palashbiswaskl@gmail.com


समयांतर डैस्क posted: "महेन्द्र मिश्र ईरान का दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसका इतिहास �¤"

New post on Samyantar

ईरान पश्चिमी जगत और तेल की राजनीति

by समयांतर डैस्क

महेन्द्र मिश्र

oil-politicsईरान का दुनिया की पुरानी सभ्यताओं में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इसका इतिहास आसपास के विस्तृत क्षेत्र से अविभाज्य रूप से जुड़ा रहा - डेन्यूब नदी से लेकर सिंधु नदी तक और कॉकेशस से लेकर दक्षिण में मिस्र तक। एक जमाना था कि फारस एक बड़ा साम्राज्य था जो महाशक्ति के रूप में सदियों तक अपनी पहचान बनाए रहा। इस पर यूनान ने, अरब देश, तुर्क और मंगोल आक्रामकों ने कब्जा जमाने की कोशिश की। लेकिन हर युद्ध और संघर्ष के बाद वह अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को बराबर पुन: कायम करता रहा। यहां की सभ्यता बहुत प्राचीन है, जहां शहरों का अस्तित्व ईसा से चार हजार वर्ष पूर्व भी था। ईसा पूर्व 625 में यह एक साम्राज्य के रूप में उभरा और ईसा पूर्व 330 तक इसका अधिकार बाल्कन क्षेत्र से उत्तरी अफ्रीका और मध्य एशिया तक रहा।

फारस पर इस्लाम धर्म के अनुयायियों की विजय 633 से 656 ईसवी के दरमियान हुई। ईरान के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन और नया प्रस्थान बिंदु था। आठवीं और दसवीं सदी में देश का संपूर्ण इस्लामीकरण हुआ और वहां के प्राचीन धर्म, मजदावाद या पारसी धर्म का पतन। परोक्ष रूप से प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और धर्म का प्रभाव पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ कई सदियों तक। 1501 में सफाविद वंश के शासनकाल में ईरान में शिया इस्लाम धर्म पर आधारित देश का गठन हुआ। तब से लेकर 1979 की ईरानी क्रांति तक शाह या सम्राट का राजतंत्र बना रहा। पहली अप्रैल 1979 को ईरान में इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई।

प्रागैतिहासिक काल, प्राचीन और नवीन पाषाण युग और नौ हजार वर्ष पूर्व के ऐतिहासिक अवशेष यहां के आदिकालीन मानव जीवन की कहानी कहते हैं। पुरानी सभ्यताओं के अवशेष अभी भी बाकी हैं।

लेकिन आज की दुनिया में ईरान के प्राचीन इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। आज का ईरान तो खलीफाओं और सुल्तानों के जमाने से शुरू होता है। और 1979 की क्रांति के बावजूद ईरान आज भी एक कट्टर, असहिष्णु और अंतर्मुखी इस्लामी देश है। यह भी सच है कि मध्यपूर्व के देशों में ईरान के इस्लामी गणतंत्र के बारे में बाहर की दुनिया आधा-अधूरा ही जानती है। देश की आंतरिक गुटबंदी, सत्ता का संघर्ष और अपारदर्शी राजनैतिक और सामाजिक स्थिति के कारण इसकी पूरी समझ न इसके पक्षधरों को है और न विरोधियों को। अस्सी के दशक में इराक के साथ विनाशकारी लड़ाई ने इस देश की आर्थिक और राजनैतिक दशा पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव डाला।

ईरान की अंतर्राष्ट्रीय नीति और उसके दुनिया के अन्य देशों से संबंध या तो अंतर्विरोधपूर्ण हैं या अस्पष्ट। लंबे अर्से तक ईरान की अरब देशों से - खासकर उन देशों से जिनका नेतृत्व सुन्नी मुसलमानों के हाथ में था - विरोध और दुश्मनी के रिश्ते रहे। अस्सी के दशक में तो इराक के साथ एक विनाशकारी युद्ध भी चला। नया ईरान अरब जगत से दोस्ती चाहता है, लेकिन सऊदी अरब के साथ उसके संबंध हमेशा दोस्ती के कम, दुश्मनी के ज्यादा रहे हैं। ईरान शिया मुसलमानों का मुल्क है, तो सऊदी अरब सुन्नियों का प्रतिनिधि है। सुन्नियों में भी सऊदी अरब के लोग वहाबी हैं जो कि अत्यंत कट्टरपंथी माने जाते हैं। ईरान फिलस्तीन में हमास और लेबनान में नसरल्ला के आतंकवाद का समर्थक है और उनको हर संभव सहायता देता है। हज की जियारत को लेकर भी दोनों देशों के दरमियान हमेशा मतभेद और खिलाफत रहती है। इस्रायल को लेकर भी ईरान का अरब जगत से गंभीर मतभेद है। ईरान इस्रायल को फिलस्तीन की जमीन पर एक गैरकानूनी हमलावरों का मुल्क मानता है और उसका अस्तित्व तक स्वीकार नहीं करता। दूसरी तरफ अधिकांश अरब देशों ने न चाहते हुए भी, इस्रायल के अस्तित्व को एक जमीनी हकीकत के रूप में स्वीकार कर लिया है।

ईरान और अमेरिका के संबंध तो जगजाहिर हैं। दोनों एक-दूसरे को अपना दुश्मन समझते हैं। ईरान मुस्लिम जगत में सबसे ऊपर पहुंचकर उनका नेतृत्व करने की महत्त्वाकांक्षा पालता है। अमेरिका को न केवल यह गलत लगता है, बल्कि वह एक सीमा तक ईरान की कारगुजारियों से भयभीत भी है। इसीलिए वह भारत और पाकिस्तान तथा अन्य देशों से कहता है कि वे ईरान से पेट्रोलियम पदार्थ न खरीदें। दोनों में नोंक-झोंक बराबर चलती रहती है। अभी जनवरी 2012 में ईरान ने अमेरिका को चेतावनी दी कि वह फारस की खाड़ी को बंद कर देगा। उसी साल अमेरिका की जल-सेना को धमकी दी गई कि ईरान उसके युद्धपोतों पर नावों के द्वारा आत्मघाती हमले करेगा।

अमेरिका और ईरान के बीच सबसे अधिक तनाव और दुश्मनी की वजह ईरान का आणविक कार्यक्रम है। अमेरिका और पश्चिमी योरोप के देशों के द्वारा तमाम धमकियों और प्रतिबंधों के बावजूद ईरान अपनी आणविक शक्ति बढ़ाने में लगा है। अमेरिका सारी दुनिया में प्रचार कर रहा है कि ईरान सामूहिक विनाश के आणविक हथियार तैयार कर रहा है। ईरान का कहना है कि यह प्रचार गलत है। वह तो केवल शांतिपूर्ण उपयोग के लिए आणविक शक्ति का विकास कर रहा है।

अमेरिका और ईरान के बीच व्यापार पर भी असर पड़ा है। 2008 में ईरान और अमेरिका के बीच 623 मिलियन डॉलर का व्यापार हुआ था। लेकिन 2010 तक आते-आते अमेरिका का ईरान को निर्यात पचास प्रतिशत घटकर 281 मिलियन डॉलर पर आ गया।

तेहरान के कट्टरपंथी मेयर महमूद अहमदीनिजाद के राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान में कुछ महत्त्वपूर्ण तब्दीलियां आई हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय है इस्लामी दुनिया, फारस की खाड़ी के क्षेत्र और यूरेशिया के देशों के साथ अच्छे और सकारात्मक संबंध कायम करना। ईरान के नए राष्ट्रपति आज अपने पड़ोस के देशों और एशिया के साथ सकारात्मक संबंध बनाने को प्राथमिकता देते हैं; पश्चिम के देशों से दोस्ताना संबंध कायम करने पर अपेक्षाकृत कम। इस नई विचारधारा और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में अमेरिका को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जा रहा है, कम से कम जाहिरा तौर पर। 2005 के चुनाव में पूरब की दुनिया की तरफ झुकाव पर जोर डाला गया। अली लरीजानी, जो कि सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् के सचिव हैं, कहते हैं, ''दुनिया के पूर्वी गोलाद्र्ध में रूस, चीन और भारत जैसे महादेश हैं, आज की दुनिया में वे संतुलन कायम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।'' दरअसल ईरान की मौजूदा नीति के मुताबिक दक्षिणपंथी होने का यह मतलब हरगिज नहीं है कि भूमंडलीकरण के नाम पर अमेरिका से दोस्ती गांठी जाए। आज की दुनिया के भूगोल पर नए शक्ति के केंद्र उभर रहे हैं। इसलिए ईरान का आज का कट्टरपंथी नेतृत्व अमेरिका के प्रति विरक्ति और निस्संगता दिखा रहा है। प्रगति के रास्ते पर आगे बढऩे के लिए ईरान अमेरिका की मदद की कोई जरूरत महसूस नहीं करता।

ईरान के लिए आज सबसे ऊपर है देश की प्रगति और हित के मुद्दे। साथ ही ईरान उन आतंकवादी संगठनों को सक्रिय और खुले तौर पर सहायता और समर्थन दे रहा है जो इस्रायल के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। ईरान अपने नाभिकीय प्रोग्राम को भी आगे बढ़ा रहा है।

खाड़ी के देशों के साथ मित्रता का हाथ बढ़ाने का मकसद है उस जलमार्ग का आधिकारिक उपयोग जो अंतर्राष्ट्रीय पेट्रोलियम पदार्थों के बाजार के साथ देश को सीधे जोड़ती है। ईरान के मौजूदा हुक्मरानों को यकीन है कि अपने क्षेत्र में वह अधिनाएकत्व कायम कर सकता है। अरब जगत और खाड़ी के देशों को लेकर ईरान की क्षेत्रीय नीति में परिवर्तन के आसार 1997 में देखे गए, जब सुधारवादी राष्ट्रपति मोहम्मद खतामी सत्ता में आए। अमेरिका के साथ खाड़ी के देशों के अच्छे संबंधों को नजरअंदाज करते हुए खतामी ने उनके साथ दोस्ताना संबंध कायम करने की दिशा में पहल की। आज अमेरिका और योरोप के देश इस बात से दहशतजदा हैं कि ईरान शायद फिर पुराने हिंसा और आतंक के रास्ते पर चल पड़े और उन देशों में अपने ढंग की इस्लामी क्रांति का निर्यात करने की कोशिश करे। लेकिन इस तरह का भय और संदेह ईरान की आज की वास्तविक स्थिति के आधार पर एक सीमा तक गलत है। अमेरिका द्वारा इराक पर हमला और उसके विनाश ने ईरान को एक नई दृष्टि और पड़ोसियों से संबंध सुधारने का एक सुनहरा मौका दिया। लेकिन इस नई नीति में इराक में सुन्नी मुसलमानों के प्रभुत्व को घटाने और वहां की बहुसंख्यक आबादी शिया मुसलमानों को नेतृत्व में लाने का पुराना उद्देश्य अभी भी मौजूद है।

नए ईरान में धार्मिक कट्टरता के बावजूद निर्वाचन और वोट की शक्ति में विश्वास बढ़ा है। फिर भी इस क्षेत्र में शिया अधिनाएकत्व का समर्थन और यहूदी राज्य इस्रायल का विरोध एक अर्थ में हमेशा मौजूद रहेंगे, ऐसा सोचना गलत नहीं होगा। जब रूस के नेतृत्व वाला विशाल कम्यूनिस्ट खेमा ढह गया, तो ईरान से उम्मीद की जाती थी कि वह मध्य-एशिया के संघर्षरत मुस्लिम देशों के प्रति सहानुभूति और सहायता का रास्ता अपनाएगा। लेकिन इसके विपरीत वह रूस से बेहतर संबंध रखने में यकीन करता है क्योंकि वहां से उसे हथियार और दूसरी सहायता मिलती है। इसीलिए शायद रूस ईरान के आणविक प्रोग्राम का जाहिरा विरोध नहीं करता, चाहे वह इसके पक्ष में न हो। शीतयुद्ध के खत्म होने के बाद रूस मध्यपूर्व का एक बड़ा दोस्त है। इसके मुख्य कारण आर्थिक और सामरिक हैं।

ईरान की आर्थिक स्थिति उसके पेट्रोलियम पदार्थों के उत्पादन और निर्यात पर पूरी तरह निर्भर है। इसलिए ईरान के द्वारा नए संबंधों की पहल को वहां की आर्थिक स्थिति के संदर्भ में देखना जरूरी है। दरअसल ईरान की वैदेशिक नीति के दो प्रधान तत्त्व परस्पर विरोधी हैं। अमेरिका और पश्चिमी योरोप के देशों से तनातनी का सीधा प्रभाव ईरान के तेल निर्यात पर पड़ता है। लेकिन इसके बावजूद ईरान अमेरिका विरोध और पश्चिमी योरोप के देशों से एक तरह की दुश्मनी का रवैया इख्तियार कर रहा है। इसके लिए उसे पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अमेरिका का नवसाम्राज्यवाद और उसके पिट्ठू पश्चिमी योरोप के देश, खुद चाहे आणविक हथियारों का जितना जखीरा चाहें इक_ा कर लें, एशिया और तीसरी दुनिया के अन्य देशों को एटमी हथियारों पर रोक लगाने की सीख देते हैं। उधर अमेरिका का चहेता इस्रायल ईरान पर हमला करने की धमकी दे रहा है। पश्चिमी योरोप के देशों ने तो अमेरिका की शह पर ईरान से पेट्रोलियम तेल आयात पर प्रतिबंध भी लगा दिए हैं।

पहली जुलाई से योरोपियन यूनियन द्वारा ईरान के खिलाफ लगाए गए तेल प्रतिबंध पूरी तरह लागू भी हो गए हैं। इस्रायल ने भी ईरान द्वारा फिलस्तीनियों की पक्षधरता और एटमी हथियारों के निर्माण के जाहिरा प्रोग्राम के कारण उस पर हमला करने की धमकी दी है। नेतान्याहू शायद यह सोचते होंगे कि ईरान के द्वारा एटमी हथियारों के निर्माण के भय पर केंद्रित होने के कारण दुनिया की नजर उन इस्रायली बस्तियों की तरफ से हट जाएगी जो अधिकृत फिलस्तीनी इलाके में गैरकानूनी तौर पर बनाई गई हैं। अगर ऐसा होता है तो नेतान्याहू की रणनीति की सफलता स्वीकार की जा सकती है। इस्रायल के मित्र राष्ट्रों- अमेरिका और योरोपीय यूनियन द्वारा ईरान पर आर्थिक और तेल प्रतिबंध लगाने का खास मकसद माना जा रहा है ईरान पर इस्रायल द्वारा सैन्य हमले को टालना क्योंकि उससे पूरे मध्यपूर्व के क्षेत्र में उथल-पुथल और अस्थिरता की स्थिति आ जाएगी। जब ध्यान इन सही या गलत मुद्दों पर लगा हो तो फिलस्तीन के बारे में सोचने की फुर्सत भला किसे है!

इसके साथ ही नेतान्याहू को अपनी राजनैतिक धूर्तता का एक बोनस भी मिला। इन प्रतिबंधों से ईरान को गंभीर आर्थिक क्षति होगी। ईरान-इस्रायल का सबसे खतरनाक और हठी दुश्मन है। तो अचानक इसके तेल का निर्यात और उसके साथ ही उसकी गाढ़ी कमाई का घटकर आधा रह जाना इस्रायल के लिए बेहद खुशी का सबब है। और इसके लिए इस्रायल द्वारा शोर मचाकर हमले का झूठा भय पैदा करना बहुत आसान तरीका है जिसपर कुछ खर्च नहीं करना पड़ा। वैसे हकीकत यह है कि बहुत से लोग नेतान्याहू की ईरान द्वारा हमले की बकवास को झूठ नहीं मानते। यों तो इस्रायल की ही सैनिक गुप्तचर सेवा ने साफ अल्फाज में कहा है कि ईरान द्वारा एटमी हथियारों का भय निकट भविष्य में तो नहीं है। इसलिए आत्मरक्षा के लिए ईरान पर हमला एक बहुत बड़ी बेवकूफी होगी। जाहिर है कि वे नेतान्याहू को पागलपन का शिकार समझते हैं, लेकिन सभी तो उनसे सहमत नहीं हैं।

वजह कुछ भी हो, सवाल फौरी तौर पर नेतान्याहू की रणनीति का नहीं है। गौर करने के लायक बात यह है कि क्या ईरान को इन प्रतिबंधों से इतना नुकसान होने की संभावना है कि वह आणविक ईंधन और ऊर्जा के क्षेत्र में अपना महत्त्वकांक्षी प्रोग्राम छोड़ दे। ईरान शायद वैसा नहीं करेगा, लेकिन हकीकत यह है कि ईरान को इन प्रतिबंधों से नुकसान बहुत है।

सामान्यतया योरोपीय यूनियन ईरान से उसके उत्पादन का बीस प्रतिशत तेल खरीदता है। अगर ईरान को नए बाजार नहीं मिले तो इस निर्यात की यह कमी गंभीर जरूर है, लेकिन दूसरी तरफ अमेरिका दुनिया के उन देशों के खिलाफ जो ईरान से तेल खरीदते हैं, सजा देने जैसे हथकंडे अपना रहा है। इसके साथ ही योरोप ने सामुद्रिक बीमा कंपनियों पर रोक लगा दी है कि वे ईरान का तेल ले जाने वाले जहाजों का बीमा न करें। सामुद्रिक बीमे के वैश्विक बाजार में योरोप की कंपनियों का वर्चस्व आज भी है। इसलिए यह ईरान के लिए बुरी खबर है। खबर है कि दक्षिण कोरिया ईरानी तेल खरीदना जुलाई के शुरू में ही बंद कर देगा। योरोप से बाहर के कुछ बड़े शक्तिशाली देश भले अमेरिका की धमकियों की परवाह न करें, बहुत से छोटे और कमजोर देशों के सामने अमेरिका के आदेशों के सामने झुकने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

जून के आखिरी सप्ताह में एक ईरानी अफसर ने निजी तौर पर स्वीकार किया कि ईरान का तेल निर्यात सामान्य स्तर से बीस से तीस प्रतिशत तक कम हो गया है। ईरान से दैनिक तेल निर्यात लगभग 2.2 मिलियन बैरल होता है लेकिन थोड़े समय में ही उसमें एक मिलियन बैरल की गिरावट आ गई। तेहरान के लिए यह कोई छोटा आघात नहीं है। तेल के निर्यात को कायम रखने के लिए ईरान उसकी कीमत गिरा रहा है और अपने पारंपरिक ग्राहक देशों को तरह-तरह की रियायतें दे रहा है। नतीजतन ईरान की आयात की क्षमता गिर रही है। वहां दस बुनियादी खाद्य चीजों की कीमत पिछले तीन महीने में ही सत्तर प्रतिशत बढ़ गई है।

और एक बात पर ध्यान देना जरूरी है। ईरान ने खुले समुद्र में टैंकरों में तेल का भंडारण करना शुरु कर दिया है, लेकिन यह तो समस्या का अल्पकालीन हल है। तेल के उत्पादन को भी कम किया जा रहा है। पेट्रोल का निर्यात करने वाले देशों के संगठन (ओपेक) के मुताबिक ईरान का तेल का उत्पादन 7, 20, 000 बैरल प्रतिदिन कम हो गया है, लेकिन ये कदम दीर्घकालीन नहीं हो सकते। आखिरकार कुछ तेल के कुंए पूरी तरह बंद करने पड़ेंगे। उन्हें दोबारा चालू करना एक मुश्किल काम होगा। दरअसल, बंद करने के बाद कुछ कुएं तो मुस्तिकल तौर पर खराब हो जाएंगे। इसलिए यदि प्रतिबंध ज्यादा दिन चले तो ईरान के लिए उतनी ही मुश्किल पैदा करेंगे।

लेकिन यह उम्मीद करना कि ईरान अपने कार्यक्रम को छोड़ देगा, एक गलत निष्कर्ष होगा। ईरान एक ऐसा देश है जिसने पिछली पूरी शताब्दी भर पश्चिम के देशों के हाथों शोषण और अपमान को बर्दाश्त किया है। इसलिए जब पश्चिम को चुनौती देने का प्रश्न उठता है, तो आणविक क्षमता को बढ़ाने के मामले में वे सभी दल भी शासन के साथ एकजुट हो जाएंगे जो मौजूदा सरकार और उसकी नीति से नफरत करते हैं। उधर प्रेसीडेंट बराक ओबामा ईरान पर शिकंजा कसते ही रहेंगे। ऐसा कम से कम वह तब तक करेंगे, जब तक अगले नवंबर में होने वाला चुनाव वह जीत (? ) नहीं जाते। तेल का निर्यात करने वाले देशों से भी ईरान के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती। बाजार में पर्याप्त तेल उपलब्ध है। ईरान पर तेल के निर्यात के प्रतिबंध के बावजूद कहीं इसकी सख्त कमी होने की आशंका नहीं है। इसलिए ईरान का अमेरिका और पश्चिमी योरोप के देशों से विरोध और विवाद एक दीर्घकालीन द्वंद्व है जिसे गरीब ईरानवासियों को लंबे अर्से तक बर्दाश्त करना पड़ेगा। बाकी दुनिया के लिए यह बस केवल एक खबर है, अन्य अंतर्राष्ट्रीय खबरों की तरह।

आजकल ईरान-पाकिस्तान गैस पाईपलाइन की चर्चा काफी गर्म है। इस परियोजना को ईरान पर पश्चिमी दुनिया द्वारा लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के परिप्रेक्ष्य में देखना जरूरी है। पाईपलाइन को भारत तक लाने की योजना पर भी विचार हो रहा है। ईरान-पाकिस्तान की गैस पाईपलाइन जिसे पीस (शांति) पाईपलाइन भी कहते हैं, योजना के स्तर पर बन चुकी है। इस पाईपलाइन के जरिए ईरान से नैचुरल गैस को पाकिस्तान लाया जाएगा।

पाईपलाइन को बनाने की योजना सबसे पहले एक जवान पाकिस्तानी सिविल इंजीनियर मलिक आफताब अहमद खान के दिमाग में आई। यह 1950 की बात है जब इस विषय पर उनका एक लेख रिसालपुर के मिलिटरी इंजीनियरिंग कॉलेज ने प्रकाशित किया। लेख में अन्य बातों के अलावा दुश्मनों के इलाके में पाईपलाइन की सुरक्षा के उपायों की योजना भी शामिल थी। परियोजना की रूपरेखा 1989 में वर्तमान में टेरी के प्रमुख राजेंद्र के. पचौरी ने ईरान के भूतपूर्व विदेश उपमंत्री अली शम्स अर्दकानी से मिलकर बनाई। ईरान की सरकार का रुख सकारात्मक था। 1990 की इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ एनर्जी एकोनॉमिक्स की सालाना कॉन्फ्रेंस में अर्दकानी ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। योजना को भारत का समर्थन भी प्राप्त था क्योंकि भविष्य में इसे भारत तक बढ़ाने का प्रस्ताव था।

ईरान और पाकिस्तान की सरकारों के बीच इस विषय पर चर्चा 1994 में शुरू हुई और 1995 में एक प्रारंभिक अनुबंध पर दस्तखत भी हुए। बाद में ईरान ने पाईपलाइन भारत तक बढ़ाने का प्रस्ताव रखा। फरवरी 1999 में तदनुसार भारत और ईरान के बीच भी एक समझौते पर दस्तखत हुए। 2004 में चार बरस से ऊपर की खामोशी के बाद यह परियोजना दोबारा चर्चा में आई, जब यूएनडीपी ने इसे कार्यरूप में परिणत करने पर जोर दिया। यूएनडीपी की रिपोर्ट में इस पाईपलाइन से पाकिस्तान, भारत और ईरान को होने वाले फायदों पर प्रकाश डाला गया। फरवरी 2007 में भारत और पाकिस्तान, ईरान को 4.93 डॉलर प्रति 10, 00, 000 ब्रिटिश थर्मल यूनिट की दर से देने को राजी हो गए। अप्रैल 2008 में इस योजना में चीन के शामिल होने की बात कही गई, और अगस्त 2010 में बांग्लादेश को परियोजना में शामिल होने के लिए दावत दी गई।

लेकिन 2009 में परियोजना फिर खटाई में पड़ गई। भारत ने इसमें हिस्सा लेने का विचार छोड़ दिया। इसके कारण ऊंची कीमत और सुरक्षा के मुद्दे बताए गए, लेकिन शायद असली वजह थी भारत का अमेरिका के साथ सन् 2008 में आणविक शक्ति के प्रयोग पर समझौते पर हस्ताक्षर। लेकिन मार्च 2010 में भारत ने दोबारा बातचीत की पहल की, लेकिन उससे पहले जनवरी के महीने में ही अमेरिका ने पाकिस्तान से कहा कि वह इस पाईपलाइन में अपनी हिस्सेदारी छोड़ दे। अगर पाकिस्तान पाईपलाइन की परियोजना को रद्द करता है, तो अमेरिका अफगानिस्तान से होकर तुर्कमेनिस्तान से तरलीकृत पेट्रोलियम गैस की योजना को कारगर करने में मदद करेगा। इसी बीच 16 मार्च 2010 को ईरान और पाकिस्तान ने पाईपलाइन के एक समझौते पर दस्तखत भी कर दिए जिसके मुताबिक दोनों देशों को 2014 तक अपने-अपने क्षेत्र का काम पूरा करना था। जुलाई 2011 में ईरान ने कहा कि उसने अपने क्षेत्र का पाईपलाइन का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है; और अगर पाकिस्तान अपने हिस्से के काम को 2014 के अंत तक पूरा नहीं करता, तो उसे पूरी पाईपलाइन बनने तक दस लाख डॉलर प्रतिदिन का जुर्माना देना होगा। इधर पाकिस्तान में पाईपलाइन में निवेष के लिए पूंजी की कठिनाई पैदा हो गई। कुछ निजी क्षेत्र के निवेशकों ने परियोजना में दिलचस्पी लेना बंद कर दिया।

मार्च 2012 में पाकिस्तान सरकार ने घोषणा की कि पूंजी जुटाने के लिए उसे उपभोक्ताओं पर टैक्स लगाना होगा। वैकल्पिक रूप से ईरान, चीन और रूस से पाईपलाइन के निर्माण में निवेश करने की पेशकश का भी उल्लेख था। पाकिस्तान के अखबार पाक-ट्रिब्यून में 7 अप्रैल को खबर छपी कि गैजप्रोम (रूस) पाईपलाइन बनाएगा और आर्थिक मदद भी देगा। अप्रैल के महीने में ही यह खबर भी सुनी गई कि सऊदी अरब पाकिस्तान को कोई वैकल्पिक रास्ता सुझाएगा अगर वह ईरान के साथ अपनी सहकारिता खत्म कर दे। वह पाकिस्तान को तेल और आर्थिक मदद दोनों ही देगा। लेकिन पहली मई 2012 को पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी खार ने कहा कि पाकिस्तान अमेरिका के सामने घुटने नहीं टेकेगा और किसी भी कीमत पर पाईपलाइन की परियोजना को पूरा करेगा क्योंकि इसी में पाकिस्तान का हित है।

जहां तक भारत का सवाल है, हकीकत यह है कि भारत में ऊर्जा की सख्त कमी है और इसलिए ईरान से पाकिस्तान होकर गैस की पाईपलाइन आना एक जरूरी कदम है। खबरों से यह जाहिर नहीं होता कि भारत पाईपलाइन की परियोजना में शिरकत कर रहा है या नहीं। लेकिन यह परियोजना अब प्राथमिकता की सूची में जरा नीचे चली गई है। भारत से भी अमेरिका ने कहा कि वह तुर्कमेनिस्तान से अफगानिस्तान और पाकिस्तान होकर भारत तक पाईपलाइन लाने में मदद करेगा। मगर इस परियोजना में भी अफगानिस्तान के क्षेत्र में सुरक्षा की समस्या को लेकर परेशानी है।

इस अनिश्चय की स्थिति में भी भारत ने ईरान से पाकिस्तान होकर आने वाली पाईपलाइन की परियोजना का साथ छोड़ा नहीं है। मुमकिन है कि भारत और पाकिस्तान जल्दी ही इस विषय पर कोई घोषणा करें। उधर ईरान ने दो साल से इस विषय पर कोई बात नहीं की और पाकिस्तान के साथ एक द्विपक्षीय समझौते पर दस्तखत कर दिए हैं। इसके मुताबिक 2014 में जब पाईपलाइन पूरी हो जाएगी, तो ईरान पाकिस्तान को 750 मिलियन घन फीट गैस रोज मुहैया कराएगा। ईरान से भारत तक की पाईपलाइन की संभावित लंबाई लगभग 2775 किलोमीटर होगी। पिछले बीस बरस से इस पर कोई कारगर फैसला नहीं हुआ है।

अफगानिस्तान से होकर आने वाली पाईपलाइन के प्रस्ताव पर भी विचार हो रहा है जिसको एशियन डेवलेपमेंट बैंक द्वारा बनाने की योजना है। इस पाईपलाइन के द्वारा तुर्कमेनिस्तान से नेचुरल गैस अफगानिस्तान होकर पाकिस्तान लाई जाएगी और वहां से भारत। यह प्राचीनकाल के व्यापारिक मार्ग 'सिल्क रोड' की तरह है। इससे अफगानिस्तान को परियोजना की आमदनी का आठ प्रतिशत मिलने की संभावना है।

इस पाईपलाइन परियोजना की शुरुआत 90 के दशक के प्रारंभ में हुई जिसमें कजाकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों की दिलचस्पी थी। सोवियत रूस के नेतृत्व वाले साम्यवादी खेमे के काल में रूस ही उन सारी पाईपलाइनों को नियंत्रित करता था जिनसे कि इस इलाके का तेल भेजा जाता था। जब रूस ने अपनी पाईपलाइनों के इस्तेमाल की मनाही कर दी तो इन देशों को ईरान और रूस के बाहर के क्षेत्र से होकर निकलने वाली एक स्वतंत्र पाईपलाइन की जरूरत महसूस हुई।

परियोजना 15 मार्च 1995 में शुरू हुई जबकि तुर्कमेनिस्तान और पाकिस्तान की सरकारों के बीच पहले समझौते पर दस्तखत हुए। परियोजना को आगे बढ़ाने वालों में अर्जेन्टिना की कंपनी ब्रिदास कॉरपोरेशन थी। उधर अमेरिका की कंपनी यूनोकेल ने एक सऊदी तेल कंपनी डेल्टा के साथ मिलकर पाईपलाइन की एक वैकल्पिक योजना बनाई। इन दोनों कंपनियों ने मिलकर 21 अक्टूबर 1995 को तुर्कमेनिस्तान के राष्ट्रपति नियाजोव के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए। इन्होंने 1997 में सेंट्रल एशिया गैस पाईपलाइन संगठन बनाया। पाईपलाइन का रास्ता अफगानिस्तान से होकर था इसलिए तालिबान से संपर्क करना जरूरी था। 1998 में तालिबान ने सेंट्रल एशिया गैस पाईपलाइन के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए। लेकिन तभी अगस्त के महीने में ओसामा बिन लादेन के निर्देशों पर अमेरिका के नैरोबी और दारस्सलाम के दूतावासों पर बमबारी हुई। नतीजतन पाईपलाइन पर आगे की बातचीत में खलल पड़ गया। इस तरह यह परियोजना भी ठप हो गई।

दिसंबर 2002 में तुर्कमेनिस्तान के नेतृत्व में अफगानिस्तान और पाकिस्तान के साथ एक नए करार पर दस्तखत किए गए। 2005 में एशियन डेवलेपमेंट बैंक ने परियोजना की संभाव्यता रिपोर्ट पेश की। इसे अमेरिका का भी समर्थन प्राप्त था। दरअसल, अमेरिकन कंपनियों के द्वारा इसमें शामिल होने की बात भी हुई। मगर पाईपलाइन की व्यावहारिकता पर अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्जे के कारण एक बार फिर प्रश्नचिह्न लग गया। फिर भी योजना रुकी नहीं। 24 अप्रैल 2008 का दिन महत्त्वपूर्ण है जब पाकिस्तान, भारत और अफगानिस्तान ने तुर्कमेनिस्तान से नेचुरल गैस की खरीद पर एक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की और इस संबंध में एक मसौदे पर दस्तखत किए। दिसंबर 2010 में सभी देशों की सरकारों द्वारा योजना के औपचारिक अनुबंध पर दस्तखत हुए।

1735 किलोमीटर लंबी पाईपलाइन तुर्कमेनिस्तान के गैस भंडारों से अफगानिस्तान तक पहुंचेगी। अभी यह तय नहीं हुआ कि पाईपलाइन दौलताबाद से शुरू होगी या लोलोटन गैस भंडार से। अफगानिस्तान में यह पाईपलाइन हेरात से कान्धार जाने वाली मुख्य सड़क के समानांतर बनेगी, और उसके बाद क्वेटा से होकर पाकिस्तान में मुल्तान पहुंचेगी। पाईपलाइन की आखिरी मंजिल होगी भारत का फाजिल्का शहर जो पाकिस्तान और भारत की सीमा पर है। एशियन डेवलेपमेंट बैंक की रिपोर्ट में एक वैकल्पिक रास्ते की भी बात की गई है जो तुर्कमेनिस्तान में तस्केप्री से शेबरघन होकर अफगानिस्तान में बलख, मजार-ए-शरीफ, काबुल और जलालाबाद होकर पेशावर पहुंचेगा, जहां से नौशेरा, इस्लामाबाद और लाहौर होकर पाईपलाइन पाकिस्तान से भारत आएगी। दो-एक और वैकल्पिक रास्ते सुझाए गए हैं। पाईपलाइन की प्रारंभिक क्षमता 27 बिलियन घन मीटर प्रतिदिन होगी, जिसमें से 2 बिलियन अफगानिस्तान को, और 12.5 बिलियन भारत और पाकिस्तान को मिलेंगे। आगे चलकर पाईपलाइन की क्षमता 33 बिलियन घन मीटर होगी। उम्मीद की गई है कि पाईपलाइन 2014 तक चालू हो जाएगी। पाईपलाइन की संभावित लागत 7.6 अमरीकी डॉलर है। इसमें निवेश एशियन डेवलेपमेंट बैंक करेगी।

पाईपलाइन की योजना बनाना बड़ी खुशी की बात है इसीलिए इतने बरसों से ये योजनाएं बनती आई हैं, लेकिन उनकी व्यवहारिकता को लेकर तमाम तरह की समस्याएं हैं। इसीलिए अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ इसे एक आशावादी परिकल्पना मानते हैं।

समयांतर डैस्क | October 2, 2012 at 5:42 pm | Tags: iran, iraq war, oil, oil politics, usa | Categories: विचार | URL: http://wp.me/p2oFFu-bQ

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