राजस्थान का मतलब सिर्फ महाराणा प्रताप और रेगिस्तान नहीं है. राजस्थान की कुल जनसंख्या में 39 प्रतिशत हिस्सा भीलों का है. यानी लगभग 3 करोड़. आदिवासियों की 3 करोड़ की आबादी को दरकिनार कर एक प्रदेश का परिचय देना कहां तक न्यायसंगत है?
एक और तस्वीर उस राजस्थान से जिसे आप सब रेगिस्तान के लिए जानते हैं. यह तस्वीर 18 जून 2011 को ली गई थी. सोचिए यह राजस्थान का कौन-सा हिस्सा है. और यह भी सोचिएगा राजस्थान के इस हिस्से के बारे में क्यों नहीं बताया जाता?
टीवी फिल्म ‘संविधान’ के इस पोस्टर को गौर से देखिए. इसमें कोई आदिवासी प्रतिनिधि नहीं दिखेगा. वैसे भी संविधान सभा की चली बहस में देश के सिर्फ 5 आदिवासी ही शामिल थे और उनमें से बोलनेवाला मात्र 1 था. भारत के करोड़ों आदिवासियों के उस प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा का पोस्टर में नहीं होना इस बात का सबूत है कि यह देश आज भी आदिवासियों के प्रति क्या नजरिया रखता है. संविधान का यह पोस्टर भारत के राष्ट्रगान की विजुअल प्रस्तुति है जिसमें पूर्वाेत्तर से ले कर दक्षिण तक के आदिवासी एवं अन्य राष्ट्रीयताओं की उपेक्षा हुई है. आप संविधान के सभी एपिसोड देख जाइए लगेगा यह देश सिर्फ हिंदू और मुस्लिमों का है.
श्याम बेनेगल भारत के उन सिनेकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने परदे पर कई संजीदा सामाजिक विषयों को फिल्माया है. लेकिन 2014 की शुरुआत में प्रदर्शित अपनी टीवी फिल्म ‘संविधान’ में आदिवासियों के प्रति उन्होंने वही नजरिया रखा है जो भारत के बहुसंख्यक समाज का है. 9 घंटे की अपनी फिल्म में निर्देशक श्याम बेनेगल और लेखकद्वय शमा जैदी व अतुल तिवारी ने आदिवासियों के प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा को 9 मिनट का भी अवसर नहीं दिया है. एपिसोड 4, 5 और 7 में जयपाल सिंह मुंडा को कुल मिला कर 5-6 मिनटों से भी कम जगह दी गई है और इनमें भी उनका मजाक ही उड़ाया गया है. ऑब्जेक्ट रिजोल्यूशन पर सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था जयपाल सिंह मुंडा ने, पर फिल्म में उसे रखा ही नहीं गया है. एपिसोड 5 में 10.50वें मिनट पर आदिवासी भूमि के हस्तांतरण और बिक्री के सवाल पर एंकर की टिप्पणी ऐसी ‘दयाभाव’ वाली है कि पूछिए मत. टिप्पणी है, ‘उस दिन एक हक तो हमने हर आदिवासी को दे ही दिया ...’
श्याम बेनेगल की यह टीवी फिल्म बताती है कि आदिवासियों के प्रति जो नजरिया आजादी से पहले था, वही आज भी है और श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकार भी उसी नजरिए के पोषक हैं.
श्याम बेनेगल भारत के उन सिनेकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने परदे पर कई संजीदा सामाजिक विषयों को फिल्माया है. लेकिन 2014 की शुरुआत में प्रदर्शित अपनी टीवी फिल्म ‘संविधान’ में आदिवासियों के प्रति उन्होंने वही नजरिया रखा है जो भारत के बहुसंख्यक समाज का है. 9 घंटे की अपनी फिल्म में निर्देशक श्याम बेनेगल और लेखकद्वय शमा जैदी व अतुल तिवारी ने आदिवासियों के प्रतिनिधि जयपाल सिंह मुंडा को 9 मिनट का भी अवसर नहीं दिया है. एपिसोड 4, 5 और 7 में जयपाल सिंह मुंडा को कुल मिला कर 5-6 मिनटों से भी कम जगह दी गई है और इनमें भी उनका मजाक ही उड़ाया गया है. ऑब्जेक्ट रिजोल्यूशन पर सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया था जयपाल सिंह मुंडा ने, पर फिल्म में उसे रखा ही नहीं गया है. एपिसोड 5 में 10.50वें मिनट पर आदिवासी भूमि के हस्तांतरण और बिक्री के सवाल पर एंकर की टिप्पणी ऐसी ‘दयाभाव’ वाली है कि पूछिए मत. टिप्पणी है, ‘उस दिन एक हक तो हमने हर आदिवासी को दे ही दिया ...’
श्याम बेनेगल की यह टीवी फिल्म बताती है कि आदिवासियों के प्रति जो नजरिया आजादी से पहले था, वही आज भी है और श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकार भी उसी नजरिए के पोषक हैं.
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