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मार्क्सवाद एक विज्ञान है जिसमें सिद्धान्त और व्यवहार दोनों की जरूरत है। सैद्धान्तिक रूप से कंगाल लोग व्यवहार में भी कुछ ढंग का नहीं कर पायेंगे और सिर्फ सिद्धान्त का जाप करने वाले भी किसी काम के नहीं रहेंगे और उनका सिद्धान्त भी अधुरा रहेगा। सिद्धान्त को जानने के लिए हमें अपने महान शिक्षकों की रचनाओं का अध्ययन जरूर करना चाहिए। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र, समाजवाद : काल्पनिक और वैज्ञानिक, व्यवहार के बारे में, अर्न्तविरोध के बारे में, बोल्शेविक पार्टी का इतिहास, कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षाएं आदि किताबें निश्चित रूप से सबसे पहले पढ़ी जानी चाहिए।
वरना वही होगा जो हमारे एक कॉमरेड सोमनाथ चक्रवर्ती के साथ हो रहा है। उनके मार्क्सवादी ज्ञानानुसार संशोधनवादी पार्टी सीपीएम, सीपीआई नहीं है बल्कि आम आदमी पार्टी है। अब तक तो हम यही समझते थे कि संशोधनवादी पार्टी का मतलब अपने आप को कम्युनिस्ट कहने वाली ऐसी पार्टी से होता है जो मार्क्सवाद के किसी बुनियादी सिद्धान्त में घालमेल करे। जैसे बहुत सारी पार्टियां “राज्य और क्रान्ति” के सिद्धान्त को तोड़ती मरोड़ती हैं। वो या तो ये खुलेआम बोलती है कि अब कोई क्रान्ति की जरूरत नहीं है, बस संसद के रास्ते से परिवर्तन हो जायेगा या फिर सिद्धान्त में बोलते हैं कि असली परिवर्तन तो हिंसात्मक क्रान्ति से आयेगा पर अभी रणनीति के तौर पर संसदीय रास्ते का प्रयोग करता हैं, बाद में उनकी ये रणनीति ही दशकों तक चलती रहती है। हर बार वो चुनाव लड़ते हैं, हर बार बोलते हैं कि ये उनकी रणनीति है पर यही नहीं पता चलता कि कब ये रणनीति ही उनका रणकौशल बन गयी।
इसी तरह महोदय ने एक ओर ज्ञान दिया है। इनके अनुसार दो ही तरह के कॉमरेड इन्होने देखे हैं। एक वो जो चुनाव लड़ते है (संशोधनवादी) और दूसरे वो जो हथियार हाथ में रखते हैं (दुस्साहसवादी)। तीसरा कोई प्रकार नहीं होता। अब क्या बोल सकते हैं। क्रान्तिकारी जनदिशा नाम की भी कोई चीज होती है। थोड़ा पढ़ लेते तो ये ना बोलते।
वरना वही होगा जो हमारे एक कॉमरेड सोमनाथ चक्रवर्ती के साथ हो रहा है। उनके मार्क्सवादी ज्ञानानुसार संशोधनवादी पार्टी सीपीएम, सीपीआई नहीं है बल्कि आम आदमी पार्टी है। अब तक तो हम यही समझते थे कि संशोधनवादी पार्टी का मतलब अपने आप को कम्युनिस्ट कहने वाली ऐसी पार्टी से होता है जो मार्क्सवाद के किसी बुनियादी सिद्धान्त में घालमेल करे। जैसे बहुत सारी पार्टियां “राज्य और क्रान्ति” के सिद्धान्त को तोड़ती मरोड़ती हैं। वो या तो ये खुलेआम बोलती है कि अब कोई क्रान्ति की जरूरत नहीं है, बस संसद के रास्ते से परिवर्तन हो जायेगा या फिर सिद्धान्त में बोलते हैं कि असली परिवर्तन तो हिंसात्मक क्रान्ति से आयेगा पर अभी रणनीति के तौर पर संसदीय रास्ते का प्रयोग करता हैं, बाद में उनकी ये रणनीति ही दशकों तक चलती रहती है। हर बार वो चुनाव लड़ते हैं, हर बार बोलते हैं कि ये उनकी रणनीति है पर यही नहीं पता चलता कि कब ये रणनीति ही उनका रणकौशल बन गयी।
इसी तरह महोदय ने एक ओर ज्ञान दिया है। इनके अनुसार दो ही तरह के कॉमरेड इन्होने देखे हैं। एक वो जो चुनाव लड़ते है (संशोधनवादी) और दूसरे वो जो हथियार हाथ में रखते हैं (दुस्साहसवादी)। तीसरा कोई प्रकार नहीं होता। अब क्या बोल सकते हैं। क्रान्तिकारी जनदिशा नाम की भी कोई चीज होती है। थोड़ा पढ़ लेते तो ये ना बोलते।
इसके बाद तो महोदय ने हद ही कर दी है। इन्होने संशोधनवाद शब्द को ही नकार दिया है। इनके हिसाब से संशोधनवाद शब्द ही किसी के दिमाग के खुन्नस की उपज है। शायद लेनिन (https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1908/apr/03.htm) को ही पढ़ लेते तो इतनी जहमत नहीं उठानी पड़ती।
अब जब सैद्धान्तिक नींव ही इतनी गड़बड़ होगी तो व्यवहार में उतर कर क्या करेंगे ये सोचा ही जा सकता है। इनके लिए माओ के दो उद्धरण :
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