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Monday, June 2, 2014

कोई दिखा दे मेरी लाल झंडे वाली पार्टी Yashwant Singh


गाजीपुर जिले में आम आदमी पार्टी की तरफ से आयोजित एक प्रदर्शन में हिस्सा ले रहा था तो मेरी मुलाकात एक ऐसे बुजुर्ग शख्स से हुई जो हंसिया हथौड़ा वाला लाल झंडा अपने कंधे पर शान से लिए खड़े थे. डंडे में उपर कम्युनिस्ट झंडा था तो नीचे की तरफ एक झोला जिसमें चना चबैना और एकाध मैला कुचैला धोती कुर्ता. उन सज्जन ने सरकार विरोधी नारे लगाए. मुट्ठियां भींची. गुस्से का इजहार चेहरे से भरपूर किया. वो बाहर से भले जर्जर शरीर वाले दिख रहे थे पर भीतर से उतने ही युवा और आदि विद्रोही. मुझे जब बोलने के लिए कहा गया मंच से तो सबसे पहले इस कम्युनिस्ट बुजुर्ग को सलाम किया और उनके लिए सबसे तालियां बजवाईं. जब उनके बगल में खड़ा रहा तो उनके झंडे को पकड़कर लहराया और कहा कि जरा वो भी इसे कस कर लहरा दें. जाने क्यों मैं उन बुजुर्ग कामरेड में खुद को देखता रहा और उस लाल झंडे के साथ अपनी दोस्ती के दिनों को याद करता रहा.
रात सपने में बहुत परेशान रहा मैं.कचहरी में वही बुजुर्ग कामरेड शख्स अकेले झंडा डंडा लिए परेशान से घूमते दिखे. शाम हो रहा था इसलिए वकील, मुवक्किल, मुंशी, सिपाही, साहब-सुब्बा सब कचहरी से कूच कर चुके थे. बुजुर्ग कामरेड एक पीपल के पेड़ के नीचे उंकड़ू बैठ गए. झंडा डंडा झोला कांधे पर लादे ही. वो कुछ देर एक हाथ गाल पर लगाए सोचते रहे. फिर रोने लगे. मैं उन्हें दूर से देखकर रोने लगा. उन्हें लग रहा था कि यहां अब कोई नहीं है, इसलिए खुल कर रो लो. जबकि मुझे लग रहा था कि मैं उनके साथ हूं और उनसे कह रहा हूं कि मत रोइए, मैं हूं आपके साथ, आपका युवा कार्यकर्ता, आपका वारिस, आपके झंडे डंडे को लेकर मैं चलूंगा, रोइए मत, मैं जाउंगा नहीं, मैं आपकी ही तरह मंजिल की उम्मीद किए बगैर चले जाता रहूंगा उस राह जिस पर चलते हुए लाखों करोड़ों शहीद हुए और जिनकी शहादत ने अरबों खरबों को बेहतर जीवन, सम्मान व समझ मुहैया करा पाया. पर जाने क्या था कि वो न तो मुझे देख पा रहे थे और न मुझे सुन पा रहे थे. वो बस रोए जा रहे थे. मुझे एहसास हुआ कि मैं इनविजिबल हूं उनके लिए. यानि मैं उन्हें देख सुन पा रहा और वो मुझे न तो देख पा रहे न सुन पा रहे. वो अब फूट फूट कर रो रहे थे. झंडा डंडा लिए. वो गाते हुए रो रहे थे, जैसी रोने की परंपरा है पूर्वांचल में. वो जाने क्या क्या कह कह कर गा गा कर रो रहे थे. मैं उनको इस कदर रोते हुए देखकर रो रहा था, उनकी कही बात सुनने सुनाने की किसको पड़ी थी. पर एक वाक्य जो वह बार बार कह रहे थे वो याद है अभी मुझे. कोई बता दे मेरी पर्टिया कहां खो गई है.. केहू देखा दे हमार पर्टिया कहां हेरा गई है... कोई खोज दे मेरी पार्टी कहां चली गई है फिर आई नहीं है...
अगले दिन सुबह मैं कचहरी इसी बुजुर्ग कामरेड को तलाशने गया. वो उस दिन अचानक वहीं मिले थे. अचानक वहीं मिलने की उम्मीद में मैं वहीं गया. उन्हें खूब तलाशा. सब मिले. दलाल, चोर. उचक्के. भ्रष्ट. पर वो कामरेड नहीं मिले. मैं उन्हें गले लगाकर सुबकना चाहता था और उनसे कहना चाहता था कि वो दिल पर कोई भार न रखें. उन्हें मैं अपनी टोपी पहनाना चाहता था और उनका झंडा डंडा अपने कांधे पर लादना चाहता था. दुखों सुखों की अदला बदली कर नयापन का उनको एहसास कराना चाहता था. उन्हें उनकी खोई पार्टी तलाशने में मदद करना चाहता था. पर वो नहीं मिले. हां. वो हर रात मेरे सपने में आते हैं. रोते हैं. सुबकते हैं. उनको देखकर मैं भी रोता हूं, सुबकता हूं. वो मुझे नहीं देख सुन पाते. मैं उनको देख सुन पाता हूं. मैं उनको आज भी तलाश रहा हूं. एक बार गले लगना चाहता हूं. एक बार उनके साथ गले मिलकर बोल बोल गा गा के रोना चाहता हूं. अगर आपको ये बुजुर्ग कामरेड कहीं मिल जाएं तो मुझे जरूर बताइएगा और इन्हें मेरी तरफ से ढेर सारा लाल सलाम, जिंदाबाद, लांग लिव, मार्च आन कहिएगा...
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