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Thursday, July 3, 2014

अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें।अब श्रम कानून खत्म करके रोजगार के अवसर भी खत्म,एकमुश्त खत्म मेहनतकश कर्मचारी तबका!


अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें।अब श्रम कानून खत्म करके रोजगार के अवसर भी खत्म,एकमुश्त खत्म मेहनतकश कर्मचारी तबका!

पलाश विश्वास

एक जरुरी संशोधनःआदरणीय आनंद तेलतुंबड़े जी ने एक टाइपिंग चूक की ओर ध्यान दिलाया है।कोलकाता जलमग्न होने के कारण चार दिनों तक मेरा पीसी नेट से डिसकनेक्ट रहा।नेटखुलते ही आलेख जल्दी से खत्म करने की हड़बड़ी में मनमाड की जगह महाड़ लिखा गया।दरअसल विदर्भ के भुसावल के पास मनमाड में रेलवे कर्मचारियों के सम्मेलन में  बाबासाहेब ने कहा था कि भारतीय मजदूरो के दो समान दुश्मन हैं,एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद। लोखांडे का पूरा नाम है नारायण मेघाजी लोखांडे। लोखांडे को भारतीयमजदूर आंदोलन का जनक माना जाता है जो बाबासाहेब के सहयोगी और महात्मा ज्योतिबा फूले के अनुयायी हैं।
  1. Labour Ministry invites comments on proposed (Amendment ...

  2. Gopal Krishna द्वारा - 22-06-2014 - Water Watch · Occupational Health India · Ban Asbestos Network of ... Brief on Factories (Amendment) Bill, 2014 reads: "The Factories Act 1948 is an Act to consolidate and amend laws regulating labour in Factories. ... v) The report was examined and requisite amendments were made in thedraft proposal.

अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें।

अब श्रम कानून खत्म करके रोजगार के अवसर भी खत्म,एकमुश्त खत्म मेहनतकश कर्मचारी तबका!विकास दर बढ़ाने के बहाने स्विस बैंक से काला धन लाने का झांसा देते हुए भूमि अधिग्रहण कानून,खाद्यसुरक्षा कानून,खनन अधिनियम और पर्यावरण कानून के साथ ही श्रम कानूनों को ठिकाने लगाया जा रहा है और देश की ट्रेड यूनियनें सरकार से सौदेबाजी करने में लगी हैं।

गौरतलब है कि श्रम मंत्री ने मौजूदा अधिनियमों में संशोधन एवं सरलीकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए सुझाव दिया कि वेतन से संबंधित चारों अधिनियमों को मिलाकर एक वेतन कानूनबनाया जाये।

सरकार का मानना है कि श्रम कानूनों में सुधारों के बगैर बड़े निवेश आकर्षित करना मुश्किल है।कोई गधा भी समझ सकता है कि निवेशकों की आस्था बहाल रखने के लिए श्रम कानूनों में संशोधन कर्मचारियों और श्रमिकों के हित में कैसे और कितने होंगे। लेकिन राजनीति के गुलाम ट्रेड यूनियनों के दिमाग में कोई शंका आशंका नहीं है।जाहिर है कि ट्रेड यूनियनों का रंग भी अब केसरिया है।

राजग सरकार ने फैक्टरीज ऐक्ट 1948, बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) ऐक्ट 1986, न्यूनतम वेतन ऐक्ट 1948 में कुछ संशोधनों का प्रस्ताव किया है। ट्रेड यूनियनों ने इन कानूनों में बदलाव को लेकर अपने सुझाव भी दिये।

केंद्र सरकार ने छोटे उद्योगों के लिए लेबर रिफॉर्म की शुरुआत कर दी है। श्रम और रोजगार मंत्रालय ने एक सीमा से कम मजदूरों वाली यूनिटों को कई लेबर कानूनों के तहत एक दर्जन से ज्यादा रजिस्टर मेंटेन करने और रिटर्न भरने की जरूरत से छूट देने की पहल की है। मंत्रालय ने कानूनी संशोधन के लिए इस बारे में इंडस्ट्री से राय मांगी है। माइक्रो और स्मॉल इंडस्ट्री में अरसे से इसकी मांग की जा रही थी। फैक्ट्री मालिकों का सबसे बड़ा विरोध रिटर्न और रजिस्टर मेंटेनेंस में चूक पर केस दर्ज करने जैसे क्लॉज को लेकर है। उद्यमियों ने इस पहल का स्वागत किया है और अपनी ओर से सुझाव भेजने शुरू कर दिए हैं।

देश में अभूतपूर्व विनिवेश मंत्री और विनिवेश रोडमैप के निर्माता ,विश्वबैंक से पत्रकारिता मार्फत भारतीय राजनीति में अवतरित अरुण शौरी ने राजस्थान सरकार के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि सरकार ने पुराने श्रम कानूनोंमें संशोधन का निर्णय सही समय पर बिना केन्द्र की प्रतीक्षा किये लिया है। शौरी ने कहा कि इस तरह के बदलाव अनेक समस्याओं को स्वत: ही हल कर देंगे।

उद्यमी रिटर्न और रजिस्टर के अनुपालन में चूक पर क्रिमिनल एक्ट के तहत मुकदमे की कार्रवाइयों का भी विरोध करते आए हैं। फरीदाबाद स्मॉल इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के प्रेसिडेंट राजीव चावला ने कहा, 'इतने कड़े नॉर्म्स की कंप्लायंस मुमकिन नहीं है और इसका फायदा लेबर इंस्पेक्टर्स और करप्ट मशीनरी को मिलता है। अमेंडमेंट से इंडस्ट्री की ग्रोथ बढ़ेगी और उद्यमियों को कई बोझिल खानापूर्ति से निजात मिलेगी।' लघु उद्योग मंत्री कलराज मिश्रा ने कुछ दिन पहले ही कारोबारयों के एक सम्मेलन में कहा था कि स्मॉल इंडस्ट्रीज के लिए अलग श्रम कानून बनाने पर विचार किया जा रहा है।

राजस्थान में तो श्रम कानून केंद्र से पहले ससोधित कर ही दिये गये हैं।
अब आर्थिक सुधारों में तेजी के लिए ब्रिटिश राज से जारी श्रम और ट्रेड युनियन कानूनो को बदलने पर आमादा है भारत की बनिया सरकार।कहा जा रहा है कि इससे मैनुफैक्चरिंगको बढ़ावा मिलेगा और रोजगार बढ़ेंगे।एक वाक्य में कहें तो यह रोजगार के अवसरों और कार्यस्थितियों समेत श्रमिक सुरक्षा का अंत है।1950 में भारतीय संविधान की धारा 14-16,19(1) सी,23-24,38 और 41-43ए के तहत रोजगार और श्रम संरक्षण के जो उपायकिये गये हैं,उन्हें सिरे से खत्म करने का उपक्रम शुरु हो चुका है।

भारतीय मजदूर आंदोलन के दो प्रमुख गढ़ रहे हैं,कोलकाता और मुंबई।भारत में मजदुर संगठनों को भी इन्हीं दो महानगरों में अविराम श्रमिक आंदोलनों से आकार मिला।ब्रिटिश राज में बाबासाहेब अंबेडकर श्रम मंत्री थे।भारतीय श्रमिक आंदोलन को दिशा देने में उनकी पहल अब लोग भूल गये हैं।उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी बनाने से पहले वर्कर्स पार्टी बनायी थी और मनमाड के मजदूर सम्मेलन में कहा था कि भारतीय मजदूरो के दो समान दुश्मन हैं,एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद।नारायण मेघाजी लोखांडे को भारतीयमजदूर आंदोलन का जनक माना जाता है जो बाबासाहेब के सहयोगी और महात्मा ज्योतिबा फूले के अनुयायी हैं।बाद में संविधान का मसविदा बनाते हुए भी बाबासाहेब ने श्रम कानूनों को मजबूती देने की कोशिशें की जो उपर्युक्त संवैधानिक रक्षाकवच से जाहिर है।अब सत्ता वर्ग फासीवादी उन्माद के मार्फत देश को अमेरिका बनाने की खातिर उस रक्षा कवच को तहस नहस करने में लगे हैं।

विडंबना तो यह है कि बाबासाहेब के अनुयायियों को इस इतिहास के बारे में या तो पता है नहीं और पता है तो उनकी तनिक सहानुभूति देश के श्रमिक कर्मचारी तबके से नहीं है।

कर्मचारियों के संगठन के मार्फत जो बहुजन आंदोलन अंबेडकरवादी आंदोलन की मुख्यधारा है इस वक्त बाबासाहेब की खंड खंड खंडित रिपब्लिकन पार्टी के मुकाबले,उस कर्मचारी संगढन का इस्तेमाल हमेशा फंडिंग के लिए किया जाता रहा है और श्रमिकों कर्मचारियों के हितों में उस संगठन की ओर से कभी कोई आंदोलन हुआ नहीं है।

इसीतरह वामदलों का सत्ता बेदखल होने के बावजूद संगठित और असंगठित दोमों क्षेत्रों में श्रमिक आंदोलन पर वर्चस्व है लेकिन वामदलों ने भी अपनी समझौतापरस्त सत्ता राजनीति के लिए ही इन संगठनों का दोहन ही किया है और सही मायने में इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन अब तक हुआ ही नहीं है 1947 के बाद,जिसका लक्ष्य राज्यतंत्र में बदलाव के साथ श्रमिकों के साथ साथ देशवासियों के हक हकूक की बहाली हो।

दूसरी ओर,वाम खेतमजदूर संगठनों ने भूमि सुधार आंदोलन को चंद राज्यों में सिमटकर रख दिया और उसे राष्ट्रव्यापी आंदोलन बनने नहीं दिया।

कामरेड बीटी रणदिवे जैसे इक्का दुक्का अपवाद को छोड़कर वाम नेतृत्व में श्रमिक संगठनों का उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व ही नहीं रहा।मेरे ताउजी पक्के हिंदुत्ववादी थे।क्योंकि विभाजन के लिए उन्होंने कांग्रेस को कभी माफ नहीं किया।लेकिन वे भी कामरेड बीटीआर के समर्थक थे।

एमकेपांधे और कामरेड गुरुदास दासगुप्त जैसे अति सक्रिय ट्रेड यूनियन   नेता राजनेताओं के मातहत रहे हैं,जो सत्ता समीकरण से बाहर निकल ही नहीं सकते।इसीतरह किसान सभा के नेता भी हमेशा हाशिये पर रहे,जिनकी कभी सुनी नहीं गयी।पार्टी नेतृत्व ने दरअसल तेलंगाना से लेकर ढिमरी ब्लाक और उसके बाद सातवं दशक में भी ट्रेड यूनियन और किसान सभा के आंदोलनों से अविराम दगा करके उनके औचित्व और साख को बाट लगा दी और इन भारी भरकम जनसंगठनों की इस राष्ट्र में कोई भूमिका नहीं रह गयी। स्त्री,युवा,छात्र और प्रोफेशनल,बुद्धिजीवी, लेखक,कलाकार संगठन भी पार्टीबद्ध होकर अपनी अपनी आवाजें खो बैठे।

कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में करोड़ों की सदस्यता वाले वाम संगठनों की मौजूदगी के बावजूद तेइस साल तक अमेरिका परस्त गुलाम अल्पमत सरकारों की नीति निर्धारण में वाम भागेदारी की वजह से जनसंहारी आर्थिक सुधारों का आजतक विरोध संभव नहीं है।

कोलकाता और मुंबई अक्षरशः जलबद्ध महानगर हैं,जहां मेंढकी के पेशाब से जलप्रलय हो जाये।पूरे सावन जनजीवन स्तब्ध हो जाने के आसार। पेयजल, परिवहन, सूचना, संचार, बिजली से लेकर तमाम जरुरी सेवाों से वंचित रहने का अभ्यास रहा है कोलकाता और मुंबई के श्रम आंदोलन केंद्रों में।नरकयंत्रणा में जीने को अभ्यस्त लोग अपनी बुनियादी जरुरतों और अत्यावश्यक सेवाओं को बहाल रखने के लिए कोई संघर्ष करने को तैयार नहीं है तो अब उनसे क्या उम्मीद कीजै।

गैर महानगरीय मजदूर बिगुल जैसे श्रम आंदोलन हालांकि जारी है और उसका देशव्यापी नेटव्रक अभी तैयार हुआ नहीं है।कोलकाता के अलावा दिल्ली मुंबई, कानपुर, नागपुर, चेन्नै,बेगालुरु में भी शहरीकरण और औद्योगीकरण की आपाधापी में श्रमिक कर्मचारी तबके निश्चिह्न होने को हैंं।इस देश में अगले कुछ दशकों में दस दस लाख की आबादी वाले कम से कम पचास महानगर बनाये जाने की तैयारियां दोरों पर है,जिन्हें शायद बुलेट ट्रेनों और हवाई जहाजों से जोड़ा जायेगा।

मैनुफैक्चरिंग का मतलब है कि उत्पादन प्रणाली में मानवीयश्रम की अनिवार्यता,जैसा कि औद्योगिक क्रांति के दौर में यूरोप में देखा गया है।लेकिन मुक्त बाजार की उत्पादन प्रणाली में मानवसंसाधन गौण है।मशीन और तकनीक ही उत्पादन के आधार हैं।तो मसला रोजगार के अवसर पैदा करने के नहीं हैं,बल्कि इस अत्याधुनिक मशीनी तकनीकी उत्पादन प्रणाली में पहले से जुते हुए फालतू लोगों को बाहर करने का है।

विनिवेश और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तरीके अपनाकर सत्ता वर्ग ने पहले ही करोड़ों हाथ पांव काट लिये हैं।स्वैच्छिक अवसर और छेके पर काम का कहीं भी कोई खास विरोध हुआ नहीं है।श्रमिक आंदोलन में रोजगार की सुरक्षा आजाद भारत में प्राथमिकता पर कभी सर्वोच्च प्राथमिकता थी ही नहीं।अर्थवाद से नियोजित और नियंत्रित रहा है यह आंदोलन।जिसकी नौकरी जाये ,तो जाये,बचे हुए लोगों को बेहतर वेतनमान ,सहूलियतें और राहतें चाहिए।इसलिए सत्तावर्ग का समर्थक एक सुविधापरस्त कर्मचारी मजदूरवर्ग वंचितों बहुजनों और बेरोजगार कर दिये श्रमिक वर्ग के खिलाफ शुरु से लामबंद हैं।

औद्योगिक क्रांति के पहले दौर में यूरोप में देहात को उजाडा़ गया और किसानों का कत्लेआम हुआ।जर्मनी और ब्रिटेन के किसान आंदोलनों को देखें तो इस औद्योगिक क्रांति की अनंत समाधियां नजर आयेंगी।धर्म सुधार आंदोलन के तहत भी मध्ययुग में किसानों और मजदूरों का कत्लेाम होता रहा है।

धर्म,राजनीति और पूंजी का त्रिभुज यूरोप में तबाही बरसाता रहा है जहां अब देहात है नहीं।दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के अलावा सिर्फ चीन है,जहां अब भी खेत खलिहानों के साथ साथ देहात भी मौजूद है। औद्योगिक क्रांति चरित्र से मैनुफैक्चरिंग होने के कारण इस पूंजीवादी ढांचे की उत्पादन प्रणाली में भी कर्मचारियों और श्रमिकों के लिए अवसर थे।भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान सीमाबद्ध औद्योगीकरण में मेहनतकश तबके को रोजगार मिला भी।लेकिन तकनीकी क्रांति के बाद उत्पादन अब किसी भी अर्थ में मैनुफैक्चरिंग नहीं है।हजारों लोगों का काम एक अकेली मशीन कर सकती है।हजारो कर्मचारियों का काम अकेली मशीन कर सकती है।

भारत का सही मायने में यूरोपीय अर्थों में औद्योगीकीकरण कभी हुआ ही नहीं है।जो नगर महानगर बसाये गये,वे दरअसल समृद्धि नहीं,विस्थापन,बेदखली और मानवाधिकार नागरिकअधिकर नागरिकता हनन की मिसाले हैं।

जैसे बंगाल में मां माटी मानुष की सरकार कोलकाता को बना तो रही थी लंदन,लेकन कोलकाता दरअसल गंदी बस्तियों का वेनिस बनकर रह गया।जहां न नदियां हैं और न समुद्र,न झीले हैं न तालाब ,न नहरें हैं और न नाले।मानसून में तैराकी है जनजवन यंत्रणा।

जैसे मुंबई में महाब्सती धारावी को निकाल दें तो आर्थिक राजधानी की कलई खुल जायेगी।

अभी इस महादेश के ज्यादातर लोग रात जगकर फिफा विश्वकप का खेल देख रहे हैं। इंग्लैंड, फ्रांस,इटली और जर्मनी की टीमों में आपको काले दिख गये होंगे,अब बताइये कि ब्राजील और अर्जेनटीना और कलंबिया और कोस्टारिका की लातिन अमेरिकी टीमं में वहां के मूलनिवासी इंडियन कितने हैं।

कोलंबस के अलावा स्पेनी, पुर्तगीज,डच,इंगलिश जैसे लुटेरों ने मध्य एशिया के रेशम मार्ग पर कब्जे के लिए जिस मौलिक ग्लोबीकरण की नींव रखी मध्ययुग में,उसका अंधकार अब भी संक्रामक है।

ब्राजील विश्वकप की तैयारियों के मध्य बड़े पैमाने पर आदिवासी मूलनिवासी बेदखल हुए।जल जंगल जमीन को तहस नहस कर दिया गया।लेकिन फुटबाल कार्निवाल ने उस त्रासदी पर पर्दा डाल दिया और राष्ट्रव्यापी जनविद्रोह की आवाज भी कुल दी गयी।

इसी लातिन अमेरिका में पैराग्वे में मय सभ्यता और पेरु में इंका सभ्यता के ध्वंसावशेष है।उत्तर,मध्य और दक्षिण अमेरिका में अपने अपने उपनेवेश बनाकर प्राकृतिक संसाधनं की लूट खसोट में स्थानीयजनसमुदायों का खात्मा ही कर दिया गया है।

अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें।

इसी बीच,श्रम कानून संशोधन का मसविदा तैयार हो गया है।

श्रम एवं रोजगार मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने मंगलवार को केंद्रीय टे्ड यूनियनों से मुलाकात की और कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार श्रम सुधारों को लेकर आगे कदम बढ़ाने से पहले त्रिपक्षीय बातचीत करेगी।

श्रम कानूनों में संशोधन का विरोध का सुर लेकिन इस बैठक में सिरे से पलट गया है और  केंद्रीय मंत्री के साथ हुई पहली बैठक में ट्रेड यूनियनों ने राजस्थान में प्रमुख श्रम अधिनियमों में संशोधन के प्रस्ताव, केंद्र स्तर पर कुछ श्रम कानूनों में संशोधन और नीतियों को लागू करने में देरी को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की। यूनियनों ने 10 सूत्री मांग पत्र भी पेश किया।

भारतीय मजदूर संघ के महासचिव बीएन राय ने कहा, 'संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की कैबिनेट द्वारा मंजूरी मिलने के बाद भी कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के उपभोक्ताओं को 1000 रुपये महीने पेंशन और न्यूनतम वेतन 15000 रुपये महीने किए जाने में देरी हो रही है। हमने मंत्री से इसे लागू करने को कहा है।'

राय ने कहा कि तोमर ने ट्रेड यूनियनों को आश्वासन दिया है कि दो सप्ताह के भीतर नीतियां लागू की जाएंगी।

तीन घंटे चली बैठक में श्रम एवं रोजगार राज्य मंत्री विष्णु देव साय, श्रम सचिव गौरी कुमार और 12 ट्रेड यूनियनों के वरिष्ठ पदाधिकारी और प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।

मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि तोमर ने आश्वासन दिया है कि 'श्रम कानूनों में संशोधन करते समय श्रमिकों के कल्याण को ध्यान में रखा जाएगा।'

विज्ञप्ति में कहा गया है कि यूनियनों ने मंत्रालय द्वारा बनाई गई विभिन्न त्रिपक्षीय समितियों के काम को नियमित करने की मांग की। श्रम मंत्रालय ने कहा, 'न्यूनतम वेतन, ठेके  पर काम कर रहे श्रमिकों, घरेलू कामगारों और निर्माण क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों पर बातचीत में सबसे ज्यादा चर्चा हुई।'

सेंटर आफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) के अध्यक्ष एके पद्मनाभन ने कहा, 'यूनियन ने एक स्वर से मंत्री को अपनी चिंताओं से अवगत कराया, जिस पर उन्होंने गंभीरता से चर्चा की। यूनियनों ने मंत्री द्वारा पद संभालने के एक महीने के भीतर बैठक बुलाए जाने पर उनका स्वागत किया और कहा कि उन्होंने आश्वासन दिया है कि राजग शासन में हम तीनों पक्षों की राय लेंगे।'

बहरहाल  पद्मनाभन ने कहा, 'सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम वेतन का सुझाव दिया था, जिसे यूनियनों ने खारिज कर दिया। बहरहाल इसमें यह जिक्र नहीं किया गया है कि किस तरह से न्यूनतम वेतन तय किया जाएगा। इसमें वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाना चाहिए। सरकार को इसके बारे में साफ समझ बनानी होगी।' यूनियनों ने राजस्थान सरकार द्वारा फैक्टरीज अधिनियम, संविदा श्रम अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव के लिए पेश किए गए प्रस्ताव की आलोचना की।

In the Constitution of India from 1950, articles 14-16, 19(1)(c), 23-24, 38, and 41-43A directly concern labour rights. Article 14 states everyone should be equal before the law, article 15 specifically says the state should not discriminate against citizens, and article 16 extends a right of "equality of opportunity" for employment or appointment under the state. Article 19(1)(c) gives everyone a specific right "to form associations or unions". Article 23 prohibits all trafficking and forced labour, while article 24 prohibits child labour under 14 years old in a factory, mine or "any other hazardous employment".

Articles 38-39, and 41-43A, however, like all rights listed in Part IV of the Constitution are not enforceable by courts, rather than creating an aspirational "duty of the State to apply these principles in making laws".[1] The original justification for leaving such principles unenforceable by the courts was that democratically accountable institutions ought to be left with discretion, given the demands they could create on the state for funding from general taxation, although such views have since become controversial. Article 38(1) says that in general the state should "strive to promote the welfare of the people" with a "social order in which justice, social, economic and political, shall inform all the institutions of national life. In article 38(2) it goes on to say the state should "minimise the inequalities in income" and based on all other statuses. Article 41 creates a "right to work", which the National Rural Employment Guarantee Act 2005 attempts to put into practice. Article 42 requires the state to "make provision for securing just and human conditions of work and for maternity relief". Article 43 says workers should have the right to a living wage and "conditions of work ensuring a decent standard of life". Article 43A, inserted by the Forty-second Amendment of the Constitution of India in 1976,[2] creates a constitutional right tocodetermination by requiring the state to legislate to "secure the participation of workers in the management of undertakings".

Prime Minister Narendra Modi has set in motion the first major revamp in decades of the archaic labour laws, part of a plan to revive the flagging economy, boost manufacturing and create millions of jobs.
Successive governments have agreed labour reform is critical to absorb 200 million Indians reaching working age over the next two decades, but fears of an ugly union-led backlash and partisan politics have prevented changes to free up labour markets.
Now, with the benefit of a single party majority in Lok Sabha for the first time in 30 years, laws that date back to just after the end of British rule are set for an overhaul. Officials at the labour ministry say this is a top priority in the government's first 100 days in office.
India has a forest of labour laws, including anachronisms such as providing spittoons in the work place, and are so complex that most firms choose to stay small. In 2009, 84 per cent of India's manufacturers employed fewer than 50 workers, compared to 25 per cent in China, according to a study this year by consultancy firm McKinsey & Co.
The World Bank said in a 2014 report that India has one of the most rigid labour markets in the world and "although the regulations are meant to enhance the welfare of workers, they often have the opposite effect by encouraging firms to stay small and thus circumvent labour laws".
Business leaders hope Modi, who advocates smaller government and private enterprise, will be a liberaliser in the mould of Margaret Thatcher or Ronald Reagan. Perhaps the most important change, they say, is to rules making it hard to dismiss workers.
First up, though, to win public support, his Bharatiya Janata Party (BJP) government is looking to make changes that benefit workers, three senior officials at the labour ministry said. Among the changes: making more workers eligible for minimum wages, increasing overtime hours and allowing women to do night shifts.
"We are trying to provide a hassle free environment that helps both workers and industry," a senior labour ministry official involved in the deliberations said. "It is a priority for us."
Next on the reform agenda will be the most sensitive issue of loosening strict hire and fire rules. Officials said they have begun preliminary talks with concerned groups about slowly implementing the changes.
"There is a definite push ... you will see more measures," said another official at the ministry who is privy to the discussions within the government.
REFORMS KEY TO MANUFACTURING JOBS
India's 20-year streak of fast economic expansion is often derided as "jobless growth" since the service sector-led model has been capital rather than labour-intensive.
India does not produce reliable, regular jobless data, but long-term surveys by the statistics department show the country only created 5 million manufacturing jobs between 2004/5 and 2011/12. In the same period some 33 million people left farms looking for better paid work. The majority were absorbed into low productivity and irregular work on construction sites.
Moreover, research suggests India needs 12 million new jobs every year to absorb the largest youth bulge the world has ever seen. It has fallen far behind that target.
Companies complain that current laws requiring rarely granted government permission for layoffs make it impossible to respond to business downturns, and blame the laws for the country's relatively small manufacturing sector.
Manufacturing contributes just 15 per cent to India's nearly $2 trillion economy. New Delhi says it wants to lift that share to 25 per cent within a decade to help create 100 million jobs. Comparatively, manufacturing accounted for 45 per cent of China's GDP in 2012.
"If business cycles are volatile, the ability to downsize and upsize should be freely available," said R. Shankar Raman, chief financial officer at Larsen & Toubro, one of India's biggest conglomerates.
In what is seen as a test for Modi's labour reform agenda and is intended to inspire other states, Rajasthan this month proposed amendments to the central law to allow firms in the state to lay off up to 300 workers without government permission. Currently, clearance is required to fire more than 100 workers and this is rarely granted.
LABOUR MILITANCY DECLINES
Labour unions cutting across party affiliations have opposed the state government's move and have asked Modi to intervene. The BJP's own union has called a meeting of its officials early next month to chalk out a strategy to protest what it said was a lack of consultation over the shake up in Rajasthan.
Since almost all the unions in India have political affiliations, their opposition to reforms has a risk of turning into a full-scale political agitation. But the risk that the reforms could also bring full-blown street protests similar to that seen in Thatcher's Britain are unlikely.
Labour militancy has declined in India, although sporadic violent protests like one at a Maruti Suzuki factory in 2012 which resulted in a death of a company official are enough to make policymakers wary on the pace of reform.
The labour ministry has asked for public comments by early July on the changes it plans to the Minimum Wages Act, which sets minimum wages for skilled and unskilled labours, and the Factory Act, which governs health and safety.
The proposed changes would standardize minimum wages nationally while increasing the frequency of salary revisions based on consumer prices. Although potentially inflationary, the move could bring millions of workers into the formal economy.
The ministry also wants to extend the amount of overtime workers can clock and scrap a 1948 rule that prohibits women working at night in factories, suggestions that have been welcomed by both labour groups and employers.
(Reuters)



डिप्टी सेक्रेटरी हर्ष मालवीय की ओर से जारी सर्कुलर में कहा गया है कि सरकार लेबर लॉज (कुछ इंडस्ट्रीज के लिए रिटर्न भरने और रजिस्टर मेंटेन करने से छूट) एक्ट 1988 में संशोधन करना चाहती है। 23 जुलाई तक उद्यमी इस बारे में अपनी राय दे सकते हैं। बताया जा रहा है कि इस अमेंडमेंट के तहत पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट 1936, वीकली हॉलिडेज एक्ट 1942, मिनिमम वेजेज एक्ट 1948, फैक्ट्रीज एक्ट 1948 प्लांटेशंस लेबर एक्ट 1961, कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970, समान वेतन अधिनियम 1976 के तहत दर्जनों रजिस्टर मेंटेन करने और रिटर्न भरने से छूट की सीमा बढ़ाई जाएगी। अभी तक कुछ इंडस्ट्रीज में अधिकतम 10 से 19 मजदूरों वाली यूनिटों को कुछ श्रम कानूनों के तहत रजिस्टर मेंटेन करने से छूट मिली हुई है। सूत्रों के मुताबिक यह सीमा 30-40 मजदूरों तक बढ़ाई जा सकती है। लेबर कानून के अलावा फैक्ट्री एक्ट के तहत भी यूनिटों को कई रजिस्टर मेंटेन करने होते हैं और इस बारे में भी अमेंडमेंट की प्रक्रिया शुरू हो गई है।

दिल्ली-एनसीआर की स्मॉल इंडस्ट्रीज ने अमेंडमेंट की पहल का स्वागत किया है। एपेक्स चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के वाइस प्रेसिडेंट रघुवंश अरोड़ा ने बताया, 'कुछ मामलों में छोटी से छोटी यूनिटों को भी 15 से 20 रजिस्टर मेंटेन करने पड़ते हैं, जिनकी कोई जरूरत नहीं होती। हम मांग करेंगे कि 50 श्रमिकों तक यूनिट को सिर्फ एक बार रजिस्ट्रेशन कराने का प्रावधान हो और डेली रजिस्टर से मुक्ति मिले। 50 से 200 मजदूरों वाली फैक्ट्रियों के लिए सिर्फ एक छमाही लेबर रिटर्न भरने की अनिवार्यता हो।'

इतिमध्ये भाजपा शासित राज्यों में श्रम कानूनों को ठिकाने लगाने का पुण्यकर्म गौरवगान के साथ कर्मकांडी तौर तरीके के साथ शुरु भी हो चुका है ।मसलन राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली सरकार ने रोजगार सृजन बढ़ाने के लिए सुधारवादी कदम उठाते हुए श्रम कानूनों में संशोधन किया है। अभी तक केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए श्रम कानूनों में राज्यों की ओर से प्रस्तावित संशोधनों को शामिल किया जाता रहा है। सोमवार को सचिवालय में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में केंद्र सरकार के तीन कानून औद्योगिक अधिनियम, ठेका श्रम अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम में राज्य स्तर पर संशोधन को मंजूरी दी गई। संबंधित विधेयक अगले माह विधानसभा में पेश किया जाएगा। जिसके बाद मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाएगा।

राजस्थान में औद्योगिक विवाद अधिनियम में अब 300 श्रमिकों तक की छंटनी के लिए सरकार की अनुमति की जरूरत नहीं होगी। औद्योगिक विवादों को सुलझाने की समय सीमा 3 वर्ष निर्धारित की गई और यूनियनों के पंजीकरण में कर्मियों की सीमा को 15 फीसदी से बढ़ाकर 30 फीसदी कर दिया गया है। यदि इकाई में 50 से कम कर्मचारी हैं तो इसका रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी नहीं है। ठेका श्रम अधिनियम में कर्मचारियों की संख्या को 20 से बढ़ाकर 50 किया गया है। फैक्ट्री एक्ट में भी संशोधन किया गया है।

हालांकि राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में श्रम कानूनों में बदलाव को लेकर उठाए गए कदमों से देश के ट्रेड यूनियनों में खासी नाराजगी है। लेकिन इन संशोधनों के खिलाफ देशभर में तो क्या राजस्थान में भी कोई आंदोलन शुरु नही हो सका है।जाहिर है कि यह नाराजगी सिर्फ रस्म अदायगी है।बहरहाल ट्रेड यूनियनों ने 'श्रम कानून सुधारों' को आधारहीन और बेकार कहकर खारिज कर दिया है। यूनियनों ने राजस्थान सरकार के उस कदम का कड़ा विरोध किया है, जिसमें सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, फैक्टरी अधिनियम 1948 और संविदा श्रमिक अधिनियम 1971 से संबंधित कुछ कानूनों में संशोधन की बात की है।

यही नहीं,श्रम सुधारों की घोषणाओं के बाद राजस्थान सरकार ने एक अन्य केंद्रीय कानून अप्रेंटिसेस ऐक्ट 1961 में भी संशोधन करने का फैसला किया है। इस कदम से बड़े उद्योगपतियों को राहत मिल सकती है क्योंकि अप्रेंटिस नियुक्त नहीं करने की स्थिति में उनके लिए जेल जाने की नौबत आ जाती है। साथ ही, विभिन्न प्रकार की मंजूरी के लिए उन्हें इधर-उधर भटकना पड़ता है। इस कदम से उद्योग जगत को कुशल कर्मी पाने और राज्य में युवाओं के लिए रोजगार के अधिक अवसर सृजित करने में मदद मिलेगी।

इस संशोधन का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि वसुंधरा राजे के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता संभालने के बाद विभिन्न कं पनियों ने राज्य में 34,380 करोड़ रुपये निवेश किए हैं या निवेश करने की प्रक्रिया में है। राजे सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, फैक्टरीज ऐक्ट, 1948 और कॉन्ट्रैक्ट लेबर ऐक्ट, 1970 में पहले ही संशोधन करने की घोषणा कर चुकी है। ये सभी अधिनियम संविधान में राज्य सूची के तहत आते हैं और संशोधन के लिए राज्य विधानसभा और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरत होती है। अगले दो हफ्तों में प्रस्तावित संशोधन राज्य विधानसभा में पेश होंगे।

सोमवार को राजे ने ट्विटर पर लिखा, 'युवाओं के लिए रोजगार के अधिक अवसर पैदा करने के लिए अप्रेंटिसेस अधिनियम 1961 में संशोधन किए जाएंगे। ऐसा माना जा रहा है कि नए निवेश आकर्षित करने के मोर्चे पर राजस्थान, गुजरात की बराबरी करना चाहता है और इसी क्रम में उद्योगपतियों को रिझाने के लिए विभिन्न उपायों की घोषणाएं कर रहा है। राज्य के संसदीय कार्यमंत्री राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि संशोधन से राज्य अप्रेंटिस काउंसिल को उन पाठ्यक्रमों की अवधि तय करने में मदद मिलेगी जो इसके दायरे में आते हैं।


अब संघ परिवार के एजंडे पर जो सर्वोच्च प्राथमिकता है,उसके खिलाफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के बीएन राय ने कहा, 'हम इस कदम का कड़ा विरोध करते हैं। भारतीय जनता पार्टी का घोषणापत्र तैयार किए जाते समय हमने कहा था कि देश में श्रम सुधारों की कोई गुंजाइश नहीं है। बाद में यह उनके घोषणा पत्र में शामिल कर लिया गया, जिसे श्रम कानूनों की समीक्षा का नाम दिया गया। बहरहाल मसला समीक्षा का था न कि सुधार का।'

अब इस विरोध का रसायन समझ लीजिये।


सेंटर आफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू) के अध्यक्ष एके पद्मनाभन ने कहा, 'इस बदलाव का मतलब हुआ कि आप चाहते हैं कि ज्यादा कर्मचारी बंधुआ मजदूर की तरह काम करें। देश में हजारों की संख्या में बगैर कोई कारण बताए छंटनी की गई। श्रम कानून मौजूद होने के बावजूद उसे कोई नहीं मानता। श्रमिकों के हितों की रक्षा का खयाल किसी को नहीं है।' पद्मनाभन ने कहा कि ट्रेड यूनियन इसका पूरी तरह विरोध करती है और राजस्थान का यह कदम सिर्फ कॉरपोरेट के अनुकूल है।

बिजनेस स्टैंडर्ड में राहुल जैकब ने नई दिल्ली से लिखा है कि पिछले दिनों राजस्थान से आई एक खबर किसी अचरज से कम नहीं थी। जहां हर किसी की नजर सोमवार को होने वाले राष्ट्रपति के अभिभाषण पर टिकी हुई थीं वहीं 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने राजस्थान के एक वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से खुलासा किया कि श्रम कानून में संशोधन करके एक धारा को सरल बनाया जा रहा है, जिसके तहत 300 कर्मचारी वाली किसी कंपनी को अपने कर्मचारियों से छुटकारा पाने के लिए सरकार से मंजूरी की जरूरत नहीं रह जाएगी।

औद्योगिक विवाद अधिनियम में इस तरह के बदलावों की मांग पिछले दो दशकों से उठ रही है। मैं जब 1992 में 'फॉच्र्यून' के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था पर एक आवरण कथा लिख रहा था, तभी से लगातार श्रम सुधारों की जरूरत के बारे में सुनता रहा हूं। राजस्थान में जो हो रहा है वह इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह दर्शाता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नियुक्ति और बर्खास्तगी संबंधी कानून और फैक्टरी अधिनियम में सुधार को लेकर गंभीर है।

श्रम कानून समवर्ती सूची में आते हैं, जिससे राजस्थान जैसे राज्यों को जरूरी कानून बनाने का अधिकार मिलता है और फिर वे इसे मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेजते हैं। अगर दूसरे राज्य और केंद्र इसका अनुसरण करते हैं तो कपड़ा, जूते और खिलौने जैसे श्रम-आधारित उद्योगों में प्रतिस्पर्धा के लिए भारत देर से ही सही, एक ठीक शुरुआत कर सकता है। चीन में मजदूरी की दरों में लगभग दोगुने की बढ़ोतरी के चलते इन उद्योगों में वहां नौकरियों में कमी आ रही है, जिसका लाभ बांग्लादेश, वियतनाम और इंडोनेशिया को मिल रहा है, जो भारत की तुलना में निवेशकों के अधिक अनुकूल माने जाते हैं।

फैक्टरी अधिनियम में प्रस्तावित परिवर्तनों में कानून तोडऩे पर दंड का दायरा भी बढ़ाया जा रहा है। भारत के साथ मुख्य समस्या यही है कि देश में डंडे का जोर चलता है, सरकार हद से ज्यादा दखल देती है जबकि नियमन और निगरानी जैसे मोर्चों पर कमी रह जाती है। इस महीने योजना में प्रकाशित एक आलेख में अजय शाह लिखते हैं, 'भारत के बुनियादी ढांचे के साथ इस समय जो समस्याएं जुड़ी हैं, उनका संबंध अमूमन नियोजन, अनुबंध और नियमन में राज्य की अक्षमता से जुड़ा है।'

तकरीबन 95,000 कर्मियों वाली कंपनी टीमलीज के प्रमुख मनीष सभरवाल 2,00,000 प्रशिक्षुओं (अप्रेंटिस) की भर्ती के बारे में पिछली सरकार को मनाने की कोशिश की दास्तान सुनाते हैं। भारत में केवल 3,00,000 प्रशिक्षु होते हैं, जो दक्षिण कोरिया और चीन से इस मामले में काफी पीछे हैं, जहां यह आंकड़ा 2 करोड़ है। सरकार में वरिष्ठ स्तर पर हर किसी ने यही सोचा कि प्रशिक्षुओंकी भर्ती करने की योजना एक बढिय़ा विचार था।

हालांकि वर्ष 2009 से सभरवाल ने श्रम मंत्रालय के 37 पत्रों का जवाब तो दे दिया लेकिन वह अपना मकसद हासिल नहीं कर सके। सभरवाल सवाल करते हैं, 'सरकार में हर कोई आपसे सहमत हो तो भी काम नहीं होता?' यह सवाल शब्दाडंबरों से जुड़ा लग सकता है लेकिन लुटियन की दिल्ली में यह इस वक्त का सबसे बड़ा सवाल है, जो सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय शासन में बदलाव लाने की इच्छा से जुड़ा है।

राजस्थान सरकार ने योजना आयोग के समतुल्य राज्य की इकाई के मामले में भी बढ़त ले ली है, जबकि ऐसा प्रतीत होता है कि नई दिल्ली के योजना आयोग में लोगों की नियुक्ति को लेकर मोदी जल्दबाजी में नहीं हैं। शाह कहते हैं, 'आज चुनौती विनियमन या सुधारों के जरिये कानून खत्म करने की नहीं' बल्कि राज्यों की क्षमता निर्माण की है। आज सबसे बड़ी चुनौती केंद्र और राज्यों के बीच संपर्क बढ़ाने की है, जिसमें कभी भी इतनी चौड़ी खाई नहीं देखी गई। वर्ष 1952 में जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में बनी राष्ट्रीय विकास परिषद में 14 मुख्यमंत्री शामिल थे, जिसके सदस्यों का आकार आज बढ़कर 400 से अधिक हो गया है।
अपने 'मिशन क्रीप' (शुरुआती सफलताओं से उत्साहित एक अति महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य जो अव्यावाहारिक भी हो सकता है) को हासिल करने के लिए भाजपा क्या करेगी, इसके संकेत सोमवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण में नजर आए। एक उदाहरण लीजिए: हमारी अगली पीढ़ी की बेहतर शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए हमारे सरकारी विद्यालयों में महज अंकगणित के ज्ञान और पठन कौशल से परे सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए लेकिन इसका उल्लेख ही नहीं किया गया।

इसके बजाय हमें सरकार की उसी योजना के बारे में सुनने को मिला, जिसमें एक खराब चीज के लिए अच्छी रकम को लुटाया जाएगा। यह कदम भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों और भारतीय प्रबंधन संस्थानों की संख्या में नाटकीय बढ़ोतरी से जुड़ा है। पूर्ववर्ती संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार ने भी यही किया था। अब सरकार राष्ट्रीय स्तर पर खेल प्रतिभा तलाश कार्यक्रम चलाने जा रही है। एक राष्ट्रीय बहु-कौशल मिशन की भी योजना है।


बुधवार को प्रधानमंत्री ने कुछ लच्छेदार भाषा में कहा कि हमें घोटालों वाले भारत की पहचान कौशल वाले भारत की बनानी है। राष्ट्रपति का अभिभाषण भाजपा के घोषणापत्र सरीखा था, जिसमें जनसांख्यिकी, मांग और लोकतंत्र के मोर्चे पर भारत के फायदों का उल्लेख किया गया था, जो चकराने के लिहाज से काफी था। भाषण लेखकों के लिए यह चेतावनी है कि अलंकारिक जुमलों के प्रति उनका झुकाव एक लोकप्रिय प्रधानमंत्री और जनता के बीच संचार दरार पैदा कर रहा है।
हालांकि यह नेताओं के लिए असामान्य है लेकिन अगर राजस्थान में श्रम कानूनों को सरकार की राह की नजीर मानें तो इस सरकार ने जो अब तक किया है, वह उसकी बयानबाजियों से ज्यादा दिलचस्प साबित हुआ है। अगर वह अपनी प्राथमिकताओं को छोटा रखती है और नौकरशाहों पर दबाव बनाने में कामयाब होती है तो बदलाव आएगा। अगर स्थूल स्तर पर एक प्रशिक्षु कार्यक्रम की शुरुआत के लिए श्रम मंत्रालय 37 पत्रों के जरिये जवाब चाहता है तो बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं होगा।

दैनिक हिंदुस्तान में जयंतीलाल भंडारी, अर्थशास्त्री ने क्या खूब लिखा हैः

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आर्थिक विकास का जो नया रोडमैप बनाया है, उसके मद्देनजर श्रम सुधारों की दिशा में कदम बढ़ाने की तैयारी दिखाई दे रही है। इस सिलसिले में राजस्थान सरकार ने महत्वपूर्ण घोषणा की है कि वह शीघ्र ही अपने श्रम कानून में ऐसा संशोधन करेगी, जिससे विनिर्माण क्षेत्र के नियोक्ताओं को यह सुविधा मिले कि वे आवश्यकता के अनुरूप बगैर राज्य सरकार की पूर्व अनुमति के 300 संख्या तक कर्मचारियों को सेवा मुक्त कर सकेंगे। अभी ऐसी न्यूनतम संख्या 100 है। एक दौर में तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने बिना सरकार की अनुमति के कर्मचारियों की संख्या को 1,000 किया जाने वाला प्रस्ताव पेश किया था। लेकिन सहमति के अभाव में वह प्रस्ताव अटक गया। यह सब तब हो रहा है, जब देश में श्रमिकों के लिए सामाजिक  सुरक्षा की भारी आवश्यकता महसूस की जा रही है, किंतु नए आर्थिक विश्व के कारण भारत में श्रम सुधार की आवश्यकता भी बढ़ गई है। पिछले 23 वर्षों में भारतीय उद्योगों को विश्व भर में स्पर्धात्मक बनाने के उद्देश्य से वित्तीय क्षेत्र, मुद्रा-बैंकिंग व्यवसाय, वाणिज्य, विनिमय दर और विदेशी निवेश के क्षेत्र में नीतिगत बदलाव किए गए हैं। इन बदलावों के कारण श्रम कानूनों में बदलाव भी जरूरी दिखाई दे रहे हैं।

श्रम से संबंधित केंद्र सरकार के पास करीब 50 कानून हैं और राज्य सरकारों के  पास 150 कानून। इनमें से कई तो आजादी के भी पहले के हैं। अब तक देश में श्रम सुधार के मद्देनजर दो श्रम आयोग बने हैं। पहले राष्ट्रीय श्रम आयोग का गठन 24 सितंबर 1966 को किया गया था। तीन साल बाद प्रथम श्रम आयोग द्वारा प्रस्तुत सिफारिशें मोटे तौर पर श्रम संरक्षण पर केंद्रित थीं। सरकार ने नई औद्योगिक -व्यावसायिक जरूरतों के लिहाज से व्यापक  श्रम कानून बनाने के लिए रवींद्र वर्मा की अध्यक्षता में 15 अक्तूबर, 1999 को दूसरे श्रम आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने 29 जून, 2002 को करीब 1,500 पृष्ठों  की श्रम संरक्षण और श्रम सुधार से जुड़ी सिफारिशों वाली रिपोर्ट सरकार को सौंपा था। इस श्रम आयोग ने चीन को मॉडल देश मानते हुए श्रम कानूनों को उपयुक्त बनाने की भी सिफारिशें की थीं।

चीन में श्रम कानूनों को अत्यधिक उदार और लचीला बनाकर एक नई कार्य-संस्कृति विकसित की गई है। चीन में पुराने व बंद उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों को नई जरूरतों के अनुरूप  काम करने के लिए प्रशिक्षण देने की नीति भी अपनाई जा रही है। ये सिफारिशें ठंडे बस्ते में बंद पड़ी हैं। अब श्रम सुधार के बिना विकास दर की बात बहुत आगे बढ़ने वाली नहीं है। श्रम कानूनों की भरमार कम करनी होगी और ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जिनसे उत्पादन बढ़े और उपयुक्त सुरक्षा ढांचे के साथ श्रमिकों का भी भला हो। निश्चित रूप से वैश्वीकरण के इस दौर में श्रम सुधारों की ओर से आंखें मूंदना बेमानी है।

শ্রমআইনের সংশোধনে কেন্দ্র

এই সময়: কর্মসংস্থান তৈরির লক্ষ্যে ও অর্থনীতিকে চাঙ্গা করতে কয়েক দশক পুরোনো শ্রম আইনে বড়সড় বদল করতে চলেছেন প্রধানমন্ত্রী নরেন্দ্র মোদী৷ প্রতিটি সরকারই জানে যে আগামী ২০ বছরে ২০ কোটি কর্মক্ষম লোক তৈরি হবে, কিন্তু তাঁদের কাজের সুযোগ করে দেওয়ার মতো শ্রম আইন দেশে নেই, আবার আইন বদলে সবচেয়ে বড় বাধা হল বিভিন্ন রাজনৈতিক দলের মদতপুষ্ট শ্রমিক সংগঠন বা ইউনিয়নগুলো, বদলের কথা শুনলেই তারা নানা রকম ওজর-আপত্তি তোলে৷

তিরিশ বছর পরে নিরঙ্কুশ সংখ্যাগরিষ্ঠ দল হিসাবে সরকার গড়েছে বিজেপি, তাই ব্রিটিশরো দেশ ছাড়ার পরে পরেই যে আইন তৈরি করেছিল, সেই আইন তারা বদল করতে চলেছে৷ সরকার গড়ার প্রথম ১০০ দিনের মধ্যেই এই বদল হবে বলে শ্রমমন্ত্রকের এক আধিকারিক সংবাদসংস্থা রয়টার্সকে জানিয়েছেন৷

ভারতে পাহাড়প্রমাণ শ্রমআইন, তা এতটাই বস্তাপচা ও জটিল যে বেশিরভাগ কোম্পানিই বড় হতে চায় না৷ ম্যাককিনসে অ্যান্ড কোম্পানির সমীক্ষা অনুযায়ী, ২০০৯ সালে ভারতের ৮৪ শতাংশ উত্‍পাদন সংস্থায় শ্রমিকের সংখ্যা ছিল ৫০ জনের কম, যেখানে চিনের ২৫ শতাংশের কম সংস্থায় ৫০ জনের কম কর্মী কাজ করতেন৷ ২০১৪ সালের একটি রিপোর্টে বিশ্ব ব্যাঙ্ক বলেছে, সারা বিশ্বে সবচেয়ে কঠিন শ্রম আইন রয়েছে ভারতে৷ রিপোর্টে বলা হয়েছে, কর্মীদের মঙ্গলের জন্য এই আইন করা হয়ে থাকলেও অনেক ক্ষেত্রেই তা হিতে বিপরীত হয়েছে এবং আইন বাঁচাতে সংস্থাগুলো ছোটোই থেকে যাচ্ছে৷

আইনমন্ত্রকের এক আধিকারিক বলেন, 'আমরা এমন পরিবেশ তৈরি করতে চাইছি যা কর্মী ও শিল্প, উভয়ের পক্ষেই স্বস্তিদায়ক হয়৷' কঠোর কর্মীছাঁটাই সংক্রান্ত্র আইনও নরম করতে চাইছে সরকার৷ ধীরে ধীরে যাতে এই আইন লাগু করা যায়, সে জন্য ইতিমধ্যেই বিভিন্ন গোষ্ঠীর সঙ্গে কথা বলা শুরু করেছে মন্ত্রক৷ অন্য আরেকজন আধিকারিক বলেন, 'সত্যিই বদল দেখবেন, আরও অনেক পদক্ষেপ দেখতে পাবেন৷'

পরিসংখ্যান অনুযায়ী, ২০০৪-০৫ থেকে ২০১১-১২ সালের মধ্যে দেশে শিল্পোত্‍পাদন ক্ষেত্রে ৫০ লক্ষ কর্মসংস্থান তৈরি হয়েছে৷ অথচ প্রতি বছর ১.২ কোটি কর্মসংস্থান দরকার ভারতের৷

শিল্পোত্‍পাদন থেকেই দেশের ২ লক্ষ কোটি ডলার জিডিপি-র ১৫ শতাংশ আসে৷ সরকার চাইছে ১০ কোটি কর্মসংস্থান তৈরি করে তা ২৫ শতাংশে নিয়ে যেতে৷ বিজেপির নিজের ইউনিয়ন নেতাদের সঙ্গে কথা বলছে৷ ভারতের প্রায় সব শ্রমিক ইউনিয়নই কোনও না কোনও রাজনৈতিক দল অনুমোদিত৷ তাই এ নিয়ে রাজনৈতিক ঐক্যমতও দরকার৷


Is India on cusp of a major labour-law reform? India could soon be on the cusp of a major work-related reform, a move that could potentially boost manufacturing, create millions of jobs and boost economic growth.

Moneycontrol Bureau Millions of employees in the UK can now request for more flexible working hours , including the option to work from home, after the country's employment-relations ministry passed a law mandating employers to consider such requests. The move is aimed at boosting productivity in a work culture, the country's employment minister Jo Swinson said, where the focus is no longer on "presenteeism" or putting in long hours physically at the workplace but rather on "getting the work done". While such laws are far from being a reality in India, this country could soon also be on the cusp of a major work-related reform, a move that could potentially boost manufacturing, create millions of jobs and boost economic growth. The Narendra Modi-led government is working on a major rehaul to be brought about in current labour laws, which, according to experts, put a brake on industrial growth, limit expansion of companies and stifle employment opportunities. The Bhartiya Janata Party government is looking to introduce laws that will benefit workers -- such as making more workers eligible for minimum wages, increasing overtime hours and allowing women to work in night shift in factories -- and will follow it up with other arguably more unpopular rules such as allowing for contract hiring, a Reuters report has claimed. "We are trying to provide a hassle-free environment that helps both workers and the industry," a senior official with the labour ministry, which recently put out an article seeking public comments on some of the above-mentioned proposals, told Reuters . The official said tweaking labour laws is a priority with the new government. A series of reports, from policymakers, think-tanks and global researchers have pointed to India's labour laws, some of which date back to Independence, as the reason behind the slow growth in its manufacturing sector. The world's third-largest economy depends majorly on the services sector (56 percent of gross domestic product) – a sector that relies more on technology and capital than it does on labour – rather than manufacturing, which contributes only 15 percent to the country's GDP. In comparison, the manufacturing sector makes up for 45 percent of China. Experts say laws such as those that restrict manufacturers from laying off workers (companies seeking to sack more than 100 workers need permission) inhibit their ability to adjust to expand and contract in the face of turns in the business cycle. "If a bank or an IT company wants to lay off 1200 people, it can do so. But manufacturers cannot, because they are covered by the Factory Act," investment banker and former ACC chief Anil Singhvi told CNBC-TV18 recently . Singhvi added that laws should be friendly for both business as well as workers. "Labours should be looked after well. But I should have the ability to hire labourers but also lay them off when I don't have the need. I will not shut down my factory. I will again hire them." "The current laws discourage hiring," Hero MotoCorp joint MD Sunil Munjal told the channel in the same discussion, adding that the problem has arisen from the misplaced view that businesses in general are enemies of workers. "Ultimately, businesses need labour and cannot afford to ill-treat it." Munjal drew an analogy from the UPA government's rural-employment scheme that guaranteed 100 days of work for unemployed individuals. "Why don't you allow us to give 100 days of jobs to people because we have seasonal requirements for such workers?" he asked, pointing also to some parts of the textile sector, which sometimes require workers only for a specific season of the year. However, any move by the central government to relax labour laws will likely be met with stiff opposition from the trade unions, including the BJP's own , which recently opposed a move by Rajasthan government (run by the party) to tweak the Factory Act, Industrial Disputes Act and the Contracts Act. The BJP's economic manifesto had made a reference to wanting to review labour laws but did not spell out too much, possibly to avoid drawing the ire of unions. But it increasingly appears the Rajasthan government's move was a precursor to a bold labour reform by the centre. - With inputs from CNBC-TV18, Reuters and PTI.

Indian labour law

From Wikipedia, the free encyclopedia
Indian labour law refers to laws regulating labour in India. Traditionally Indian governments at federal and state level have sought to ensure a high degree of protection for workers, but in practice, legislative rights only cover a minority of workers. India is a federal form of government and because labour is a subject in the concurrent list of the Indian Constitution, labour matters are in the jurisdiction of both central and state governments. Both central and state governments have enacted laws on labour relations and employment issues.

Contents

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History[edit]

Indian labour law is closely connected to the Indian independence movement, and the campaigns of passive resistance leading up to independence. While India was under colonial rule by the British Raj, labour rights, trade unions, and freedom of association were all suppressed. Workers who sought better conditions, and trade unions who campaigned through strike action were frequently, and violently suppressed. After independence was won in 1947, the Constitution of India of 1950 embedded a series of fundamental labour rights in the constitution, particularly the right to join and take action in a trade union, the principle of equality at work, and the aspiration of creating a living wage with decent working conditions.

Constitutional rights[edit]

Main article: Constitution of India
Wikisource has original text related to this article:
In the Constitution of India from 1950, articles 14-16, 19(1)(c), 23-24, 38, and 41-43A directly concern labour rights. Article 14 states everyone should be equal before the law, article 15 specifically says the state should not discriminate against citizens, and article 16 extends a right of "equality of opportunity" for employment or appointment under the state. Article 19(1)(c) gives everyone a specific right "to form associations or unions". Article 23 prohibits all trafficking and forced labour, while article 24 prohibits child labour under 14 years old in a factory, mine or "any other hazardous employment".
Articles 38-39, and 41-43A, however, like all rights listed in Part IV of the Constitution are not enforceable by courts, rather than creating an aspirational "duty of the State to apply these principles in making laws".[1] The original justification for leaving such principles unenforceable by the courts was that democratically accountable institutions ought to be left with discretion, given the demands they could create on the state for funding from general taxation, although such views have since become controversial. Article 38(1) says that in general the state should "strive to promote the welfare of the people" with a "social order in which justice, social, economic and political, shall inform all the institutions of national life. In article 38(2) it goes on to say the state should "minimise the inequalities in income" and based on all other statuses. Article 41 creates a "right to work", which the National Rural Employment Guarantee Act 2005 attempts to put into practice. Article 42 requires the state to "make provision for securing just and human conditions of work and for maternity relief". Article 43 says workers should have the right to a living wage and "conditions of work ensuring a decent standard of life". Article 43A, inserted by the Forty-second Amendment of the Constitution of India in 1976,[2] creates a constitutional right tocodetermination by requiring the state to legislate to "secure the participation of workers in the management of undertakings".

Contract and rights[edit]

Scope of protection[edit]

Indian labour law makes a distinction between people who work in "organised" sectors and people working in "unorganised sectors".[citation needed] The laws list the different industrial sectors to which various labour rights apply. People who do not fall within these sectors, the ordinary law of contract applies.[citation needed]
India's labor laws underwent a major update in the Industrial Disputes Act of 1948. Since then, an additional 45 national laws expand or intersect with the 1948 act, and another 200 state laws control the relationships between the worker and the company. These laws mandate all aspects of employer-employee interaction, such as companies must keep 6 attendance logs, 10 different accounts for overtime wages, and file 5 types of annual returns. The scope of labour laws extend from regulating the height of urinals in workers' washrooms to how often a work space must be lime-washed.[3] Inspectors can examine workspace anytime and declare fines for violation of any labour laws and regulations.

Employment contracts[edit]

Among the employment contracts that are regulated in India, the regulation involves significant government involvement which is rare in developed countries. The Industrial Employment (Standing Orders) Act 1946 requires that employers have terms including working hours, leave, productivity goals, dismissal procedures or worker classifications, approved by a government body.[4]
The Contract Labour (Regulation and Abolition) Act 1970 aims at regulating employment of contract labour so as to place it at par with labour employed directly.[5] Women are now permitted to work night shifts too (10pm to 6am).[5]
The Latin phrase 'dies non' is being widely used by disciplinary authorities in government and industries for denoting the 'unauthorised absence' to the delinquent employees. According to Shri R. P.Saxena, Chief Engineer, Indian Railways, dies-non is a period which neither counted in service nor considered as break in service.[6] A person can be marked dies-non, if
1.Absent without proper permission.
2.When on duty left without proper permission.
3.While in office but refused to perform duties.
In cases of such willful and unauthorised absence from work, the leave sanctioning authority may decide and order that the days on which the work is not performed be treated as dies non-on the principle of no work no pay. This will be without prejudice to any other action that the competent authority might take against the persons resorting to such practises.[7] The principle of "no work no pay" is widely being used in the banking industry in India.[8] All other manufacturing industries and large service establishments like railways,posts and telecommunications are also implementing it to minimise the incidences of unauthorised absence of workers. The term 'industry' infuses a contractual relationship between the employer and the employee for sale of products and services which are produced through their cooperative endeavor.
This contract together with the need to put in efforts in producing goods and services imposes duties (including ancillary duties) and obligations on the part of the employees to render services with the tools provided and in a place and time fixed by the employer. And in return, as a quid pro quo, the employer is enjoined to pay wages for work done and or for fulfilling the contract of employment.Duties generally, including ancillary duties, additional duties, normal duties, emergency duties, which have to be done by the employees and payment of wages therefor. Where the contract of employment is not fulfilled or work is not done as prescribed, the principle of 'no work no pay' is brought into play.

Wage regulation[edit]

The Payment of Wages Act 1936 requires that employees receive wages, on time, and without any unauthorised deductions. Section 6 requires that people are paid in money rather than in kind. The law also provides the tax withholdings the employer must deduct and pay to the central or state government before distributing the wages.[9]
The Minimum Wages Act 1948 sets wages for the different economic sectors that it states it will cover. It leaves a large number of workers unregulated. Central and state governments have discretion to set wages according to kind of work and location, and they range between as much as INR 143 to 1120 per day for work in the so-called central sphere. State governments have their own minimum wage schedules.[10]
The Payment of Gratuity Act 1972 applies to establishments with over 10 workers. Gratuity is payable to the employee if he or she resigns or retires. The Indian government mandates that this payment be at the rate of 15 days salary of the employee for each completed year of service subject to a maximum of INR 1000000.[11]
The Payment of Bonus Act 1965, which applies only to enterprises with over 20 people, requires bonuses are paid out of profits based on productivity. The minimum bonus is currently 8.33 per cent of salary.[12]

Working time[edit]

  • Weekly Holidays Act 1942
  • Beedi and Cigar Workers Act 1966

Health and safety[edit]

The Workmen's Compensation Act 1923 requires that compensation is paid if workers are injured in the course of employment for injuries, or benefits to dependants. The rates are low.[13][14]

Pensions and insurance[edit]

The Employees' Provident Fund and Miscellaneous Provisions Act 1952 created the Employees' Provident Fund Organisation of India. This functions as a pension fund for old age security for the organised workforce sector. For those workers, it creates Provident Fund to which employees and employers contribute equally, and the minimum contributions are 10-12 per cent of wages. On retirement, employees may draw their pension.[15]
The Employees' State Insurance provides health and social security insurance. This was created by the Employees' State Insurance Act 1948.[16]
The Unorganised Workers' Social Security Act 2008 was passed to extend the coverage of life and disability benefits, health and maternity benefits, and old age protection for unorganised workers. "Unorganised" is defined as home-based workers, self-employed workers or daily-wage workers. The central government was meant to formulate the welfare system through rules produced by the National Social Security Board.
The Maternity Benefit Act 1961, creates rights to payments of maternity benefits for any woman employee who worked in any establishment for a period of at least 80 days during the 12 months immediately preceding the date of her expected delivery.[17]

Workplace participation[edit]

Trade unions[edit]

Main article: Trade unions in India
Article 19(1)(c) of the Constitution of India gives everyone an enforceable right "to form associations or unions".
The Trade Unions Act 1926, amended in 2001, contains rules on governance and general rights of trade unions.[18]

Management participation[edit]

It was the view of many in the Indian Independence Movement, including Mahatma Gandhi, that workers had as much of a right to participate in management of firms as shareholders or other property owners.[19] Article 43A of the Constitution, inserted by the Forty-second Amendment of the Constitution of India in 1976,[2] created a right to codetermination by requiring the state to legislate to "secure the participation of workers in the management of undertakings". However, like other rights in Part IV, this article is not directly enforceable but instead creates a duty upon state organs to implement its principles through legislation (and potentially through court cases). In 1978 the Sachar Report recommended legislation for inclusion of workers on boards, however this had not yet been implemented.[20]
The Industrial Disputes Act 1947 section 3 created a right of participation in joint work councils to "provide measures for securing amity and good relations between the employer and workmen and, to that end to comment upon matters of their common interest or concern and endeavour to compose any material difference of opinion in respect of such matters". However, trade unions had not taken up these options on a large scale. In National Textile Workers Union v Ramakrishnan[21] the Supreme Court, Bhagwati J giving the leading judgment, held that employees had a right to be heard in a winding up petition of a company because their interests were directly affected and their standing was not excluded by the wording of the Companies Act 1956 section 398.

Collective action[edit]

The Industrial Disputes Act 1947 regulates how employers may address industrial disputes such as lockouts, layoffs, retrenchment etc. It controls the lawful processes for reconciliation, adjudication of labour disputes.[22]
According to fundamental rules (FR 17A) of the civil service of India, a period of unauthorised absence- (i) in the case of employees working in industrial establishments, during a strike which has been declared illegal under the provisions of the Industrial Disputes Act, 1947, or any other law for the time being in force; (ii) in the case of other employees as a result of action in combination or in concerted manner,such as during a strike, without any authority from, or valid reason to the satisfaction of the competent authority; shall be deemed to cause an interruption or break in the service of the employee, unless otherwise decided by the competent authority for the purpose of leave travel concession,quasi-permanency and eligibility for appearing in departmental examinations, for which a minimum period of continuous service is required.[23]

Equality[edit]

Main articles: Equality and Discrimination law
Article 14 states everyone should be equal before the law, article 15 specifically says the state should not discriminate against citizens, and article 16 extends a right of "equality of opportunity" for employment or appointment under the state. Article 23 prohibits all trafficking and forced labour, while article 24 prohibits child labour under 14 years old in a factory, mine or "any other hazardous employment".

Sex discrimination[edit]

Article 39(d) of the Constitution provides that men and women should receive equal pay for equal work. In the Equal Remuneration Act 1976 implemented this principle in legislation.
  • Randhir Singh v Union of India Supreme Court of India held that the principle of equal pay for equal work is a constitutional goal and therefore capable of enforcement through constitutional remedies under Article 32 of Constitution
  • State of AP v G Sreenivasa Rao, equal pay for equal work does not mean that all the members of the same cadre must receive the same pay packet irrespective of their seniority, source of recruitment, educational qualifications and various other incidents of service.
  • State of MP v Pramod Baratiya, comparisons should focus on similarity of skill, effort and responsibility when performed under similar conditions
  • Mackinnon Mackenzie & Co v Adurey D'Costa, a broad approach is to be taken to decide whether duties to be performed are similar

Migrant workers[edit]

Vulnerable groups[edit]

Bonded Labour System (Abolition) Act 1976, abolishes bonded labour, but estimates suggest that between 2 million and 5 million workers still remain in debt bondage in India.[24]
Child labour in India is prohibited by the Constitution, article 24, in factories, mines and hazardous employment, and that under article 21 the state should provide free and compulsory education up to a child is aged 14.[25] However in practice, the laws are not enforced.

Dismissal regulation[edit]

See also: Unfair dismissal
Some of India's most controversial labour laws concern the procedures for dismissal contained in the Industrial Disputes Act 1947. A workmen who has been employed for over a year can only be dismissed if permission is sought from and granted by the appropriate government office.[26] Additionally, before dismissal, valid reasons must be given, and there is a wait of at least two months for government permission, before a lawful termination can take effect. Redundancy pay must be given, set at 15 days' average pay for each complete year of continuous service. An employee who has worked for 4 years in addition to various notices and due process, must be paid a minimum of the employee's wage equivalent to 60 days before retrenchment, if the government grants the employer a permission to layoff.
A permanent worker can be terminated only for proven misconduct or for habitual absence.[27] The Industrial Disputes Act(1947) requires companies employing more than 100 workers to seek government approval before they can fire employees or close down.[5] In practice, permissions for firing employees are seldom granted.[5] Indian laws require a company to get permission for dismissing workers with plant closing, even if it is necessary for economic reasons. The government may grant or deny permission for closing, even if the company is losing money on the operation.[28]
The dismissed worker has a right to appeal, even if the government has granted the dismissal application. Indian labour regulations provide for a number of appeal and adjudicating authorities – conciliation officers, conciliation boards, courts of inquiry, labour courts, industrial tribunals and the national industrial tribunal – under the Industrial Disputes Act.[29] These involve complex procedures. Beyond these labour appeal and adjucating procedures, the case can proceed to respective State High Court or finally the Supreme Court of India.
  • Bharat Forge Co Ltd v Uttam Manohar Nakate [2005] INSC 45, a worker found sleeping for the fourth time in 1983. Bharat Forge initiated disciplinary proceedings under the Industrial Employment Act (1946). After five months of proceedings, the worker was found guilty and dismissed. The worker appealed to the labour court, pleading that his dismissal was unfair under Indian Labour laws. The labour court sided with the worker, directed he be reinstated, with 50% back wages. The case went through several rounds of appeal and up through India's court system. After 22 years, the Supreme Court of India upheld his dismissal in 2005.[30][31]

Unemployment[edit]

The Industries (Regulation and Development) Act 1951 declared that manufacturing industries under its First Schedule were under common central government regulations in addition to whatever laws state government enact. It reserved over 600 products that can only be manufactured in small scale enterprises, thereby regulating who can enter in these businesses, and above all placing a limit on the number of employees per company for the listed products. The list included all key technology and industrial products in the early 1950s, including products ranging from certain iron and steel products, fuel derivatives, motors, certain machinery, machine tools, to ceramics and scientific equipment.[32]

State laws[edit]

Each state in India may have special labour regulations in certain circumstances.

Gujarat[edit]

In 2004 the State of Gujarat amended the Industrial Disputes Act to allow greater labour market flexibility in the Special Export Zones of Gujarat. The law allows companies within SEZs to lay off redundant workers, without seeking the permission of the government, by giving a formal notice and severance pay.[33]

West Bengal[edit]

The West Bengal government revised its labor laws making it virtually impossible to shut down a loss-making factory.[33] The West Bengal law applies to all companies within the state that employ 50 or more employees.[34]

International comparison of Indian labour laws[edit]

The table below contrasts the labour laws in India to those in China and United States, as of 2011.
Practice required by law
Minimum wage (US$/month)
INR2500 (US$42) /month[36][37]
182.5
1242.6
Standard work day
8 hours
8 hours
8 hours
Minimum rest while at work
30 minutes per 5-hour
None
None
Maximum overtime limit
200 hours per year
432 hours per year[38]
None
Premium pay for overtime
100%
50%
50%
Dismissal due to redundancy
Yes, if approved by government
Yes, without approval of government
Yes, without approval of government
Government approval required for 1 person dismissal
Yes
No
No
Government approval required for 9 person dismissal
Yes
No
No
Government approval for redundancydismissal granted
Rarely[39][40]
Not applicable
Not applicable
Dismissal priority rules regulated
Yes
Yes
No
Severance pay for redundancy dismissal
of employee with 1 year tenure
2.1 week salary
4.3-week salary
None
Severance pay for redundancy dismissal
of employee with 5-year tenure
10.7-week salary
21.7-week salary
None

Criticisms and reforms[edit]

Many observers have argued that India's labour laws should be reformed.[41] [42] [43][44] [45][46] [47] [5][48] The laws have constrained the growth of the formal manufacturing sector.[46] According to a World Bank report in 2008, heavy reform would be desirable. The executive summary stated,
"
India's labor regulations - among the most restrictive and complex in the world - have constrained the growth of the formal manufacturing sector where these laws have their widest application. Better designed labor regulations can attract more labor- intensive investment and create jobs for India's unemployed millions and those trapped in poor quality jobs. Given the country's momentum of growth, the window of opportunity must not be lost for improving the job prospects for the 80 million new entrants who are expected to join the work force over the next decade.[49]
"
Prime Minister Manmohan Singh has said that new labour laws are needed.[50]
In Uttam Nakate case, the Bombay High Court held that dismissing an employee for repeated sleeping on the factory floor was illegal - a decision which was overturned by the Supreme Court of India. Moreover, it took two decades to complete the legal process. In 2008, the World Bank criticised the complexity, lack of modernisation and flexibility in Indian regulations.[46][51]

See also[edit]

Notes[edit]

References[edit]

Articles
Books
  • CK Johri, Labour law in India (2012) KNS1220 J71
  • S Routh, Enhancing Capabilities through Labour Law: Informal Workers in India (2014)
Reports
  • Government of India Planning Commission, Report of the Working Group on Labour Laws And Other Labour Regulations (2007)

External links[edit]

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