उत्तराखंड की चेतावनी
अपूर्व जोशी
जनसत्ता 26 जून, 2013: उत्तराखंड में आई भारी विपदा पर लिखने बैठा, तो एकाएक बाबा नागार्जुन याद आ गए, अपनी एक कविता के जरिए- ताड़ का तिल है/ तिल का ताड़ है/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ किसकी है जनवरी/ किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है/ कौन यहां मस्त है/ सेठ ही सुखी है। सेठ ही मस्त है/ मंत्री ही सुखी है/ मंत्री ही मस्त है/ उसी की जनवरी है/ उसी का अगस्त है।
आप सोचेंगे कि इस कविता का इस त्रासदी से क्या रिश्ता? उमा भारती इसे दैवीय आपदा कह रही हैं। देश के गृहमंत्री भी कुछ ऐसा ही मानते हैं। पर वाकई क्या ऐसा है? क्या यह आपदा मनुष्यजनित नहीं थी? विकास की आड़ में अपने लालच में अंधा हुआ जाता मनुष्य अपने ही पैरों पर कैसे कुल्हाड़ी मारता है इसका ज्वलंत उदाहरण है यह और इस जैसी पूर्व में आई आपदाएं। यह आपदा कतई भी दैवीय नहीं है। यह उत्तराखंड की सरकारों और उससे पहले उत्तर प्रदेश की हुकूमत की सबसे बड़ी भूल का नतीजा है। और यह भूल है हिमालय के प्रबंधन के लिए समुचित नीति का न होना।
पर्यावरणविद और वैज्ञानिक लंबे समय से इस ओर सरकार और जनता का ध्यान आकृष्ट करते रहे हैं कि हिमालय की भूगर्भीय सरंचना के साथ खिलवाड़ बड़े संकट को जन्म दे सकता है। हिमालय धरती की एक अत्यंत संवेदनशील भौगोलिक संरचना है। पिछले सौ बरसों में इसे बड़े पैमाने पर कभी विकास तो कभी विज्ञान के नाम पर लूटा-खसोटा गया है। बगैर इस ओर ध्यान दिए कि इस प्रकार की लूट-खसोट हिमालय की मूल संरचना को प्रभावित कर रही है, जिससे उसके वन, नदी, हिमनद आदि का संतुलन बिगड़ने लगा है। इसके चलते वर्षा, वन, जल, मौसम सभी पर बुरा असर पड़ा है। वनों की अंधाधुंध कटाई ने भूमि के कटाव का खतरा पैदा किया। अगर पर्याप्त वन हों तो इस कटाव के होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
नंगी जमीन भूस्खलन को जन्म देती है। आज उत्तराखंड के पहाड़ पेड़विहीन हैं। जगह-जगह पहले वनों को अंधाधुंध काटा जाता है, फिर ‘रीटेनिंग वॉल’ देकर दो-तीन मंजिला भवन खड़े कर दिए जाते हैं। बिल्डर उत्तराखंड के कोने-कोने में अपना जाल बिछा चुके हैं। महानगरों के अखबार नैनीताल, रानीखेत, मसूरी, श्रीनगर से लेकर जोशीमठ तक इन बिल्डरों द्वारा निर्मित भवनों का बखान करते विज्ञापनों से भरे रहते हैं। टीवी चैनलों पर हरिद्वार-ऋषिकेश के जो आश्रम जलमग्न दिखाई दिए वे दरअसल इंसानी लोभ का परिणाम हैं। नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर अपने लिए महलनुमा आश्रम बनाए गए। इसमें दो राय नहीं कि पहाड़ का जीवन सरल नहीं, लेकिन इससे भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि पहाड़ की भौगोलिक संरचना अपने बाशिंदों को पूरा संरक्षण देने के साथ-साथ मैदान को भी जीवन देती है।
लेकिन इसके लिए हिमालय की वनस्पति को बचाए रखना जरूरी है। और यही कर पाने में हम विफल रहे हैं। जो वनस्पति-तंत्र न केवल मौसम को संतुलित करता है बल्कि तापमान को स्थिर रखने, जल संरक्षण, भू-संरक्षण करने से लेकर बादलों तक को काबू में रखने की प्राकृतिक क्षमता रखता हो उसी को हमने नष्ट कर डाला। यह वैज्ञानिक सच है कि वन बारिश के पानी को सोख भूमिगत जल-स्तर को संतुलित रखने केसाथ ही जमीन को कटने से भी रोकते हैं। वन बादलों को भी अपनी ओर खींचने का काम करते हैं। और हमने इसी तंत्र को अपने लालच के चलते नष्ट कर डाला। नतीजतन पूरे हिमालयी क्षेत्र में लगभग साठ प्रतिशत परंपरागत प्राकृतिक जलक्षेत्र सूख चुके हैं और पहाड़ से मिट्टी का लगातार बहना उनके दरकने का बड़ा कारण बन चुका है।
इलाहाबाद में पले-बढ़े, मुंबई उच्च न्यायालय में जज रह चुके उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का चूंकि पहाड़ से कभी सीधा वास्ता नहीं रहा, इसलिए वे यहां के दुख-दर्द और यहां की आपदा को लेकर पर्याप्त संवेदनशील नहीं दिखते। लेकिन उनके यशस्वी पिता दिवंगत हेमवतीनंदन बहुगुणा हिमालयी वनस्पति तंत्र के प्रति खासे सजग थे। जब आठवीं पंचवर्षीय योजना बन रही थी तब उन्होंने योजना आयोग को इस संदर्भ में एक पत्र लिखा था।
पिछली सात पंचवर्षीय योजनाओं में पहाड़ी क्षेत्रों की उपेक्षा का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा: ‘‘योजना बनाने में भौगोलिक और क्षेत्रीय विषमताओं या संभावनाओं पर गहरा ध्यान नहीं दिया गया। फलत: पहाड़, पठार, रेगिस्तान, मैदान और समुद्र तट के क्षेत्रों, मौसम की अलग-अलग स्थिति में फंसे इलाकों, प्रगति के मानंदडों की समानता के अभाव के बावजूद कागजी सोच के आधार पर सभी योजनाओं ने सभी इलाकों के लिए लगभग एक सी रणनीति बनाई। मैदानी घास पर अनुसंधान हुआ। मैदानी सामाजिक वानिकी पर काम हुआ, लेकिन वन अनुसंधान संस्थान देहरादून में स्थापित किया गया।
पंतनगर विश्वविद्यालय की पहाड़ी घास, जलाऊ लकड़ी की समस्या पर नजर भी नहीं गई और यूक्लिप्टस आ गया। भीमल, खड़िक की उपेक्षा हो गई। रियस, पिपरमेंट, चोला कूटलिया, कंडया, बरमी, संजीवनी, कमलिया, दद्याभात का फल, धिलमुड़ा, भीमल, तीकाझाड़, उलूस पांडे, तुलसीघास, तकली, कमला, सगुता, पूर्णमा, नीलकंठी, गुदलिया, रललिया, तिस्स, चरतू, गुरुज, नथलिया, गुडिया आदि घासों पर ध्यान नहीं दिया गया।’’
मुझे नहीं पता विजय बहुगुणा इन नामों से वाकिफ हैं या नहीं, लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि देहरादून कम दिल्ली ज्यादा वास करने वाले मुख्यमंत्री ने पिछले एक बरस के दौरान ऐसा कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जिससे नष्ट होते वनस्पति तंत्र को बचाया जा सके। हां, उन्होंने पिछले वर्ष आई प्राकृतिक आपदा से प्रभावित लोगों को यह सलाह अवश्य दी थी कि उनका दुख-दर्द ईश्वर के भजन-कीर्तन करने से कम होगा।
बहरहाल, जिस हिमालय को भारत का जल भंडार कहा जाता है उस पर भी इंसानी खिलवाड़ के चलते बड़ा खतरा मंडराने लगा है। हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जिससे आने वाले समय में जल संकट पैदा होना तय है। ये ग्लेशियर जिन्हें हिमानियां भी कहा जाता है, दरअसल बर्फ के ऐसे पहाड़ हैं जो गरमी के दिनों में पिघलने लगते हैं। इसी सेनदियों में पानी का स्तर ग्रीष्म ऋतु में भी बाधित नहीं होता। लगभग साढ़े पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से कई उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में हैं। पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं कि इनमें से अधिकतर ग्लेशियरों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। गंगोत्री, पिंडारी और मिलम प्रदूषण और जनसंख्या के दबाव से लेकर दिनोंदिन बढ़ते इंसानी हस्तक्षेप के चलते सिकुड़ते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, हिमालय की आंतरिक संरचना के वैज्ञानिक तथ्यों को जान-बूझ कर अनदेखा किया जा रहा है। इससे आने वाले समय में भारी विपदा की आहट को केदारनाथ में आई आपदा के जरिए आसानी से सुना और समझा जा सकता है।
हिमालय का निर्माण लगभग चार करोड़ वर्ष पहले हुआ। निर्माण की यह जटिल प्रक्रिया अभी जारी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि धरती के अंदर किसी भी निर्माण प्रक्रिया के चलते रहने के कारण जो घर्षण उत्पन्न होता है उसके कारण भूकम्प आते हैं। हमारा हिमालयी क्षेत्र इस दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। यहां भू-हलचल के लगातार चलते रहने के कारण भूकम्प आने की तीव्र आशंका है। पिछले पैंसठ बरसों में पांच बड़े भूकम्प यहां आ चुके हैं जिनमें से दो उत्तराखंड में आए थे। 29 मार्च 1999 को चमोली जिले में आया मात्र चालीस सेकंड का भूकम्प कितना भयानक था इसे अभी तक हम भूले नहीं हैं। रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाले इस भूकम्प से लेकिन हमने कोई सबक नहीं लिया। और असल डर इसी बात का है कि केदारनाथ में आई वर्तमान आपदा से भी हम शायद ही कुछ सीखें।
आने वाले समय में सबसे बड़े संकट का कारण टिहरी की झील बन सकती है। 260.5 मीटर की ऊंचाई वाला टिहरी बांध विश्व का पांचवें नंबर का सबसे ऊंचा बांध है। जिस भागीरथी के प्रकोप को इस आपदा के दौरान उत्तराखंड ने झेला है, यह बांध उसी भागीरथी को बांध कर बनाया गया है। यह भूकम्प की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील इलाका है। 1991 में यहां रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाला भूकम्प आ चुका है। हालांकि बांध की क्षमता 8.4 की तीव्रता वाले भूकम्प को झेलने की बताई जाती है लेकिन पर्यावरणविद मानते हैं कि इस इलाके में कभी भी इससे ज्यादा तीव्रता का भूकम्प आ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो जो होगा वह प्रलय से किसी भी प्रकार कम नहीं होगा।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस बांध के टूटने की अवस्था में अस्सी किलोमीटर दूर ऋषिकेश तक मात्र तिरसठ मिनटों में पानी पहुंच जाएगा जिसकी गहराई होगी दो सौ साठ मीटर। यह पानी हरिद्वार अस्सी मिनटों में पहुंच जाएगा और गहराई होगी दो सौ बत्तीस मीटर। उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मेरठ और हापुड़ को जलमग्न करते हुए इसका पानी नोएडा-दिल्ली के मुहाने, बुलंदशहर तक बांध टूटने के मात्र बानबे घंटों में दो सौ पचासी किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंच जाएगा। और इसकी अनुमानित गहराई होगी साढ़े आठ मीटर। सोचिए क्या होगा तब। और क्या हमें इस कीमत पर विकास चाहिए? बिजली चाहिए?
सरकार की मानें तो लगभग सभी फंसे हुए यात्रियों को सुरक्षित बचा लिया गया है। सरकार और मीडिया, सभी की निगाहें इस समय इन यात्रियों, सैलानियों पर टिकी हैं। पर सवाल उन पहाड़वासियों का भी है जिन्होंने अपना सब कुछ इस आपदा में खो दिया। उन्हें पुनर्स्थापित करना बड़ी चुनौती है। वे न सिर्फ आर्थिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी टूट चुके हैं। यों खोने को बहुत कुछ था नहीं। पर जो भी था, वह उमा भारती की धारीदेवी मां के कोप ने लील लिया। अगर उमा भारती सही हैं तो नहीं चाहिए ऐसा ईश्वर जो अपने बच्चों से इतना कुपित हो सकता है कि उनको स्वयं दिया जीवन ही हर ले।
रही बात बाबा नागार्जुन की कविता की, तो यह सच है कि बाढ़ हो या भूकम्प, मरता आम आदमी ही है और इन आपदाओं और विपदाओं के सहारे अकूत संपदा बनाने वालों की हमारे देश में कमी नहीं है। 2010 में उत्तराखंड ने ऐसी ही तबाही को झेला था। तब आपदा से संपदा बनाने वालों की बन आई थी। कई मामले मीडिया की सक्रियता के चलते प्रकाश में आए। मुकदमे भी दर्ज हुए। फिर सब कुछ शांत पड़ गया। अभी तो प्रधानमंत्री ने एक हजार करोड़ की आर्थिक सहायता की घोषणा मात्र की है, और देहरादून से लेकर दिल्ली तक गिद्धों की जमात सक्रिय हो गई है।
अपूर्व जोशी
जनसत्ता 26 जून, 2013: उत्तराखंड में आई भारी विपदा पर लिखने बैठा, तो एकाएक बाबा नागार्जुन याद आ गए, अपनी एक कविता के जरिए- ताड़ का तिल है/ तिल का ताड़ है/ पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है/ किसकी है जनवरी/ किसका अगस्त है/ कौन यहां सुखी है/ कौन यहां मस्त है/ सेठ ही सुखी है। सेठ ही मस्त है/ मंत्री ही सुखी है/ मंत्री ही मस्त है/ उसी की जनवरी है/ उसी का अगस्त है।
आप सोचेंगे कि इस कविता का इस त्रासदी से क्या रिश्ता? उमा भारती इसे दैवीय आपदा कह रही हैं। देश के गृहमंत्री भी कुछ ऐसा ही मानते हैं। पर वाकई क्या ऐसा है? क्या यह आपदा मनुष्यजनित नहीं थी? विकास की आड़ में अपने लालच में अंधा हुआ जाता मनुष्य अपने ही पैरों पर कैसे कुल्हाड़ी मारता है इसका ज्वलंत उदाहरण है यह और इस जैसी पूर्व में आई आपदाएं। यह आपदा कतई भी दैवीय नहीं है। यह उत्तराखंड की सरकारों और उससे पहले उत्तर प्रदेश की हुकूमत की सबसे बड़ी भूल का नतीजा है। और यह भूल है हिमालय के प्रबंधन के लिए समुचित नीति का न होना।
पर्यावरणविद और वैज्ञानिक लंबे समय से इस ओर सरकार और जनता का ध्यान आकृष्ट करते रहे हैं कि हिमालय की भूगर्भीय सरंचना के साथ खिलवाड़ बड़े संकट को जन्म दे सकता है। हिमालय धरती की एक अत्यंत संवेदनशील भौगोलिक संरचना है। पिछले सौ बरसों में इसे बड़े पैमाने पर कभी विकास तो कभी विज्ञान के नाम पर लूटा-खसोटा गया है। बगैर इस ओर ध्यान दिए कि इस प्रकार की लूट-खसोट हिमालय की मूल संरचना को प्रभावित कर रही है, जिससे उसके वन, नदी, हिमनद आदि का संतुलन बिगड़ने लगा है। इसके चलते वर्षा, वन, जल, मौसम सभी पर बुरा असर पड़ा है। वनों की अंधाधुंध कटाई ने भूमि के कटाव का खतरा पैदा किया। अगर पर्याप्त वन हों तो इस कटाव के होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
नंगी जमीन भूस्खलन को जन्म देती है। आज उत्तराखंड के पहाड़ पेड़विहीन हैं। जगह-जगह पहले वनों को अंधाधुंध काटा जाता है, फिर ‘रीटेनिंग वॉल’ देकर दो-तीन मंजिला भवन खड़े कर दिए जाते हैं। बिल्डर उत्तराखंड के कोने-कोने में अपना जाल बिछा चुके हैं। महानगरों के अखबार नैनीताल, रानीखेत, मसूरी, श्रीनगर से लेकर जोशीमठ तक इन बिल्डरों द्वारा निर्मित भवनों का बखान करते विज्ञापनों से भरे रहते हैं। टीवी चैनलों पर हरिद्वार-ऋषिकेश के जो आश्रम जलमग्न दिखाई दिए वे दरअसल इंसानी लोभ का परिणाम हैं। नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित कर अपने लिए महलनुमा आश्रम बनाए गए। इसमें दो राय नहीं कि पहाड़ का जीवन सरल नहीं, लेकिन इससे भी तो इनकार नहीं किया जा सकता कि पहाड़ की भौगोलिक संरचना अपने बाशिंदों को पूरा संरक्षण देने के साथ-साथ मैदान को भी जीवन देती है।
लेकिन इसके लिए हिमालय की वनस्पति को बचाए रखना जरूरी है। और यही कर पाने में हम विफल रहे हैं। जो वनस्पति-तंत्र न केवल मौसम को संतुलित करता है बल्कि तापमान को स्थिर रखने, जल संरक्षण, भू-संरक्षण करने से लेकर बादलों तक को काबू में रखने की प्राकृतिक क्षमता रखता हो उसी को हमने नष्ट कर डाला। यह वैज्ञानिक सच है कि वन बारिश के पानी को सोख भूमिगत जल-स्तर को संतुलित रखने केसाथ ही जमीन को कटने से भी रोकते हैं। वन बादलों को भी अपनी ओर खींचने का काम करते हैं। और हमने इसी तंत्र को अपने लालच के चलते नष्ट कर डाला। नतीजतन पूरे हिमालयी क्षेत्र में लगभग साठ प्रतिशत परंपरागत प्राकृतिक जलक्षेत्र सूख चुके हैं और पहाड़ से मिट्टी का लगातार बहना उनके दरकने का बड़ा कारण बन चुका है।
इलाहाबाद में पले-बढ़े, मुंबई उच्च न्यायालय में जज रह चुके उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा का चूंकि पहाड़ से कभी सीधा वास्ता नहीं रहा, इसलिए वे यहां के दुख-दर्द और यहां की आपदा को लेकर पर्याप्त संवेदनशील नहीं दिखते। लेकिन उनके यशस्वी पिता दिवंगत हेमवतीनंदन बहुगुणा हिमालयी वनस्पति तंत्र के प्रति खासे सजग थे। जब आठवीं पंचवर्षीय योजना बन रही थी तब उन्होंने योजना आयोग को इस संदर्भ में एक पत्र लिखा था।
पिछली सात पंचवर्षीय योजनाओं में पहाड़ी क्षेत्रों की उपेक्षा का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा: ‘‘योजना बनाने में भौगोलिक और क्षेत्रीय विषमताओं या संभावनाओं पर गहरा ध्यान नहीं दिया गया। फलत: पहाड़, पठार, रेगिस्तान, मैदान और समुद्र तट के क्षेत्रों, मौसम की अलग-अलग स्थिति में फंसे इलाकों, प्रगति के मानंदडों की समानता के अभाव के बावजूद कागजी सोच के आधार पर सभी योजनाओं ने सभी इलाकों के लिए लगभग एक सी रणनीति बनाई। मैदानी घास पर अनुसंधान हुआ। मैदानी सामाजिक वानिकी पर काम हुआ, लेकिन वन अनुसंधान संस्थान देहरादून में स्थापित किया गया।
पंतनगर विश्वविद्यालय की पहाड़ी घास, जलाऊ लकड़ी की समस्या पर नजर भी नहीं गई और यूक्लिप्टस आ गया। भीमल, खड़िक की उपेक्षा हो गई। रियस, पिपरमेंट, चोला कूटलिया, कंडया, बरमी, संजीवनी, कमलिया, दद्याभात का फल, धिलमुड़ा, भीमल, तीकाझाड़, उलूस पांडे, तुलसीघास, तकली, कमला, सगुता, पूर्णमा, नीलकंठी, गुदलिया, रललिया, तिस्स, चरतू, गुरुज, नथलिया, गुडिया आदि घासों पर ध्यान नहीं दिया गया।’’
मुझे नहीं पता विजय बहुगुणा इन नामों से वाकिफ हैं या नहीं, लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि देहरादून कम दिल्ली ज्यादा वास करने वाले मुख्यमंत्री ने पिछले एक बरस के दौरान ऐसा कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जिससे नष्ट होते वनस्पति तंत्र को बचाया जा सके। हां, उन्होंने पिछले वर्ष आई प्राकृतिक आपदा से प्रभावित लोगों को यह सलाह अवश्य दी थी कि उनका दुख-दर्द ईश्वर के भजन-कीर्तन करने से कम होगा।
बहरहाल, जिस हिमालय को भारत का जल भंडार कहा जाता है उस पर भी इंसानी खिलवाड़ के चलते बड़ा खतरा मंडराने लगा है। हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं जिससे आने वाले समय में जल संकट पैदा होना तय है। ये ग्लेशियर जिन्हें हिमानियां भी कहा जाता है, दरअसल बर्फ के ऐसे पहाड़ हैं जो गरमी के दिनों में पिघलने लगते हैं। इसी सेनदियों में पानी का स्तर ग्रीष्म ऋतु में भी बाधित नहीं होता। लगभग साढ़े पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से कई उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में हैं। पर्यावरणविद बरसों से चेता रहे हैं कि इनमें से अधिकतर ग्लेशियरों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। गंगोत्री, पिंडारी और मिलम प्रदूषण और जनसंख्या के दबाव से लेकर दिनोंदिन बढ़ते इंसानी हस्तक्षेप के चलते सिकुड़ते जा रहे हैं। इतना ही नहीं, हिमालय की आंतरिक संरचना के वैज्ञानिक तथ्यों को जान-बूझ कर अनदेखा किया जा रहा है। इससे आने वाले समय में भारी विपदा की आहट को केदारनाथ में आई आपदा के जरिए आसानी से सुना और समझा जा सकता है।
हिमालय का निर्माण लगभग चार करोड़ वर्ष पहले हुआ। निर्माण की यह जटिल प्रक्रिया अभी जारी है। वैज्ञानिक मानते हैं कि धरती के अंदर किसी भी निर्माण प्रक्रिया के चलते रहने के कारण जो घर्षण उत्पन्न होता है उसके कारण भूकम्प आते हैं। हमारा हिमालयी क्षेत्र इस दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील है। यहां भू-हलचल के लगातार चलते रहने के कारण भूकम्प आने की तीव्र आशंका है। पिछले पैंसठ बरसों में पांच बड़े भूकम्प यहां आ चुके हैं जिनमें से दो उत्तराखंड में आए थे। 29 मार्च 1999 को चमोली जिले में आया मात्र चालीस सेकंड का भूकम्प कितना भयानक था इसे अभी तक हम भूले नहीं हैं। रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाले इस भूकम्प से लेकिन हमने कोई सबक नहीं लिया। और असल डर इसी बात का है कि केदारनाथ में आई वर्तमान आपदा से भी हम शायद ही कुछ सीखें।
आने वाले समय में सबसे बड़े संकट का कारण टिहरी की झील बन सकती है। 260.5 मीटर की ऊंचाई वाला टिहरी बांध विश्व का पांचवें नंबर का सबसे ऊंचा बांध है। जिस भागीरथी के प्रकोप को इस आपदा के दौरान उत्तराखंड ने झेला है, यह बांध उसी भागीरथी को बांध कर बनाया गया है। यह भूकम्प की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील इलाका है। 1991 में यहां रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाला भूकम्प आ चुका है। हालांकि बांध की क्षमता 8.4 की तीव्रता वाले भूकम्प को झेलने की बताई जाती है लेकिन पर्यावरणविद मानते हैं कि इस इलाके में कभी भी इससे ज्यादा तीव्रता का भूकम्प आ सकता है। अगर ऐसा हुआ तो जो होगा वह प्रलय से किसी भी प्रकार कम नहीं होगा।
विशेषज्ञों का मानना है कि इस बांध के टूटने की अवस्था में अस्सी किलोमीटर दूर ऋषिकेश तक मात्र तिरसठ मिनटों में पानी पहुंच जाएगा जिसकी गहराई होगी दो सौ साठ मीटर। यह पानी हरिद्वार अस्सी मिनटों में पहुंच जाएगा और गहराई होगी दो सौ बत्तीस मीटर। उत्तर प्रदेश के बिजनौर, मेरठ और हापुड़ को जलमग्न करते हुए इसका पानी नोएडा-दिल्ली के मुहाने, बुलंदशहर तक बांध टूटने के मात्र बानबे घंटों में दो सौ पचासी किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंच जाएगा। और इसकी अनुमानित गहराई होगी साढ़े आठ मीटर। सोचिए क्या होगा तब। और क्या हमें इस कीमत पर विकास चाहिए? बिजली चाहिए?
सरकार की मानें तो लगभग सभी फंसे हुए यात्रियों को सुरक्षित बचा लिया गया है। सरकार और मीडिया, सभी की निगाहें इस समय इन यात्रियों, सैलानियों पर टिकी हैं। पर सवाल उन पहाड़वासियों का भी है जिन्होंने अपना सब कुछ इस आपदा में खो दिया। उन्हें पुनर्स्थापित करना बड़ी चुनौती है। वे न सिर्फ आर्थिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी टूट चुके हैं। यों खोने को बहुत कुछ था नहीं। पर जो भी था, वह उमा भारती की धारीदेवी मां के कोप ने लील लिया। अगर उमा भारती सही हैं तो नहीं चाहिए ऐसा ईश्वर जो अपने बच्चों से इतना कुपित हो सकता है कि उनको स्वयं दिया जीवन ही हर ले।
रही बात बाबा नागार्जुन की कविता की, तो यह सच है कि बाढ़ हो या भूकम्प, मरता आम आदमी ही है और इन आपदाओं और विपदाओं के सहारे अकूत संपदा बनाने वालों की हमारे देश में कमी नहीं है। 2010 में उत्तराखंड ने ऐसी ही तबाही को झेला था। तब आपदा से संपदा बनाने वालों की बन आई थी। कई मामले मीडिया की सक्रियता के चलते प्रकाश में आए। मुकदमे भी दर्ज हुए। फिर सब कुछ शांत पड़ गया। अभी तो प्रधानमंत्री ने एक हजार करोड़ की आर्थिक सहायता की घोषणा मात्र की है, और देहरादून से लेकर दिल्ली तक गिद्धों की जमात सक्रिय हो गई है।
http://www.jansatta.com/index.php?option=com_content&view=article&id=47774%3A2013-06-26-03-46-19&catid=20%3A2009-09-11-07-46-16&Itemid=49
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