Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter

Sunday, May 4, 2014

प्रसंग : मोदी और दलित

प्रसंग : मोदी और दलित

Sunday, 04 May 2014 14:50

तुलसीराम 

जनसत्ता 4 मई, 2014 : सैमुअल हंटिगटन अपनी पुस्तक 'क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस' के शुरू में ही एक फासीवादी उपन्यास से लिए गए उदाहरण के माध्यम से कहते हैं- 'दुश्मन से अवश्य लड़ो। अगर तुम्हारे पास दुश्मन नहीं है तो दुश्मन निर्मित करो।' मोदी का 'परिवार' इसी दर्शन पर सन 1925 की विजयदशमी से लेकर आज तक अमल करता आ रहा है। इस दर्शन की विशेषता है, अपने ही देशवासियों के एक बड़े हिस्से को दुश्मन घोषित करके उससे लड़ना। ऐसे दुश्मनों में सारे अल्पसंख्यक और दलित-आदिवासी शामिल हैं।

मोदी परिवार का दलित विरोध भारतीय संविधान के विरोध से शुरू होता है। सन 1950 से ही वे इसे विदेशी संविधान कहते आ रहे हैं, क्योंकि इसमें आरक्षण की व्यवस्था है। इसीलिए राजग के शासनकाल में इसे बदलने की कोशिश की गई थी। इतना ही नहीं, मोदी परिवार के ही अरुण शौरी ने झूठ का पुलिंदा लिख कर डॉ आंबेडकर को देशद्रोही सिद्ध करने का अभियान चलाया था। उसी दौर में मोदी के विश्व हिंदू परिषद ने हरियाणा के जींद जिले के ग्रामीण इलाकों में वर्ण-व्यवस्था लागू करने का हिंसक अभियान भी चलाया, जिसके चलते सार्वजनिक मार्गों पर दलितों के चलने पर रोक लगा दी गई थी। समाजशास्त्री एआर देसाई ने बहुत पहले कहा था कि गुजरात के अनेक गांवों में 'अपार्थायड सिस्टम' (भेदभावमूलक पार्थक्य व्यवस्था) लागू है, जहां दलितों को मुख्य रास्तों पर चलने नहीं दिया जाता। 

गुजरात के मुख्यमंत्री बनने से पहले मोदी विश्व हिंदू परिषद की राजनीति में लगे हुए थे। यह संगठन त्रिशूल दीक्षा के माध्यम से अल्पसंख्यकों और दलितों के बीच सामाजिक आतंक स्थापित कर चुका था। अनेक जगहों पर दलितों द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण को जबरन रोका जा रहा था। मोदी ने सत्ता में आते ही एक धर्मांतरण विरोधी कानून बनवा दिया। बौद्ध धर्म खांटी भारतीय है, लेकिन वे इसे इस्लाम और ईसाई धर्म की श्रेणी में रखते हैं। बड़ौदा के पास एक गांव में दलित युवती ने एक मुसलमान से प्रेम विवाह कर लिया था। मोदी समर्थकों ने उस बस्ती पर हमला करके सारे दलितों को वहां से भगा दिया। सैकड़ों दलित वडोदरा की सड़कों पर कई महीने सोते रहे। यह मोदी शासन के शुरुआती दिनों की बात है। 

इस संदर्भ में एक रोचक तथ्य यह है कि विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हमेशा जिला न्यायालयों पर निगरानी रखते हैं और कहीं भी हिंदू-मुसलिम के बीच विवाह की सूचना नोटिस बोर्ड पर देखते ही वे तुरंत उसका पता नोट कर अपने दस्ते के साथ ऐसे गैर-मुसलिम परिवारों पर हमला बोल देते हैं। गुजरात में ऐसी घटनाएं तेजी से फैल गई थीं। ऐसी घटनाओं में दलितों पर सबसे ज्यादा अत्याचार किया जाता रहा है। 

मोदी के सत्ता में आने के बाद गुजरात में छुआछूत और दलितों पर किए जा रहे अत्याचार की शिकायतें कभी भी वहां के थानों में दर्ज नहीं हो पातीं। इस संदर्भ में यह तथ्य विचारणीय है। जब आडवाणी भारत के गृहमंत्री थे, उन्होंने सामाजिक सद्भाव का रोचक फार्मूला गढ़ा। दलित अत्याचार विरोधी कानून के तहत देश के अनेक हिस्सों में हजारों मुकदमे दर्ज थे। आडवाणी के फार्मूले के अनुसार ऐसे अत्याचार के मुकदमों से 'सामाजिक सद्भाव' खतरे में पड़ गया था। इसलिए आडवाणी के निर्देश पर भाजपा शासित राज्यों ने सारे मुकदमे वापस ले लिए। ऐसे मुकदमों में सैकड़ों हत्या और बलात्कार से जुड़े हुए थे। इस फार्मूले पर मोदी हमेशा खरा उतरते हैं। 

सन 2000 में नई शताब्दी के आगमन के स्वागत में गुजरात के डांग क्षेत्र में मोदी की विश्व हिंदू परिषद ईसाई धर्म में कथित धर्मांतरण के बहाने दलित-आदिवासियों पर लगातार हमला करती रही। बाद में यही फार्मूला ओडिशा के कंधमाल में भी अपनाया गया था। सन 2002 में गोधरा दंगों के दौरान अमदाबाद जैसे शहरों में दलितों की झुग्गी बस्तियों को जला दिया गया, क्योंकि ये बस्तियां शहर के प्रधान क्षेत्रों में थीं। तत्कालीन अखबारों ने खबर छापी कि ऐसे स्थलों को मोदी सरकार ने विश्व हिंदू परिषद से जुड़े भू-माफिया ठेकेदारों को हाउसिंग कॉलोनियां विकसित करने के लिए दे दिया। 

नरसिंह राव ने स्कूलों के मध्याह्न भोजन की एक क्रांतिकारी योजना चलाई थी, जिसके तहत यह प्रावधान किया गया था कि ऐसा भोजन दलित महिलाएं पकाएंगी। इसके दो प्रमुख उद्देश्य थे। एक तो यह कि भोजन के बहाने गरीब बच्चे, विशेष रूप से दलित बच्चे स्कूल जाने लगेंगे। दूसरा था सामाजिक सुधार का कि जब दलित महिलाओं द्वारा पकाया खाना सभी बच्चे खाएंगे तो इससे छुआछूत जैसी समस्याओं से मुक्ति मिल सकेगी। लेकिन गोधरा दंगों के बाद विश्व हिंदू परिषद से जुड़े लोगों ने गुजरात भर में अभियान चलाया कि सवर्ण बच्चे दलित बच्चों के साथ दलितों द्वारा पकाए भोजन को नहीं खा सकते, क्योंकि इससे हिंदू धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। 

इस अभियान का परिणाम यह हुआ कि मोदी सरकार ने मध्याह्न भोजन की योजना को तहस-नहस कर दिया। मगर किसी-किसी स्कूल में यह योजना लागू है भी तो वहां सवर्ण बच्चों के लिए गैर-दलितों द्वारा अलग भोजन पकाया जाता है। दलितों को अलग जगह पर खिलाया जाता है। स्मरण रहे कि मोदी दलित बच्चों को मानसिक रूप से विकलांग घोषित करके उनके लिए नीली पैंट पहनने का फार्मूला घोषित कर चुके हैं। नीली पैंट इसलिए कि उन्हें देखते ही सवर्ण बच्चे तुरंत पहचान लेंगे और उनके साथ घुल-मिल नहीं पाएंगे। ऐसा 'अपार्थायड सिस्टम' पूरे गुजरात के स्कूलों में लागू है। मोदी एक किताब में लिख चुके हैं कि ईश्वर ने दलितों को सबकी सेवा के लिए भेजा है। इसलिए दलितों को दूसरों की सेवा में ही संतुष्टि मिलती है।

इतना ही नहीं, जब 2003 में गुजरात में विनाशकारी भूकम्प आया तो लाखों लोग बेघर हो गए। बड़ी संख्या में दलित जाड़े के दिनों में सड़क पर रात बिताने को मजबूर हो गए, क्योंकि राहत शिविरों में मोदी के समर्थकों ने दलितों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। उन्हें राहत सामग्री भी नहीं दी जाती थी। उस समय 'इंडियन एक्सप्रेस' ने अनेक खाली तंबुओं के चित्र छापे थे, जिनमें दलितों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। यह सब कुछ मोदी के नेतृत्व में हो रहा था। 

इस समय मोदी के चलते ही गुजरात में छुआछूत का बोलबाला है। मोदी सरकार ने दलित आरक्षण की नीति को तहस-नहस कर दिया। सारी नौकरियां संघ से जुड़े लोगों को दी जा रही हैं। 'इंडियन एक्सप्रेस' के ही अनुसार गोधरा कांड के बाद गुजरात के अनेक गांवों में सरकारी खर्चे पर विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं को इसलिए नियुक्त किया गया है, ताकि वे मोदी सरकार को सूचना दे सकें कि वहां कौन देशद्रोही है! इस तरह बड़े व्यवस्थित ढंग से मोदी ने अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से गांव-गांव, शहर-दर-शहर दलित विरोधी आतंक का वातावरण कायम कर दिया है। ऐसा ही अल्पसंख्यकों के साथ किया गया है। 

गुजरात में सत्ता संभालने के बाद मोदी ने सर्वाधिक नुकसान स्कूली पाठ्यक्रमों का२ किया। वहां वर्ण-व्यवथा के समर्थन में शिक्षा दी जाती है, जिसके कारण मासूम बच्चों में जातिवाद के साथ ही सांप्रदायिकता का विष बोया जा रहा है। पाठ्यक्रमों में फासीवादियों का ही गुणगान किया जाता है। गोधरा कांड के बाद जब डरबन में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्त्वाधान में रंगभेद, जातिभेद आदि के विरुद्ध एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न हुआ तो विश्व हिंदू परिषद के उपाध्यक्ष आचार्य गिरिराज किशोर ने गुजरात की धरती से ही अपने बयान में कहा- 'भारत की वर्ण-व्यवस्था के बारे में किसी भी तरह की बहस हमारे धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन है।' यह वही समय था जब राजस्थान हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश गुम्मनमल लोढ़ा ने विश्व हिंदू परिषद के मंच का इस्तेमाल करते हुए 'आरक्षण विरोधी मोर्चा' खोल कर दलित आरक्षण के विरोध में अभियान चलाया था। इसके पहले 1987 में सिर्फ एक दलित छात्र का दाखिला अमदाबाद मेडिकल कॉलेज में हुआ था। उसके विरुद्ध पूरे एक साल तक दलित बस्तियों पर हिंदुत्ववादी हमला बोलते रहे। ऐसे मोदी के गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहा जा रहा है। 

उपर्युक्त विशेषताओं के चलते मोदी को आरएसएस ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुना है। यही उनका गुजरात मॉडल है, जिसे वे पूरे भारत में लागू करना चाहते हैं। दुनिया भर के फासीवादियों का तंत्र हमेशा मिथ्या प्रचार पर केंद्रित रहता है। मोदी उसके जीते-जागते प्रतीक बन चुके हैं। वे हर जगह नब्बे डिग्री के कोण पर झुक कर सबको सलाम ठोंक रहे हैं। बनारस में वे पर्चा भरने गए तो डॉ आंबेडकर की मूर्ति को ढूंढ़ कर उस पर माला चढ़ाई, ताकि दलितों को गुमराह किया जा सके। संघ परिवार मोदी प्रचार के दौरान आंबेडकर को मुसलिम विरोधी के रूप में पेश कर रहा है, ताकि दलितों का भी ध्रुवीकरण सांप्रदायिक आधार पर हो सके। इस संदर्भ में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में, जहां मोदी का हेलीकॉप्टर उतरा, उसके पास ही गांधी की मूर्ति थी, लेकिन माला चढ़ाना तो दूर, उसकी तरफ उन्होंने देखा तक नहीं। मोदी के इस व्यवहार से भी पता चलता है कि आखिर गांधी की हत्या किसने की होगी। 

इन चुनावों के शुरू होने के बाद मोदी का चुनाव घोषणा-पत्र आया, जिसमें सारे विश्वासघाती एजेंडे आवरण की भाषा में लिखे हुए हैं। सारा मीडिया कह रहा था कि इस घोषणा-पत्र पर पूरी छाप मोदी की है। इसमें दो बड़ी घातक शब्दावली का इस्तेमाल किया गया है। एक है 'टोकनिज्म', दूसरा है, 'इक्वल अपॉर्चुनिटी', यानी सबको समान अवसर। सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है। 'समान अवसर' का इस्तेमाल सारी दुनया में शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में किया जाता है, लेकिन मोदी का संघ परिवार तर्क देता है कि दलितों के आरक्षण से सवर्णों के साथ अन्याय होता है। इसलिए आरक्षण समाप्त करके सबको एक समझा जाए। यही है मोदी के घोषणा-पत्र का असली दलित विरोधी चेहरा और समान अवसर की अवधारणा। 

इसका व्यावहारिक रूप यह है कि दलितों को वापस मध्ययुग की बर्बरता में फिर से झोंक दिया जाए। अनेक मोदी समर्थक इस चुनाव में सार्वजनिक रूप से आरक्षण समाप्त करने की मांग उठा चुके हैं, लेकिन मोदी उस पर बिल्कुल चुप हैं। इसलिए मोदी और संघ परिवार का दलित विरोध किसी से छिपा नहीं है।

लेकिन सबसे आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि दलित पार्टियां मोदी के खतरे से एकदम अनभिज्ञ हैं। उलटे वे लगातार मोदी का हाथ मजबूत करने में व्यस्त हैं। आज मायावती जगह-जगह बोल रही हैं कि मोदी की सत्ता का आना खतरनाक है, क्योंकि वे आरक्षण खत्म कर देंगे और समाज सांप्रदायिकता के आधार पर बंट जाएगा। ऐसा सुन कर बहुत अच्छा लगता है। लेकिन यह सर्वविदित है कि 1995 तक कोई भी पार्टी भाजपा को छूने के लिए तैयार नहीं थी। यहां तक कि उस समय तक लोहियावादी समाजवादियों के अनेक धड़े भी भाजपा को नहीं छूना चाहते थे। लेकिन ज्यों ही 1996 में मायावती भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बनीं तो भाजपा के समर्थन में दर्जनों पार्टियों की लाइन लग गई। एक तरह से मायावती ने भाजपा के समर्थन का बंद दरवाजा एक धक्के में खोल दिया और तीन-तीन बार उसके साथ सरकार चलाई। मायावती की भूमिका संघ परिवार की सामाजिक और राजनीतिक शक्ति में बेतहाशा वृद्धि का कारण बनी। 

मायावती संघ और ब्राह्मणों के नजदीक तो अवश्य गर्इं, लेकिन 1995 में मुलायम-बसपा की सरकार को गिरा कर दलित-पिछड़ों की एकता को उन्होंने एकदम भंग कर दिया। इतना ही नहीं, 2004 के चुनावों में मायावती मोदी के समर्थन में प्रचार करने गुजरात चली गर्इं। दलित राजनीति की मूर्खता की यह चरम सीमा थी। अगर मायावती संघ के साथ कभी नहीं जातीं और सेक्युलर दायरे में रही होतीं तो देवगौड़ा के बदले 1996 में कांशीराम या मायावती में से कोई भी एक भारत का प्रधानमंत्री बन सकता था। लेकिन सत्ता के तात्कालिक लालच ने पूरी दलित राजनीति को जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति में बदल दिया। इससे जातिवादी सत्ता की भी होड़ मच गई। दलित नेताओं को यह बात एकदम समझ में नहीं आती है कि दलित हमेशा जातिवाद के कारण ही हाशिये पर रहे। इसलिए जातिवाद से छेड़छाड़ करना कभी भी दलितों के हित में नहीं है। 

अब जरा अन्य दलित मसीहाओं पर गौर किया जाए। दलित राजनीति के तीन 'राम' हैं। एक हैं रामराज (उदित राज), दूसरे रामदास अठावले और तीसरे रामविलास पासवान। ये तीनों गले में भगवा साफा लपेट कर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने पर उतारू हैं। हकीकत यही है कि ये तीनों 'राम', 'रामराज' लाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं। रामराज ने भारत को बौद्ध बनाने के अभियान से अपनी राजनीति शुरू की थी। मगर कुशीनगर और श्रावस्ती होते हुए उन्होंने अयोध्या आकर अपना बसेरा बना लिया। जिस प्रकार मुसलमानों के खिलाफ जब बोलना होता है तो भाजपा नकवी-हुसैन की जोड़ी को आगे कर देती है। अब जब दलितों के खिलाफ बोलना होता है तो रामराज हाजिर हो जाते हैं। इसका उदाहरण उस समय मिला, जब रामदेव ने दलितों के घर राहुल द्वारा हनीमून मनाने वाला बयान दिया, जिसके बाद देशभर के दलितों ने विरोध करना शुरू कर दिया। इसलिए बड़ी बेशर्मी से रामराज रामदेव के समर्थन में आ गए।

उधर रामदास अठावले, जो अपने को डॉ आंबेडकर का उत्तराधिकारी से जरा कम नहीं समझते, वे शिवसेना के झंडे तले मोदी के प्रचार में जुटे हुए हैं। उनकी असली समस्या यह थी कि वे मनमोहन सरकार में मंत्री बनना चाहते थे, लेकिन विफल रहे। इसलिए उन्होंने भगवा परिधान ओढ़ने में ही अपनी भलाई समझी। तीसरे नेता रामविलास पासवान पहले भी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में रह चुके हैं। हकीकत यह है कि 1989 से अब तक वीपी सिंह, देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी और मनमोहन सिंह, सबके मंत्रिमंडल में रामविलास पासवान केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। गोधरा दंगे के बाद उन्होंने राजग छोड़ा था। लेकिन मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में मंत्री न बन पाने के कारण वे फिर मोदी की हवा में उड़ने लगे। अब हर मंच से मोदी का प्रचार कर रहे हैं। 

इस समय सारे दलित नेता दलित वोटों की भगवा मार्केंटिंग कर रहे हैं। ये नेता जान-बूझ कर दलितों को सांप्रदायिकता की आग में झोंक रहे हैं। इतना ही नहीं, वे वर्ण-व्यवस्थावादियों के हाथ भी मजबूत कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में यह जिम्मेदारी दलित समाज की है कि वे सारी दलित पार्टियों को भंग करने का अभियान चलाएं और उसके बदले जाति व्यवस्था विरोधी आंदोलनों की शुरुआत करें। अन्यथा इन नेताओं के चलते दलित हमेशा के लिए जातिवाद के शिकार बन जाएंगे।


फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta


संबंधित समाचार

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors