धर्म राष्ट्र के एजंडा और खुले बाजार का लोकतंत्र
पलाश विश्वास
हम धर्म राष्ट्रवाद के अभियान के खिलाफ कोई नागरिक राजनीति चेतना का ही निर्माण नहीं कर सकें और न पूंजीवादी अश्वमेध यज्ञ के प्रतिरोध का कोई परिवेश बना सके। हम यह बुनियादी बात भूल रहे हैं कि बाजार की ताकतें और धर्म राष्ट्रवाद की दक्षिणपंथी ताकतें अलग अलग नहीं हैं, बल्कि वास्तव में वही सत्ता का स्वरुप है। इससे टकराने की बड़ी तैयारी के कार्य़भार को न समझने की वजह से हम लोग इस मुद्दे पर किसी भी बहस को व्यक्तिकेंद्रिक बना देकर असली मुद्दे को ही दरकिनार कर देने का जोखिम उठाते हैं। पिछले दिनों में जनसत्ता में मनुस्मृति व्यवस्था के पक्ष में एक आलेख प्रकाशित हुआ तो हमारे प्रिय मित्रगण धर्म राष्ट्र के चक्रव्यूह को तोड़ने की बिना किसी तैयारी के जनसत्ता और उसके संपादक ओम थानवी के खिलाफ मुहिम चलाते नजर आ रहे हैं। हम स्वयं जनसत्ता में कार्यरत हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हम जनसत्ता या ओम थानवी के बचाव के लिए यह सब लिख रहे हैं।अगर जनसत्ता में हम लिखते रहे होते तो यकीनन वहां इस पर जरूर लिखते। पर हम जनत्ता में संपादकीय विभाग के नौकर जरूर हैं, लेखक नहीं हैं। हमारे आदरणीय मित्र उदय प्रकाश और प्रिय साथी अभिषेक की तरह इस लेख की स्थापनाओं से हमें भी गहरी आपत्ति है और इस पर बहस जरूरी मानते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुताबिक इस लेख का जनसत्ता में प्रकाशन कोई असंभव घटना नहीं है। ओम थानवी को बाहैसियत संपादक कोई भी सामग्री प्रकाशित करने की स्वतंत्रता है, इसपर आपत्ति करने का मतलब है कि हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध खड़े होते हैं।हम तालिबान के कट्टरपंथ के खिलाफ हैं तो हम तालिबान की तरह फतवे जारी नहीं कर सकते।जमीन पर लड़ाई की बजाय हवा में लाठियां भांजने से हमें कुछ हासिल नहीं होना है।अगर जनसत्ता में तरुण विजय के दक्षिणावर्त या अशोक वाजपेयी के कभी कभार, या अरुण माहेश्वरी, अजेय सिंह, आनंदस्वरूप वर्मा और दूसरे तमाम विविध विचारधाराओं के लोगों के लेख और स्तंभ छापने से हमें एतराज नहीं हैं, तो महज असहमति के कारण हम किसी लेख विशेष के प्रकाशन पर सवाल उठा नहीं सकते। बल्कि हम उस रचनाविशेष पर आपत्तियों के बिंदुओं पर बहस केंद्रित करें तो कोई बात बनती है। भाई अभिषेक ने आपत्तियों के जो बिंदु लेख की स्थापनाओं के बारे में रेखांकित किये हैं, उनपर बहस अत्यंत जरूरी है। अगर जनसत्ता या ओम थानवी इस बहस के लिए तैयार न हों, तब उनपर सवाल खड़े किये जा सकते हैं, इससे पहले नहीं ।
सवाल यह है कि क्या यह कोई पहला प्रकाशित आलेख है, जिसमें धर्म राष्ट्रवाद की ऐसी उत्कट अभिव्यक्ति देखी जा रही है?भारतीय संविधान की समीक्षा के बहाने नेहरु जमाने से लगातार भारतीय संविधान को बदलने व हिंदू धर्मशास्त्र के मुताबिक राजकाज चलाने की सरकारी गैरसरकारी कोशिशें कांग्रेस और संघ परिवार दोनों तरफ से की जाती रही हैं।भारत में सवर्ण अराजनीति भी इस संविधान को बदलने के लिए मुहिम चलाती रही है।रोजाना कारपोरेट मीडिया के अलावा सोशल मीडिया में भी हिंदू राष्ट्रवाद के ध्वजा लहराये जाते हैं। मीडिया में और सार्वजनिक आयोजनों में खुले आम धर्मराष्ट्रवाद के तहत घृणा अभियान चलाया जाता है। बाजार और पूंजी के अबाध प्रवाह के लिए भी धर्म राष्ट्रवाद से बेहतर कोई चीज नहीं है। रोज भारतीय संविधान और लोकतांत्रिक संस्थानों की हत्या की जा रही है। खेल हो या विज्ञापन, कारोबार हो या जीवन का कोई अन्य क्षेत्र, इस धर्मराष्ट्रवाद की वीभत्स अभिव्यकित हो रही है। भारत को २०६० तक अमेरिका और चीन से बड़ी अर्थ व्यवस्था बतौर विज्ञापित किया जा रहा है, पर अर्थव्यवश्था के बुनियादी सिद्धांतों के मुताबिक विकसित तो दूर, भारत अभी विकासशील राष्ट्र भी नहीं है।गरीबी की वीभत्सता, आत्मघाती सांप्रदायिकता, वैदिकी हिंसा आधारित जाति व्यवस्था का सामाजिक अन्याय, भूख, कुपोषण, लैंगिक असंतुलन, स्त्री की दासता और अति अल्पसंख्यकों की अति समृद्धि के अश्लील विज्ञापनों के मध्य उत्पादन प्रणाली खत्म देश में बहुसंख्य जनसंख्या को संसाधनों, अवसरों, न्याय से वचिंत करके उत्पादक संपत्ति के सृजन के बिना, जनसंचय और संपत्ति, जनादेश के अपहरण के जरिये, संसाधनों के लिए अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्धघोषणा के जरिये भारत मध्ययुगीन बर्बर अविकसित देश के सिवाय क्या है?
हिंदू धर्म शास्त्रों की स्थापनाओं के बारे में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने जो अकाट्य तर्क पेश किये हैं , वे आज भी प्रासंगिक हैं । इन शास्त्रों की प्राणाणिकता संदिग्ध तो हैं ही , वे अकाट्य भी नहीं हैं। पर पुरोहित तंत्र अपढ़ जनसमूहों को आतंकित करके अपना विधान को अविवादित ढंग से लागू करने के लिए इन ग्रंथों को पढ़े बिना इनके उद्धरणों का खूब इस्तेमाल करते रहे हैं और समाज के स्वाभाविक नेतृत्व बतौर स्थापित होते रहे हैं। आज मीडिया में यत्र तत्र सर्वत्र इन्ही उद्धरणों के जरिये भारत में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संविधान औऱ कानून के राज को चुनौती दी जा रही है।जब राष्ट्रपति भवन ही हिंदुत्व के कर्मकांड का मुख्यालय बन जाये और ऐसा राष्ट्रपति जो वित्तमंत्री बतौर कालाधन के अभियुक्तों को
आम माफी प्रस्तावित करने के लिए ही राष्ट्रपति बनाये गये हों और देश में पूंजीपतियों के हित में उनके हिंदुत्व के पर्दाफाश होने के बावजूद उनके विरुद्ध इस खुले बाजार के लोकतंत्र में महाभियोग शब्द का उच्चारण करना भी मना है, तब एक अखबार और एक संपादक के खिलाफ मुहिम चलाकर हमारे मित्र कौन सा प्रतिरोध खड़ा कर रहे हैं?पवित्रता और शुद्धता ही धर्मराष्ट्रवाद का उद्गम है और इसी बिंदू में गर्भाधान होता है असमानता और अन्याय का। पवित्रता को खंडित किये बिना परिवर्तन असंभव हैं। पर पवित्र संस्कारों के बंधन में बंधे हम क्या धर्म सत्ता और पवित्र उद्धरणों के विरुद्ध किसी अंबेडकर की तरह विद्रोह करने की हालत में है या हमारी ऐसी कोई नीयत है?
भारत में इस वक्त खुले अर्थ व्यवस्था का लोकतंत्र है।नीली अश्लील क्रांति में असली भारत कहीं नहीं है।आइने में हम नहीं हैं, कोई और है और हम उसी को अपना वजूद मान रहे हैं।मनुस्मृति के मुताबिक भारत को धर्म राष्ट्र बनाने का अभियान सामंती समाज व्यवस्था की यथास्थिति को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है। यह कोई आज शुरू हुआ अभियान नहीं है। इसी अभियान के तहत देश का बंटवारा हुआ। जनसंख्या स्थानांतरण का प्रयोग हुआ अभूतपूर्व रक्तपात के माध्यम से।विकास गाथा डालर वर्चस्व से नत्थी परिभाषाओं और पैमानों का मामला है, जिसका असली भारत से कोई वास्ता है ही नहीं। परिभाषाओं और पैमानों को बदल देने से अब भी मध्ययुग में जी रहे भारत शाइनिंग इंडिया नहीं हो जाता।धर्म राष्ट्र के ध्वजावाहकों की राय है कि राष्ट्रध्यक्ष को हिंदू धर्म का संरक्षक होना चाहिए, तो हमारे तमाम प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति क्या करते रहे हैं? बहुलता और समरसता के छलावा के अलावा राष्ट्रव्यवस्था तो मनुस्मृति के सिद्धांतों के मुताबिक ही चल रही है! हमने लगतार लिखा है और कहा भी है कि राष्ट्र चूंकि सत्तावर्ग का ही प्रतिनिधित्व करता है और उसमें जनता और जनमत के लिए कोई स्पेस नहीं होता और सत्तावर्ग हमेशा अति अल्पसंख्यक कुलीन संप्रदाय है, जिनका अस्तित्व ही धर्म पर टिका है। इसीलिए राजतंत्र में राजा में ईश्वर की छवि चस्पां कर दी जाती थी। खुले बाजार की अर्थ व्यवस्था एक फीसद जनता की अति समृद्धि निनानब्वे फीसद जनता के सार्विक सर्वनाश पर निर्भर है। इसलिए अर्थ व्यवस्था, समाज और राजनीति से निनानब्वे फीसद के बहिष्कार और वध के बिना बाजार का कारोबार नहीं चलता।इस एजंडे को हासिल करने के लिए धर्म का कोई विकल्प नहीं है। भारत में खुले बाजार का अस्तित्व ही हिंदू राष्ट्रवाद पर टिका है। देश के वर्तमान संविधान में सामाजिक न्याय, समता, स्वतंतत्रता, सबके लिए समान अवसर, मौलिक अधिकार, लोक कल्यामकारी राज्य, अनुसूचितों के लिए संवैधानिक रक्षाकवच के प्रावधान हैं, जो जाहिरा तौर पर बाजार और पूंजी के खिलाफ हैं। मसलन पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के तहत आदिवासियों को जो जल जंगल और जमीन पर हक, स्वयत्तता के अधिकार है, अगर ये प्रावधान लागू हों तो संसाधनों की खुली लूट असंभव है।
हममें से तो तसलिमा नसरीन जैसी विवादास्पद लेखिका कहीं बेहतर है जो धर्म के खिलाफ विद्रोह करके अपने देश से क्या, इस दक्षिण एशियाई सामंती भूगोल से बाहर निर्वासित हो गयी। तसलिमा ने बहुत पहले कह दिया है कि जब तक धर्म रहेगा, तब तक न समानता और न्याय संभव है और न मनावाधिकार या नागरिक अधिकार। गुजरात में नरेंद्र मोदी की जनसंहार संस्कृति के राष्ट्रीय विस्तार को बाजार के लोकतंत्र और पूंजी का खुला समर्थन है। अलगाव के वृत्ताकार चक्रव्यूह में अलग अलग द्वीपों में मारे जाने को नियतिबद्ध बहुसंख्य भारतीय जनसमुदाय के खिलाफ धर्मराष्ट्र के इस एजंडे का कमाल असम और महाराष्ट्र से लेकर हाल में उत्तर प्रदेश में भी हम देख रहे हैं। बंगाल में इस एजंडा पर भयानक तेजी से काम हो रहा है। कारपोरेट राज से बचने के लिए धर्मराष्ट्र के आवाहन का जो पूरा तंत्र खड़ा है, उसके प्रतिरोध में प्रतिबद्ध सक्रियता के बिना एक आलेख पर ही तिलमिला कर हम क्या हासिल कर लेंगे?
हमने अभी अभी अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में देखा कि बाजार, पूंजी, कारपोरेट सामार्ज्यवाद, युद्धक अर्थव्यवस्था, श्वेत वर्चस्व और धर्म राष्ट्रवाद के दक्षिणपंथ को महिलाओं की अगुवाई में सामाजिक शक्तियों और उत्पादक श्रेणियों, युवाओं, अल्पसंख्यकों, शरणार्थियों और अश्वेत बिरादरी के बहुजनसमाज ने कैसे पराजित कर दिया।अमेरिका की तरह या उससे बड़ी महाशक्ति बनने से पहले देखें कि सामाजिक जड़ता, दासता और रंगभेद को तोड़ने से लेकर वियतनम युद्ध और इराक युद्ध तक के विरुद्ध शांति आंदोलनों की निरंतरता की क्या भूमिका है। क्या ऐसी गोलबंदी हालिल करने के लिए हम कुछ कर रहे हैं ?
इस बहस को आगे बढ़ाने के लिए संबंधित पूरी सामग्री पेश कर रहे हैं।
11/13/2012
छपने लायक हो, तो मैं तालिबानी विचार भी छाप सकता हूं: ओम थानवी
12 नवंबर 2012 को जनसत्ता में छपे शंकर शरण के खाप समर्थक लेख 'हिंदू विवाह और गोत्र' के बाद हमने अखबार और उसके संपादक से कुछ सवाल पूछे थे। मामले को सार्वजनिक डोमेन में रखने के लिए उक्त पोस्ट की लिंक संपादक आम थानवी समेत कई लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को भी हमने मेल की थी। ओम थानवी की ओर से पहला जवाब रात दो बजे के आसपास ही आ गया था, जो बात को टालने के अंदाज़ में था। जब दोबारा उनसे वही सवाल पूछे गए, तो उन्होंने बात को साफ़ करते हुए एक और पत्र भेजा। 13 नवंबर को दिन भर चले पत्राचार में ओम थानवी के अलावा अविनाश दास, योगेश कुमार शीतल और रंगनाथ सिंह ने हस्तक्षेप किया। सारे पत्र मैं नीचे जस के तस चिपका रहा हूं, लेकिन सबसे पहले ओम थानवी का वह पत्र जिसमें उन्होंने एक दिलचस्प बात कही है कि अगर छपने लायक हो तो वे किसी खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिंदू आतंकी का लेख भी छाप सकते हैं। इस पर पब्लिक डोमेन में चर्चा होनी ही चाहिए।
Nov 13, 2012, 12.36 p.m. पर ओम थानवी की मेल
प्रिय अभिषेक जी,
आप जनसत्ता के इतने शुभचिंतक हैं, यह बड़ी दिलासा देने वाली बात है।
मेरे ख़याल में मैंने आपके सवाल का जवाब दे दिया था। कोई बात साफ़ न हुई हो तो बता दिया करें।
आपने पूछा है -- क्या लोकतंत्र और न्याय के बुनियादी मूल्यों के पार जाकर किसी लेखक के विचार एक अखबार को स्वीकार्य हो सकते हैं? मेरा जवाब है -- हो सकते हैं। आरक्षण के विरोध में हमने जो लेख छापे वे इसका प्रमाण हैं। शंकर शरण, जगमोहन सिंह राजपूत, तरुण विजय आदि के लेख भी हमें 'धर्म-संकट' में ले जाते रहे हैं, पर ऐसे विचार देश में हैं मौजूद यह बताना मुझे उन पर परदा डालने से महत्त्वपूर्ण जान पड़ता है। विश्वास रखें, ऐसा मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ करता हूँ। और इसी ज़िम्मेवारी और दरियादिली के चलते किसी "खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिंदू आतंकी" का लेख भी छाप दे सकता हूँ, बशर्ते उसमें कुछ ऐसा हो जो छपने के लायक़ हो। यह तभी पता चलेगा जब लेख सामने आएगा। यानी इसका निर्णय मैं हमेशा वह लेख विशेष पढ़ कर करूंगा, लेखक का नाम, जाति,विचार, धर्मं, अपराध, पुण्य आदि का खाता देखकर नहीं।
वेबसाइट से सामग्री उठाने की जांच दिल्ली लौट कर ख़ुद करूंगा। सही निकलने पर कार्रवाई होगी। टाइम-न्यूज़वीक बड़े नाम हैं। फ़रीद ज़कारिया को निलंबित किया, फिर छपने भी लगे। मैं इस मामले में ज़्यादा निर्मम हूँ।
और महाराज, जनसत्ता के आप जैसे दोस्त हैं कहाँ। छोड़ कर मत जाइएगा। टाइम का काम चल जाएगा। हमारा बिगड़ जाएगा।
आपका,
ओम थानवी
Nov 13, 2012, 1.39 p.m. पर रंगनाथ सिंह की मेल
प्रिय ओम थानवी जी,
संपादक के तौर पर लेख में प्रस्तुत प्रतिगामी विचारों को प्रकाशित करने के लिए आप स्वतन्त्र हैं. यह आपका विशेषाधिकार है कि आप जनसत्ता को किन गहराईओं तक ले जाते हैं !
किन्तु, 'चोरी' की सामग्री को जनसत्ता में प्रकाशित करवाने में सफल रहे शंकर शरण से स्पष्टीकरण माँगना और पाठकों का हक में उसे सार्वजनिक करना एक संपादक (चाहे वो किसी भी पंथ का हो) का नैतिक दायित्व बनता है.
मुझे विश्वास है कि हिन्दी अख़बारों-चैनलों के तमाम संपादकों की तरह आप भी हिन्दी पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए सतत चिंतित रहते होंगे. लेकिन ऐसे कुछेक अवसरों पर जब जनसत्ता के बचे-खुचे प्रतिबद्ध पाठक पाठक भी चिंतित हो जाएँ, आपको चिंता-चिंतन से उबरकर (हलकी-फुलकी ही सही) कोई कारर्वाई जरूर करनी चाहिए.
जाहिर है कि अभिषेक की चिंताएं उसकी अकेली की नहीं हैं.
सस्नेह
रंगनाथ सिंह
Nov 13, 2012, 10.51 a.m. पर अविनाश दास की मेल
अभिषेक जी, 99 फीसदी समाज जैसा है, जैसा चल रहा है, उसका एक वैचारिक आधार है। धर्म, जाति, गोत्र, ऊंच नीच वही आधार है। आपकी हमारी या ओम जी की कल्पना का समाज अलग है और उसका वैचारिक आधार भी मौजूदा समाज से उन्नत और प्रगतिशील। अखबार में छपे किसी विचार से हमारी असहमति हो सकती है - हमें देखना यह चाहिए कि वहां ज्यादा किस तरह के विचार छप रहे हैं। शंकर शरण घोषित तौर पर संघी मानसिकता के विचारक हैं। बीजेपी के शासनकाल में वह एनसीईआरटी के डायरेक्टर भी थे। बीजेपी से ही जुड़े तरुण विजय जनसत्ता में छपते हैं। लेकिन मेरी जानकारी में अस्सी फीसदी जनसत्ता के लेखक-स्तंभकार प्रगतिशील मूल्यों में आस्था रखने वाले लोग हैं। वैसे भी सती प्रकरण पर छपे बीस साल पुराने संपादकीय को शंकर शरण के लेख से जोड़ कर जनसत्ता को कठघरे में खड़ा करना मुझे सही नहीं जान पड़ता। इसी अखबार में कुछ संपादकीय सती प्रकरण के खिलाफ भी छपे।
खाप और हरियाणा में दलित उत्पीड़न के खिलाफ जनसत्ता में छपे एक लेख का लिंक देखें : http://mohallalive.com/2010/06/01/arvind-shesh-writeup-on-mirchpur/
जनसत्ता में ही सती प्रथा के खिलाफ छपा एक लेख देखें :http://mohalla.blogspot.in/2008/07/blog-post_22.html
कुछ और लेख जनसत्ता के संदर्भ में और जनसत्ता से कॉपी करके मोहल्ला लाइव पर छपे हैं। उन्हें भी एक नजर देखना चाहिए : http://mohallalive.com/tag/jansatta
Nov 13, 2012, 10.24 a.m. पर अभिषेक श्रीवास्तव की मेल
ओम जी,
दिवाली मुबारक।
आपके जवाब से यह साफ़ नहीं हो रहा कि आप लेखक की वैचारिक आज़ादी के पक्ष में हैं या सती प्रकरण से इस मामले की तुलना किए जाने के खिलाफ़ हैं।
क्या लोकतंत्र और न्याय के बुनियादी मूल्यों के पार जाकर किसी लेखक के विचार एक अखबार को स्वीकार्य हो सकते हैं? यदि ऐसा है, तो फिर कल को कोई खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिंदू आतंकी अपने द्वारा की गई हत्याओं को जायज़ ठहराते हुए पुरातनतम संदर्भों से भरा एक वैचारिक लेख आपके यहां भेजता है, तो यही माना जाना चाहिए कि आप उसे छाप देंगे! आप ''लेखकों के विचार जनसत्ता के नहीं'' वाली दलील देते हुए इतनी सी बात क्यों नहीं समझते कि जनसत्ता और पंजाब केसरी का पाठक वर्ग एक नहीं है। जनसत्ता में शंकर शरण जैसे लेख छापना दरअसल कुछ बीमार विचारों को एक स्वस्थ परंपरा वाले प्रकाशन के माध्यम से 'लेजिटिमेसी' दिलाने के बराबर है।
आप मानें या ना मानें, लेकिन यह लेख इस बात का संकेत देता है कि आपकी'लोकतांत्रिकता' और 'आवाजाही' का सिद्धांत कुछ लोगों द्वारा मिसएप्रोप्रिएट किया जा रहा है। वे लोग भीतर के भी हो सकते हैं, बाहर के भी। आपके अखबार का इस्तेमाल हो रहा है और इसका सीधा असर पाठकों पर पड़ रहा है।
मेरा काम आगाह करना था, सो मैंने किया। आपने मेरे एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया, कोई बात नहीं। लेकिन एक संपादक की न्यूनतम जिम्मेदारी निभाने की उम्मीद हम आपसे करते हैं। जिस वेबसाइट से शंकर शरण ने अपनी सामग्री उठाई है (जो कि बेनामी है) उसे जाकर एक बार देख लें। मैं जानता हूं कि न तो शंकर शरण कोई फ़रीद ज़कारिया हैं जो कि माफ़ी मांगें, न ही आप टाइम पत्रिका के संपादक हैं कि उन्हें दंडित करें। और वैसे भी यह हिंदुस्तान है। मामला सिर्फ इतना है कि हम लोग जिस लगन से टाइम/न्यूज़वीक पढ़ते हैं, उससे कुछ कम लगन से ही जनसत्ता पढ़़ते रहे हैं।
बाकी, हम सोचते हैं कि एक पाठक के बतौर जनसत्ता का हमें क्या करना है।
शुभकामनाएं
अभिषेक श्रीवास्तव
Nov 13, 2012, 09.17 a.m. पर योगेश कुमार शीतल की मेल
आदरणीय थानवी जी,
आपके इस बात से सहमती है कि ये विचार लेखक के हैं, और शंकर शरण को भी अन्य लेखकों की तरह अपने विचार अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता है। लेकिन जनसत्ता का ये लेख पहले कहीं और प्रकाशित हो चुका है। जनसत्ता से हम नैतिकता और मौलिकता की उम्मीद करते हैं। अगर ऐसा न करते तो आपका ध्यान इस और आकृष्ट नहीं करते।
प्रभाष जी संघी थे, ये सबको पता है।
योगेश कुमार शीतल
Nov 13, 2012, 1.58 a.m. पर ओम थानवी की मेल
प्रिय अभिषेक जी,
आपकी मेल मिली। अपने विचारों से अवगत कराने के लिए धन्यवाद।
जनसत्ता में विभिन्न विचार विभिन्न लेखों में विभिन्न लेखक व्यक्त करते हैं। वे लेखकों के विचार होते हैं, जनसत्ता के नहीं। सती प्रकरण पर मेरे आने से पहले छपे सम्पादकीय से इस स्वतंत्र लेख की तुलना करने का क्या औचित्य बनता है, यह आप ही जानते होंगे। मेरे संपादन में सती और खाप तंत्र की अमानुषिकता पर क्या सम्पादकीय छपे, आप इसकी पड़ताल करते तो उसमें शायद कोई तुक निकल भी आती।
दिवाली की शुभकामना।
सप्रेम। ओम थानवी
11/14/2012
जनसत्ता को ऐसे 'विचारों' से अपनी दूरी बढ़ाते रहना चाहिए: उदय प्रकाश
जनसत्ता में 12 नवंबर को छपे शंकर शरण के लेख पर उठाई गई आपत्तियों और उसके बाद जनसत्ता के संपादक की ओर से आए पत्रों के क्रम में एक महत्वपर्ण टिप्पणी हमारे समय के बेहद अहम और हिंदी के इकलौते वैश्विक कहे जा सकने वाले लेखक उदय प्रकाश ने की है। जनसत्ता के इतिहास को खंगालते हुए यह टिप्पणी पूरे मामले को एक परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। उदय जी के और इस टिप्पणी के महत्व के लिहाज़ से हम इसे एक स्वतंत्र पोस्ट के तौर पर नीचे दे रहे हैं।* |
उदय प्रकाश |
इस मुद्दे पर मैं आपसे सहमत हूँ अभिषेक जी। मैंने अभी पूरा वक्त लगाकर शंकर शरण का वह आलेख पढ़ा . ...और उसके बाद अब तक हुए पत्राचार को भी।
'जनसत्ता ' द्वारा (क्योंकि कोई भी अखबार अपने अस्तित्व का अंतत: प्रतिनिधित्व सम्पादक को ही सौंपता है) आपके उत्तर में दिए गए तर्क - ''विश्वास रखें, ऐसा मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ करता हूँ। और इसी ज़िम्मेवारी और दरियादिली के चलते किसी "खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिंदू आतंकी" का लेख भी छाप दे सकता हूँ, बशर्ते उसमें कुछ ऐसा हो जो छपने के लायक़ हो'' - से स्वयं शंकर शरण 'खाप प्रतिनिधि, तालिबानी दहशतगर्द या हिन्दू आतंकी' सिद्ध हो जाते हैं।
लेकिन 'जनसत्ता ' का पुराना पाठक होने के कारण इसके कई विरोधाभासों को मैं जानता हूँ। सिर्फ दिवराला की रूप कुंवर सती प्रकरण या आपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद जनरल सुन्दर जी को सतश्री अकाल का सम्पादकीय और सफ़दर हाशमी की शहादत के वक्त चले राम बहादुर प्रकरण के प्रसंग ही नहीं, अगर इसके आर्काइव को उलटा-पलटा जाय तो बहुतेरे ऐसे उदाहरण मिलेंगे। लेकिन दूसरी तरफ इसी 'जनसत्ता' में ए. के. रामानुजन का भारतीय न्याय प्रणाली पर वह लेख भी अनूदित होकर छपा था, जिसमें उन्होंने शंकर शरण से ठीक विपरीत निष्कर्ष न्यायालयों के बारे में निकाले थे। उनके अनुसार भारतीय संविधान (भारतीय दंड संहिता ) भले ही ब्रिटेन या पश्चिम से ली गयी हो, लोकतांत्रिक ढांचों और संस्थानों की तरह, लेकिन वह हमेशा हिन्दू धर्म के पूर्व आधुनिक 'विधिनांगों' द्वारा ही संचालित होती रही है। (अभी हाल में अयोध्या के बारे में किये गए फैसले को ही आप देख सकते हैं।)
स्पष्ट है कि जब वे 'विधिनांगों' का उल्लेख कर रहे थे तो उन्हें स्मृति ग्रंथों का पूरा ध्यान रहा होगा, जिनमें से कुछ का सन्दर्भ शंकर शरण ने अपने लेख में किया है। (हालांकि शायद वह कहीं से 'ज्यों का त्यों' उठाया गया है और जिसके बारे में 'जनसत्ता ' ज़रा-सा 'डिफेंसिव' है।) सब जानते हैं कि हिन्दू धर्म के अधिकतर 'विधिनांग' स्मृति ग्रंथों या ब्राह्मण ग्रंथों में ही बनाए गए हैं। लेकिन शंकर शरण होशियारी के साथ ऐसे स्मृति ग्रन्थ के सर्वोच्च प्रतिनिधि - 'मनु स्मृति' का ज़िक्र छोड़ देते हैं, जो कट्टर हिंदुत्ववादियों के मनोविज्ञान को समझने का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
आपके द्वारा उठाये गए प्रश्न महत्वपूर्ण हैं और 'जनसत्ता' को ऐसे 'विचारों' से अपनी दूरी बढाते रहना चाहिए। (लेकिन संचार माध्यमों ही नहीं , समूचे सत्ता-तंत्र की साम्प्रदायिक जातीय संरचना को देखते हुए क्या यह संभव लगता है?)
अभिषेक श्रीवास्तवदैनिक जनसत्ता के 12 नवम्बर 2012 के संपादकीय पृष्ठ पर शंकर शरण का लेख छपा है 'हिंदू विवाह और गोत्र' ( http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/32610-2012-11-12-04-53-59)। अखबार की वेबसाइट पर इसके खिलाफ प्रतिक्रियाएं आ रही हैं ( http://epaper.jansatta.com/c/503631) और जनसत्ता के बचे-खुचे पाठकों में इस पर चर्चा भी हो रही है। जो पाठक इस अखबार के नियमित लेखक भी हैं, वे ज़रा संयम बरत कर अपने लिए स्पेस बचाते हुए बात कर रहे हैं। लेख के वैचारिक पक्ष पर तो हम बात करेंगे ही, लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस लेख की एक-एक पंक्ति अर्थ मीडिया नेटवर्क नाम की एक वेबसाइट पर 27 जून 2010 को छपे एक लेख से मेल खाती है जिसमें लेखक का नाम नदारद है। इसका लिंक है http://www.arthmedianetwork.com/newsdetail/news/3353/Category/News-Information
बहरहाल, जिन्होंने यह लेख नहीं पढ़ा है, उनकी सहूलियत के लिए जल्दी से इस लेख के प्रकाशित वाक्यों पर एक संक्षिप्त बिंदुवार नज़र डाल लेते हैं।
1. हिंदू शास्त्रीय निर्देशों को भारत की वर्तमान न्याय-प्रणाली में कोई मान्यता नहीं है! इसीलिए हमारे न्यायाधीशों और बुद्धिजीवियों को भारतीय शास्त्र जानने की कभी जरूरत महसूस नहीं होती।
2. यह दुर्भाग्यपूर्ण और पूरे विश्व में अपूर्व स्थिति है कि किसी देश के न्यायकर्मियों, बुद्धिजीवियों को अपनी ही विधि-परंपरा की जानकारी न हो! बल्कि जब चाहे, उसकी हंसी उड़ाना आधुनिक होने का लक्षण माना जाता हो। जबकि विदेशी कानूनों को अपने लिए प्रामाणिक मान लिया गया हो। एक ही गांव में या समान-गोत्र में विवाह के प्रसंग में वही हो रहा है।
3. भारत का राष्ट्रपति भारत के धर्म का संरक्षक नहीं है। मगर वह कथित अल्पसंख्यकों के मजहबों का अधिकृत संरक्षक है! यह विचित्र स्थिति पूरी दुनिया में और कहीं नहीं।
4. यह अन्याय दोहरा-तिहरा है। क्योंकि एक मजहब के पैगंबर के जीवन-व्यवहार को उसके अनुयायियों के लिए इसी देश में कानून का दर्जा हासिल है! पर हिंदुओं के शास्त्रीय विधान को ऐसी कोई वैधता नहीं है। क्या कोई हिंदू मांग कर सकता है कि जो भगवान राम या कृष्ण ने किया था, उसे हमारे लिए कानून समझा जाए, जैसे पैगंबर मुहम्मद के कार्य को समझा जाता है? उस तर्क से आततायियों, व्यभिचारियों का वध करना हर हिंदू का अधिकार है, क्योंकि यही हिंदू धर्म-परंपरा है।
5. हरियाणा या उत्तर प्रदेश के ग्रामीण बुजुर्ग जो करते हैं, वह शास्त्रीय दृष्टि से उचित है। चाहे विदेशी प्रभाव में उसे कितना ही निंदित क्यों न किया जाए।
6. सगोत्र विवाह ही नहीं, एक गांव के किसी लड़के-लड़की का आपसी विवाह भी हिंदू परंपरा में नहीं है। यह सर्वविदित भी है। ऐसे प्रेम-विवाहों के विरुद्ध खाप पंचायतों की नाराजगी पर नाराज होने वालों को भी कभी ठहर कर सोचना चाहिए।
7. मगर खाप पर रंज होने का ऐसा फैशन चल पड़ा है कि उसकी भावना पर कोई सोचता ही नहीं।
8. शास्त्र और लोक, दोनों ही एक गांव के लड़के-लड़की की शादी को अमान्य करते हैं। इसलिए खाप कोई गलती नहीं कर रही है।
9. हिंदू धर्म में विवाह कोई निजी मामला नहीं, एक सामाजिक-धार्मिक कार्य है। इस्लामी शादियों की तरह यह कोई द्वि-पक्षीय 'व्यावहारिक' समझौता नहीं। किसी प्राइवेट बिजनेस डील से अलग हिंदुओं में विवाह जीवन के सोलह धर्म-संस्कारों में से एक है।
10. अत: खाप की स्थिति को हिंदू दृष्टि से देखना जरूरी है। विदेशी, व्यक्तिवादी या निरी कानूनी दृष्टि से उन पर रंज होना उचित नहीं।
उपर्युक्त वाक्यों के बीच-बीच में लेखक ने वे संदर्भ दिए हैं जिनसे सगोत्र विवाह वर्जित साबित होता है। इन संदर्भों के नाम देखें: याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति, आपस्तंब धर्मसूत्र, विष्णु धर्मसूत्र, वशिष्ठ धर्मसूत्र, बौधायन धर्मसूत्र, गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति, विष्णु स्मृति और पराशर स्मृति। इनके अलावा शंकर शरण अपनी बात के समर्थन में दो कानूनी मामले गिनाते हैं जो 1888 और 1908 के हैं। उनका कहना है कि 'भारत की जिस परंपरा को ब्रिटिश सत्ता की अदालत भी मानती थी, उसे भारतीय सत्ताधीशों ने अमान्य कर दिया।' (यह सब वेबसाइट से जस का तस उठाया गया है)
शंकर शरण के लेखन से जो लोग परिचित हैं, वे यही कहेंगे कि उनसे और क्या उम्मीद की जा सकती है। इसलिए लेखक ने तो जो किया, सो किया। किसी लेखक के मूढ़, प्रतिगामी, पोंगापंथी, खाप समर्थक और नकलची होने का किया भी क्या जा सकता है? लेकिन, चूंकि जनसत्ता ने यह लेख छापा है और अखबार में छपे शब्द व विचार का उसके पाठकों से लेना-देना होता है, इसलिए सवाल अखबार और उसके संपादक पर हैं। वेबसाइट से उड़ाई गई बेनामी सामग्री और लेख की मौलिकता को किनारे रख दें, तो कुछ बुनियादी वैचारिक सवाल अखबार और उसके संपादक से बनते हैं जो मैं नीचे दे रहा हूं:
1. यह लेख क्या सोच कर छापा गया? क्या इसे संपादक की स्वतंत्रता और 'आवाजाही के हक़' में ओम थानवी की 'लोकतांत्रिक' वैचारिकी का परिणाम माना जाए? (जैसा कि मंगलेश डबराल और विष्णु खरे के प्रकरण में ओम थानवी लंबे 'अनंतर' के माध्यम से स्पष्ट कर चुके हैं)
2. क्या अखबार और उसके संपादक खाप के समर्थन में हैं और वास्तव में 'खाप की भावना' के हमदर्द हैं? यदि नहीं, तो ऐसा कौन सा विचार है जो दर्जनों हत्याओं की जि़म्मेदार एक संस्था को सहानुभूति से देखने का आवाहन करने वाला लेख छापने के लिए उन्हें बाध्य/कनविंस करता है?
3. क्या अखबार और उसके संपादक को हिंदू विवाह से जुड़े भारतीय कानूनों पर विश्वास नहीं है? यदि है, तो 'लॉ ऑफ दि लैंड' के बाहर जाकर यह वाक्य छापने का क्या मंतव्य माना जाए: "वस्तुत: यह स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों की दोहरी जबर्दस्ती थी। उन्होंने एक देश में एक नागरिक कानून की संवैधानिक भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए मुसलिम पर्सनल लॉ को तो रहने दिया, जबकि हिंदू नियमों को मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा। इसमें न शास्त्रों का आदर रखा गया न लौकिक परंपरा का।"
4. क्या जनसत्ता और उसके संपादक भी मानते हैं कि "हरियाणा या उत्तर प्रदेश के ग्रामीण बुजुर्ग जो करते हैं, वह शास्त्रीय दृष्टि से उचित है।" यदि नहीं, तो इस वाक्य को छापने का मंतव्य क्या है?
5. "खाप कोई गलती नहीं कर रही है", क्या लेखक के इस विचार से अखबार इत्तेफ़ाक़ रखता है? यह ज़रूरी है क्योंकि इस वाक्य को छापने का अर्थ होगा अब तक खाप द्वारा की गई प्रेमी युगलों की हत्या को जायज़ ठहराना।
6. "आततायियों, व्यभिचारियों का वध करना हर हिंदू का अधिकार है, क्योंकि यही हिंदू धर्म-परंपरा है"। "आततायी, व्यभिचारी" कौन है? चूंकि हिंदू विवाह नियमों को लेख में मुस्लिम पर्सनल लॉ के बरक्स रखकर दलीलें दी गई हैं, लिहाज़ा क्यों न माना जाए कि उपर्युक्त शब्द मुसलमानों और सामान्य तौर पर सभी अहिंदुओं के लिए लिखे गए हैं? इसका राजनीतिक निहितार्थ यह बनता है कि भारत में अब तक हुए सभी अल्पसंख्यक विरोधी नरसंहार जायज़ हैं। क्या अखबार और उसके संपादक इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं? यदि नहीं, तो क्या उन्हें लेख के उक्त वाक्य के सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील होने का अंदाज़ा नहीं था? यदि था, तो इसे क्यों छापा गया?
सवाल और भी बनते हैं। लेख की हर पंक्ति सवालों के घेरे में है और उतनी ही बार अखबार और उसके संपादक भी सवालिया घेरे में आ जाते हैं। जनसत्ता की संपादकीय और वैचारिक परंपरा के विरुद्ध छपा यह आलेख आज इस अखबार को उसी कठघरे में खड़ा कर रहा है जो स्थिति आज से ठीक 25 साल पहले सती रूप कुंवर के मामले में बनी थी। उस वक्त सती को महिमामंडित करता हुआ संपादकीय छापने के खिलाफ सौ एक लेखकों ने जनसत्ता का बहिष्कार किया था, जिसके बाद प्रभाष जोशी ने सारा दायित्व अपने ऊपर लेकर संपादकीय लेखक बनवारी को बरी कर दिया था। इस घटना के 19 साल बाद 30 नवंबर 2006 को जनसत्ता के उसी संपादकीय पन्ने पर श्रीभगवान सिंह ने सती के बहाने पुरानी विवाह परंपरा की प्रासंगिकता के पक्ष में लिखा। 1987 के संपादकीय विवाद के अलावा जनसत्ता ने कभी सचेत रूप से ऐसे विचारों और मूल्यों का समर्थन नहीं किया था। श्रीभगवान सिंह के मामले में भी यह कहना संभव नहीं था कि उनके विचार जनसत्ता के विचार हैं क्योंकि वह 'दुनिया मेरे आगे` में छपा था जो संस्मरणात्मक होता है। लेकिन शंकर शरण का लेख न तो संस्मरणात्मक है, न ही उसे किसी संपादकीय गलती के खाते में डाला जा सकता है क्योंकि जनसत्ता में संपादकीय पृष्ठ पर एक ही राजनीतिक लेख छपता है, लिहाज़ा वह निगरानी के कई स्तरों से होकर गुज़रता है। सवाल है कि क्या यह लेख कोई वितंडा खड़ा करने के उद्देश्य से छापा गया है? क्या इस बार का लेख, जो एक साथ नरेंद्र मोदी से लेकर खाप तक इस लोकतंत्र के सभी हत्यारों को हिंदू धर्मग्रंथों की आड़ में ज़मानत दे देता है, सती वाले संपादकीय से कई गुना ज्यादा ख़तरनाक नहीं है? क्या जनसत्ता के सुधी पाठकों को इस पर अखबार और उसके संपादक ओम थानवी की ओर से स्पष्टीकरण की उम्मीद नहीं करनी चाहिए?
जनसत्ता को अपने बचे-खुचे पाठकों को बनाए रखने के लिए यह महती जि़म्मेदारी निभानी ही होगी। यदि ओम थानवी इस लेख पर अखबार का पक्ष नहीं रखते हैं, तो एक बार फिर सन् 1987 की तरह सौ नहीं, तो दस लेखक-पाठक ही सही, अखबार का बहिष्कार करने को विवश होंगे।
अभिषेक श्रीवास्तव
जनपथ से
http://hastakshep.com/?p=26217
हिंदू विवाह और गोत्र
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/32610-2012-11-12-04-53-59
Monday, 12 November 2012 10:22
शंकर शरण
जनसत्ता 12 नवंबर, 2012: सगोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली एक याचिका पर एक न्यायाधीश ने पूछा, 'किस हिंदू ग्रंथ में एक गोत्र में विवाह को प्रतिबंधित करने की बात लिखी हुई है?' पहले तो यह निरर्थक प्रश्न है। क्योंकि हिंदू शास्त्रीय निर्देशों को भारत की वर्तमान न्याय-प्रणाली में कोई मान्यता नहीं है! इसीलिए हमारे न्यायाधीशों और बुद्धिजीवियों को भारतीय शास्त्र जानने की कभी जरूरत महसूस नहीं होती।
यह दुर्भाग्यपूर्ण और पूरे विश्व में अपूर्व स्थिति है कि किसी देश के न्यायकर्मियों, बुद्धिजीवियों को अपनी ही विधि-परंपरा की जानकारी न हो! बल्कि जब चाहे, उसकी हंसी उड़ाना आधुनिक होने का लक्षण माना जाता हो। जबकि विदेशी कानूनों को अपने लिए प्रामाणिक मान लिया गया हो। एक ही गांव में या समान-गोत्र में विवाह के प्रसंग में वही हो रहा है।
भारतीय संविधान अंग्रेजों द्वारा बनाए गए इंडिया एक्ट, 1935 का ही संशोधित रूप है। उसका नियामक एंग्लो-सैक्शन लॉ है, कोई भारतीय शास्त्र नहीं। अत: उपनिषद, धर्म-सूत्रों और स्मृतियों में क्या लिखा है, इससे यहां अभी चल रही न्याय-व्यवस्था को कोई मतलब ही नहीं! यह स्वयं एंग्लो-सैक्शन जगत की स्थिति से विपरीत है। मूल ब्रिटिश-अमेरिकी कानून में वहां के अपने-अपने रिलीजन का अत्यधिक महत्त्व है।
ब्रिटिश कानून में वहां का 'क्राउन' चर्च आॅफ इंग्लैंड से संबद्ध ईसाइयत का आधिकारिक संरक्षक है। इसी तरह फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि देशों में भी अपनी-अपनी ईसाइयत को विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त है। जबकि भारत में एंग्लो-सैक्शन लॉ लागू करने पर भी उसका यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण हिस्सा हटा दिया गया। भारत का राष्ट्रपति भारत के धर्म का संरक्षक नहीं है। मगर वह कथित अल्पसंख्यकों के मजहबों का अधिकृत संरक्षक है! यह विचित्र स्थिति पूरी दुनिया में और कहीं नहीं।
संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के देशों में न्यायाधीशों के लिए ईसाइयत के विधान और व्यवस्थाओं का विशद ज्ञान अनिवार्य है। जबकि भारत में न्यायधीशों के लिए हिंदू धर्म का ज्ञान रखना कतई अनिवार्य नहीं। तब वैसे प्रश्न उछाल कर हमारे बड़े लोग हिंदू जनता का मजाक क्यों उड़ाते हैं कि 'किस शास्त्र में सगोत्र विवाह मना है?' पहले तो वे संपूर्ण भारतीय मनीषा को किनारे कर उपेक्षित करते हैं। उसे शिक्षा-दीक्षा और ज्ञान के सभी मंचों से दूर रखते हैं। तब यह पूछना कहां का न्याय है कि हिंदू ग्रंथों में कहां कौन-सी बात लिखी है?
यह अन्याय दोहरा-तिहरा है। क्योंकि एक मजहब के पैगंबर के जीवन-व्यवहार को उसके अनुयायियों के लिए इसी देश में कानून का दर्जा हासिल है! पर हिंदुओं के शास्त्रीय विधान को ऐसी कोई वैधता नहीं है। क्या कोई हिंदू मांग कर सकता है कि जो भगवान राम या कृष्ण ने किया था, उसे हमारे लिए कानून समझा जाए, जैसे पैगंबर मुहम्मद के कार्य को समझा जाता है? उस तर्क से आततायियों, व्यभिचारियों का वध करना हर हिंदू का अधिकार है, क्योंकि यही हिंदू धर्म-परंपरा है। राम ने बालि का वध क्यों किया था? लक्ष्मण से सूपर्णखा की नाक क्यों काटी थी? कृष्ण ने कंस का वध किस अधिकार से किया था? ध्यान रहे, जब राम, लक्ष्मण, कृष्ण ने वह सब किया, तो वे राज-सिंहासन से नहीं, एक सामान्य मनुष्य के रूप में कर रहे थे। अर्थात, भारतीय धर्म-परंपरा किसी को भी दुष्टों, व्यभिचारियों को दंडित करने का अधिकर देती है- अगर उसमें बल हो। किसी राजा के पास जाकर उस आततायी के विरुद्ध याचिका दायर करने का निर्देश नहीं देती। क्या इस शास्त्रीय परंपरा को हमारे न्यायाधीश मान्यता देंगे, जैसे हदीस के उदाहरणों को 'पर्सनल लॉ' की मान्यता मिली हुई है? अगर वे ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें हिंदू ग्रंथों में सगोत्र विवाह के विरुद्ध व्यवस्था के संदर्भ बता कर भी क्या होगा?
फिर भी, हिंदू ग्रंथों में ऐसे असंख्य संदर्भ हैं जहां एक गोत्र वालों में परस्पर विवाह वर्जित ठहराया गया है। 'याज्ञवल्क्य स्मृति' में विवाह के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में लिखा है, 'असमानाषर्गोत्रजाम्' (1.53)। ऐसा नियम जिसके भंग को बौधायन प्रवराध्याय ने पाप बताया है, जिसके परिमार्जन के लिए चांद्रायण जैसा कठोर व्रत करना आवश्यक है। गौतम ने सबसे कठोर रुख लेते हुए इसे गरुतल्पारोहण जैसा महापातक कहा। याज्ञवल्क्य ने इसे गुरुपत्नी के पास अभिगमन जैसा पाप कहा है। 'नारद स्मृति' (15.73-75) में तो और कठोर व्यवस्था देते हुए कहा गया है कि सगोत्र विवाह करने वाले पुरुष के लिए शिश्न-उत्कर्णन के अतिरिक्त कोई दंड नहीं है। (सो, भारतीय शास्त्र में 'बॉबिटाइजेशन' का विधान भी दिया हुआ मिलता है!)
धमर्सूत्रों में भी सगोत्र-विवाह के विरुद्ध व्यवस्था है। जैसे, आपस्तंब धमर्सूत्र (2.11.15), विष्णु धर्मसूत्र (24.9-10), वशिष्ठ धर्मसूत्र (8.1), बौधायन धर्मसूत्र (2.1.38) और गौतम धर्मसूत्र (4.2, 23.12) में इसका स्पष्ट निर्देश है। स्मृतियों में तो सगोत्र विवाह के विरुद्ध और अधिक कठोर व्यवस्था दी गई है। नारद स्मृति (12.7, 15.73-75) ही नहीं, मनुस्मृति (3.5), विष्णु स्मृति (24.9), पराशर स्मृति (10.13-14), आदि में भी। बाद की स्मृतियों में सगोत्र विवाह की संतान को चांडाल भी कहा गया है।
जिन्हें अधिक जानने की इच्छा हो वे पुरुषोत्तम पंडित लिखित 'गोत्र-प्रवरनिबन्धकदम्ब' पढ़ सकते हैं। यह बारहवीं सदी से पहले की रचना है जिसमें भारतीय शास्त्रों, धर्मसूत्रों, स्मृतियों के विवरण अविकल रूप में दिए गए हैं। सन 1900 में यह मैसूर गवर्नमेंट ओरिएंटल लाइब्रेरी सिरीज में चेन्तसलराव के संपादन में अन्य मध्यकालीन ग्रंथों के साथ प्रकाशित भी हुई थी।
भारत में गोत्र दो प्रकार से समझे जाते हैं- शास्त्रीय और लौकिक। शास्त्रीय, जो स्मरण-परंपरा से अनादि काल से चला आता है, और लौकिक वह, जो पाणिनि के मतानुसार वंश सूचित करता है। इतिहासकारों द्वारा भी भारत में विगोत्र विवाह की प्रथा ई.पू. आठवीं शती से आरंभ हुई बताई जाती है। सन 200 से 1200 तक यह इतनी पक्की तरह स्थापित हो गई थी कि उसके बाद सगोत्र विवाह बंद हो गए।
आज भी भारत में विवाह में उसी परंपरा का पालन होता है। कई स्थानों पर गोत्र-विषयक लौकिक प्रतिबंध शास्त्रीय मर्यादाओं की अपेक्षा कड़े हैं। अनेक भारतीय और विदेशी विद्वानों ने इसका आकलन भी किया है। इसलिए हरियाणा या उत्तर प्रदेश के ग्रामीण बुजुर्ग जो करते हैं, वह शास्त्रीय दृष्टि से उचित है। चाहे विदेशी प्रभाव में उसे कितना ही निंदित क्यों न किया जाए।
वस्तुत: 1946 ई. तक भारतीय अदालतें भी हिंदुओं में इस नियम के सम्मानित स्थान को मान्यता देती थीं। मीनाक्षी बनाम रामनाथ (1888), रामचंद्र बनाम गोपाल (1908) जैसे मामलों में दिए निर्णयों में इसे देखा जा सकता है (11 मद्रास इंडियन लॉ रिपोर्ट्स- 49, 51, फुल बेंच; 32, बंबई लॉ रिपोर्टर 619, 627)। सन 1946 में जाकर बंबई हाईकोर्ट ने माधवराव बनाम राघवेंद्र राव मामले में सगोत्र विवाह को अनुमति देने वाले एक रिवाज को स्वीकार किया (इंडियन लॉ रिपोर्ट्स, 1946, बंबई 375)। फिर 1955 के हिंदू विवाह कानून की धारा-29 में यही व्यवस्था दुहराई गई, जिससे सगोत्र विवाह के विरुद्ध कानूनी सहमति का अंत हो गया। पर इससे पहले तक सगोत्र विवाह की वर्जना को कानूनी मान्यता भी प्राप्त थी। यानी, भारत की जिस परंपरा को ब्रिटिश सत्ता की अदालत भी मानती थी, उसे भारतीय सत्ताधीशों ने अमान्य कर दिया!
वस्तुत: यह स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों की दोहरी जबर्दस्ती थी। उन्होंने एक देश में एक नागरिक कानून की संवैधानिक भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए मुसलिम पर्सनल लॉ को तो रहने दिया, जबकि हिंदू नियमों को मनमाने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा। इसमें न शास्त्रों का आदर रखा गया न लौकिक परंपरा का।
अत: उस 1955 के कानून के सिवा हमारे माननीय न्यायाधीशों के पास सगोत्र विवाह को उचित समझने का कोई आधार नहीं है। एक प्रकार से वे हिंदू समुदाय की पूरी धर्म-परंपरा और मान्य रीति का अनुचित मजाक उड़ा रहे हैं। राजसत्ता की शक्ति के बल पर कोई चीज थोपना एक बात है, और किसी गंभीर विधान, तर्क और न्याय की भावना से कुछ व्यवस्था देना दूसरी बात।
सगोत्र विवाह ही नहीं, एक गांव के किसी लड़के-लड़की का आपसी विवाह भी हिंदू परंपरा में नहीं है। यह सर्वविदित भी है। ऐसे प्रेम-विवाहों के विरुद्ध खाप पंचायतों की नाराजगी पर नाराज होने वालों को भी कभी ठहर कर सोचना चाहिए। बंबइया फिल्मों के अलावा उन्होंने कब किसी गांव में वैसा विवाह देखा है? मगर खाप पर रंज होने का ऐसा फैशन चल पड़ा है कि उसकी भावना पर कोई सोचता ही नहीं।
जबकि शास्त्र और लोक, दोनों ही एक गांव के लड़के-लड़की की शादी को अमान्य करते हैं। इसलिए खाप कोई गलती नहीं कर रही है। अपने गांव से बाहर विवाह करने के नियम को स्थानीय बहिविर्वाह कहते हैं। हालांकि प्राचीन साहित्य में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं, पर अनेक संदर्भ पक्के तौर से इसकी सत्ता सूचित करते हैं। प्रख्यात समाजशास्त्री इरावती कर्वे ने स्थानीय बहिर्विवाह की इस महत्त्वपूर्ण परंपरा का विशेष उल्लेख किया है (किनशिप आॅरगेनाइजेशन इन इंडिया, पूना, 1953)।
यह परंपरा एक गांव या बस्ती में बसे हुए व्यक्तियों में विवाह अनुचित समझती है। क्योंकि उन्हें प्राय: एक परिवार जैसा संबंध समझा जाता है। गांव के समान आयु वाले स्त्री-पुरुष भाई-बहन, बड़ी आयु के व्यक्ति उनके माता-पिता, चाचा, छोटी आयु के बच्चे भतीजे-भतीजियां समझे जाते हैं। हिंदुओं में नजदीकी संबंधियों की भांति एक गांववालों में विवाह वर्जित होता है। वैदिक युग से ही वधू को विवाह के बाद अपने श्वसुरगृह निर्विघ्न पहुंचने, मार्ग में कोई कष्ट न होने की अनेक प्रार्थनाएं हैं (ऋग्वेद, 10.85.23, और अनेक अन्य संदर्भ)। हमारे लोकगीत वधू के दूर गांव या क्षेत्र जाने के संदर्भ से भरे हुए हैं। कहीं स्थानीय विवाह का संकेत तक नहीं है! इसे उपेक्षित करना भारतीय धर्म-परंपरा की खुली अवहेलना करना है।
वस्तुतत: हिंदू ग्रंथों का संदर्भ ढूंढ़ने से पहले यह भी समझना जरूरी है कि हिंदू धर्म में विवाह कोई निजी मामला नहीं, एक सामाजिक-धार्मिक कार्य है। इस्लामी शादियों की तरह यह कोई द्वि-पक्षीय 'व्यावहारिक' समझौता नहीं। किसी प्राइवेट बिजनेस डील से अलग हिंदुओं में विवाह जीवन के सोलह धर्म-संस्कारों में से एक है। अत: खाप की स्थिति को हिंदू दृष्टि से देखना जरूरी है। विदेशी, व्यक्तिवादी या निरी कानूनी दृष्टि से उन पर रंज होना उचित नहीं।
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