Sunday, 18 November 2012 12:36
श्यौराजसिंह बेचैन
जनसत्ता 18 नवंबर, 2012: रत्नकुमार संभारिया की टिप्पणी 'सवर्ण अकादमी' (4 नवंबर) में राजस्थान साहित्य अकादमी की कार्यशैली को लेकर की गई आलोचना से एक सीमित दायरे का कटु सत्य सामने आया है। यह अकेली अकादमी नहीं है, जो जातिवादी नजरिए से संचालित हो रही है। केंद्रीय साहित्य अकादेमी दिल्ली में है। इसके अब तक के क्रियाकलापों को लेकर 'फारवर्ड प्रेस' पत्रिका के अप्रैल, 2012 अंक में 'द्विजों में ही होती है साहित्यिक प्रतिभा?' शीर्षक से एक लेख छपा है।
यहां सूचनाधिकार से मिली एक सूची है, जो बताती है कि साहित्य अकादेमी ने कब-कब, किस-किस लेखक को सम्मानित किया। हिंदी के लिए 1955 से लेकर 2011 तक दिए गए सम्मानों की तथ्यात्मक स्थिति यह है कि कुल पचपन सम्मानों में से पचीस ब्राह्मणों, आठ कायस्थों, पांच राजपूतों, तीन वैश्यों, तीन खत्रियों और एक जाट को मिले हैं। अब तक एक भी दलित को इसके लायक नहीं समझा गया।
'भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान' भी गैर-दलितों को ही मिले हैं। हिंदी में अब तक इस सम्मान से पांच ब्राह्मणों और चार अन्य द्विजों को सम्मानित किया गया है। एक भी दलित को यह सम्मान नहीं मिला।
साहित्य अकादेमी सम्मानों को लेकर हर वर्ष आलोचक इस द्विज के बजाय उस द्विज का पक्ष रखते रहे हैं। अमुक सवर्ण की वजह से तमुक सवर्ण को सम्मान मिलने में बिलंब पर चिंता जताई जाती है। विवाद भी नूरा कुश्तियों में तब्दील होकर रह गए हैं। साठ साल में एक बार भी किसी सवर्ण की जुबान पर किसी हिंदी दलित लेखक का नाम नहीं आया!
देश के सरकारी और गैर-सरकारी साहित्यिक संस्थानों का सामाजिक विविधता और प्रतिनिधित्व की दृष्टि से लोकतंत्रीकरण होना अब भी एक सपना बना हुआ है। साहित्यिक संस्थान सामाजिक लोकतंत्र की मिसाल न बनें तो उनका होना वरदान नहीं अभिशाप है। पर हैरत और दुख का विषय है कि ज्ञान के क्षेत्र में जातिवादी पक्षपात सम्मान की शॉल ओढ़े खड़ा है और हम उसे शतशत नमन करने को अभिशप्त!
गौरतलब है कि सरकार सम्मान की राशि में अनुसूचित जातियों को स्पेशल कंपोनेंट प्लान के तहत विशेष व्यवस्था करती है। उसी तरह 'ट्राइबल सबप्लान' के तहत आदिवासी सम्मान का धन सरकारी खजाने से आता है। बजट की कुल धन राशि में से 1955 से आज तक दलितों-आदिवासियों का हिस्सा नहीं दिया गया है। अकादमियों का नैतिक कर्तव्य बनता है कि वे इन वंचितों का हक सबसे पहले उन्हें दें। उसके बाद खाए-अघाए सवर्णों को बांटा करें। लेकिन हो उल्टा रहा है, बल्कि अंत में भी उनका दाय उन्हें नहीं मिल पा रहा है।
अब ये सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान जातिवाद का आधार लेकर नहीं चल सकते। उन्हें निष्पक्षता और पारदर्शिता लानी पड़ेगी। सूचनाधिकार ने दलितों के लिए भी तथ्य संकलन का आसान और प्रामाणिक जरिया दे दिया है। अकादमी-सम्मानों का मामला संसद में उठ सकता है। तब 1955 से अब तक का दलित बैकलॉग भरना पड़ सकता है। दुर्भाग्य से साहित्य और शिक्षा क्षेत्र के सवर्णों का स्वभाव, संस्कार अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक नहीं होता है। उन्हें बाध्यकारी परिस्थितियों में ही अपने आप को बदलना पड़ता है।
साहित्य अकादमियों, पीठों और फउंडेशनों-संस्थानों के निर्णायक, अध्यक्ष, सचिवों के पद दलित-आदिवासियों को देने होंगे। इसे कोई दलित विरोधी तथाकथित प्रगतिशील आलोचक साहित्य में आरक्षण कह कर जातीय प्रतिष्ठा का सवाल बनाएगा तो उसे इस व्यवस्थागत समस्या का समाधान देना होगा।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि अकादमियों, हिंदी विभागों और पीठों पर काबिज जातिवादी तत्त्वों ने दलित साहित्य के उदय को उत्सव बनाने के बजाय मातम का विषय बना लिया है। जब भारत के दलित साहित्य ने हिंदी को गति, स्फूर्ति और शक्ति दी है तो इसे अपनाने, इसका स्वागत कर प्राथमिक स्कूलों के पाठ्यक्रम से लेकर विश्वविद्यालयों तक में पढ़ाने में क्या हर्ज है?
वैसे भी आज गैर-दलित साहित्य जबरन पुस्तकालयों में भरा जा रहा है, सरकारी खरीदों में खपाया जा रहा है, जबकि दलित साहित्य पढ़ा जा रहा है, बाजार की मांग और जनता की जरूरत बना है। हर साहित्यिक जिंदा विमर्ष का विषय बना है। पाठक के पक्ष से देखें तो दलित साहित्य मुख्यधारा बन चुका है। फिर भी कुछ शिक्षक विश्वविद्यालय में गैर-दलित साहित्य पढ़ाने-बताने से ज्यादा अपनी ऊर्जा उसे छिपाने में लगाते हैं। इस अभ्यास में वे खुद भी ऐसे दलित साहित्य की जानकारी से वंचित रह जाते हैं जो उनके खुद के अज्ञान को दूर कर उन्हें प्रबुद्ध, संवेदनशील और मानवीय बनने में सहायक हो सकता है।
किसी भी साहित्य के प्रति न्याय अकादमियों के सम्मानों तक सीमित नहीं होता। इसका दायरा आम पाठक से लेकर स्कूल-कॉलेजों के शिक्षकों और छात्रों तक जाता है। आप जब पाठ्यक्रम में हिंदी कविता रखते हैं तो दलित कविता से छूत कैसी? मार्क्सवादी आलोचना आप पढ़ा रहें हैं, चाहे वह मनुवादी दिमाग की उपज हो, पर दलित आलोचना नहीं पढ़ाने देंगे, क्यों?
दलित कथा साहित्य में आत्मकथाएं, कहानियां सामाजिक यथार्थ का वह रूप प्रस्तुत कर रही हैं, जिसके अभाव में साहित्य निष्प्रयोजन हो रहा था। पर उस पर बिना किसी ठोस कारण, नियम और निदान के इसलिए शोध नहीं होने देंगे कि लेखक पड़ोस में रहता है और पाठ्यक्रम से तो उसे बिना किसी शोध-समीक्षा के ही बाहर कर देंगे, ऐसी मनमानी कौन कर रहा है साहित्य में?
इसलिए मसला किसी एक साहित्यिक संस्थान का नहीं है। सुधार का अगर कोई कदम उठना है तो आज ही उठना चाहिए, वरना स्थिति बद से बदतर होगी। संस्थानों को प्रतिनिधित्व संपन्न, पारदर्शी, बहुजातीय, विविधापूर्ण बनाया जाए। जातीय वर्चस्व और एकाधिकार लोकतंत्र की आंख की किरकिरी है। यह स्पष्ट देखने नहीं देती। यह असंतोष, कलह और अकर्मण्यता की जड़ है। अब हर हाल में यह आलम बदलना चाहिए।
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